Chha Dhala (Hindi). Chha Dhala: ,; Introduction; Avrutti; Param Pujya Sadgurudev Shree Kanjiswami; Prakashkiy Nivedan (Pratham Avrutti); Prakashkiy nivedan (Pandrahavee Avrutti); Mool Granthkartaka Parichay; Bhoomika; Jivki anadikaleen saat bhule; Uprokt bhoolokA phal; Dharm prapt karaneka samay; Mithyatvaka maha pap; Vastuka swaroop; Samyakdrashtiki bhavana; Samyakcharitra tatha mahavrat; Drayarthik nayase nishchayka swaroop tatha usake ashray se honewalee shuddh paryay; Paryayarthiknayse nishchay aur vyavahar ka swaroop tatha vyavahar paryayka swaroop; Anya vishay; Pathakose nivedan; Vishay-suchi; Pahalee dhal vishay-suchi; Doosaree dhal vishay-suchi.

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भगवानश्रीकुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला पुष्प९५
अध्यात्मप्रेमी पण्डित कविवर श्री दौलतरामजी कृत
छहढाला
[सटीक]
(गुजराती अनुवादका हिन्दी अनुवाद)
:प्रकाशक :
श्री दिगम्बर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट
सोनगढ-३६४२५० (सौराष्ट्र)
-: अनुवादक :-
श्री मगनलाल जैन

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अब तककी कुल १४ आवृत्ति प्रत : ४२०००
पंद्रहवीं आवृत्तिप्रत : २०००वि. सं. २०६५
मुद्रक :
कहान मुद्रणालय
जैन विद्यार्थी गृह कम्पाउण्ड,
सोनगढ-३६४२५० : (02846) 244081
मूल्य : रु. १०=००
छहढाला(हिन्दी)के
स्थायी प्रकाशन पुरस्कर्ता
श्री ज्ञानेश रसिकलाल शाह मेमोरियल ट्रस्ट, सुरेन्द्रनगर
हस्ते श्री रसिकलाल जगजीवनदास शाहपरिवार
श्रीमती पुष्पाबेन, कमलेश, अजय, ज्योत्सना तथा कविता
यह शास्त्रका लागत मूल्य रु. २३=७० है। अनेक
मुमुक्षुओंकी आर्थिक सहायतासे इस आवृत्तिकी किंमत
रु. २०=०० होती है। तथा श्री कुंदकुंद-कहान पारमार्थिक
ट्रस्ट हस्ते स्व. शांतिलाल रतिलाल शाहकी ओरसे ५०
%
आर्थिक सहयोग प्राप्त होनेसे यह शास्त्रका विक्रय-मूल्य
रु. १०=०० रखा गया है।


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प्रकाशकीय निवेदन
[प्रथम आवृत्ति]
अध्यात्मप्रेमी कविवर पं. दौलतरामजी कृत छहढालाका यह
अर्थ गुजरातीमें स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट सोनगढके भूतपूर्व प्रमुख श्री
रामजीभाई माणेकचन्द दोशीने सम्पादित किया था । हिन्दीमें तो
इस पुस्तककी अनेक आवृत्तियाँ (अन्य संस्थाओं द्वारा) निकल
चुकी हैं । इस आवृत्तिमें प्रकरणके अनुसार भावपूर्ण तथा बालसुबोध
चित्र अंकित किये गये हैं, यह इसकी विशेषता
नवीनता है । इससे
पाठकोंका अभ्यासमें मन लगेगा और समझनेमें सुगमता होगी ।
सोनगढमें प्रतिवर्ष शिक्षणवर्गमें और अनेक जैन
पाठशालाओंमें यह पुस्तक पढ़ाई जाती है और इसकी सामूहिक
स्वाध्याय भी कई जगह होती है ।
परमोपकारी पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामीने इस लघुकाय
ग्रंथ पर निजात्मकल्याणकारी प्रवचन किए हैं। इस ग्रंथके
विषयवस्तुको यथार्थतया समझनेके लिए मुमुक्षुओंको वे प्रवचनोंको
अच्छी तरह सुनना अत्यंत आवश्यक है। वर्तमानयुगमें परमोपकारी
पूज्य गुरुदेवश्री तथा पूज्य बहिनश्री चंपाबहिनके उपकार प्रतापसे
ही हम ऐसे ग्रंथोंको पढ़कर अपना आत्महित साध सकते हैं।
छहढाला पढ़नेमें समाजकी अत्यधिक रुचि रही है। इस
पुस्तकमें सब कथन जिनागम अनुकूल है। उनमें जिनमतसे विरुद्ध
मतके एकांत अभिप्रायोंका निषेध किया गया है, अतः इसका

