Chha Dhala (Hindi). Gatha: 3: eshanA, AdAn nikShepan aur prathisthApan samiti,4: muniyoki teen gupti aur panch indriyo par vijay,5: muniyoke chhah Avashyak aur shesh sat moolgun,6: muniks shesh gun tathA rag-dweshka abhAv,7: muniyoke tap, dhram, vihar tathA swaroopAcharan chAritra,8: swaroopAcharan chAritra,9: swaroopAcharan chAritra (shuddhopayog)kA varan (Dhal 6),10: swaroopAcharan chAritra lakShan aur nirvikalp dhyAn (Dhal 6),11: swaroopAcharan chAritra aur arihat dashA (Dhal 6),12: siddhadashA (siddhaswaroop)kA varan (Dhal 6).

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आगेकी भूमि देखकर चलनेका विकल्प उठे वह (१) ईर्या समिति
है तथा जिसप्रकार चन्द्रसे अमृत झरता है; उसीप्रकार मुनिके
मुखचन्द्रसे जगतका हित करनेवाले, सर्व अहितका नाश करनेवाले,
सुननेमें सुखकर, सर्वप्रकारकी शंकाओंको दूर करनेवाले और
मिथ्यात्व (विपरीतता या सन्देह) रूपी रोगका नाश करनेवाले ऐसे
अमृतवचन निकलते हैं । इसप्रकार समितिरूप बोलनेका विकल्प
मुनिको उठता है वह (२) भाषा समिति है ।
–उपर्युक्त भावार्थमें आये हुए वाक्योंको बदलनेसे क्रमशः
परिग्रहत्याग-महाव्रत तथा ईर्या समिति और भाषा समितिका लक्षण
हो जायेगा ।
प्रश्न–सच्ची समिति किसे कहते हैं ?
उत्तर–पर जीवोंकी रक्षाके हेतु यत्नाचार प्रवृत्तिको अज्ञानी
जीव समिति मानते हैं; किन्तु हिंसाके परिणामोंसे तो पापबन्ध होता
है । यदि रक्षाके परिणामोंसे संवर कहोगे तो पुण्यबन्धका कारण
क्या सिद्घ होगा ?
तथा मुनि एषणा समितिमें दोषको टालते हैं; वहाँ रक्षाका
प्रयोजन नहीं है; इसलिये रक्षाके हेतु ही समिति नहीं है । तो फि र
समिति किसप्रकार होती है ? मुनिको किंचित् राग होने पर
गमनादि क्रियाएँ होती हैं, वहाँ उन क्रियाओंमें अति आसक्तिके
अभावसे प्रमादरूप प्रवृत्ति नहीं होती तथा दूसरे जीवोंको दुःखी
करके अपना गमनादि प्रयोजन सिद्ध नहीं करते; इसलिये उनसे
स्वयं दयाका पालन होता है– इसप्रकार सच्ची समिति है ।
(
मोक्षमार्ग-प्रकाशक (देहली) पृ. ३३५) ।।।।
ईर्या भाषा एषणा, पुनि क्षेपण आदान
प्रतिष्ठापना जुतक्रिया, पाँचों समिति विधान ।।

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एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति
छयालीस दोष विना सुकुल, श्रावकतनैं घर अशनको
लैं तप बढ़ावन हेतु, नहिं तन-पोषते तजि रसनको ।।
शुचि ज्ञान संयम उपकरण, लखिकैं गहैं, लखिकैं धरैं
निर्जन्तु थान विलोकि तन-मल मूत्र श्लेषम परिहरैं ।।।।
अन्वयार्थ :[वीतरागी मुनि ] (सुकुल) उत्तम
कुलवाले (श्रावकतनैं) श्रावकके घर और (रसनको) छहों रस
अथवा एक-दो रसोंको (तजि) छोड़कर (तन) शरीरको (नहिं

