Atmadharma magazine - Ank 089
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 2 of 3

PDF/HTML Page 21 of 43
single page version

background image
: ९८ : आत्मधर्म : ८९
नमो अरिहंताणं
अर्हंत सौ कर्मो तणो करी नाश ए ज विधि वडे,
उपदेश पण एम ज करी, निवृत्त थया; नमुं तेमने.
श्री प्रवचनसारनी ८०–८१मी गाथामां मोहनो सर्वथा नाश करीने संपूर्ण शुद्धात्मानी प्राप्ति माटेना
उपायनुं वर्णन करीने पछी आ ८२ मी गाथामां बधाय तीर्थंकरोने साक्षीपणे ऊतारतां श्री आचार्यदेवे कहे छे के
जे उपाय अहीं वर्णव्यो ते ज उपाय बधाय तीर्थंकरोए पोते कर्यो अने तेओए जगतना भव्य जीवोने एवो ज
उपदेश कर्यो...तेओने नमस्कार हो.
अरिहंतो कहे छे के अमे अमारा द्रव्यस्वभावनो आश्रय करीने केवळज्ञान पाम्या छीए अने हे जगतना
जीवो! तमे पण एम पोताना स्वभावनो ज आश्रय करो, स्वभाव आश्रित मुक्तिनो मार्ग छे माटे पुरुषार्थ वडे
स्वभावने जाणीने तेनो ज आश्रय करो...अहीं आचार्यदेवने स्वाश्रित मोक्षमार्गनो महिमा आवतां कहे छे के
अहो, ते अरिहंतोने नमस्कार हो...अने तेमणे बतावेला मार्गने नमस्कार हो.
श्री कुंदकुंदआचार्यदेव कहे छे के ‘णमो तेसिं’ ते सीमंधरादि अरिहंतोने नमस्कार हो. अहोहो, नाथ!
आपे आपना आत्मामां तो स्वभावनो संपूर्ण आश्रय प्रगट करीने पराश्रय भावोना भूक्का ऊडाड्या, अने
अन्य जीवोने माटे आपनी वाणीमां पण पराश्रयना भूक्का ज छे. आपनो दिव्य उपदेश जीवोने पराश्रय छोडावे
छे. आचार्यदेवने घणो स्वाश्रयभाव तो प्रगट्यो छे ने पूर्ण स्वाश्रयभाव प्रगट करवानी तैयारी छे, तेथी
स्वाश्रयीमुक्तिमार्गनो प्रमोद आवी जतां कहे छे के–अहो! जगतना जीवोने स्वाश्रयनो उपदेश आपनारा हे
अर्हंतो आपने नमस्कार हो. नमो...नमो! हे जिनभगवंतो...आपने नमस्कार करुं छुं.
(भगवान श्री सीमंधर जिन स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 22 of 43
single page version

background image
फागण : २४७७ : ९९ :
अज्ञानभावे अनंत प्रकारना पराश्रयभावमां अज्ञानी जीवो रखडे छे. अहो, जगतमां आटला आटला
पराश्रयभावो, ते बधायथी छोडावीने आत्माने एक पोताना स्वभावना ज आश्रयमां लावी मूक्यो छे. हे
तीर्थंकरो! आप पोते पण स्वभावनी श्रद्धा अने स्थिरता करीने ज मुक्त थया छो अने आपनी वाणीमां
जगतना मुमुक्षुओने पण ए ज प्रकारनो उपदेश कर्यो छे. अहो, अरिहंतो! आपने नमस्कार...आपना
स्वाश्रितमार्गने नमस्कार मारो आत्मा स्वाश्रयनी साक्षी पूरतो आपना अप्रतिहतमार्गमां चाल्यो आवे छे.
हे नाथ! अमने स्वाश्रयनो उल्लास आवे छे. धन्य प्रभु तारा कथनने! तमने हुं नमस्कार करुं छुं.
अमारो आत्मा स्वाश्रयमां नमे छे, आपनी जेम अमे पण स्वाश्रयपूर्वक अर्हंतदशा प्रगट करवा तरफ आपना
मार्गे चाल्या आवीए छीए. अहो! आवा नमस्कार कोण करे?..आवो उल्लास कोने ऊछळे? जेणे पोताना
स्वभावनी श्रद्धाथी स्वाश्रय तरफ वलण कर्युं छे अने पराश्रयना अंशनो पण नकार कर्यो छे ते स्वाश्रयना
उल्लासथी अरिहंतोने नमस्कार करे छे.
अहो अरिहंतो! हुं आपने पगले पगले आवी रह्यो छुं. सर्वे अरिहंतोने मारा नमस्कार छे. ‘बधाय
अरिहंतोए आ एक ज मार्गथी पूर्णता करी छे अने तेओए उपदेशमां पण एम ज कह्युं छें–आम कहीने पछी ते
सर्वे अरिहंतोने आचार्यदेवे नमस्कार कर्या छे. आमां आचार्यदेवना ऊंचा भणकारा छे. ‘उपदेश पण एम ज
कर्यो’–आम कहीने आचार्यदेव उपदेशवाळा अरिहंतोनी एटले के तीर्थंकरोनी वात लेवा मांगे छे. तीर्थंकरोने
केवळज्ञान प्रगट्या पछी नियमथी दिव्यध्वनि छूटे छे ने ते ध्वनिद्वारा आवो ज स्वाश्रयनो मार्ग जगतना
मुमुक्षुओने उपदेशे छे. अने ते सांभळीने स्वाश्रय करनारा जीवो पण होय ज छे. ए रीते संधि वडे
स्वाश्रयमार्गनो अछिन्नप्रवाह बताव्यो छे.
जुओ, अहीं कुंदकुंदप्रभु मोक्षनो उपाय बतावे छे अने तेमां सर्वे तीर्थंकरोनी साख पूरे छे. पोतानो
आत्मा ज्ञान–दर्शन–आनंदस्वरूप छे, तेने लक्षमां लईने तेना ज आश्रये शुद्धोपयोग प्रगट करीने, भेद अने
व्यवहारनो क्षय करीने भगवान अरिहंतोए केवळज्ञान प्रगट कर्युं छे. त्रणेकाळे मोहनो क्षय करवानो आ एक
ज विधि छे. तीर्थंकरोए आ ज विधि कर्यो छे, अने आ ज विधि कह्यो छे. आ सिवाय बीजो कोई विधि मोक्ष
माटे छे ज नहि.
अहो भगवंतो! आपने नमस्कार हो. आपनो पवित्र उपदेश अमने अंतरमां रुच्यो छे अने अमने
अंतरमां स्वाश्रयनो आह्लाद ऊछळ्‌यो छे. प्रभो, अमे बीजुं तो शुं कहीए? नाथ! नमो भगवद्भयः भगवंतोने
नमस्कार हो. आ रीते, अरिहंतोनो उपदेश समजनार जीव स्वाश्रयना उल्लासथी भगवानने नमस्कार करे छे.
कोई पुण्यभावथी के निमित्तोना अवलंबनथी सम्यग्दर्शन थतुं नथी पण पोताना द्रव्य–गुण–पर्यायथी
अभेद स्वभावना आश्रये ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र थाय छे. अमने आवो पवित्र उपदेश करीने स्वाश्रयनो
मार्ग दर्शाव्यो, ते माटे हे नाथ! तमने मारा नमस्कार छे. वर्तमान शुभविकल्प छे पण ते तरफ न वळतां
स्वभावना महिमा तरफ ज अमे वळीए छीए. स्वभावना आश्रये धर्मनी वृद्धि ज छे. जे दशा आपे प्रगट करी
तेने नमस्कार करीने अमे रागरहित चैतन्यस्वभावनो ज आश्रय अने विनय करीए छीए, विकल्पनो आदर के
आश्रय करता नथी. हे नाथ जिनेश! तमारो उपदेश सांभळीने अमने स्वभाव अने परभावनुं भेदज्ञान थयुं–
अमने निश्चय स्वाश्रय रागरहित स्वभाव मळ्‌यो तेथी अमे आपने नमस्कार करीए छीए...आपे दर्शावेला
मार्गे आवीए छीए.
स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान ने स्थिरता ए एक ज प्रकार मोक्षमार्गनो छे. ए प्रकारथी तीर्थंकरोए सर्व कर्मनो
क्षय करीने शुद्ध आत्मस्वरूप पोते अनुभव्युं छे. एवा तीर्थंकरो सर्वज्ञ अने वीतराग होवाथी परम आप्त छे,
जगतना जीवोने आत्महितना उपदेष्टा छे. तीर्थंकरनो उपदेश परम विश्वासयोग्य छे. तीर्थंकरोए शुं उपदेश
कर्यो?
भगवानना श्रीमुखे एम नीकळ्‌युं छे के, अमे जे उपदेश करीए छीए ते ज प्रमाणे आ काळना के
भविष्यकाळना मुमुक्षु जीवोने मोक्षनो उपाय छे. भविष्यमां पंचमकाळ कठण आवशे माटे ते काळनो उपाय
जुदो–एम भगवाने कह्युं नथी. भगवाननो उपदेश भविष्यकाळना जीवोने माटे पण एक ज प्रकारनो छे. धर्मनो
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 23 of 43
single page version