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अध्ययन करके अभ्यासीजन विवेक द्वारा हेय-उपादेय तत्त्वको
बराबर समझ ले।
ट्रस्टके तत्कालीन प्रमुख श्री नवनीतलाल झवेरीको इस ग्रंथ
प्रकाशन करनेका अतीव उत्साह था। इस आवृत्तिके प्रकाशनमें श्री
शाह हिंमतलाल छोटालाल, डॉ. विद्याचंदजी शहा, श्री
मनसुखलाल देसाई, ब्र. हरिलाल जैन तथा श्री कान्तिलाल
हरिलाल शाहने प्रेमपूर्वक सहायता की है, अतः संस्था उन सब
महानुभावोंका आभार मानती है ।
सोनगढ
वीर सं. २४९१
साहित्यप्रकाशनसमिति
श्री दि० जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट,
सोनगढ (सौराष्ट्र)

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प्रकाशकीय निवेदन
(पंद्रहवीं आवृत्ति)
इस लघु ग्रन्थकी अत्यन्त लोकप्रियता एवं मांगके कारण
इसकी यह पंद्रहवीं सचित्र आवृत्ति प्रकाशित कि जा रही है। आशा
है की मुमुक्षु समाज यह ग्रन्थका अभ्यास करके लाभान्वित होगा
यह पुस्तकका प्रिन्टींग कार्य कहान मुद्रणालय द्वारा अत्यंत
सुंदर ढंगसे किया गया है जिसके लिए हम इनके आभारी हैं
जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित तत्त्वको स्पृष्टतया समझना
यह मुमुक्षुओंके लिए हितकारी एवं आवश्यक है । हमारी भावना है
कि सब धर्म-जिज्ञासु इस ग्रन्थका स्वाध्याय करके उसका आशय
समझकर मिथ्यात्वसे अपनी रक्षा करते हुए स्वसन्मुखता द्वारा
सम्यक्पना प्राप्त करें ।
वैशाख सुद-२
पू. गुरुदेवश्रीका
१२०वाँ जन्मोत्सव
ता. २६-४-२००९
साहित्यप्रकाशनसमिति
श्री दि० जैन स्वा० ट्रस्ट,
सोनगढ (सौराष्ट्र)

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मूल ग्रन्थकर्ताका कुछ परिचय
श्री पं. दौलतरामजी अलीगढ़के समीप सासनीके रहनेवाले
थे, फि र अलीगढमें रहने लगे । वे पल्लीवाल जातिके नररत्न थे ।
धर्मतत्त्वके अच्छे ज्ञाता थे । उन्होंने परमार्थ जकड़ी, फु टकर अनेक
पद तथा प्रस्तुत ग्रंथ छहढालाकी रचना की है । अपनी कवितामें
सरल शब्दों द्वारा सागरको गागरमें भरनेका प्रयत्न किया है ।
उनके शब्द रुचिक र हैं, भाव उल्लास देनेवाला है । उनके पदोंका
भाव मनन करने योग्य है, जो कि जैनसिद्धान्तके जिज्ञासुओंके
लिए बहुत उपयोगी है ।
इस ग्रन्थका निर्माण विक्रम सं. १८९१में हुआ है, इसकी
उपयोगिताका अनुभव करके इसको प्रायः सभी जैन पाठशालाओं
और जैन परीक्षालयोंके पठन-क्रममें स्थान दिया गया है । सर्व
सज्जनोंसे मेरी प्रार्थना है कि इस ग्रंथका सर्वत्र प्रचार करें और
आत्महितमें अग्रसर होनेके प्रयत्नमें सावधान रहें ।
निवेदक :
नवनीतलाल सी. झवेरी