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पोषतैं) पुष्ट न करते हुए–मात्र (तप) तपकी (बढ़ावन हेतु) वृद्धि
करनेके हेतुसे [आहारके ] (छयालीस) छियालीस (दोष बिना)
दोषोंको दूर करके (अशनको) भोजनको (लैं) ग्रहण करते
हैं
।(शुचि) पवित्रताके (उपकरण) साधन कमण्डलको, (ज्ञान)
ज्ञानके (उपकरण) साधन शास्त्रको, तथा (संयम) संयमके
(उपकरण) साधन पींछीको (लखिकैं) देखकर (गहैं) ग्रहण करते
हैं [और ] (लखिकैं) देखकर (धरैं) रखते हैं [और ] (मूत्र) पेशाब
(श्लेष्म) श्लेष्म (तन-मल) शरीरके मैलको (निर्जन्तु) जीवरहित
(थान) स्थान (विलोकि) देखकर (परिहरैं) त्यागते हैं ।
भावार्थ :वीतरागी जैन मुनि-साधु उत्तम कुलवाले
श्रावकके घर, आहारके छियालीस दोषोंको टालकर तथा अमुक
रसोंका त्याग करके [अथवा स्वादका राग न करके ] शरीरको पुष्ट
करनेका अभिप्राय न रखकर, मात्र तपकी वृद्धि करनेके लिये
आहार ग्रहण करते हैं; इसलिये उनको (३) एषणासमिति होती
है । पवित्रताके साधन कमण्डलको, ज्ञानके साधन शास्त्रको और
संयमके साधन पींछीको–जीवोंकी विराधना बचानेके हेतु– देखभाल
कर रखते हैं तथा उठाते हैं; इसलिये उनको (४) आदान-निक्षेपण
समिति होती है । मल-मूत्र-कफ आदि शरीरके मैलको जीवरहित
आहारके दोषोंका विशेष वर्णन ‘‘अनगार धर्मामृत’’ तथा
‘‘मूलाचार’’ आदि शास्त्रोंमें देखें
उन दोषोंको टालनेके हेतु
दिगम्बर साधुओंको कभी महीनों तक भोजन न मिले; तथापि मुनि
किंचित् खेद नहीं करते; अनासक्त और निर्मोह– हठरहित सहज
होते हैं
[कायर मनुष्यों–अज्ञानियोंको ऐसा मुनिव्रत कष्टदायक
प्रतीत होता है, ज्ञानीको वह सुखमय लगता है ]

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स्थान देखकर त्यागते हैं; इसलिये उनको (५) व्युत्सर्ग अर्थात्
प्रतिष्ठापन समिति होती है
।।।।
मुनियोंकी तीन गुप्ति और पाँच इन्द्रियों पर विजय
सम्यक् प्रकार निरोध मन वच काय, आतम ध्यावते
तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण उपल खाज खुजावते ।।
रस रूप गंध तथा फरस अरु शब्द शुभ असुहावने
तिनमें न राग-विरोध पंचेन्द्रिय-जयन पद पावने ।।।।
अन्वयार्थ :[वीतरागी मुनि ] (मन वच काय) मन-
वचन-कायाका (सम्यक् प्रकार) भली-भाँति-बराबर (निरोध) निरोध
करके, जब (आतम) अपने आत्माका (ध्यावते) ध्यान करते हैं,
तब (तिन) उन मुनियोंकी (सुथिर) सुथिर-शांत (मुद्रा) मुद्रा
(देखि) देखकर, उन्हें (उपल) पत्थर समझकर (मृगगण) हिरन
अथवा चौपाये प्राणियोंके समूह (खाज) अपनी खाज-खुजलीको
(खुजावते) खुजाते हैं । [जो ] (शुभ) प्रिय और (असुहावने) अप्रिय
[पाँच इन्द्रियों सम्बन्धी ] (रस) पाँच रस, (रूप) पाँच वर्ण, (गंध)
दो गंध, (फ रस) आठ प्रकारके स्पर्श, (अरु) और (शब्द)

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शब्द–(तिनमें) उन सबमें (राग-विरोध) राग या द्वेष (न) मुनिको
नहीं होते, [इसलिये वे मुनि ] (पंचेन्द्रिय जयन) पाँच इन्द्रियोंको
जीतनेवाला अर्थात् जितेन्द्रिय (पद) पद (पावने) प्राप्त करते हैं ।
भावार्थ :इस गाथामें निश्चय गुप्तिका तथा भावलिंगी
मुनिके अट्ठाईस मूलगुणोंमें पाँच इन्द्रियोंकी विजयके स्वरूपका
वर्णन करते हैं ।
भावलिंगी मुनि जब उग्र पुरुषार्थ द्वारा शुद्धोपयोगरूप
परिणमित होकर निर्विकल्प रूपमें स्वरूपमें गुप्त होते हैं–वह निश्चय
गुप्ति है । उस समय मन-वचन-कायकी क्रिया स्वयं रुक जाती है ।
उनकी शांत और अचल मुद्रा देखकर, उनके शरीरको पत्थर
समझकर मृगोंके
झुण्ड (पशु) खाज (खुजली) खुजाते हैं, तथापि
वे मुनि अपने ध्यानमें निश्चल रहते हैं । उन भावलिंगी मुनियोंको
तीन गुप्तियाँ हैं ।
प्रश्न–गुप्ति किसे कहते हैं?
उत्तर–मन-वचन-कायाकी बाह्य चेष्टा मिटाना चाहे, पापका
चिंतवन न करे मौन धारण करे, तथा गमनादि न करे, उसे अज्ञानी
जीव गुप्ति मानते हैं । उस समय मनमें तो भक्ति आदि रूप अनेक
प्रकारके शुभरागादि विकल्प उठते हैं; इसलिये प्रवृत्तिमें तो गुप्तिपना
इस सम्बन्धमें सुकुमाल मुनिका दृष्टान्त–जब वे ध्यान में लीन थे,
उस समय एक सियालनी और उसके दो बच्चे उनका आधा पैर
खा गये थे; किन्तु वे अपने ध्यानसे किंचित् चलायमान नहीं हुए
(संयोगसे दुःख होता ही नहीं, शरीरादिमें ममत्व करे तो उस
ममत्वभावसे ही दुःखका अनुभव होता है–ऐसा समझना
)

