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है तथा जिसप्रकार चन्द्रसे अमृत झरता है; उसीप्रकार मुनिके
मुखचन्द्रसे जगतका हित करनेवाले, सर्व अहितका नाश करनेवाले,
सुननेमें सुखकर, सर्वप्रकारकी शंकाओंको दूर करनेवाले और
मिथ्यात्व (विपरीतता या सन्देह) रूपी रोगका नाश करनेवाले ऐसे
अमृतवचन निकलते हैं । इसप्रकार समितिरूप बोलनेका विकल्प
मुनिको उठता है वह (२) भाषा समिति है ।
हो जायेगा ।
उत्तर–पर जीवोंकी रक्षाके हेतु यत्नाचार प्रवृत्तिको अज्ञानी
है । यदि रक्षाके परिणामोंसे संवर कहोगे तो पुण्यबन्धका कारण
क्या सिद्घ होगा ?
समिति किसप्रकार होती है ? मुनिको किंचित् राग होने पर
गमनादि क्रियाएँ होती हैं, वहाँ उन क्रियाओंमें अति आसक्तिके
अभावसे प्रमादरूप प्रवृत्ति नहीं होती तथा दूसरे जीवोंको दुःखी
करके अपना गमनादि प्रयोजन सिद्ध नहीं करते; इसलिये उनसे
स्वयं दयाका पालन होता है– इसप्रकार सच्ची समिति है ।
(
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अथवा एक-दो रसोंको (तजि) छोड़कर (तन) शरीरको (नहिं
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करनेके हेतुसे [आहारके ] (छयालीस) छियालीस (दोष बिना)
दोषोंको दूर करके (अशनको) भोजनको (लैं) ग्रहण करते
हैं
(उपकरण) साधन पींछीको (लखिकैं) देखकर (गहैं) ग्रहण करते
हैं [और ] (लखिकैं) देखकर (धरैं) रखते हैं [और ] (मूत्र) पेशाब
(श्लेष्म) श्लेष्म (तन-मल) शरीरके मैलको (निर्जन्तु) जीवरहित
(थान) स्थान (विलोकि) देखकर (परिहरैं) त्यागते हैं ।
रसोंका त्याग करके [अथवा स्वादका राग न करके ] शरीरको पुष्ट
करनेका अभिप्राय न रखकर, मात्र तपकी वृद्धि करनेके लिये
आहार ग्रहण करते हैं; इसलिये उनको (३) एषणासमिति होती
है । पवित्रताके साधन कमण्डलको, ज्ञानके साधन शास्त्रको और
संयमके साधन पींछीको–जीवोंकी विराधना बचानेके हेतु– देखभाल
कर रखते हैं तथा उठाते हैं; इसलिये उनको (४) आदान-निक्षेपण
समिति होती है । मल-मूत्र-कफ आदि शरीरके मैलको जीवरहित
‘‘मूलाचार’’ आदि शास्त्रोंमें देखें
किंचित् खेद नहीं करते; अनासक्त और निर्मोह– हठरहित सहज
होते हैं
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प्रतिष्ठापन समिति होती है
करके, जब (आतम) अपने आत्माका (ध्यावते) ध्यान करते हैं,
तब (तिन) उन मुनियोंकी (सुथिर) सुथिर-शांत (मुद्रा) मुद्रा
(देखि) देखकर, उन्हें (उपल) पत्थर समझकर (मृगगण) हिरन
अथवा चौपाये प्राणियोंके समूह (खाज) अपनी खाज-खुजलीको
(खुजावते) खुजाते हैं । [जो ] (शुभ) प्रिय और (असुहावने) अप्रिय
[पाँच इन्द्रियों सम्बन्धी ] (रस) पाँच रस, (रूप) पाँच वर्ण, (गंध)
दो गंध, (फ रस) आठ प्रकारके स्पर्श, (अरु) और (शब्द)
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नहीं होते, [इसलिये वे मुनि ] (पंचेन्द्रिय जयन) पाँच इन्द्रियोंको
जीतनेवाला अर्थात् जितेन्द्रिय (पद) पद (पावने) प्राप्त करते हैं ।
वर्णन करते हैं ।
गुप्ति है । उस समय मन-वचन-कायकी क्रिया स्वयं रुक जाती है ।
उनकी शांत और अचल मुद्रा देखकर, उनके शरीरको पत्थर
समझकर मृगोंके
तीन गुप्तियाँ हैं ।
उत्तर–मन-वचन-कायाकी बाह्य चेष्टा मिटाना चाहे, पापका
जीव गुप्ति मानते हैं । उस समय मनमें तो भक्ति आदि रूप अनेक
प्रकारके शुभरागादि विकल्प उठते हैं; इसलिये प्रवृत्तिमें तो गुप्तिपना