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भूमिका
कविवर पण्डित दौलतरामजी कृत ‘‘छहढाला’’
जैनसमाजमें भलीभाँति प्रचलित है। अनेक भाई-बहिन उसका
नित्य पाठ करते हैं। जैन पाठशालाओंकी यह एक पाठय पुस्तक
है। ग्रन्थकारने संवत् १८९१की वैशाख शुक्ला ३, (अक्षय-
तृतीया)के दिन इस ग्रन्थकी रचना पूर्ण की थी। इस ग्रन्थमें
धर्मका स्वरूप संक्षेपमें भलीभाँति समझाया गया है; और वह भी
ऐसी सरल सुबोध भाषामें कि बालकसे लेकर वृद्ध तक सभी
सरलतापूर्वक समझ सकें।
इस ग्रन्थमें छह ढालें (छह प्रकरण) हैं, उनमें आनेवाले
विषयोंका वर्णन यहाँ संक्षेपमें किया जाता है
जीवकी अनादिकालीन सात भूलें
इस ग्रन्थकी दूसरी ढालमें चार गतिमें परिभ्रमणके
कारणरूप मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रका स्वरूप बताया गया है।
इसमें मिथ्यादर्शनके कारणरूप जीवकी अनादिसे चली आ रही
सात भूलोंका स्वरूप दिया गया है; वह संक्षेपमें निम्नानुसार है
(१) ‘‘शरीर है सो मैं हूँ,’’ऐसा यह जीव अनादि-कालसे मान
रहा है; इसलिए मैं शरीरके कार्य कर सकता हूँ, शरीरका
हलन-चलन मुझसे होता है; शरीर (इन्द्रियोंमें)के द्वारा मैं
जानता हूँ, सुखको भोगता हूँ, शरीर निरोग हो तो मुझे लाभ
हो
इत्यादि प्रकारसे वह शरीरको अपना मानता है, यह
महान भ्रम है। वह जीवको अजीव मानता है; यह जीवतत्त्वकी
भूल है।

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(२) शरीरकी उत्पत्तिसे वह जीवका जन्म और शरीरके वियोगसे
जीवका मरण मानता है; यानी अजीवको जीव मानता है। यह
अजीवतत्त्वकी भूल है।
(३) मिथ्यात्व, रागादि प्रगट दुःख देनेवाले हैं; तथापि उनको
सुखरूप मानकर उनका सेवन करता है; यह आस्रवतत्त्वकी
भूल है।
(४) वह अपने आत्माको भूलकर, शुभको इष्ट (लाभदायी) तथा
अशुभको अनिष्ट (हानिकारक) मानता है; किन्तु तत्त्वदृष्टिसे
वे दोनों अनिष्ट हैं
ऐसा नहीं मानता। वह बन्धतत्त्वकी
भूल है।
(५) सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्ज्ञानसहित वैराग्य (आत्महितके यथार्थ
साधन) जीवको सुखरूप है, तथापि उन्हें कष्टदायक और
समझमें न आये ऐसा मानता है। वह संवरतत्त्वकी भूल है।
(६) अपने आत्माकी शक्तियोंको भूलकर, शुभाशुभ इच्छाओंको न
रोककर इन्द्रिय-विषयोंकी इच्छा करता रहता है, वह
निर्जरातत्त्वकी भूल है।
(७) सम्यग्दर्शनपूर्वक ही पूर्ण निराकुलता प्रगट होती है और वही
सच्चा सुख है;ऐसा न मानकर यह जीव बाह्य सुविधाओंमें
सुख मानता है, वह मोक्षतत्त्वकी भूल है।
उपरोक्त भूलोंका फल
इस ग्रंथकी पहली ढालमें इन भूलोंका फल बताया है। इन
भूलोंके फलस्वरूप जीवको प्रतिसमय-बारम्बार अनन्त दुःख
भोगना पड़ता है अर्थात् चारों गतियोंमें मनुष्य, देव, तिर्यंच और