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हो नहीं सकता । (सम्यग्दर्शन-ज्ञान और आत्मामें लीनता द्वारा)
वीतरागभाव होने पर जहाँ मन-वचन-कायाकी चेष्टा न हो वही
गुप्ति है ।
(मोक्षमार्ग-प्रकाशक पृ. २३५) ।
मुनि प्रिय (अनुकूल) पाँच इन्द्रियोंके पाँच रस, पाँच रूप,
दो गंध, आठ स्पर्श तथा शब्दरूप पाँच विषयोंमें राग नहीं करते
और अप्रिय (प्रतिकूल) ऊपर कहे हुए पाँच विषयोंमें द्वेष नहीं
करते । –इसप्रकार (५) पाँच इन्द्रियोंको जीतनेके कारण वे
जितेन्द्रिय कहलाते हैं
।।।।
मुनियोंके छह आवश्यक और शेष सात मूलगुण
समता सम्हारैं, थुति उचारैं, वन्दना जिनदेवको
नित करैं श्रुतिरति करैं प्रतिक्रम, तजैं तन अहमेवको ।।
जिनके न न्हौन, न दंतधोवन, लेश अम्बर-आवरन
भूमांहि पिछली रयनिमें कछु शयन एकासन करन ।।।।
अन्वयार्थ :[वीतरागी मुनि ] (नित) सदा (समता)

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सामायिक (सम्हारैं) सम्हालकर करते हैं, (थुति) स्तुति (उचारैं)
बोलते हैं । (जिनदेवको) जिनेन्द्र भगवानकी (वन्दना) वन्दना करते
हैं । (श्रुतिरति) स्वाध्यायमें प्रेम (करैं) करते हैं, (प्रतिक्रम)
प्रतिक्रमण (करैं) करते हैं, (तन) शरीरकी (अहमेवको) ममताको
(तजैं) छोड़ते हैं । (जिनके) जिन मुनियोंको (न्हौन) स्नान और
(दंतधोवन) दाँतोंको स्वच्छ करना (न) नहीं होता, (अंबर
आवरन) शरीर ढँकनेके लिये वस्त्र (लेश) किंचित् भी उनके (न)
नहीं होता और (पिछली रयनिमें) रात्रिके पिछले भागमें (भूमाहिं)
धरती पर (एकासन) एक करवट (कछु) कुछ समय तक (शयन)
शयन (करन) करते हैं ।
भावार्थ :वीतरागी मुनि सदा (१) सामायिक, (२) सच्चे
देव-गुरु-शास्त्रकी स्तुति, (३) जिनेन्द्र भगवानकी वन्दना, (४)
स्वाध्याय, (५) प्रतिक्रमण, (६) कायोत्सर्ग (शरीरके प्रति ममताका
त्याग) करते हैं; इसलिये उनको छह आवश्यक होते हैं और वे
मुनि कभी भी (१) स्नान नहीं करते, (२) दाँतोंकी सफाई नहीं
करते, (३) शरीरको ढँकनेके लिये थोड़ा-सा भी वस्त्र नहीं रखते
तथा (४) रात्रिके पिछले भागमें एक करवटसे भूमि पर कुछ समय
शयन करते हैं
।।।।
मुनियोंके शेष गुण तथा राग-द्वेषका अभाव
इक बार दिनमें लें अहार, खड़े अलप निज-पानमें
कचलोंच करत, न डरत परिषह सौं, लगे निज ध्यानमें ।।
अरि मित्र, महल मसान, कञ्चन काँच, निन्दन थुतिकरन
अर्घावतारन असि-प्रहारनमें सदा समताधरन ।।।।