background image
: १०० : आत्मधर्म : ८९
बीजो रस्तो छे ज नहि. आत्मानी श्रद्धा–ज्ञान–रमणता ते एक ज त्रण काळ त्रण लोकना मुमुक्षु जीवोने माटे
मोक्षनो उपाय छे.
त्रणे काळना अरिहंतोनो उपदेश एक ज प्रकारनो छे के स्वाश्रये धर्म छे. भूतकाळे भगवान मोक्ष पाम्या
तेओ आ ज विधिथी पाम्या छे, अने अरिहंत दशामां तेओए ते काळे प्रत्यक्ष सांभळनारा जीवोने ए ज मार्ग
उपदेश्यो तेम ज भविष्यकाळना मुमुक्षुओने माटे पण ते एक ज उपाय स्थाप्यो छे.
प्रभु मोक्ष पधारतां पहेलांं जगतना मुमुक्षु जीवोने मोक्षनो उपाय सोंपी गया छे.. अमे आ उपायथी
मोक्ष पामीए छीए ने जगतना मुमुक्षुओ पण आ ज उपायथी मोक्ष पामशे. जेम अंतिम समये पिता पोताना
पुत्रने मूडी सोंपी दे छे अने भलामणो करे छे, तेम अहीं परम धर्मपिता सर्वज्ञप्रभु परमवीतराग आप्तपुरुष
मुक्ति पामतां पहेलांं (–सिद्ध थतां पहेलांं) तीर्थंकरपदे दिव्य उपदेश द्वारा जगतना भव्य जीवोने मोक्षनो उपाय
दर्शावे छे–तेमना स्वभावनी मूडी सोंपे छे.. हे जीवो! तमारो आत्मा सिद्धसमान शुद्ध छे, तेने ओळखीने तेनुं
शरण लो...स्वभावनुं शरण ते मुक्तिनुं कारण छे, बहारनो आश्रय ते बंधनुं कारण छे. धर्मपिता तीर्थंकरो
आवो स्वाश्रित मोक्षनो मार्ग बतावीने सिद्ध थया; अहो! तेमने नमस्कार हो.
साधक आत्माना परम पिता श्री तीर्थंकर देव छे. तेओ भलामण करे छे के अहो जीवो! आत्माने
ओळखो.. आत्माने ओळखो. आत्मा स्वाधीन सत् पदार्थ छे, ते परना आश्रय वगरनो पोताथी परिपूर्ण छे.
भगवानने स्वाश्रयभावनी पूर्णता थतां केवळज्ञान थाय छे; समवसरण रचाय छे, दिव्यवाणी “
वीतरागभावे छूटे छे ने बार सभाना जीवो ते उपदेश सांभळे छे. भगवाननी वाणीमां एम उपदेश छे के
आत्माने ओळखो...रे...ओळखो...सर्व प्रकारे आत्मस्वभावनो ज आश्रय करो. ते ज मुक्तिनो रस्तो छे...
अनंत तीर्थंकरोए दुंदुभीना नाद वच्चे दिव्यध्वनिथी आ एक ज मार्ग जगतना जीवोने दर्शाव्यो छे.
जिनेन्द्र देवोए आत्मस्वभाव तरफना पुरुषार्थथी मुक्ति प्राप्त करी छे अने दिव्यध्वनिमां जगतना
जीवोने पुरुषार्थनो ज उपदेश कर्यो छे... हे जगतना जीवो! संसार समुद्रथी पार थवा माटे साचो पुरुषार्थ करो...
पुरुषार्थ करो. पोताना आत्माने सर्वज्ञ जेवो समजीने सर्वज्ञनी ओथ दईने पुरुषार्थ करो... सर्वज्ञनुं अनुकरण
करीने सर्वज्ञ जेवो पुरुषार्थ करो... जेम सर्वज्ञदेवे स्वाश्रय कर्यो तेम तमे तमारा आत्मानो आश्रय करो.
आचार्यदेव कहे छे के अरिहंत भगवान जेवा अमारा चैतन्यमूर्ति स्वभावना श्रद्धा–ज्ञान करीने अमे
अमारा ज्ञानने स्थिर कर्युं छे, अने ते अमे अमारा अनुभवथी जाण्युं छे. हवे अमारी मतिने फेरववा कोई समर्थ
नथी. जेणे स्वभावनो निर्णय करीने ज्ञानने स्वभावमां स्थिर कर्युं छे तेणे स्वाश्रित मोक्षमार्गने अंगीकार कर्यो
छे. स्वभावना आश्रये प्रगटेलो भाव सदाय स्वभाव साथे अभेदपणे टकी रहे छे. तेथी, आचार्यदेव कहे छे के
अमे अमारा स्वभावनो आश्रय कर्यो छे तेथी मोहनो क्षय करीने अप्रतिहतभावे केवळज्ञान प्रगट करवाना
छीए... जेम अरिहंतो मोक्ष पाम्या तेम अमे पण ए ज प्रकारनो पुरुषार्थ करीने मोक्ष पामवाना छीए..
भगवंतोने नमस्कार हो!
पोते स्वाश्रयमां मति स्थापी छे, पण हजी छठ्ठा गुणस्थाने रागनी वृत्ति ऊठे छे, तेथी आचार्यदेव
भगवान तरफना उल्लासने जाहेर करतां कहे छे के अरिहंत भगवंतोने नमस्कार हो.. अहो नाथ! तमे
स्वभावना आश्रये मोहनो क्षय करीने केवळज्ञान पाम्या, तेम हुं पण तमारो ज वारसो लेवा माटे स्वाश्रयथी
तमारी पाछळ चाल्यो आवुं छुं. अहीं! जेणे आवो पूर्ण स्वतंत्र स्वाश्रित मार्ग बतावीने अनंत उपकार कर्यो ते
भगवंतोने हुं नमस्कार करुं छुं–एटले के हुं पण ए स्वाश्रयने ज अंगीकार करुं छुं. भगवानना चरणकमळमां
अमारा नमस्कार हो, भगवाने बतावेला स्वाश्रितमार्गने अमारा नमस्कार हो. आचार्यदेव पोते पोताना मोक्ष
माटेनो उत्साह अने खुशाली जाहेर करे छे के हे प्रभो! जे रीते आपे मुक्ति करी ते ज रीते अमे पण मोक्षना ज
रस्ते छीए, अमे पण केवळज्ञान प्रगट करशुं अने अमे पण ते ज उपदेश करीने निर्वाण पामशुं. बीजुं तो शुं
कहीए? भगवंतोने नमस्कार हो. जे जीवोने स्वाश्रयनी रुचि होय अने पराश्रयनी रुचि टळी गई होय ते ज
जीव भगवंतोने नमस्कार करे छे. खरेखर भगवाने जेवो स्वाश्रयमार्ग
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 24 of 43
single page version

background image
फागण : २४७७ : १०१ :
उपदेश्यो तेवो समजीने तेवो स्वाश्रय पोतामां प्रगट करवो ते ज भगवानने नमस्कार छे.
आचार्यदेव कहे छे के अहो, जेमणे आवो स्वभाव मने समजाव्यो ते भगवंतोने नमस्कार हो. भगवंतो
पोते स्वाश्रित शुद्धोपयोगना बळथी मोहनो नाश करीने जगतने पण एवो ज उपदेश आपीने सिद्ध थया;
तेमने वंदन हो. आचार्यदेव पोते छद्यस्थ छे तेथी विकल्प छे; भगवानने नमस्कार करतां विकल्पनो निषेध करे
छे ने पूर्ण शुद्धउपयोगनो ज आदर करे छे. जेटलो शुद्धोपयोग प्रगट्यो छे तेटलो निश्चय छे, विकल्प वर्ते छे ते
व्यवहार छे. ते व्यवहारनो निषेध छे, ने शुद्धातानो आदर छे. –ए रीते आचार्यदेवने निश्चय–व्यवहारनी संधि
छे. वर्तमान विकल्प छे तेनो आदर नथी पण सर्वज्ञदेवे जे स्वभाव बताव्यो ते स्वभावनो ज आदर छे.
विकल्पने कारणे एम कह्युं के भगवंतोने नमस्कार हो... एटले खरेखर तो भगवान जे रीते स्वाश्रय करीने पूर्ण
थया ते ज रीते हुं स्वाश्रयने अंगीकार करुं छुं– ए ज तीर्थंकरोनो पंथ छे.
अरिहंत भगवंतो स्वाश्रित ज्ञाननी विधि वडे ज मोहनो क्षय करीने केवळज्ञान पाम्या; अने पछी
दिव्यध्वनिमां जगतना भव्य जीवोने पण एम ज उपदेश आप्यो के, हे जगतना भव्य आत्माओ! जे रीते अमे
कहीए छीए ते रीते तमे आत्माना द्रव्य–गुण–पर्यायनो तमारा ज्ञानमां निर्णय करो... अने तमारा पर्यायने
पराश्रयथी छोडावीने स्वाधीन आत्मतत्त्वमां वाळो. अमे पुरुषार्थ वडे सम्यक् आत्मस्वभावनी श्रद्धा अने
एकाग्रताथी मोहक्षय करीने केवळज्ञान पाम्या छीए, तमने पण ते ज विधिवडे, पुरुषार्थपूर्वक पोताना सम्यक्
आत्मतत्त्वनी श्रद्धा अने एकाग्रता करवाथी मोहनो क्षय थईने सम्यग्दर्शन अने केवळज्ञाननी प्राप्ति थशे. माटे
पुरुषार्थ वडे स्वाश्रय करो...
आचार्यप्रभु कहे छे के–स्वाश्रयना पुरुषार्थ वडे मोहनो क्षय करीने जेओ केवळज्ञान पाम्या अने जगतने
ए ज स्वाश्रयमार्गनो उपदेश आपीने जेओ सिद्ध थया एवा भगवंतोने हुं नमस्कार करुं छुं. हे नाथ! हुं आपने
नमुं छुं... जे मार्गे आप निवृत्त थया ते ज मार्गे हुं चाल्यो आवुं छुं. हे पूर्णपुरुषार्थना स्वामी, भगवान्!
आपना दिव्य उपदेशनी कोई अद्भुत बलिहारी छे. आपनो उपदेश जीवोने पराश्रयथी छोडावीने मोक्षमार्गमां
लगाडनारो छे. आपना चरणकमळमां हुं नमस्कार करुं छुं... कई रीते नमुं छुं? आपना उपदेशने पामीने. आपे
उपदेशेला स्वाश्रित विधिने अंगीकार करीने हुं आपना पंथे चाल्यो आवुं छुं.
अहीं एक ज प्रकारना विधिवडे मोक्षनो उपाय बताव्यो. बीजा कोई विधिथी मोक्षनो उपाय छे नहि. मूढ–
अज्ञानी लोको तो आवी मान्यताने एकांतिक मान्यता माने छे केम के तेमने स्वाश्रयमार्गनुं भान नथी.
ज्ञानीओ तो कहे छे के आवा स्वाश्रयमार्गनी यथार्थ मान्यता ते क्षायक जेवुं अप्रतिहत सम्यग्दर्शन छे. अहो
नाथ! जे उपाये आपे द्रव्य–गुण–पर्यायने ओळखीने, क्रमबद्ध आत्मपर्यायने जाणीने, अभेद स्वरूपनी प्रतीति
अने स्थिरता करीने, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप निर्मळ दशा प्रगट करी अने अरिहंतदशा पाम्या, तथा
जगतने ते ज उपदेश करीने सिद्धदशा पाम्या, तेम अमे पण आपनो स्वाश्रयनो उपदेश सांभळीने, ए ज रीते
स्वाश्रय वडे सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र प्रगट करीने मुक्त थईशुं. ए माटे हे प्रभो! आपने नमस्कार हो.
‘आत्मा ज्ञानस्वभावी छे, ए स्वभावना आश्रये जाणनार–देखनार रहीने जाण.’ –आ जिनेन्द्रदेवना
सर्व उपदेशनो मूळ सार छे... भगवान कहे छे के–जेवा भगवान अमे, तेवो ज भगवान तुं. आवडा मोटा
रागरहित परिपूर्ण स्वभावनो जेणे पोताना ज्ञानमां निर्णय कर्यो तेणे एकला आत्माना आश्रयनो स्वीकार
कर्यो अने समस्त परद्रव्य तेम ज परभावोना आश्रयनी मान्यता छोडी तेने अनंत पुरुषार्थ प्रगट्यो छे.. ए
जीव तीर्थंकरोना पंथे चालवा मांडयो छे.
आचार्यदेव कहे छे के हे भाई! तीर्थंकरोए स्वाश्रयनो उपदेश कर्यो हतो; अत्यारे पण स्वाश्रय थई शके
छे. तीर्थंकरो कांई एम कहेता नहोता के ‘तुं अमारो आश्रय कर.’ तीर्थंकरो तो एम कहेता हता के तुं तारा
स्वभावनो निर्णय करीने तारो ज आश्रय कर. अत्यारे पण स्वभावनो निर्णय करीने–स्वाश्रय प्रगट करीने
तीर्थंकरोना पंथे विचरी शकाय छे.
श्री सीमंधरादि अरिहंत भगवंतोने नमस्कार हो.
श्री तीर्थंकरोना स्वाश्रित पंथने नमस्कार हो.
तीर्थंकरोनो पंथ दर्शावनारा संतोने नमस्कार हो.
(श्री प्रवचनसार गा. ८२ उपरना पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनोमांथी केटलाक अंशो)
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 25 of 43
single page version