उस समय एक सियालनी और उसके दो बच्चे उनका आधा पैर
खा गये थे; किन्तु वे अपने ध्यानसे किंचित् चलायमान नहीं हुए
ममत्वभावसे ही दुःखका अनुभव होता है–ऐसा समझना
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वीतरागभाव होने पर जहाँ मन-वचन-कायाकी चेष्टा न हो वही
गुप्ति है ।
और अप्रिय (प्रतिकूल) ऊपर कहे हुए पाँच विषयोंमें द्वेष नहीं
करते । –इसप्रकार (५) पाँच इन्द्रियोंको जीतनेके कारण वे
जितेन्द्रिय कहलाते हैं
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बोलते हैं । (जिनदेवको) जिनेन्द्र भगवानकी (वन्दना) वन्दना करते
हैं । (श्रुतिरति) स्वाध्यायमें प्रेम (करैं) करते हैं, (प्रतिक्रम)
प्रतिक्रमण (करैं) करते हैं, (तन) शरीरकी (अहमेवको) ममताको
(तजैं) छोड़ते हैं । (जिनके) जिन मुनियोंको (न्हौन) स्नान और
(दंतधोवन) दाँतोंको स्वच्छ करना (न) नहीं होता, (अंबर
आवरन) शरीर ढँकनेके लिये वस्त्र (लेश) किंचित् भी उनके (न)
नहीं होता और (पिछली रयनिमें) रात्रिके पिछले भागमें (भूमाहिं)
धरती पर (एकासन) एक करवट (कछु) कुछ समय तक (शयन)
शयन (करन) करते हैं ।
स्वाध्याय, (५) प्रतिक्रमण, (६) कायोत्सर्ग (शरीरके प्रति ममताका
त्याग) करते हैं; इसलिये उनको छह आवश्यक होते हैं और वे
मुनि कभी भी (१) स्नान नहीं करते, (२) दाँतोंकी सफाई नहीं
करते, (३) शरीरको ढँकनेके लिये थोड़ा-सा भी वस्त्र नहीं रखते
तथा (४) रात्रिके पिछले भागमें एक करवटसे भूमि पर कुछ समय
शयन करते हैं
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हाथमें रखकर (अल्प) थोड़ा-सा (अहार) आहार (लें) लेते हैं;
(कचलोंच) केशलोंच (करत) करते हैं, (निज ध्यानमें) अपने
आत्माके ध्यानमें (लगे) तत्पर होकर (परिषह सौं) बाईस प्रकारके
परिषहोंसे (न डरत) नहीं डरते और (अरि मित्र) शत्रु या मित्र,
(महल मसान) महल या स्मशान, (कंचन काँच) सोना या काँच
(निन्दन थुति करन) निन्दा या स्तुति करनेवाले, (अर्घावतारन)
पूजा करनेवाले और (असि-प्रहारन) तलवारसे प्रहार करनेवाले
उन सबमें (सदा) सदा (समता) समताभाव (धरन) धारण करते
हैं ।
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(७) केशका लोंच करते हैं; आत्मध्यानमें मग्न रहकर परिषहोंसे
नहीं डरते अर्थात् बाईस प्रकारके परिषहों पर विजय प्राप्त करते
हैं तथा शत्रु-मित्र, महल-स्मशान, सुवर्ण-काँच, निन्दक और
स्तुति करनेवाले, पूजा-भक्ति करनेवाले या तलवार आदिसे प्रहार
करनेवाले इन सबमें समभाव (राग-द्वेषका अभाव) रखते हैं अर्थात्
किसी पर राग-द्वेष नहीं करते ।
उत्तर :–क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, डाँस-मच्छर, चर्या,
आक्रोश, याचना, सत्कार-पुरस्कार अलाभ, अदर्शन, प्रज्ञा और
अज्ञान–ये बाईस प्रकारके परिषह हैं । भावलिंगी मुनिको प्रतिसमय
तीन कषायका (अनन्तानुबन्धी आदिका) अभाव होनेसे स्वरूपमें
सावधानीके कारण जितने अंशमें राग-द्वेषकी उत्पत्ति नहीं होती,
उतने अंशमें उनका निरन्तर परिषह-जय होता है । क्षुधादिक लगने
पर उसके नाशका उपाय न करना उसे (अज्ञानी जीव) परिषह-
सहन करते हैं । वहाँ उपाय तो नहीं किया; किन्तु अंतरंगमें क्षुधादि
अनिष्ट सामग्री मिलनेसे दुःखी हुआ तथा रति आदिका कारण
मिलनेसे सुखी हुआ–किन्तु वे तो दुःख-सुखरूप परिणाम हैं और
वही आर्त-रौद्रध्यान है; ऐसे भावोंसे संवर किसप्रकार हो सकता
है ?