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नारकीके रूपमें जन्म-मरण करके दुःख सहता है। लोग देवगतिमें
सुख मानते हैं, किन्तु वह भ्रमणा है
मिथ्या है। पन्द्रहवें तथा
सोलहवें छन्दमें उसका स्पष्ट वर्णन किया है। (संयोग अनुकूल-
प्रतिकूल, इष्ट-अनिष्ट नहीं है तथा संयोगसे किसीको सुख-दुःख
हो ऐसा नहीं है। किन्तु विपरीत श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र एवं
पुरुषार्थसे जीव भूल करता है और उसके कारण दुःखी होता
है। सच्चे पुरुषार्थसे भूलको हटाकर सम्यक्श्रद्धा
ज्ञान और
स्वानुभव करता है, उससे सुखी होता है। )
इन गतियोंमें मुख्य गति निगोद-एकेन्द्रियकी है; संसार-
दशामें जीव अधिकसे अधिक काल उसमें व्यतीत करता है। उस
अवस्थाको टालकर दो इन्द्रियसे पंचेन्द्रियकी पर्याय प्राप्त करना
दुर्लभ है और उसमें भी मनुष्यभवकी प्राप्ति तो अति-दीर्घकालमें
होती है अर्थात् जीव मनुष्यभव नहिंवत् प्राप्त कर पाता है।
धर्म प्राप्त करनेका समय
जीवको धर्म-प्राप्तिका मुख्य काल मनुष्यभवका है। यदि यह
जीव धर्मको समझना प्रारम्भ कर दे तो सदाके लिए दुःख दूर
कर सकता है; किन्तु मनुष्य पर्यायमें भी या तो धर्मका यथार्थ
विचार नहीं करता, या फि र धर्मके नाम पर चलनेवाली अनेक
मिथ्या-मान्यताओंमेंसे किसी न किसी मिथ्या-मान्यताको ग्रहण
करके कुदेव, कुगुरु तथा कुशास्त्रके चक्रमें फँस जाता है, अथवा
तो ‘‘सर्व धर्म समान हैं’’
ऐसा ऊपरी दृष्टिसे मानकर समस्त
धर्मोंका समन्वय करने लगता है और अपनी भ्रमबुद्धिकोे
विशालबुद्धि मानकर और अभिमानका सेवन करता है। कभी वह
जीव सुदेव, सुगुरु और सुशास्त्रका बाह्यस्वरूप समझता है,

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तथापि अपने सच्चे स्वरूपको समझनेका प्रयास नहीं करता,
इसलिए पुनः पुनः संसार-सागरमें भटककर अपना अधिक काल
निगोदगति
एकेन्द्रिय पर्यायमें व्यतीत करता है।
मिथ्यात्वका महापाप
उपरोक्त भूलोंका मुख्य कारण अपने स्वरूपकी भ्रमणा है।
मैं पर (शरीर) हूँ, पर (स्त्री-पुत्रादि) मेरे हैं, परका मैं कर
सकता हूँ, पर मेरा कर सकता है, परसे मुझे लाभ या हानि
होते हैं
ऐसी मिथ्या मान्यताका नित्य अपरिमित महापाप जीव
प्रतिक्षण सेया करता है; उस महापापको शास्त्रीय परिभाषामें
मिथ्यादर्शन कहा जाता है। मिथ्यादर्शनके फलस्वरूप जीव क्रोध,
मान, माया, लोभ
जो कि परिमित पाप हैंउनका तीव्र या
मन्दरूपसे सेवन करता है। जीव क्रोधादिकको पाप मानते हैं,
किन्तु उनका मूल मिथ्यादर्शनरूप महापाप है, उसे वे नहीं
जानते; तो फि र उसका निवारण कैसे करें ?
वस्तुका स्वरूप
वस्तुस्वरूप कहो या जैनधर्मदोनों एक ही हैं। उनकी
विधि ऐसी है किपहले बड़ा पाप छुड़वाकर फि र छोटा पाप
छुड़वाते हैं; इसलिए बड़ा पाप क्या और छोटा पाप क्याउसे
प्रथम समझनेकी आवश्यकता है।
जगतमें सात व्यसन पापबन्धके कारण माने जाते हैं
जुआ, मांसभक्षण, मदिरापान, वेश्यागमन, शिकार, परस्त्रीसेवन
तथा चोरी, किन्तु इन व्यसनोंसे भी बढ़कर महापाप मिथ्यात्वका
सेवन है, इसलिए जैनधर्म सर्वप्रथम मिथ्यात्वको छोड़नेका उपदेश
देता है, किन्तु अधिकांश उपदेशक, प्रचारक और अगुरु