background image
: १०२ : आत्मधर्म : ८९
वीतरागना भक्त केवा होय?
तीर्थधाम सोनगढमां भगवान श्री सीमंधर प्रभुनी
पंच कल्याणक प्रतिष्ठानो अठ्ठाई महोत्सव प्रसंगे, वीर सं.
२४७६ना महावद १२ ना रोज, पद्मनंदीपचीसीना
शांतिनाथ स्तोत्र उपर पू. गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन
(१४) वीतरागना भक्तनी जवाबदारी
आ श्री शांतिनाथ भगवाननुं स्तोत्र वंचाय छे. आत्मा शांत अविकारी स्वरूप छे, शांति माटे तेने कोई
पर पदार्थोनुं आलंबन नथी. आत्मानी शांति स्वालंबी छे, बाह्य पदार्थोनुं आलंबन लेवुं पडे ते विकार छे.
भगवानने पूर्ण स्वालंबी शांति प्रगटी गई छे, जेने एवी शांतिनी रुचि होय ते भगवानने ओळखीने तेमनी
भक्ति करे छे. ईन्द्रो आवीने त्रिलोकनाथ तीर्थंकर प्रभुना चरणे नमी पडे छे ने स्तुति करतां कहे छे के हे नाथ!
पुण्यना फळमां मळेला आ ईन्द्रपद ने देवांगनाओ वगेरे वैभव ते कांई अमारे आदरणीय नथी, प्रभो! आपने
जे वीतरागी शांतस्वभाव प्रगट्यो छे तेनो ज अमने आदर छे–आम जे समजे तेणे भगवाननी भक्ति करी
कहेवाय. पुण्यने आदरवा जेवां माने तो तेणे भगवाननी खरी भक्ति करी नथी. भगवाननो आदर करनार
पुण्यनो आदर न करे.
ईन्द्रने पुण्यनो ठाठ होवा छतां, जेणे पुण्य वैभवोनो त्याग कर्यो छे एवा संतना चरणे ते नमे छे... केम
के तेनामां वीतरागता छे तेनुं ज ते बहुमान करे छे. आनो अर्थ ए थयो के भगवानने नमन करनार जीवने
पुण्यनी रुचि नथी पण वीतरागतानुं ज बहुमान छे. अहो! वीतरागदेवने नमता जीवने द्रष्टिमां वीतरागता
रुचि, हवे ते जीव आत्मस्वभावथी विरुद्ध भावोने नमे ए केम बने? –एक म्यानमां बे तलवार न होय.
(१प) भगवानना भक्त–ज्ञानीनी दशा केवी होय?
अहो! वीतराग स्वभावी आत्मानी रुचि करीने, तेनां गाणां गाईने अनुमोदन कर्युं छे.. हवे आवो
आत्मा प्राप्त कर्ये ज छूटको... एनाथी विरुद्ध पुण्यनां फळनी रुचि नथी. एकनी अस्तिमां बीजानी नास्ति छे,
ज्ञानस्वभावी आत्मानी रुचिनी अस्तिमां विकारनी रुचिनी नास्ति छे. ज्ञाननी रुचि थाय ने विकारनी रुचि न
टळे एम बने नहि. बनारसीदासजी कहे छे के–
ज्ञानकला जिसके घट जागी ते जगमांही सहज वैरागी,
ज्ञानी मगन विषय सुख मांही यह विपरीत संभवे नांही...
अहो... जेना अंतरमां आत्मज्ञानरूपी कळा प्रगटी ते जीव जगतमां सहज वैरागी होय छे... ज्ञानी
विषय सुखमां मग्न होय एवी विपरीत आत कदी संभवती नथी. आत्म ज्ञान थाय ने विषयोमांथी सुखबुद्धि
न टळे एम कदी न बने. समयसारना निर्जरा अधिकारमां सम्यग्द्रष्टिनुं वर्णन करतां भगवान श्री
कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के–मिथ्यात्वनी गांठ टळीने, हुं आत्मा निर्मळ ज्ञायक छुं एवुं जेने भान थयुं ते ज्ञानी
पाखंडीनी प्रीति करे के विषयोमां सुख माने–एवी ऊंधाई कदी संभवे नहीं. एकनो हकार त्यां बीजानो नकार...
स्वनी रुचि त्यां पर प्रत्ये उदासीनता... ज्ञान साथे वैराग्य सहज होय ज छे. कोई कहे के ‘आत्मा शुद्ध, पूर्ण
वीतराग छे’ एवुं भान थयुं छे पण मारी रुचि पर उपरथी खसी नथी,–तो ते बने नहि. पर उपरनी रुची न
खसी होय तो आत्मानी रुचि थई ज नथी. ज्ञानीने आत्मा सिवाय बीजा विषयोनी रुचि होय नहि. धर्मनी
ओळखाण थाय, आत्मानी प्रीति थाय ने बीजा उपरथी प्रीति न खसे–ए केम बने? ‘हुं ज्ञानमूर्ति आत्मा
परथी नीराळो छुं, मारी शांति मारामां छे’ –एवुं भान करीने वीतराग आनंदघन स्वभावना गुण गानार
जीव विषयोनां गाणां केम गाय? कदी न गाय. अहीं सर्वज्ञ भगवाननी स्तुति चाले छे. भगवानने आत्मानुं
भान थयुं त्रण काळ त्रणलोकनुं ज्ञान थयुं आत्मा शक्तिपणे तो पूरो हतो ज ने हवे ते पूर्ण शक्ति उघडी गई...
आवा वीतराग भगवानने ओळखीने तेमनां गुण गानार विकारना कोई पडखांने वखाणी न शके...अने जो
विकारनां पडखांने वखाणे तो ते वीतरागनो भक्त नहि, धर्मी जेने वीतराग स्वभावनी रुचि नथी
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 26 of 43
single page version