उत्तर :–तत्त्वज्ञानके अभ्याससे कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट
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कारण मिलनेसे सुखी न हो; किन्तु ज्ञेयरूपसे उसका ज्ञाता ही
रहे –वही सच्चा परिषहजय है । (मोक्षमार्गप्रकाशक पृ. ३३६)
धर्मको (धरैं) धारण करते हैं और (रतनत्रय) सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्रका (सदा) सदा (सेवैं) सेवन करते
हैं । (मुनि साथमें) मुनियोंके संघमें (वा) अथवा (एक) अकेले
(विचरैं) विचरते हैं और (कदा) किसी भी समय (भवसुख)
सांसारिक सुखोंकी (नहिं चहैं) इच्छा नहीं करते । (यों) इसप्रकार
(सकल संयम चरित) सकल संयम चारित्र (है) है; (अब) अब
(स्वरूपाचरण) स्वरूपाचरण चारित्र सुनो । (जिस) जो
स्वरूपाचरण चारित्र [स्वरूपमें रमणतारूप चारित्र ] (होत) प्रगट
होनेसे (आपनी) अपने आत्माकी (निधि) ज्ञानादिक सम्पत्ति
(प्रगटै) प्रगट होती है तथा (परकी) परवस्तुओंकी ओरकी (सब)
सर्व प्रकारकी (प्रवृत्ति) प्रवृत्ति (मिटै) मिट जाती है ।
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वीतरागभावरूप उत्तमक्षमादि परिणाम सो धर्म है । भावलिंगी
मुनिको उपर्युक्तानुसार तप और धर्मका आचरण होता है; वे
मुनियोंके संघमें अथवा अकेले विहार करते हैं; किसी भी समय
सांसारिक सुखकी इच्छा नहीं करते । –इस प्रकार सकलचारित्रका
स्वरूप कहा ।
निर्जराका कारण है, इसलिये उपचारसे तपको भी निर्जराका
कारण कहा है । यदि बाह्य दुःख सहन करना ही निर्जराका कारण
हो, तब तो पशु आदि भी क्षुधा-तृषा सहन करते हैं ।
होती है ना ?