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मिथ्यात्वके यथार्थ स्वरूपसे अनजान हैं; फि र वे महापापरूप
मिथ्यात्वको टालनेका उपदेश कहाँसे दे सकते हैं ? वे ‘‘पुण्य’’को
धर्ममें सहायक मानकर उसके उपदेशकी मुख्यता देते हैं और
इसप्रकार धर्मके नाम पर महामिथ्यात्वरूपी पापका अव्यक्तरूपसे
पोषण करते हैं। जीव इस भूलको टाल सके इस हेतु इसकी
तीसरी तथा चौथी ढालमें सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानका स्वरूप
दिया गया है। इसका यह अर्थ नहीं कि जीव शुभके बदले अशुभ
भाव करे, किन्तु शुभभावको वास्तवमें धर्म अथवा धर्ममें सहायक
नहीं मानना चाहिये। यद्यपि निचली दशामें शुभभाव हुए बिना नहीं
रहता, किन्तु उसे सच्चा धर्म मानना वह मिथ्यात्वरूप महापाप है।
सम्यक्दृष्टिकी भावना
पाँचवीं ढालमें बारह भावनाओंका स्वरूप दर्शाया गया है।
वे भावनाएँ सम्यग्दृष्टि जीवको ही यथार्थ होती हैं।
सम्यग्दर्शनसे ही धर्मका प्रारम्भ होता है, इसलिए
सम्यग्दृष्टि जीवको ही यह बारह प्रकारकी भावनाएँ होती हैं; उनमें
जो शुभभाव होता है उसे वे धर्म नहीं मानते, किन्तु बन्धका कारण
मानते हैं। जितना राग दूर होता है तथा सम्यग्दर्शन-ज्ञानकी जो
दृढ़ता होती है, उसे वे धर्म मानते हैं; इसलिए उनके संवर-निर्जरा
होती है। अज्ञानीजन जो शुभभावको धर्म अथवा धर्ममें सहायक
मानते हैं, इसलिए उन्हें सच्ची भावना नहीं होती।
सम्यक्चारित्र तथा महाव्रत
सम्यग्दृष्टि जीव अपने स्वरूपमें स्थिर रहे उसे सम्यक्-
चारित्र कहा जाता है। स्वरूपमें पूर्णरूपसे स्थिर न रह सके उसे
शुभभावरूप अणुव्रत या महाव्रत होते हैं, किन्तु उनमें होनेवाले

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शुभभावको वे धर्म नहीं मानते। आदिका वर्णन छठवीं ढालमें
किया है।
द्रव्यार्थिकनयसे निश्चयका स्वरूप तथा
उसके आश्रयसे होनेवाली शुद्ध पर्याय
आत्माका स्वभाव त्रिकाली शुद्ध अखण्ड चैतन्यमय है,
वह सम्यग्दर्शनका तथा निश्चयनयका विषय होनेसे द्रव्यार्थिकनय
द्वारा उस त्रिकाली शुद्ध अखण्ड चैतन्यस्वरूप आत्माको ‘निश्चय’
कहा जाता है, आत्माका वह त्रिकाली सामान्यस्वभाव
द्रव्यार्थिकनयसे आत्माका स्वरूप है, उस त्रैकालिक शुद्धताकी
ओर उन्मुखतासे जीवकी जो शुद्ध पर्याय प्रगट होती है उसे
निश्चयनयसे मोक्षमार्ग कहा जाता है फि र भी वह आत्माका
पर्याय (अंश-भेद) होनेसे उसे ‘व्यवहार’ कहा जाता है, वह
सद्भुतव्यवहार है; और अपनी वर्तमान पर्यायमें जो विकारका
अंश रहता है वह पर्याय(अंश-भेद) असद्भूतव्यवहारनयका विषय
है। असद्भुतव्यवहार जीवका परमार्थस्वरूप न होनेसे दूर हो
सकता है और इसलिए निश्चयनयसे वह जीवका स्वरूप नहीं
है
ऐसा समझना।
पर्यायार्थिकनयसे निश्चय और व्यवहारका
स्वरूप अथवा निश्चय तथा व्यवहार पर्यायका
स्वरूप
उपरोक्त स्वरूपको न जाननेवाले जीव ऐसा मानते हैं कि
शुभ करते-करते धर्म (शुद्धता) होता है; तथा वे शुभको व्यवहार
मानते हैं और व्यवहार करते-करते भविष्यमें निश्चय (शुद्धभाव
धर्म) हो जायेगा ऐसा मानते हैंयह एक महान् भूल है; इसलिए