background image
फागण : २४७७ : १०३ :
ते ज विषयोनी प्रीति करे छे. वीतराग स्वभावनी रुचिवाळाना हृदयमां बीजे क्यांय आनंद न आवे.
भगवाननी भक्ति करवाथी कांई भगवान कोईने कंई आपी देता नथी. पण, जेवा भगवान तेवो हुं, भगवान
पण आत्मानी शक्तिमांथी ज थया छे–आवुं भान करीने पोते पोतामांथी धर्म काढे छे. लोको पण कहे छे के
‘कोईनुं आप्युं ताप्युं पहोंचे नहि’ एटले जो भगवान मुक्ति आपता होय तो वळी बीजो कोई आवीने ते
पडावी ल्ये... पण एम नथी. पोते पोताना त्रिकाळी स्वभावना आश्रये ज मुक्ति प्रगट करे छे, ने नित्यना
आश्रये प्रगटेली ते मुक्ति पण नित्य टकी रहे छे. पोताना आवा स्वभावनुं भान करे तो तेणे ‘भगवाननुं
शरण लीधुं’ एम व्यवहारथी बोलाय छे.
(१६) एकवार वंदे जो कोई...
शक्तिरूपे दरेक आत्मा पोते ‘शांतिनाथ भगवान’ छे; ने व्यक्तिरूपे जे प्रगट परमात्मा थया छे एवा
त्रिलोकनाथ तीर्थंकर वीतरागी चैतन्य भगवान... अहो! तेनुं शरण जोईए. भक्तिमां आवे छे के एक वार जो
यथार्थपणे प्रभुवंदना थाय तो कार्यनी सिद्धि थई जाय... अत्यारे महाविदेहमां सीमंधरनाथ प्रभु बिराजे छे. हे
त्रिलोकीनाथ देवाधिदेव भगवान्! आपने जो एकवार ओळखीने वंदना करे तो तेने जन्म–मरण न रहे. कई
रीते? – ‘हे नाथ! जेवो आपनो स्वभाव तेवो ज मारो स्वभाव छे, हुं शुद्ध पवित्रस्वरूप छुं, कोई बीजा पासेथी
मारे लेवुं नथी, मारी अखंड चैतन्य रिद्धि मारी पासे ज छे’ आवा भानसहित भगवानने नम्यो तेने भव रहे
नहि. भगवानने ‘त्रिलोकनाथ, त्रिलोकपति’ कहेवाय छे, त्यां भगवान कांई जडना के परना धणी नथी पण
तेमना दिव्य ज्ञानमां त्रणलोक प्रतिभासे छे माटे तेमने ‘त्रिलोकपति’ कहेवाय छे. आवा भगवानने ओळखीने
तेमनी भक्ति करतां ‘हुं ज मारो रक्षक छुं’ एम न कहेतां, ‘हे भगवान! आप अमारा रक्षक छो’:–एम
विनयना भावनी भाषा आवे छे.
(१७) वीतरागना भक्तने रागनो आदर न होय
भक्तिमां जे शुभराग छे तेनो आदर धर्मात्माने होतो नथी. अहो! जे भावे तीर्थंकरनामकर्म बंधाय के
ईन्द्रपद, चक्रवर्तीपद के बळदेव–वासु देवनी पदवी मळे, ते भावने धर्मी जीव शुभविकार जाणे छे, वीतरागताना
आदर पासे ते कोई भावनो आदर तेमने होतो नथी. जे रागथी पुण्यनी प्रकृति बंधाय ते पण बंधनभाव छे,
धर्मीने ते रागनो आदर न होवा छतां, हजी वीतरागता पूरी थई नथी एटले अधूरी दशामां धर्मवृद्धिना
शुभविकल्पथी तीर्थंकरप्रकृति वगेरे बंधाई जाय छे. देवाधिदेव तीर्थंकरनो आत्मा ज्यारे माताना गर्भमां आवे
त्यारे चौद ब्रह्मांडमां प्रकाश थाय. भगवान तो महा पवित्रता अने पुण्यना पूतळां छे. हुं मारी वीतरागता पूर्ण
करुं, ते सिवाय बीजुं कांई जोईतुं नथी–एवी भावनामां वच्चे अल्प राग रह्यो तेनाथी तीर्थंकरप्रकृति बंधाई
गई...ने त्रिलोकपूज्य तीर्थंकरपद थयुं.
प्रश्न:– एक रागना कणीयामां आटलुं थाय, तो झाझा रागमां तो केटलुं थाय!
उत्तर:– अरे भाई! रागनी भावनावाळाने ए पद–नथी मळतां. जे रागथी तीर्थंकरादि पद मळे ए राग
विषय–कषायनो नहि...पण ते तो आत्माना भानपूर्वक धर्मवृद्धिनो राग हतो, आत्मस्वभावनी भावना हती,
रागनी भावना न हती. जेने रागनो राग छे तेने तो अधर्मनो राग छे, तेने ऊंचा पुण्य बंधाता नथी. ‘हुं
निर्मळज्ञानघन आत्मा छुं, रागनो एक अंश पण मारो नथी’–एवा भान सहित धर्मनुं वलण छे त्यां कंईक
राग रही गयो ते प्रशस्त राग छे, ने ते रागमां पण आदरबुद्धि नथी, त्यां तीर्थंकरप्रकृति वगेरे पुण्य बंधाई
जाय छे. जे जीव आत्माना वीतरागी स्वरूपने तो समजे नहि ने रागने आदरणीय माने ते आत्मस्वरूपनो
भक्त नथी, वीतरागदेवनो सेवक नथी. जेने आत्मानी रुचि होय ते वीतराग परमात्मा सिवाय बीजा कोईना
गाणां न गाय, एना अंतरमां लक्ष्मी कुटुंबना गाणां न होय.
(१८)...तो जीवननी सार्थकता शी?
पाछळ दीकरा, मकान, लक्ष्मी वगेरे मूकीने चाल्यो जाय त्यां पाछळना लोको कहेशे के ‘बापा लीलीवाडी
मूकीने गया’...पण ज्ञानी कहे छे के अरे बापु! ए तो पूर्वनां जे पुण्य लईने आव्यो हतो ते बाळीने चाल्यो
गयो... जीवनमां आत्मानी ओळखाण न करी तो तेनी शी गणतरी? पाछळ बधुं रह्युं तेमां आत्माने शो
लाभ? ए तो आत्माना भान विना मरीने क्यांय चाल्यो गयो.
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 27 of 43
single page version

background image
: १०४ : आत्मधर्म : ८९
जगतना घणा जीवो आत्मानी दरकार वगर अणशीया ने कूतरां–गलूडीयांनी जेम करे छे. अहो! अनंतकाळना
अजाण्या जीवो...ने अजाण्या पंथ...तेमां आत्मानी शांतिनुं भान न करे ने आत्मानी रुचि पण न करे तो जन्म–
मरण क्यांथी मटे?
(१९) ईन्द्रनी भक्ति अने भावना...
अहीं वीतरागभगवाननी भक्तिनुं वर्णन छे, ओळखाण अहितनी वात छे. जेने आत्मानुं भान छे
अने जे एकावतारी छे एवा ईन्द्रो भगवान पासे भक्तिथी नाची ऊठे छे...तीर्थंकरभगवाननो जन्म थतां ईन्द्री
आवीने भगवाननी मातानी स्तुति करतां कहे छे के हे माता! तें जगतनो दीवो दीधो... हे जगत्दीपकनी दातार,
माता! तें अमने जगतप्रकाशक दीवो आप्यो. हे लोकनी माता! तें अमने जगतनो नाथ आप्यो... तुं
तीर्थंकरभगवाननी जनेता छो... ईन्द्रने पोताने त्रण ज्ञान छे, आत्मानुं भान छे, एक भवे मोक्ष जवानुं छे ते
पोताने अंदर नक्की थई गयुं छे, ने आ भगवान तो आ ज भवे मोक्ष जवाना छे. जेने एकभवे मोक्ष जवुं छे
एवा ईन्द्र, ए ज भवे मोक्ष जनारा भगवानना गाणां पेट भरीने गाय छे अर्थात् गाणां गाता धराता नथी.
ईन्द्रने पुण्यनी भावना नथी... ईन्द्रासने बेसे त्यारे य भावना करे छे के–आ ईन्द्रनी रिद्धि ते कांई अमारुं नथी,
अमे तो चैतन्यस्वरूप छीए... अहा, धन्य ते घडी अने धन्य ते पळ, के जे टाणे मनुष्यभव पामी, चारित्र
लईने मुनि थशुं ने केवळज्ञान पामशुं. ए चारित्रदशा पासे आ ईन्द्रपणानी ऋद्धि तो तूच्छ छे. चारित्रनुं
उत्तममां उत्तम साधन जे मुनिदशा–केवळज्ञानने हथेळीमां लेवानी तैयारी–तेनां तो ईन्द्र पण गाणां गाय छे ने
तेनी भावना करे छे. मंदमतिना नाना गजना मापे मोटी वात न बेसे तो पण त्रण काळमां एम ज छे,
महाविदेहमां भगवाननी धर्मसभामां ए प्रमाणे थाय छे. जेम मेडी उपरना राच अने वैभव तद्न हेठे उभेलो
शुं भाळे? दादरे चडेलो देखीने कहे के–अहीं घणा वैभव भर्या छे, पण नीचे उभेलो कहे के ‘मने तो कांई देखातुं
नथी’ पण भाई! दादरे चडीने ऊंचे जो तो देखाय ने? तेम चैतन्यभगवान आत्मानी अनंत समृद्धि, ने
आत्माना केवळज्ञाननी समृद्धि तेम ज तीर्थंकरना समवसरणनी विभूति (अर्थात् ऊर्ध्वगामी–आत्मारूपी
मेडीनो वैभव) जोवा माटे ऊर्ध्वगामी था एटले के अंतरमां त्रिकाळी स्वभावनी श्रेणीना पगथीये चड,
अंतरमां जागीने वीतरागस्वभावने जोवानी ओळखाण लाव. बहारमां जोये कांई नहि देखाय, अंतरना
स्वभावमां आगळ जा तो अनंत केवळज्ञाननी ऋद्धि देखाशे.
(२०) भगवाननी साची भक्ति अने भगवाननो भेटो
आचार्यदेव कहे छे के भगवाननी धर्मसभामां देवो द्वारा जे दुन्दुभी–नगारुं वागे छे ते भगवाननी
प्रभुतानो पोकार करी रह्युं छे के जगतमां सेववायोग्य देवाधिदेव होय तो ते एक आ ज छे; आना जेवो कोई
ऊंचो पुरुष नथी, आना सिवाय कोई त्रिलोकनाथ न होई शके. अने त्रिलोकनाथ भगवाने दिव्यध्वनिरूपी
नगारामां आत्मानी प्रभुतानी घोषणा करी के बधा जीवो स्वभावे भगवान ज छे... तमे तमारा स्वभावने
समजीने धर्म पामी जाओ... आत्माना स्वभावनी पूर्ण थयेली दशामां वर्तता अरिहंतभगवानने जे वाणी
नीकळी, ते आत्महितकारी वाणी कोने मान्य छे? –के सज्जनोने मान्य छे. हे नाथ! हे तीर्थंकर! जेओ
आत्महितना कामी छे एवा ऊंडा पुरुषोने–आत्मार्थी पुरुषोने–आत्मानी रूडी श्रद्धा ने निर्मळज्ञान करे तेवा धर्मी
जीवोने–आपनी ज वाणी मान्य छे. दुर्जनोए पोतानी कल्पनाथी जे मान्युं छे ते यथार्थ स्वरूप नथी. अज्ञानी
माणसो तो जाणे के भगवान कांईक लक्ष्मी वगेरे आपी देशे–एम मानीने ‘हे दीनानाथ दया करजो’ –एम
स्तुतिमां बोले छे, ते खरेखर वीतरागदेवनी स्तुति नथी करतो, पण विषय–कषायनी स्तुति करे छे, तेणे
वीतरागने ओळख्या नथी. ‘हे दीनबंधु! दया करजो’ एम ज्ञानीनी भाषामां आवे पण ज्ञानी समजे छे के आ तो
फक्त भक्तिना उपचारनी भाषा छे, भगवानने कांई दयानो रागभाव होतो नथी. ने भगवान मने कांई देता
नथी, मारी प्रभुता मारा स्वभावमांथी आववानी छे. आम पोतानी प्रभुतानुं भान राखीने धर्मात्मा जीव
भगवाननी भक्ति करे छे. ‘दीनदयाळ’ एवा बिरूदनो अर्थ समज्या वगर, खरेखर भगवान मने कांई आपी
देशे एम मानीने, भगवान पासेथी, कांई लेवानी ईच्छाथी जे स्तुति करे छे ते तो पोताने रांको–रागी अने परनो
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 28 of 43
single page version