होगा; उपवासके प्रमाणमें यदि निर्जरा हो तो निर्जराका मुख्य
कारण उपवासादि सिद्ध हों; किन्तु ऐसा तो हो नहीं सकता;
क्योंकि परिणाम दुष्ट होने पर उपवासादि करनेसे भी, निर्जरा कैसे
सम्भव हो सकती है? यहाँ यदि ऐसा कहोगे कि–जैसे अशुभ, शुभ
या शुद्धरूप उपयोग परिणमित हो, तदनुसार बन्ध-निर्जरा हैं, तो
उपवासादि तप निर्जराका मुख्य कारण कहाँ रहा ?–वहाँ अशुभ
और शुभ परिणाम तो बन्धके कारण सिद्ध हुए तथा शुद्ध परिणाम
निर्जराका कारण सिद्ध हुआ ।
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तो जैसे अंतरंग-परिणाम होंगे, वैसा ही फल प्राप्त करेगा ।
बाह्य-तप जैसा ही जानना; जैसी बाह्य-क्रिया है; उसीप्रकार यह
भी बाह्य-क्रिया है; इसलिये प्रायश्चित आदि बाह्य-साधन भी
अन्तरंग तप नहीं हैं ।
ही है, वहाँ बन्ध नहीं होता तथा उस शुद्धताका अल्पांश भी रहे
तो जितनी शुद्धता हुई उससे तो निर्जरा है, तथा जितना शुभभाव
है उनसे बन्ध है । इसप्रकार अनशनादि क्रियाको उपचारसे
तपसंज्ञा दी गई है– ऐसा जानना और इसलिये उसे व्यवहारतप
कहा है । व्यवहार और उपचारका एक ही अर्थ है ।
उपचारसे कहे हैं; उन्हें व्यवहारमात्र धर्मसंज्ञा जानना । इस
रहस्यको (अज्ञानी) नहीं जानता; इसलिये उसे निर्जराका-तपका-
भी सच्चा श्रद्धान नहीं है ।
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करनेका अभिप्राय तो गया नहीं है । जिसप्रकार कोई राजादिके
भयसे अथवा बड़प्पन-प्रतिष्ठाके लोभसे परस्त्रीसेवन नहीं करता तो
उसे त्यागी नहीं कहा जा सकता; उसीप्रकार यह भी क्रोधादिका
त्यागी नहीं है । तो फि र किस प्रकार त्यागी होता है ?–कि पदार्थ
इष्ट-अनिष्ट भासित होने पर क्रोधादि होते हैं; किन्तु जब तत्त्वज्ञानके
अभ्याससे कोई इष्ट-अनिष्ट भासित न हो, तब स्वयं क्रोधादिककी
उत्पत्ति नहीं होती और तभी सच्चे क्षमादि धर्म होते हैं ।
अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य आदि शक्तियोंका पूर्ण
विकास होता है और परपदार्थके ओरकी सर्वप्रकारकी प्रवृत्ति दूर
होती है–वह स्वरूपाचरणचारित्र है
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(छैनी) छैनी
वर्ण, रस, गंध, तथा स्पर्शरूप द्रव्यकर्मसे (अरु) और (रागादितैं)
राग-द्वेषादिरूप भावकर्मसे (न्यारा किया) भिन्न करके (निजमांहिं)
अपने आत्मामें (निजके हेतु) अपने लिये (निजकर) अपने द्वारा
(आपको) आत्माको (आपै) स्वयं अपनेसे (गह्यो) ग्रहण करते हैं,
तब (गुण) गुण, (गुणी) गुणी, (ज्ञाता) ज्ञाता, (ज्ञेय) ज्ञानका
विषय और (ज्ञान मँझार) ज्ञानमें–आत्मामें (कछु भेद न रह्यो)
किंचित्मात्र भेद [विकल्प ] नहीं रहता ।
पत्थर आदिके दो भाग पृथक्-पृथक् कर देता है;
उसीप्रकार शुद्धोपयोग कर्मोंको काटता है और आत्मासे उन
कर्मोंको पृथक् कर देता है
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आत्माके स्वरूपको द्रव्यकर्मसे तथा शरीरादिक नोकर्मसे और राग-
द्वेषादिरूप भावकर्मोंसे भिन्न करके अपने आत्मामें, आत्माके लिये,
आत्माको स्वयं जानते हैं, तब उनके स्वानुभवमें गुण, गुणी तथा
ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय–ऐसे कोई भेद नहीं रहते
(विकल्प) भेद (न) नहीं होते तथा (जहाँ) जहाँ (वच) वचनका
(भेद न) विकल्प नहीं होता, (तहाँ) वहाँ तो (चिद्भाव) आत्माका