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अन्वयार्थ :[वे वीतरागी मुनि ] (दिनमें) दिनमें (इक
बार) एक बार (खड़े) खड़े रहकर और (निज-पानमें) अपने
हाथमें रखकर (अल्प) थोड़ा-सा (अहार) आहार (लें) लेते हैं;
(कचलोंच) केशलोंच (करत) करते हैं, (निज ध्यानमें) अपने
आत्माके ध्यानमें (लगे) तत्पर होकर (परिषह सौं) बाईस प्रकारके
परिषहोंसे (न डरत) नहीं डरते और (अरि मित्र) शत्रु या मित्र,
(महल मसान) महल या स्मशान, (कंचन काँच) सोना या काँच
(निन्दन थुति करन) निन्दा या स्तुति करनेवाले, (अर्घावतारन)
पूजा करनेवाले और (असि-प्रहारन) तलवारसे प्रहार करनेवाले
उन सबमें (सदा) सदा (समता) समताभाव (धरन) धारण करते
हैं ।

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भावार्थ :[वे वीतरागी मुनि ] (५) दिनमें एकबार
(६) खड़े-खड़े अपने हाथमें रखकर थोड़ा आहार लेते हैं;
(७) केशका लोंच करते हैं; आत्मध्यानमें मग्न रहकर परिषहोंसे
नहीं डरते अर्थात् बाईस प्रकारके परिषहों पर विजय प्राप्त करते
हैं तथा शत्रु-मित्र, महल-स्मशान, सुवर्ण-काँच, निन्दक और
स्तुति करनेवाले, पूजा-भक्ति करनेवाले या तलवार आदिसे प्रहार
करनेवाले इन सबमें समभाव (राग-द्वेषका अभाव) रखते हैं अर्थात्
किसी पर राग-द्वेष नहीं करते ।
प्रश्न :–सच्चा परिषह-जय किसे कहते हैं?
उत्तर :–क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, डाँस-मच्छर, चर्या,
शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल, नग्नता, अरति, स्त्री, निषद्या,
आक्रोश, याचना, सत्कार-पुरस्कार अलाभ, अदर्शन, प्रज्ञा और
अज्ञान–ये बाईस प्रकारके परिषह हैं । भावलिंगी मुनिको प्रतिसमय
तीन कषायका (अनन्तानुबन्धी आदिका) अभाव होनेसे स्वरूपमें
सावधानीके कारण जितने अंशमें राग-द्वेषकी उत्पत्ति नहीं होती,
उतने अंशमें उनका निरन्तर परिषह-जय होता है । क्षुधादिक लगने
पर उसके नाशका उपाय न करना उसे (अज्ञानी जीव) परिषह-
सहन करते हैं । वहाँ उपाय तो नहीं किया; किन्तु अंतरंगमें क्षुधादि
अनिष्ट सामग्री मिलनेसे दुःखी हुआ तथा रति आदिका कारण
मिलनेसे सुखी हुआ–किन्तु वे तो दुःख-सुखरूप परिणाम हैं और
वही आर्त-रौद्रध्यान है; ऐसे भावोंसे संवर किसप्रकार हो सकता
है ?
प्रश्न :–तो फि र परिषहजय किसप्रकार होता है ?
उत्तर :–तत्त्वज्ञानके अभ्याससे कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट

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भासित न हो; दुःखके कारण मिलनेसे दुःखी न हो तथा सुखके
कारण मिलनेसे सुखी न हो; किन्तु ज्ञेयरूपसे उसका ज्ञाता ही
रहे –वही सच्चा परिषहजय है । (मोक्षमार्गप्रकाशक पृ. ३३६)
।।।।
मुनियोंके तप, धर्म, विहार तथा स्वरूपाचरणचारित्र
तप तपैं द्वादश, धरैं वृष दश, रतनत्रय सेवैं सदा
मुनि साथमें वा एक विचरैं, चहैं नहिं भवसुख कदा ।।
यों है सकलसंयम चरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब
जिस होत प्रगटै आपनी निधि, मिटै परकी प्रवृत्ति सब ।।।।
अन्वयार्थ :[वे वीतरागी मुनि सदा ] (द्वादश) बारह
प्रकारके (तप तपैं) तप करते हैं; (दश) दस प्रकारके (वृष)
धर्मको (धरैं) धारण करते हैं और (रतनत्रय) सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्रका (सदा) सदा (सेवैं) सेवन करते
हैं । (मुनि साथमें) मुनियोंके संघमें (वा) अथवा (एक) अकेले
(विचरैं) विचरते हैं और (कदा) किसी भी समय (भवसुख)
सांसारिक सुखोंकी (नहिं चहैं) इच्छा नहीं करते । (यों) इसप्रकार
(सकल संयम चरित) सकल संयम चारित्र (है) है; (अब) अब
(स्वरूपाचरण) स्वरूपाचरण चारित्र सुनो । (जिस) जो
स्वरूपाचरण चारित्र [स्वरूपमें रमणतारूप चारित्र ] (होत) प्रगट
होनेसे (आपनी) अपने आत्माकी (निधि) ज्ञानादिक सम्पत्ति
(प्रगटै) प्रगट होती है तथा (परकी) परवस्तुओंकी ओरकी (सब)
सर्व प्रकारकी (प्रवृत्ति) प्रवृत्ति (मिटै) मिट जाती है ।
भावार्थ :(१) भावलिंगी मुनिका शुद्धात्मस्वरूपमें लीन
रहकर प्रतपना-प्रतापवन्त वर्तना सो तप है तथा हठरहित बारह