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उसका सच्चा स्वरूप यहाँ संक्षेपमें दिया जाता है
सम्यग्दृष्टि जीवको निश्चय (शुद्ध) और व्यवहार (शुभ)
ऐसी चारित्रकी मिश्र पर्याय निचली दशामें एक ही समय होती
हैं। वह साधकजीवको नीचली दशामें जो शुभराग सहित चारित्र
होता है उसको सरागचारित्र या व्यवहार चारित्र भी कहा गया
है । लेकिन उसमें जो शुद्धिका अंश है वह उपली शुद्धिरूप
निश्चय वीतराग चारित्रका कारण होनेसे शास्त्रोंमें उस शुद्धिके
साथ वर्तते रागको भी उपचारसे उपली शुद्धिका कारण
व्यवहारसे कहा जाता है । क्योंकि उस जीवको अल्प समयमें
शुभभावरूप कचाश दूर होकर पूर्णशुद्धता प्रगट होती है।
इस अपेक्षाको लक्षमें रखकर व्यवहार साधक तथा निश्चय
साध्य
ऐसा पर्यायार्थिकनयसे कहा जाता है, उसका अर्थ ऐसा
है कि सम्यग्दृष्टिकी पर्यायमेंसे शुभरूप अशुद्धता दूर होकर
क्रमशः शुद्धता होती जाती है। यह दोनों पर्यायें होनेसे वह
पर्यायार्थिकनयका विषय है। इस ग्रन्थमें कुछ स्थानों पर निश्चय
और व्यवहार शब्दोंका प्रयोग किया गया है, वहाँ उनका अर्थ
इसीप्रकार समझना चाहिए। व्यवहार (शुभभाव)का व्यय वह
साधक और निश्चय (शुद्धभाव)का उत्पाद वह साध्य
ऐसा
उनका अर्थ होता है; उसे संक्षेपमें ‘‘व्यवहार साधक और निश्चय
साध्य’’
ऐसा पर्यायार्थिकनयसे कहा जाता है।
अन्य विषय
इस ग्रन्थमें बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा आदि
विषयोंका स्वरूप दिया गया है। बहिरात्मा मिथ्यादृष्टिका दूसरा
नाम है; क्योंकि बाह्य संयोग-वियोग, शरीर, राग, देव-गुरु-

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शास्त्र आदिसे अपनेको परमार्थतः लाभ होता हैऐसा वह
मानता है। अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टिका दूसरा नाम है; क्योंकि वह
मानता है कि अपने अन्तरसे ही अर्थात् अपने त्रैकालिक शुद्ध
चैतन्यस्वरूपके आश्रयसे ही अपनेको लाभ हो सकता है।
परमात्मा वह आत्माकी सम्पूर्ण शुद्ध दशा है। इनके अतिरिक्त
अन्य अनेक विषय इस ग्रन्थमें लिए गये हैं; उन सबको
सावधानीपूर्वक समझना आवश्यक है।
पाठकोंसे निवेदन
पाठकोंको इस ग्रन्थका सूक्ष्मदृष्टिसे अध्ययन करना
चाहिए; क्योंकि सत्शास्त्रका धर्मबुद्धिपूर्वक अभ्यास सम्यग्दर्शनका
कारण है। इसके उपरान्त शास्त्राभ्यासमें निम्नोक्त बातोंका ध्यान
रहना चाहिये :
(१) सम्यग्दर्शनसे ही धर्मका प्रारम्भ होता है।
(२) सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना किसी भी जीवको सच्चे व्रत,
सामायिक, प्रतिक्रमण, तप, प्रत्याख्यानादि नहीं होते; क्योंकि वह
क्रिया प्रथम पाँचवें गुणस्थानमें शुभभावरूपसे होती है।
(३) शुभभाव ज्ञानी और अज्ञानी दोनोंको होता है; किन्तु
अज्ञानी उससे धर्म होगा, हित होगा ऐसा मानता है और ज्ञानीकी
दृष्टिमें वह हेय होनेसे वह उससे कदापि हितरूप धर्मका होना
नहीं मानता।
(४) इससे ऐसा नहीं समझना कि धर्मीको शुभभाव होता
ही नहीं; किन्तु वह शुभभावको धर्म अथवा उससे क्रमशः धर्म
होगा ऐसा नहीं मानता; क्योंकि अनन्त वीतरागदेवोंने उसे बन्धका
कारण कहा है।