स्वभाव ही (कर्म) कर्म, (चिदेश) आत्मा ही (करता) कर्ता,
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कर्ता, कर्म और क्रिया–ये तीनों (अभिन्न) भेदरहित-एक, (अखिन्न)
अखण्ड [बाधारहित ] हो जाते हैं और (शुध उपयोगकी) शुद्ध
उपयोगकी (निश्चल) निश्चल (दशा) पर्याय (प्रगटी) प्रगट होती है;
(जहाँ) जिसमें (दृग-ज्ञान-व्रत) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और
सम्यक्चारित्र (ये तीनधा) यह तीनों (एकै) एकरूप-अभेदरूपसे
(लसा) शोभायमान होते हैं ।
भेद नहीं रहते; वचनका विकल्प नहीं होता; वहाँ (आत्मध्यानमें)
तो आत्मा ही
अभिन्न हो जाते हैं और शुद्धोपयोगकी अचल दशा प्रगट होती है,
जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र एक साथ-
एकरूप होकर प्रकाशमान होते हैं
क्रिया = कर्त्ता द्वारा होनेवाली प्रवृत्ति
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और (निक्षेपको) निक्षेपका विकल्प (उद्योत) प्रगट (न दिखै)
दिखाई नहीं देता, [परन्तु ऐसा विचार होता है कि– ] (मैं) मैं
(सदा) सदा (दृग-ज्ञान-सुख-बलमय) अनन्तदर्शन-अनन्तज्ञान-
अनन्तसुख और अनन्तवीर्यमय हूँ । (मो विखै) मेरे स्वरूपमें (आन)
अन्य राग-द्वेषादि (भाव) भाव (नहिं) नहीं हैं, (मैं) मैं (साध्य)
साध्य, (साधक) साधक तथा (कर्म) कर्म (अरु) और (तसु)
उसके (फलनितैं) फलोंके (अबाधक) विकल्परहित (चित् पिंड)
ज्ञान-दर्शन-चेतनास्वरूप (चण्ड) निर्मल तथा ऐश्वर्यवान (अखंड)
अखंड (सुगुण करंड) सुगुणोंका भंडार (पुनि) और (कलनितैं)
अशुद्धतासे (च्युत) रहित हूँ ।
किन्तु गुण-गुणीका भेद भी नहीं होता–ऐसा ध्यान होता है । प्रथम
ऐसा ध्यान होता है कि मैं अनन्तदर्शन-अनन्तज्ञान-अनन्तसुख और
अनन्तवीर्यरूप हूँ, मुझमें कोई रागादिक भाव नहीं हैं; मैं ही साध्य
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दर्शन-चेतनास्वरूप निर्मल ऐश्वर्यवान तथा अखण्ड, सहज शुद्ध
गुणोंका भण्डार और पुण्य-पापसे रहित हूँ ।
होने पर (तिन) उन मुनियोंको (जो) जो (अकथ) कहा न जा
सके ऐसा
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नहीं आया–नहीं होता । (तब ही) वह स्वरूपाचरणचारित्र प्रगट
होनेके पश्चात् जब (शुक्ल ध्यानाग्नि करि) शुक्लध्यानरूपी अग्नि
द्वारा (चउघाति विधि कानन) चार घातिकर्मोंरूपी वन (दह्यो) जल
जाता है और (केवलज्ञानकरि) केवलज्ञानसे (सब) तीनकाल और
तीनलोकमें होनेवाले समस्त पदार्थोंके सर्वगुण तथा पर्यायोंको
(लख्यो) प्रत्यक्ष जान लेते हैं, तब (भविलोकको) भव्य जीवोंको
(शिवमग) मोक्षमार्ग (कह्यो) बतलाते हैं ।
तब उन्हें जो आनन्द होता है, वैसा आनन्द इन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र
(चक्रवर्ती) या अहमिन्द्र (कल्पातीत देव)को भी नहीं होता । यह
स्वरूपाचरणचारित्र प्रगट होनेके पश्चात् स्वद्रव्यमें उग्र
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जिसमें तीन काल और तीन लोकके समस्त पदार्थ स्पष्ट ज्ञात होते
हैं और तब भव्य जीवोंको मोक्षमार्गका उपदेश देते हैं
उनमें शुक्लध्यान द्वारा शुद्ध दशा प्रगट होने पर भाव-घातिकर्मरूप
अशुद्ध पर्यायें उत्पन्न नहीं होतीं वह भावघातिकर्मका नाश है, तथा
उसीप्रकार द्रव्य-घातिकर्मका स्वयं अभाव होता है, वह द्रव्य-
घातिकर्मका नाश है