background image
फागण : २४७७ : १०५ :
ओशीयाळो माने छे, पोते पोताने गाळ दे छे–एने धर्म थतो नथी. जेम सूरज सामे धूळ उडाडनार खरेखर पोते
पोतानी आंखमां ज धूळ नांखे छे, तेम भगवानने रागी माननार खरेखर पोते पोताना आत्माने ज गाळ दे छे.
हे नाथ! आपने तो कोई प्रत्ये राग के द्वेष नथी, आप पूर्ण सर्वज्ञताने पाम्या छो, ने हुं हजी अधूरो छुं, तेथी
आपने ओळखीने पूर्णतानी भावनाथी आपनी भक्ति करुं छुं. पूर्णतानी भावनाथी सो ईन्द्रो ने गणधरादि संतो
चरणकमळ सेवे तेमना प्रत्ये आपने राग नथी, ने कोई निंदा करे तो तेना प्रत्ये द्वेष नथी. मारुं पूर्ण स्वरूप
अंतरमां छे ते प्रगटतां वच्चे विकल्प ऊठ्यो छे एटले हे वीतराग नाथ! वच्चे आपने राखीने वंदन करुं छुं.
परमार्थे तो भगवाननी भक्ति एटले आत्मानी ओळखाण अने बहुमान; तेमां वच्चे विकल्प ऊठ्यो ते व्यवहार
भक्ति छे, राग छे; ते रागना फळमां पुण्य बंधाय अने बाह्यमां साक्षात् भगवाननो भेटो थाय.. ने अंदरनी
परमार्थ भक्तिना फळमां पोतानी परमात्मदशा प्रगटे. आत्मा शुद्ध छे तेनी श्रद्धा अने स्थिरतारूपी भक्ति जामी
जाय तो अंदरना भगवाननो भेटो थाय.
शांतिनाथ भगवाननी स्तुति करतां आचार्यदेव कहे छे के हे नाथ! आपनां ज वचनो सज्जनोने मान्य
छे; केम के तत्त्वनो निर्णय करवामां भगवाननुं वचन काम करे छे तेवुं अन्य कोईनुं वचन उपयोगी थतुं नथी.
माटे सज्जनो आपनी वाणी सिवाय कोईने आदरता नथी. ‘एवा शांतिनाथ भगवान अमारुं रक्षण करो;
रक्षणनो अर्थ शुं? के मारा आत्मस्वरूपनी जेटली दशा पामेलो छुं त्यांथी हेठे पडुं नहि ने आगळ वधीने पूरो
थाउ–एनुं नाम आत्मानुं रक्षण छे. पोते पोताना भावथी तेवुं रक्षण करे छे त्यां विनयथी कहे छे के ‘श्री
शांतिनाथ भगवान अमारुं रक्षण करो.’
(२१) दिव्य सिंहासन उपर बिराजमान निरालंबी जिनेन्द्रनी स्तुति
पहेलां श्लोकमां त्रण छत्रनुं वर्णन करीने भगवाननी स्तुति करी, बीजा श्लोकमां देव दुन्दुभीनुं वर्णन
करीने भगवाननी स्तुति करी, हवे त्रीजा श्लोकमां सिंहासननुं वर्णन करीने भगवाननी स्तुति करे छे–
दिव्यस्त्रीमुखपंकजैकमुकुर प्रोल्लासिनानामणि
स्फारीभूतविचित्ररश्मिरचिता नम्रामरेन्द्रायुधैः।
सच्चित्रीकृतवातवर्त्मनिलसत्सिंहासने यः स्थितः
सोऽस्मानू पातु निरंजनो जिनपतिः श्री शांतिनाथः सदा।।३।।
देवांगनाओना मुखकमळरूपी एक दर्पणमां देदीप्यमान अनेक प्रकारना रत्नोना चारे बाजु फेलायेला
किरणो वडे रचायेलुं तथा नमतुं जे ईन्द्रधनुष, तेनाथी चित्रविचित्र थयेला आकाशमां दिव्य सिंहासन उपर जे
बिराजमान छे एवा निरंजन जिनेन्द्रदेव श्री शांतिनाथ भगवान सदा अमारी रक्षा करो.
जुओ, आचार्यदेवनी भक्ति! त्रिलोकनाथ तीर्थंकर भगवान धर्मसभामां बिराजता होय छे ने ईन्द्र–
ईन्द्राणी तेमने नमस्कार करे छे. ते देवांगनाना मुखने दर्पणनी उपमा छे, ते दर्पणमां रत्नोना प्रतिबिंब पडे छे,
ने तेना प्रकाशनी झांईथी आकाशमां जुदी जुदी जातना रंग थाय छे तेथी ईन्द्रधनुष जेवुं लागे छे. –एवा
आकाशनी वचमां दिव्य–सिंहासन उपर हे नाथ! आप बिराजो छो. छत्र, दुंदुभी ईन्द्राणी के सिंहासन वगेरे
जोतां अमने तो एक भगवान ज याद आवे छे.. एक भगवानननी ज मुख्यता भासे छे. हे नाथ! तारा
पुण्यनी अलौकिक ऋद्धिमां ज्यां नजर करुं छुं त्यां सारमां सार एवा एक आपने ज देखुं छुं. समवसरणमां
भगवान सिंहासनथी पण चार आंगळ ऊंचे आकाशमां निरालंबीपणे बिराजे छे. ते निरालंबी भगवानने
जोतां, सारमां सार निर्मळ निरालंबी भगवान आत्मानुं लक्ष थाय छे. जेम भगवाननो देह निरालंबी छे तेम
आत्मानो स्वभाव पण निरालंबी छे. जेम समवसरणमां संयोगने न जोतां भगवानने ज मुख्य भाळुं छुं तेम
अहीं पण, संयोगने न जोतां अंदरमां चैतन्य भगवान बिराजे छे तेने ज भाळुं छुं. आ देह–मन–वाणी वगेरे
चित्र विचित्र पदार्थो छे, ते संयोग विनानो एकलो भगवान अंदर बिराजे छे त्यां ज मारी द्रष्टि पडी छे. आवो
आत्मा सारमां सार छे. हे नाथ! हुं आवा पूर्ण वीतराग स्वभावनो दास छुं, ए सिवाय अधूरानो दास नथी.
––आम पहेलांं पूर्ण स्वभावने श्रद्धामां–रुचिमां लेवो ते धर्म छे.
(२२) धर्म
धर्म एटले शुं? के ‘
धारयतीति धर्मः’ एटले के जे
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 29 of 43
single page version