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प्रकारके तपके शुभ विकल्प होते हैं–वह व्यवहार तप है ।
वीतरागभावरूप उत्तमक्षमादि परिणाम सो धर्म है । भावलिंगी
मुनिको उपर्युक्तानुसार तप और धर्मका आचरण होता है; वे
मुनियोंके संघमें अथवा अकेले विहार करते हैं; किसी भी समय
सांसारिक सुखकी इच्छा नहीं करते । –इस प्रकार सकलचारित्रका
स्वरूप कहा ।
(२) अज्ञानी जीव अनशनादि तपसे निर्जरा मानते हैं; किन्तु
मात्र बाह्य तप करनेसे तो निर्जरा होती नहीं है । शुद्धोपयोग
निर्जराका कारण है, इसलिये उपचारसे तपको भी निर्जराका
कारण कहा है । यदि बाह्य दुःख सहन करना ही निर्जराका कारण
हो, तब तो पशु आदि भी क्षुधा-तृषा सहन करते हैं ।
प्रश्न :–वे तो पराधीनतापूर्वक सहन करते हैं । जो
स्वाधीनरूपसे धर्मबुद्धिपूर्वक उपवासादि तप करे उसे तो निर्जरा
होती है ना ?
उत्तर :– धर्मबुद्धिसे बाह्य उपवासादि करे तो वहाँ उपयोग
तो अशुभ, शुभ या शुद्धरूप–जिसप्रकार जीव परिणमे–परिणमित
होगा; उपवासके प्रमाणमें यदि निर्जरा हो तो निर्जराका मुख्य
कारण उपवासादि सिद्ध हों; किन्तु ऐसा तो हो नहीं सकता;
क्योंकि परिणाम दुष्ट होने पर उपवासादि करनेसे भी, निर्जरा कैसे
सम्भव हो सकती है? यहाँ यदि ऐसा कहोगे कि–जैसे अशुभ, शुभ
या शुद्धरूप उपयोग परिणमित हो, तदनुसार बन्ध-निर्जरा हैं, तो
उपवासादि तप निर्जराका मुख्य कारण कहाँ रहा ?–वहाँ अशुभ
और शुभ परिणाम तो बन्धके कारण सिद्ध हुए तथा शुद्ध परिणाम
निर्जराका कारण सिद्ध हुआ ।

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प्रश्न :–यदि ऐसा है तो, अनशनादिको तपकी संज्ञा किस
प्रकार कही गई ?
उत्तर :–उन्हें बाह्य-तप कहा है; बाह्यका अर्थ यह है
कि–बाह्यमें दूसरोंको दिखाई दे कि यह तपस्वी है; किन्तु स्वयं
तो जैसे अंतरंग-परिणाम होंगे, वैसा ही फल प्राप्त करेगा ।
(३) तथा अन्तरंग तपोंमें भी प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य,
स्वाध्याय, त्याग और ध्यानरूप क्रियामें बाह्य प्रवर्तन है, वह तो
बाह्य-तप जैसा ही जानना; जैसी बाह्य-क्रिया है; उसीप्रकार यह
भी बाह्य-क्रिया है; इसलिये प्रायश्चित आदि बाह्य-साधन भी
अन्तरंग तप नहीं हैं ।
परन्तु ऐसा बाह्य प्रवर्तन होने पर जो अन्तरंग परिणामोंकी
शुद्धता हो, उसका नाम अन्तरंग तप जानना; और वहाँ तो निर्जरा
ही है, वहाँ बन्ध नहीं होता तथा उस शुद्धताका अल्पांश भी रहे
तो जितनी शुद्धता हुई उससे तो निर्जरा है, तथा जितना शुभभाव
है उनसे बन्ध है । इसप्रकार अनशनादि क्रियाको उपचारसे
तपसंज्ञा दी गई है– ऐसा जानना और इसलिये उसे व्यवहारतप
कहा है । व्यवहार और उपचारका एक ही अर्थ है ।
अधिक क्या कहें ? इतना समझ लेना कि –निश्चयधर्म तो
वीतरागभाव है तथा अन्य अनेक प्रकारके भेद निमित्तकी अपेक्षासे
उपचारसे कहे हैं; उन्हें व्यवहारमात्र धर्मसंज्ञा जानना । इस
रहस्यको (अज्ञानी) नहीं जानता; इसलिये उसे निर्जराका-तपका-
भी सच्चा श्रद्धान नहीं है ।
(मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २३३, टोडरमल स्मारक
ग्रन्थमालासे प्रकाशित)