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(५) एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ कर नहीं सकता; उसे
परिणमित नहीं कर सकता, प्रेरणा नहीं कर सकता, लाभ-हानि
नहीं कर सकता, उस पर प्रभाव नहीं डाल सकता, उसकी
सहायता या उपकार नहीं कर सकता; उसे मार या जिला नहीं
सकता
ऐसी प्रत्येक द्रव्य-गुण-पर्यायकी सम्पूर्ण स्वतंत्रता अनन्त
ज्ञानियोंने पुकार-पुकार कर कही है।
(६) जिनमतमें तो ऐसी परिपाटी है कि प्रथम सम्यक्त्व
और फि र व्रतादि होते हैं। अब, सम्यक्त्व तो स्व-परका श्रद्धान्
होने पर होता है, तथा वह श्रद्धान द्रव्यानुयोगका अभ्यास करनेसे
होता है। इसलिए प्रथम द्रव्यानुयोगके अनुसार श्रद्धान करके
सम्यग्दृष्टि बनना चाहिए।
(७) पहले गुणस्थानमें जिज्ञासु जीवोंको शास्त्राभ्यास,
अध्ययनमनन, ज्ञानी पुरुषोंका धर्मोपदेशश्रवण, निरन्तर उनका
समागम, देवदर्शन, पूजा, भक्ति, दान आदि शुभभाव होते हैं,
किन्तु पहले गुणस्थानमें सच्चे व्रत, तप आदि नहीं होते।
ऊपरी दृष्टिसे देखनेवालोंको निम्नोक्त दो शंकाएँ होनेकी
सम्भावना है
(१) ऐसे कथन सुनने या पढ़नेसे लोगोंको अत्यन्त हानि
होना सम्भव है। (२) इस समय लोग कुछ व्रत, प्रत्याख्यान,
प्रतिक्रमणादिक क्रियाएँ करते हैं; उन्हें छोड़ देंगे।
उसका स्पष्टीकरण यह है :
सत्यसे किसी भी जीवको हानि होगीऐसा कहना ही
बड़ी भूल है, अथवा असत् कथनसे लोगोंको लाभ माननेके बराबर
है, सत्का श्रवण या अध्ययन करनेसे जीवोंको कभी हानि हो ही

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नहीं सकती। व्रत-प्रत्याख्यान करनेवाले ज्ञानी हैं अथवा
अज्ञानी,
यह जानना आवश्यक है। यदि वे अज्ञानी हों तो उन्हें
सच्चे व्रतादि होते ही नहीं, इसलिए उन्हें छोड़नेका प्रश्न ही
उपस्थित नहीं होता। यदि व्रत करनेवाले ज्ञानी होंगे तो
छद्मस्थदशामें वे व्रतका त्याग करके अशुभमें जायेंगे
ऐसा मानना
न्यायविरुद्ध है। परन्तु ऐसा हो सकता है कि क्रमशः शुभभावको
टालकर शुद्धभावकी वृद्धि करें..... और वह तो लाभका कारण
है
हानिका नहीं। इसलिए सत्य कथनसे किसीको हानि हो ही
नहीं सकती।
जिज्ञासुजन विशेष स्पष्टतासे समझ सकेंइस बातको
लक्षमें रखकर श्री ब्रह्मचारी गुलाबचन्दजीने मूल गुजराती पुस्तकमें
यथासम्भव शुद्धि
वृद्धि की है। अन्य जिन-जिन बन्धुओंने इस
कार्यमें सहयोग दिया है उन्हें हार्दिक धन्यवाद !
यह गुजराती पुस्तकका अनुवाद है। इसका अनुवाद श्री
मगनलालजी जैन, (वल्लभविद्यानगर)ने किया है जो हमारी
संस्थाके कई ग्रन्थोंके और आत्मधर्म-पत्रके अनुवादक है; अच्छी
तरह अनुवाद करनेके लिए उन्हें धन्यवाद !
श्री वर्द्धमान जयन्ती
वीर सं. २४८७
वि.सं. २०१७
सोनगढ (सौराष्ट्र)
रामजी माणेकचन्द दोशी
प्रमुख
श्री दिगम्बर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट
सोनगढ (सौराष्ट्र)