background image
: १०६ : आत्मधर्म : ८९
धारी राखे ते धर्म छे. अखंड शुद्ध आत्माने सम्यक् श्रद्धामां धारी राखवो ने अवगुणमां न पडवा देवो तेनुं नाम
धर्म छे. पहेलांं ऊंधी श्रद्धामां विषय–कषाय वगेरेनुं धारण हतुं ते अधर्म हतो ने तेनाथी जीव संसारमां पडतो
हतो. तेने बदले हवे चैतन्यमूर्ति वीतरागी आत्मस्वभावने श्रद्धामां धारण कर्यो ने आत्माने संसारमां पडतां
धारी राख्यो–अटकाव्यो–ते धर्म छे. पहेलांं आवी आत्मानी श्रद्धा करवी ते भगवाननी साची भक्ति छे. आ
सिवाय भगवाननी भक्तिथी शरीरादि सामग्रीनी रक्षा थवानुं भगवान पासे मांगे तो ते अज्ञानी छे,
भगवाननो भक्त नथी.
(२३) भगवानना भक्तनी भावना केवी होय?
‘अहो! मारो आत्मा भगवान जेवो सर्वज्ञ वीतराग परिपूर्ण छे’ –आम समजीने जे भगवाननी
भक्ति करे ते जीव जगतनी कई चीजनी स्पृहा राखे? –जगतनी कई चीजनो आदर करे? अत्यारे तो कोई
एम पण माने छे के ‘भगवान पासे भक्तामर–स्तोत्र बोलीए तो अन्न–वस्त्र वगरना न रहीए.’ अरे
भाई! शुं भगवान पासे ते आवी आशा होय? ज्ञानी तो भावना करे छे के हे नाथ! अमारुं रक्षण करो
एटले के अमारा आत्मामां श्रद्धा–ज्ञान ने वीतरागता प्रगट थाव... वीतरागी परिणाममां भगवाननुं
निमित्त छे एटले, ‘घीना घडा’ नी जेम, ‘भगवान अमारी वीतरागतानुं रक्षण करो’ एम व्यवहारथी
कहेवाय छे, पण खरेखर भगवान पासेथी कांई लेवानुं नथी, आत्मानो पोतानो स्वभाव क्यां अधूरो छे
के ते कोईक पासे रक्षण मांगे? धर्मसभामां वीतरागी त्रिलोकनाथ परमात्माए ज्यारे धर्मनी प्ररूपणा करी
त्यारे जे जीवो स्वभाव समज्या तेओ धर्म पाम्या... एटले भगवान तेना धर्ममां निमित्त थया. त्यां ते
जीवोने भगवान प्रत्ये भक्ति ऊछळे छे. भगवानना उपदेश वखते ते झीलीने धर्म पामनारा जीवो न होय
एम बने नहि.
(२४) तीर्थंकरनी वाणी छूटे त्यां धर्मनी वृद्धि करनारा जीवो होय ज.
महावीर भगवानने वैशाख सुद ६ समे केवळज्ञान थयुं पण छांसठ दिवस सुधी वाणी न छूटी... ईन्द्र
विचारे छे के–आ शुं? भगवानने त्रिकाळी ज्ञान थयुं... शरीरना रजकणो स्फटिक जेवा ऊजळा थई गया... देह
अधर आकाशमां पांचसो धनुष ऊंचे चडी गयो...समवसरणनी रचना थई... बार सभा भराणी... छतां
भगवाननी वाणी कां न छूटे? तेणे उपयोग मूकीने ज्ञानमां जोयुं के भगवाननी उत्कृष्ट वाणी झीली शके तेवा
गणधरपदने लायक पुरुषनी सभामां गेरहाजरी छे. अने एवा समर्थ श्री ईन्द्रभूति (–गौतम) छे. पछी ईन्द्र
तेमनी पासे जईने, भगवान साथे वादविवाद करवाना बहाने तेने तेडी लावे छे... मानस्थंभ पासे आवतां ज
ईन्द्रभूतिनुं मान गळी जाय छे... भगवाननी दिव्यवाणीनी धारा छूटे छे ने ईन्द्रभूति गणधर थाय छे... पहेलांं
तो ते पहेली भूमिकामां हता ने हवे छठ्ठी–सातमी भूमिकामां विचरवा लाग्या. अहीं वाणीनी लायकात अने
सामे गणधरपदनी लायकात–एवो मेळ सहेजे थई जाय छे. तीर्थंकरभगवाननी देशना छूटे त्यां ते झीलीने
धर्मनी वृद्धि करनारा जीवो–गणधर वगेरे तैयार होय ज छे. भगवाननी वाणी नीकळे ने सभामां धर्मनी वृद्धि
न थाय–एम कदी बने नहि. सामे गणधर न हता तो अहीं भगवाननी वाणी पण न नीकळी, जुओ मेळ!
वाणी झीलनार न होय ने भगवाननी वाणी एम ने एम नीकळी जाय–एम कदी बने नहि. आ जे वात
कहेवाय छे ते त्रणे काळे सत्य छे, पूर्व साधकदशामां धर्मवृद्धिना भावे वाणी बंधाणी, ते वाणी बीजाने धर्म
पमाडनारी छे... तीर्थंकर भगवाननी वाणी धर्म पामवानुं उत्कृष्ट निमित्त छे... ते वाणी छूटे ने धर्मनो लाभ
पामनार जीवो न होय एम बने नहि. जेम–ज्यां चक्रवर्ती पाके त्यां चौद रत्नो पण जगतमां पाके छे, तेम ज्यां
तीर्थंकर पाके त्यां गणधर वगेरेनी लायकातवाळा जीवो पण पाके छे. वीतरागनी उत्कृष्टवाणी ने जीवोनी
लायकातनो मेळ खातां मोक्षना कणसलां पाके छे. जेम कल्पवृक्ष पाके ने तेनुं फळ लेनारा न होय तेम न बने.
तेम ज्यां तीर्थंकर भगवान पाके त्यां तेमनो उपदेश झीलीने मोक्ष पामनारा जीवो न होय एम बने नहि. एवा
श्री सीमंधरादि तीर्थंकर भगवान अत्यारे महाविदेहमां साक्षात् बिराजे छे, अने त्यां घणा जीवो मोक्ष पामे छे..
ते सीमंधर भगवाननी आपणे अहीं स्थापना थवानी छे.
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 30 of 43
single page version

background image
फागण : २४७७ : १०७ :
... श्री सीमंधरनाथना प्रतिष्ठा प्रसंगे पू. गुरुदेवना श्रीमुखथी वहेली...
भक्ति–सरिता
तीर्थधाम सोनगढमां भगवान श्री सीमंधर प्रभुनी पंचकल्याणक
प्रतिष्ठाना अठ्ठाई महोत्सवमां, वीर सं. २४६७ ना माह वद ०)) ना रोज
प्रभुश्रीना जन्मकल्याणक प्रसंगे पद्मनंदी पचीसीना शांतिनाथस्तोत्र उपर पू. गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन










(२प) भगवाननो जन्म अने ईन्द्रोनी भक्ति
आ वीतराग भगवाननी स्तुति चाले छे. जे वीतरागस्वरूपना गाणां गाय तेना अंतरमां रागनी
पुण्यनी होंस न होय. जे जीव वीतरागताना गाणां गाय ते संसार भावनी होंस केम करे? एकनी रुचि थतां
बीजानी रुचि टळी जाय छे. असंख्य देवोना लाडा शक्रेन्द्र ने ऐशानेन्द्र पण भगवाननो जन्म थतां मोटो
जन्मोत्सव करवा आवे छे ने जन्माभिषेक करीने भक्तिथी थै थै करतां नाचे छे. हे तीर्थंकरनाथ! तारी भक्तिनी
शी वात करीए? साधारण जीवोना काळजे तारी भक्तिनी वात बेसवी कठण पडे तेवी छे.
तीर्थंकरना पुण्य अलौकिक होय छे...जेनाथी तीर्थंकरपद चक्रवर्तीपद; ईन्द्रपद, बळदेव–वासुदेव पद मळे
एवां पुण्य आत्मज्ञानी सिवाय बीजाने न बंधाय. भगवानने पूर्वे आत्मानुं भान हतुं... वीतरागस्वरूपनी
ओळखाण हती.. ते ओळखाण पोते पुण्यबंधननुं कारण नथी पण रागनो भाग बाकी हतो ते रागथी पुण्य
बंधाया. जेम वहाला पुत्रने जोतां मातानुं हैयुं प्रेमथी नाची ऊठे तेम भगवानने जोतां ईन्द्रो भक्तिथी नाची
ऊठे छे.
जेने आत्माना वीतराग स्वरूपनी प्रीति थई छे तेने त्रिलोकनाथ तीर्थंकर वीतराग परमात्माने देखतां
अंतरमां भक्तिनो पोरह चडे छे. ईन्द्र–ईन्द्राणी जेवा एकावतारी धर्मात्माओ पण तीर्थंकरनो जन्म थतां भक्ति
करवा आवे छे. ईन्द्राणी ते बाळकने लईने ईन्द्रना हाथमां आपे, ईन्द्र हजार नेत्र बनावीने भगवानने नीरखे
तोय तेने तृप्ति न थाय. पोते समकिती छे ने एक भवे मोक्ष जवाना छे पण ज्यां भगवानने हाथमां तेडे छे त्यां
अंदरथी पानो चडी जाय छे... त्यां वीतरागताना बहुमानना जोरे भवना भूक्का ऊडी जाय छे.
(२६) धर्मीने भगवाननी भक्ति ऊछळ्‌या विना रहशे नहि.
त्रण खंडना धणी श्री कृष्ण, तेनी माता देवकी; तेने नानपणथी कृष्णनो वियोग पड्यो छे... पछी ज्यारे
घणा काळे कृष्णने देखे छे त्यारे तेने देखतां ज ‘अहो! मारा कृष्ण’ एम पुत्र प्रेमथी तेनुं हैयुं फूलाय छे ने
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 31 of 43
single page version