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प्रश्न :–क्रोधादिका त्याग और उत्तम क्षमादि धर्म कब होता
है ?
उत्तर :–बन्धादिके भये अथवा स्वर्ग-मोक्षकी इच्छासे
(अज्ञानी जीव) क्रोधादिक नहीं करता; किन्तु वहाँ क्रोध-मानादि
करनेका अभिप्राय तो गया नहीं है । जिसप्रकार कोई राजादिके
भयसे अथवा बड़प्पन-प्रतिष्ठाके लोभसे परस्त्रीसेवन नहीं करता तो
उसे त्यागी नहीं कहा जा सकता; उसीप्रकार यह भी क्रोधादिका
त्यागी नहीं है । तो फि र किस प्रकार त्यागी होता है ?–कि पदार्थ
इष्ट-अनिष्ट भासित होने पर क्रोधादि होते हैं; किन्तु जब तत्त्वज्ञानके
अभ्याससे कोई इष्ट-अनिष्ट भासित न हो, तब स्वयं क्रोधादिककी
उत्पत्ति नहीं होती और तभी सच्चे क्षमादि धर्म होते हैं ।
(मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २२९ टोडरमल स्मारक
ग्रन्थमालासे प्रकाशित)
(४) अब, आठवीं गाथामें स्वरूपाचरणचारित्रका वर्णन
करेंगे, उसे सुनो–कि जिसके प्रगट होनेसे आत्माकी अनन्तज्ञान,
अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य आदि शक्तियोंका पूर्ण
विकास होता है और परपदार्थके ओरकी सर्वप्रकारकी प्रवृत्ति दूर
होती है–वह स्वरूपाचरणचारित्र है
।।।।
स्वरूपाचरणचारित्र (शुद्धोपयोग)का वर्णन
जिन परम पैनी सुबुधि छैनी, डारि अन्तर भेदिया
वरणादि अरु रागादितैं निज भावको न्यारा किया ।।
निजमांहि निजके हेतु निजकर, आपको आपै गह्यो
गुण-गुणी, ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय, मँझार कछु भेद न रह्यो ।।।।

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अन्वयार्थ :(जिन) जो वीतरागी मुनिराज (परम)
अत्यंत (पैनी) तीक्ष्ण (सुबुधि) सम्यग्ज्ञान अर्थात् भेदविज्ञानरूपी
(छैनी) छैनी
(डारि) पटककर (अन्तर) अन्तरंगमें (भेदिया) भेद
करके (निजभावको) आत्माके वास्तविक स्वरूपको (वरणादि)
वर्ण, रस, गंध, तथा स्पर्शरूप द्रव्यकर्मसे (अरु) और (रागादितैं)
राग-द्वेषादिरूप भावकर्मसे (न्यारा किया) भिन्न करके (निजमांहिं)
अपने आत्मामें (निजके हेतु) अपने लिये (निजकर) अपने द्वारा
(आपको) आत्माको (आपै) स्वयं अपनेसे (गह्यो) ग्रहण करते हैं,
तब (गुण) गुण, (गुणी) गुणी, (ज्ञाता) ज्ञाता, (ज्ञेय) ज्ञानका
विषय और (ज्ञान मँझार) ज्ञानमें–आत्मामें (कछु भेद न रह्यो)
किंचित्मात्र भेद [विकल्प ] नहीं रहता ।
भावार्थ :जब स्वरूपाचरणचारित्रका आचरण करते
समय वीतरागी मुनि–जिसप्रकार कोई पुरुष तीक्ष्ण छैनी द्वारा
पत्थर आदिके दो भाग पृथक्-पृथक् कर देता है;
जिसप्रकार छैनी लोहेको काटकर दो टुकड़े कर देती है;
उसीप्रकार शुद्धोपयोग कर्मोंको काटता है और आत्मासे उन
कर्मोंको पृथक् कर देता है