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विषय-सूची
विषय ........................................................................................गाथा---- पृष्ठ
पहली ढाल
मंगलाचरण ...................................................... १
ग्रन्थरचनाका उद्देश्य और जीवोंकी इच्छा ................. १ ------ ३
गुरुशिक्षा सुननेका आदेश तथा संसार-परिभ्रमणका कारण २ ------ ४
इस ग्रन्थकी प्रामाणिकता और निगोदका दुःख ............ ३ ------ ५
निगोदका दुःख और वहाँसे निकलकर प्राप्तकी हुई पर्यायें .. ४ ------ ५
तिर्यंचगतिमें त्रस पर्यायकी दुर्लभता और उसका दुःख ..... ५ ------ ७
तिर्यंचगतिमें असंज्ञी तथा संज्ञीके दुःख ................... ६ ------ ८
तिर्यंचगतिमें निर्बलता तथा दुःख ........................ ७ ------ ९
तिर्यंचके दुःखकी अधिकता और
नरक गतिकी प्राप्तिका कारण .................... ८ ---- १०
नरकोंकी भूमि और नदियोंका वर्णन ..................... ९ ---- ११
नरकोंके सेमल वृक्ष तथा सर्दी-गर्मीके दुःख .............. १० --- १२
नरकोंमें अन्य नारकी, असुरकुमार तथा प्यासका दुःख .... ११ --- १४
नरकोंकी भूख, आयु और मनुष्यगति प्राप्तिका वर्णन ...... १२ ---- १५
मनुष्यगतिमें गर्भ निवास तथा प्रसवकालके दुःख .......... १३ --- १६
मनुष्यगतिमें बाल, युवा और वृद्धावस्थाके दुःख .......... १४ --- १७
देवगतिमें भवनत्रिकका दुःख ............................ १५ ---- १८
देवगतिमें वैमानिक देवोंका दुःख ........................ १६ ---- १९
सार ............................................................ २०
पहली ढालका सारांश ........................................... २०

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पहली ढालका भेद-संग्रह ........................................ २३
पहली ढालका लक्षण-संग्रह ...................................... २४
वीतरागका लक्षण ............................................... २६
अन्तर-प्रदर्शन................................................... २७
पहली ढालकी प्रश्नावली ........................................ २८
दूसरी ढाल
संसार (चतुर्गति)में परिभ्रमणका कारण .................. १ ---- ३०
अगृहीत-मिथ्यादर्शन और जीवतत्त्वका लक्षण ............ २ ---- ३१
जीवतत्त्वके विषयमें मिथ्यात्व (विपरीत श्रद्धा) ............ ३ ---- ३२
मिथ्यादृष्टिका शरीर तथा परवस्तुओं सम्बन्धी विचार ...... ४ ---- ३३
अजीव और आस्रवतत्त्वकी विपरीत श्रद्धा ............... ५ ---- ३४
बन्ध और संवरतत्त्वकी विपरीत श्रद्धा .................... ६ ---- ३६
निर्जरा और मोक्षकी विपरीत श्रद्धा तथा अगृहीत मिथ्याज्ञान ७ ---- ३७
अगृहीत मिथ्याचारित्र (कुचारित्र)का लक्षण ............... ८ ----- ३९
गृहीत मिथ्यादर्शन और कुगुरुके लक्षण .................. ९ ---- ४०
कुदेव (मिथ्यादेव)का स्वरूप ............................ १० --- ४१
कुधर्म और गृहीत मिथ्यादर्शनका संक्षिप्त लक्षण ........... ११-१२ ४२
गृहीत मिथ्याज्ञानका लक्षण .............................. १३ --- ४४
गृहीत मिथ्याचारित्रका लक्षण ............................ १४ ---- ४५
मिथ्याचारित्रके त्यागका तथा आत्महितमें लगनेका उपदेश . १५ --- ४६
दूसरी ढालका सारांश ........................................... ४७
दूसरी ढालका भेद-संग्रह ......................................... ४९
दूसरी ढालका लक्षण-संग्रह ...................................... ४९
अन्तर-प्रदर्शन................................................... ५०
दूसरी ढालकी प्रश्नावली......................................... ५१