background image
: १०८ : आत्मधर्म : ८९
स्तनमांथी दूधनी धार छूटे छे. पुत्रने तो कांई हवे दूधनी जरूर नथी पण माताना स्तनमांथी दूध छूट्या विना नहि रहे... तेम
आत्मा वीतरागस्वरूप चैतन्यमूर्ति आनंदघन छे तेनी जेने रुचि होय ते जीवने, बाह्यमां पण वीतरागताना निमित्तभूत
अरिहंत परमात्माने जोतां ज ‘अहो मारा भगवान...’ एम भक्ति ऊछळ्‌या विना रहेती नथी, जगत्गुरु तीर्थंकरने जोतां
ज अंदरथी भक्तिनो आह्लाद जागे छे. भगवान तो वीतराग छे तेने कांई भक्तिनी जरूर नथी पण जेने वीतरागतानी
साची प्रीति छे तेने भक्तिनो भाव ऊछळ्‌या वगर रहेशे नहि. अत्यारे भरतक्षेत्रे साक्षात् भगवानना तो विरह पड्या छे...
साक्षात् वीतराग प्रभुना विरहमां तेमनी वीतरागी मूद्रावाळी प्रतिमाने जोतां भगवाननुं स्मरण करीने भक्ति करे छे, ने
प्रतिमामां पण ‘अहो! आ भगवान ज छे’ एम पोताना भावनो निक्षेप करे छे. पं. बनारसीदासजी कहे छे के–
कहत बनारसी अलप भव थिति जाकी
सोई जिनप्रतिमा प्रमानै जिन सारखी.
धर्मीने अंतरमां वीतरागी आत्मस्वरूप भास्युं छे पण हजी पूरी वीतरागता थती नथी एटले वीतराग
प्रभुनुं बहुमान करे छे. आत्माना वीतरागपणानी भावनाना उल्लासपूर्वक वीतराग भगवाननी स्थापना करे
छे, अने तेमनी भक्ति करे छे.
(२७) धन्य ए अलंकार युक्त भक्ति!
अहीं पद्मनंदी आचार्यदेव श्री शांतिनाथ भगवाननी स्तुति करे छे. तेमां पांचमां श्लोकमां कहे छे के ‘हे
नाथ! तारा भामंडळनी दिव्यता पासे आ सूरज अने चंद्र पण झांखा लागे छे... जाणे के अग्निना बे तणखा
होय, अथवा तो सफेद वादळानां टुकडा होय’ आचार्यदेव ज्यां त्यां भगवाननो महिमा ज भाळी रह्या छे...
‘हरतां फरतां प्रगट हरि देखुं रे...
मारुं जीव्युं सफळ तव लेखुं रे...’
समस्त पापने टाळीने आत्मानो आनंद जेमणे प्रगट कर्यो छे एवा त्रिलोकनाथ भगवानने अहीं ‘हरि’
तरीके संबोधीने कहे छे के अमारा पापोनो नाश करनार हे हरि! आकाशमां ऊडता आ सूरज ने चंद्र तो
वादळना कटका जेवा लागे छे. ज्यारे मेरु पर्वत उपर आपनो जन्माभिषेक थयो अने ईन्द्रे आपनी भक्ति करी,
त्यारे आपनी भक्ति करतां तेना हाथ पहोळा थईने वादळां साथे अथडातां वादळना टुकडा थई गया, तेमांथी बे
कटका आ सूरज ने चंद्र तरीके हजी आकाशमां ऊडे छे! जुओ अलंकार अने भक्ति! आचार्यदेव ज्यां ने त्यां
भगवानने अने भगवानना कल्याणकने तथा ईन्द्रनी भक्तिने ज भाळे छे. सूर्य–चंद्रने देखतां पण हे नाथ!
तारा कल्याणक ज याद आवे छे. हे नाथ! जेम ईन्द्र भक्ति करता हता त्यारे आकाशमां घनघोर वादळाना कटका
थई गया, तेम तारी वीतरागतानी भक्तिथी अमारा आत्मा उपर जे कर्मनां वादळ हतां ते फाटी गयां.
वाह रे वाह! पद्मनंदी आचार्यदेवनी भक्ति! आ पद्मनंदी आचार्यदेव महान दिगंबर संत हता...
जंगलमां विचरता... आत्माना आनंदनी रमणतामां झूलता हता... महा वीतरागी हता... तेमने विकल्प ऊठतां
वीतराग भगवाननी आ स्तुति करी छे. तेमां अलंकारथी कहे छे के हे नाथ! आकाशमां आ वादळनां कटका नथी
पण तारी स्तुति करतां कर्मना कटका थाय छे, कर्मरूपी वादळ फाटीने तेना कटका ऊडी ऊडीने त्यां जाय छे.
आकाशमां वादळां देखतां अंतरमां एम थाय छे के हे नाथ! हुं तो तारी भक्तिथी निर्मळ थई गयो छुं, ने मारा
कर्मना कटका ऊडीने त्यां चोंटया छे. जुओ! वीतरागतानुं बहुमान!
वळी हे नाथ! आकाशमां देखाता सूर्य–चंद्र पण आपना भामंडळ पासे अग्निना अंगारा जेवा लागे छे.
केवळज्ञानज्योति प्रगट करवा माटे आपे ज्यारे ऊग्र ध्यानअग्नि प्रगटावीने कर्मोने बाळी नांख्या त्यारे तेना तणखां ऊडीने
हजी सूर्य–चंद्ररूपे आकाशमां फरे छे. हे नाथ! तारा ध्यानाग्निथी बळेला कर्मना रजकणो (सूर्य ने चंद्र) पण जगतमां प्रकाश
करे तो तारा दिव्य केवळज्ञान प्रकाशनी तो वात शुं करवी? आम भगवानना केवळज्ञाननी स्तुति करी करीने आचार्यदेवे
पोताना केवळज्ञान भावनाने मलावी छे. अंदर पूर्ण स्वभावनुं बहुमान जाग्युं छे ते वीतरागनां गाणां गवरावे छे.
(२८) धर्मात्मानी, वीतरागतापोषक भक्ति
त्रिलोकनाथ तीर्थंकर प्रभुने जोतां ईन्द्र भक्तिथी विचारे छे के हे नाथ! तमारी ने मारी सत्ता जुदी पण स्वभाव
सरखो आपने ते स्वभाव पूरो प्रगट्यो छे ने अमे हजी अधूरा छीए... पर्याये आंतरा पड्या छे... पण हे नाथ! स्वभावना
जोरे हुं ते आंतरो तोडी नांखीश. जे आम जाणे तेने भगवान प्रत्ये भक्ति ऊछळे छे. जे आम न जाणे तेने यथार्थ भक्ति
क्यांथी उल्लसे? विषय–कषायना पाप भावो टाळवा अने वीतरागतानी भावना पोषवा वीतरागभगवाननी भक्ति
जिज्ञासुने आवे छे. राग होवा छतां जेने वीतरागभगवाननी भक्ति नथी गोठतीं ते तीव्र मूढ छे. अहो! जेमना आत्मानी
तो वात ज शुं करवी, पण जेमना दिव्य शरीरना तेजमां
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 32 of 43
single page version

background image
फागण : २४७७ : १०९ :
हजारो सूर्यनुं तेज पण ढंकाई जाय एवा तीर्थंकरभगवानना गाणां ईन्द्रो अने गणधरो गाय तोय पूरा नथी
पडतां! अत्यारे महाविदेहमां दैवी समवसरणने विषे गंधकूटी उपर सिंहासनथीये चार आगळ ऊंचे श्री सीमंधर
भगवान बिराजी रह्या छे. त्यां कल्पवृक्षनां फळथी ने मणीरत्नोना दीपकथी भगवाननी पूजा करतां समकीति
चक्रवर्ती कहे छे के हे जिनेन्द्र! आपनी वीतरागतानी भक्ति करवा माटे मारी पासे कांई नथी... हे नाथ! पूर्ण
वीतरागतानुं भान छे ने वीतरागतानो अंश प्रगट्यो छे; ज्यारे अंदरथी पूरी वीतरागता प्रगट करशुं त्यारे
आपनी भक्ति पूरी थशे. ज्यां राग वगरना आत्मानी श्रद्धा थाय त्यां स्थूळ रागभावो तो टळी ज जाय एटले
कुदेवादिनो राग टळीने वीतरागभगवान प्रत्ये भक्ति जाग्या विना न रहे.
(२९) जिनेन्द्र भक्तिनो उल्लास कोने न आवे.!
कोई जीव संसारखातर तो चोवीसे कलाक पापनां परिणाम सेवे ने भगवाननी भक्तिनो प्रसंग आवतां
शिथिल थाय तो ते पापी छे, पाखंडी छे, अज्ञानी छे, आचार्यदेव तेने जैन संप्रदायमां गणता नथी. जैन कहेवडावे अने
जिनेन्द्र भगवाननी भक्ति न ऊछळे, तो ते जैन शेनो? अने साथे साथे ए पण समजवुं के धर्मी जीव ते भक्तिना
रागने धर्म नथी मानता. भगवाननी भक्ति वखतेय धर्मीनी द्रष्टि शुद्ध स्वभाव उपर पडी छे, शुद्धद्रष्टिपूर्वक जेटलो
राग टळ्‌यो तेटलो लाभ छे, जे राग रह्यो ते धर्म नथी. अज्ञानी तो भडके छे के ‘हाय! –हाय! भगवाननी भक्तिथी
मुक्ति न थाय? –भगवाननी भक्तिथी धर्म न थाय?’ हा. भाई! सत्य तो त्रणे काळे एम ज छे. भक्तिना रागथी
तो पुण्यबंधन ज थाय छे. अने ‘हुं शुद्ध ज्ञान छुं’ –एवो जे शुद्धस्वभाव उपरनो अभिप्राय रहे ते धर्म, अने मुक्तिनुं
कारण छे, ते ज भगवाननी निश्चयभक्ति छे. ज्यारे ज्यारे भगवाननी भक्तिना टाणां आवे त्यारे आ वात द्रष्टिमां
राखवी. हमणां तो भगवान पधारे छे एटले आठेय दिवस भगवानने भाववाना छे. कोई पूछे के भगवानने
भाववाथी शुं थवानुं? तो कहे छे के भगवानने भाववाथी भगवान थवाना! जेने जेनो रंग लागे तेनुं त्यां वलण वळे.
सूतां ने जागतां जेने सर्वज्ञ भगवाननो रंग लाग्यो अने मारो आत्मा भगवान जेवो–एवुं भान थयुं तेनुं वलण
आत्मा तरफ वळीने ते भगवान थया विना रहे नहि. अहो, अंदर विचारो के ‘हुं क्यां ऊभो छुं!’ जैन वाडामां
जन्मीने पण कदी भगवाननी भक्तिना पानां चडया नहि... रंग लाग्या नहि, तो ते अंदरना भगवान तरफ तो वळे
क्यांथी?
भगवाननी भक्तिनी वात आवे त्यां कोई एम कहे के ‘भक्ति तो राग छे ने तेनाथी पुण्यबंधन थई जाय, माटे
अमने भक्तिनो उल्लास नथी आवतो!’ तो तेने कहे छे के हे भाई! जो तुं वीतरागपणे रही शकतो हो तो तारी वात
साची, पण हजी स्त्री, लक्ष्मी, शरीरादिना अशुभ पाप रागमां तो तने उल्लास आवे छे ने भगवाननी भक्तिना टाणे
उल्लास नथी आवतो ने त्यां पुण्यबंधन कहीने ते वात ऊडाडे छे, तो तुं शूष्क स्वछंदी छे. श्रीमदे एक गाथामां कह्युं छे के
उपादननुं नाम लई ए जे तजे निमित्त,
पामे नहि सिद्धत्त्वनो रहे भ्रांतिमां स्थित १३६.
उपादाननो जे शुद्धभाव छे ते तो प्रगट्यो नथी ने निमित्तरूप वीतराग भगवाननी भक्तिने पण छोडी
दे छे, तो ते तो एकला पापमां पडीने संसारमां ज रखडशे. निमित्तनो राग आदरणीय नथी ए वात साची.
परंतु, ते कथन पकडीने जे वीतरागी निमित्तोनी भक्ति छोडीने संसारना निमित्तोना रागने पोषे छे तेने तो
पुण्य–पापनोय विवेक नथी, निमित्तनोय विवेक नथी, तो तेने उपादानमां धर्म होय नहि.
(३०) भक्तोनी भक्ति
परने माटे तो कोई कांई करतुं ज नथी, मात्र पोताना भावने पोषे छे. बायडीना शरीर उपर दागीना वगेरे
देखीने पोतानो पापराग पोषाय छे तेथी ते रागने खातर दागीना–वस्त्र वगेरे लावीने स्त्रीने आपे छे. तेम वीतराग
भगवानने देखतां धर्मीने पोतानी वीतराग भावना पोषाय छे एटले त्या तेने भक्ति आव्या विना रहे नहि. ते कांई
भगवानने खातर भक्ति करतो नथी पण पोताने ते जातनो शुभराग आवे छे तेथी भक्ति करे छे. जेम स्त्रीना
रागीने स्त्रीने मळतां होंश आवे छे तेम वीतरागताना प्रेमीने वीतराग भगवानने भेटतां होंश आवे छे. भगवानना
भक्त भगवान पासे जईने कहे छे के हे नाथ! हे प्रभु! आपनी वीतरागताना प्रेमथी आपने मळवा आव्यो छुं...
प्रभु! मारा अंतरमां तारा प्रत्ये प्रेम जाग्यो छे ते बीजा शुं जाणशे? नाथ! आप जाणो ने हुं जाणुं! हे नाथ! तारी
वीतरागी मूद्रा नीहाळतां नीहाळतां अंदरथी एवो आह्लाद आवी जाय छे के जाणे हमणां अंदरथी प्रभुता प्रगटी... के...
प्रटगशे? हे नाथ! तने भाळतां हुं मारी प्रभुताने ज भाळुं छुं... मारा ज्ञानने ज भाळुं छुं जुओ! आ भक्तिना टाणां
आव्या छे... आवा मोंघा दिवसो बहुं ओछा आवे छे. संसारनी प्रीति घटाडीने
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 33 of 43
single page version