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उसीप्रकार–अपने अन्तरंगमें भेदविज्ञानरूपी छैनी द्वारा अपने
आत्माके स्वरूपको द्रव्यकर्मसे तथा शरीरादिक नोकर्मसे और राग-
द्वेषादिरूप भावकर्मोंसे भिन्न करके अपने आत्मामें, आत्माके लिये,
आत्माको स्वयं जानते हैं, तब उनके स्वानुभवमें गुण, गुणी तथा
ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय–ऐसे कोई भेद नहीं रहते
।।।।
स्वरूपाचरणचारित्र (शुद्धोपयोग)का वर्णन
जहँ ध्यान-ध्याता ध्येयको न विकल्प, वच-भेद न जहाँ
चिद्भाव कर्म, चिदेश करता, चेतना किरिया तहाँ ।।
तीनों अभिन्न अखिन्न शुध-उपयोगकी निश्चल दशा
प्रगटी जहाँ दृग-ज्ञान-व्रत ये, तीनधा एकै लसा ।।।।
अन्वयार्थ :(जहँ) जिस स्वरूपाचरणचारित्रमें
(ध्यान) ध्यान, (ध्याता) ध्याता और (ध्येयको) ध्येय –इन तीनोंके
(विकल्प) भेद (न) नहीं होते तथा (जहाँ) जहाँ (वच) वचनका
(भेद न) विकल्प नहीं होता, (तहाँ) वहाँ तो (चिद्भाव) आत्माका
स्वभाव ही (कर्म) कर्म, (चिदेश) आत्मा ही (करता) कर्ता,

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(चेतना) चैतन्यस्वरूप आत्मा ही (किरिया) क्रिया होता है– अर्थात्
कर्ता, कर्म और क्रिया–ये तीनों (अभिन्न) भेदरहित-एक, (अखिन्न)
अखण्ड [बाधारहित ] हो जाते हैं और (शुध उपयोगकी) शुद्ध
उपयोगकी (निश्चल) निश्चल (दशा) पर्याय (प्रगटी) प्रगट होती है;
(जहाँ) जिसमें (दृग-ज्ञान-व्रत) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और
सम्यक्चारित्र (ये तीनधा) यह तीनों (एकै) एकरूप-अभेदरूपसे
(लसा) शोभायमान होते हैं ।
भावार्थ :वीतरागी मुनिराज स्वरूपाचरणके समय जब
आत्मध्यानमें लीन हो जाते हैं, तब ध्यान, ध्याता और ध्येय–ऐसे
भेद नहीं रहते; वचनका विकल्प नहीं होता; वहाँ (आत्मध्यानमें)
तो आत्मा ही
कर्म, आत्मा ही कर्ता और आत्माका भाव वह क्रिया
होती है अर्थात् कर्ता-कर्म और क्रिया–ये तीनों बिलकुल अखण्ड,
अभिन्न हो जाते हैं और शुद्धोपयोगकी अचल दशा प्रगट होती है,
जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र एक साथ-
एकरूप होकर प्रकाशमान होते हैं
।।।।
स्वरूपाचरणचारित्रका लक्षण और निर्विकल्प ध्यान
परमाणनयनिक्षेपकौ न उद्योत अनुभवमें दिखै
दृग-ज्ञान-सुख-बलमय सदा, नहिं आन भाव जु मो विखै ।।
मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनितैं
चित् पिंड चंड अखंड सुगुणकरंड च्युत पुनि कलनितैं ।।१०।।
अन्वयार्थ :[उस स्वरूपाचरणचारित्रके समय
कर्म = कर्त्ता द्वारा हुआ कार्य; कर्त्ता = स्वतंत्ररूपसे करे सो कर्त्ता;
क्रिया = कर्त्ता द्वारा होनेवाली प्रवृत्ति

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मुनियोंके ] (अनुभवमें) आत्मानुभवमें (परमाण) प्रमाण, (नय) नय
और (निक्षेपको) निक्षेपका विकल्प (उद्योत) प्रगट (न दिखै)
दिखाई नहीं देता, [परन्तु ऐसा विचार होता है कि– ] (मैं) मैं
(सदा) सदा (दृग-ज्ञान-सुख-बलमय) अनन्तदर्शन-अनन्तज्ञान-
अनन्तसुख और अनन्तवीर्यमय हूँ । (मो विखै) मेरे स्वरूपमें (आन)
अन्य राग-द्वेषादि (भाव) भाव (नहिं) नहीं हैं, (मैं) मैं (साध्य)
साध्य, (साधक) साधक तथा (कर्म) कर्म (अरु) और (तसु)
उसके (फलनितैं) फलोंके (अबाधक) विकल्परहित (चित् पिंड)
ज्ञान-दर्शन-चेतनास्वरूप (चण्ड) निर्मल तथा ऐश्वर्यवान (अखंड)
अखंड (सुगुण करंड) सुगुणोंका भंडार (पुनि) और (कलनितैं)
अशुद्धतासे (च्युत) रहित हूँ ।
भावार्थ :इस स्वरूपाचरणचारित्रके समय मुनियोंके
आत्मानुभवमें प्रमाण, नय और निक्षेपका विकल्प तो नहीं उठता;
किन्तु गुण-गुणीका भेद भी नहीं होता–ऐसा ध्यान होता है । प्रथम
ऐसा ध्यान होता है कि मैं अनन्तदर्शन-अनन्तज्ञान-अनन्तसुख और
अनन्तवीर्यरूप हूँ, मुझमें कोई रागादिक भाव नहीं हैं; मैं ही साध्य

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हूँ, मैं ही साधक हूँ और कर्म तथा कर्मफलसे पृथक् हूँ । मैं ज्ञान-
दर्शन-चेतनास्वरूप निर्मल ऐश्वर्यवान तथा अखण्ड, सहज शुद्ध
गुणोंका भण्डार और पुण्य-पापसे रहित हूँ ।
तात्पर्य यह है कि सर्वप्रकारके विकल्पोंसे रहित निर्विकल्प
आत्मस्थिरताको स्वरूपाचरणचारित्र कहते हैं ।।१०।।
स्वरूपाचरणचारित्र और अरिहन्तदशा
यों चिन्त्य निजमें थिर भये, तिन अकथ जो आनंद लह्यो
सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अहमिन्द्रकैं नाहीं कह्यो ।।
तब ही शुक्ल ध्यानाग्नि करि, चउघाति विधि-कानन दह्यो
सब लख्यो केवलज्ञान करि, भविलोकको शिवमग कह्यो ।।११।।
अन्वयार्थ :[स्वरूपाचरणचारित्रमें ] (यों) इस प्रकार
(चिन्त्य) चिंतवन करके (निजमें) आत्मस्वरूपमें (थिर भये) लीन
होने पर (तिन) उन मुनियोंको (जो) जो (अकथ) कहा न जा
सके ऐसा
वचनसे पार–(आनन्द) आनन्द (लह्यो) होता है (सो)
वह आनन्द (इन्द्र) इन्द्रको, (नाग) नागेन्द्रको, (नरेन्द्र)

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चक्रवर्तीको (वा अहमिन्द्रको) या अहमिन्द्रको (नहीं कह्यो) कहनेमें
नहीं आया–नहीं होता । (तब ही) वह स्वरूपाचरणचारित्र प्रगट
होनेके पश्चात् जब (शुक्ल ध्यानाग्नि करि) शुक्लध्यानरूपी अग्नि
द्वारा (चउघाति विधि कानन) चार घातिकर्मोंरूपी वन (दह्यो) जल
जाता है और (केवलज्ञानकरि) केवलज्ञानसे (सब) तीनकाल और
तीनलोकमें होनेवाले समस्त पदार्थोंके सर्वगुण तथा पर्यायोंको
(लख्यो) प्रत्यक्ष जान लेते हैं, तब (भविलोकको) भव्य जीवोंको
(शिवमग) मोक्षमार्ग (कह्यो) बतलाते हैं ।
भावार्थ :इस स्वरूपाचरणचारित्रके समय मुनिराज जब
उपर्युक्तानुसार चिंतवन-विचार करके आत्मामें लीन हो जाते हैं,
तब उन्हें जो आनन्द होता है, वैसा आनन्द इन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र
(चक्रवर्ती) या अहमिन्द्र (कल्पातीत देव)को भी नहीं होता । यह
स्वरूपाचरणचारित्र प्रगट होनेके पश्चात् स्वद्रव्यमें उग्र

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एकाग्रतासे–शुक्लध्यानरूप अग्नि द्वारा–चार घातिकर्मोंका नाश
होता है और अरिहन्त दशा तथा केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है,
जिसमें तीन काल और तीन लोकके समस्त पदार्थ स्पष्ट ज्ञात होते
हैं और तब भव्य जीवोंको मोक्षमार्गका उपदेश देते हैं
।।११।।
सिद्धदशाका (सिद्धस्वरूप)का वर्णन
पुनि घाति शेष अघाति विधि, छिनमांहिं अष्टम भू वसैं
वसु कर्म विनसैं सुगुण वसु, सम्यक्त्व आदिक सब लसैं ।।
संसार खार अपार पारावार तरि तीरहिं गये
अविकार अकल अरूप शुचि, चिद्रूप अविनाशी भये ।।१२।।
घातिकर्म दो प्रकारके हैं–द्रव्य-घातिकर्म और भाव-घातिकर्म ।
उनमें शुक्लध्यान द्वारा शुद्ध दशा प्रगट होने पर भाव-घातिकर्मरूप
अशुद्ध पर्यायें उत्पन्न नहीं होतीं वह भावघातिकर्मका नाश है, तथा
उसीप्रकार द्रव्य-घातिकर्मका स्वयं अभाव होता है, वह द्रव्य-
घातिकर्मका नाश है
अन्वयार्थ :(पुनि) केवलज्ञान प्राप्त करनेके पश्चात्