background image
: ११० : आत्मधर्म : ८९
वीतराग भगवाननी ओळखाण करीने तेमनां गाणां पात्र जीवो गाय छे... तेमां तेमनी रुचि तो भगवान जेवा
पोताना शुद्ध आत्मस्वभाव उपर ज पोषाय छे.
(३१) ‘ज्यां जोउं त्यां नजरे पडती भक्ति जिनेन्द्र तारी!’
हवे, श्री तीर्थंकरभगवानना समवसरणमां जे अशोकवृक्ष होय छे तेमां अलंकार करीने भगवाननी
स्तुति करतां छठ्ठा श्लोकमां श्री आचार्यदेव कहे छे के–हे नाथ! आ अशोकवृक्ष पण आपनी भक्ति ज करी रह्युं
छे. कई रीते? तेना खीलेलां पुष्पो उपर बेठेला भमराओनो जे गूंजारव छे ते एवो लागे छे के जाणे अशोकवृक्ष
आपना निर्मळयशना गुणगान ज करी रह्युं छे... अने पवनथी कंपती तेनी डाळीओनो अग्रभाग जोतां एम
लागे छे के ते पोताना हाथे फेलावीने आपनी पासे भक्तिथी नृत्य करी रह्युं छे... जुओ! आचार्यदेवने पोताने
भगवान प्रत्ये भक्ति छे एटले अशोकवृक्षने पण भगवाननी भक्ति करतुं भाळे छे. –भाव तो पोतानो छे ने!
वाह रे वाह, मुनि तारी भक्ति! तारी भक्तिए तो अशोकवृक्षने पण भाषा आपीने बोलतुं करी दीधुं! हे
जिनेन्द्र! मन विनानुं आ अशोकवृक्ष पण ज्यां तारी स्तुति करी रह्युं छे तो पछी मनवाळा एवा मुनीन्द्रो ने
देवेन्द्रो आपनी स्तुति करे एमां शुं आश्चर्य?–आम कहीने, जेने भगवान प्रत्ये भक्ति नथी जागती तेना उपर
आचार्यदेवे कटाक्षनो प्रहार कर्यो छे. हे नाथ! तारा ज्ञानादि गुणोनी सुगंधथी आकर्षाईने भमराने पण गूंजारव
वडे तारी स्तुति करवानुं मन थयुं, तो पछी बीजा कोने आपना प्रत्ये भक्ति न जागे? ईन्द्र वगेरे तारा गुणोनी
स्तुति करे तेमां शी नवाई? अंदर एकदम निर्मानतापूर्वक आचार्यदेव स्तुति करे छे. स्तुतिमां पण वीतरागतानुं
ज घोलन चाले छे, अल्प राग छे तेनुं धणीपणुं नथी. स्वरूपनी वीतरागी अवस्था प्रगटी तेमां अभिमान शेनुं
रहे? अभिमान तो मेल छे. निर्मळ अवस्था प्रगटी तेमां मेल होय नहि.
(३२) भक्तिरसमां भींजायेला भक्तोनां हृदय कोण जाणशे?
अहीं तो आचार्यदेवे स्तुति करी छे; ईन्द्र वगेरे पण भगवान पासे एवी भक्ति करे के अत्यारना
साधारण प्राणीथी तो जीरवाय नहि, एने तो एम ज थई जाय के अरे! आ शुं? पण भाई! भक्ति शुं छे
तेनुं तने भान नथी. जगतडां कहे छे के भगतडां घेला छे, पण घेला न जाणशो रे.. ए तो प्रभुने घेर
पहेलांं छे. वळी जगतडां कहे छे के भगतडां काला छे, पण काला न जाणशो रे... ए प्रभुने त्यां वहाला छे.
कोई कहेशे के ‘अरे! आचार्ये केवी स्तुति करी? शुं भमरा ते कोई दी भक्ति करता हशे? –आवी स्तुति तो
एम साधारण पण न करीए; तो अहीं तेने कहे छे के–अरे...जा...जा...नमाला! आचार्य भगवाननी
भक्तिनी तने शी खबर पडे? तारामां अक्कल केटली? आचार्यदेवे समजीने गाणां गायां छे. जेवा
त्रणलोकना नाथ परमात्माना गाणां गाया छे तेवा ज त्रणलोकना नाथ पोते थवाना छे. अरे पाखंडी!
तने धर्मात्माना हृदयनी शी खबर पडे? आत्मतत्त्वनो महिमा तने भास्यो नथी एटले जेणे आत्मतत्त्वनुं
पूरुं सामर्थ्य प्रगटी गयुं छे एवा परमात्माना महिमानी पण तने खबर नथी. अढी हजार वर्ष पहेलांं
अहीं भरतक्षेत्रे पण श्री महावीर परमात्मा बिराजता हता त्यारे आकाशमांथी ईन्द्रो तेमनी स्तुति करवा
ऊतरता. आ वातनी जेने श्रद्धा न बेसे ते नास्तिक छे... तेणे सर्वज्ञदेवनो महिमा जाण्यो नथी तेम ज
आत्माना धर्मना महिमानुं पण तेने भान नथी. भगवाननी भक्तिनो पण जे निषेध करे छे तेने तो
दुर्गतिमां जवानां लक्षण छे... शास्त्रोमां भगवाननी भक्तिनुं जे वर्णन आवे ते तेना काळजामां श्ये
समाय? अहो! आ तो नग्न मुनि... जंगलमां वसनारा... पंच महाव्रतना पाळनारा... माथा साटे सत्यने
राखनारा.. ने आत्मस्वभावमां झूलनारा... महा वीतरागी संत (पद्मनंदी आचार्य) वीतरागनी स्तुतिनुं
वर्णन करे छे. आत्मानो महिमा जाण्या वगर अज्ञानीने वीतरागनो साचो महिमा क्यांथी आवे?
(३३) हे सीमंधरनाथ..! अमने तारा विरह...!
जेमना जन्मे चौद ब्रह्मांडमां आनंदनो खळभळाट फेलाई जाय... जेमना जन्मे आखा लोकमां अजवाळां
थाय... ने ईन्द्रो भक्तिथी नाचे–एवा तीर्थंकर प्रभुना कल्याणक अत्यारे ऊजवाय छे. अहीं तो सीमंधरप्रभुनी
स्थापना छे. सीमंधरप्रभु अत्यारे महाविदेहमां साक्षात्
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 34 of 43
single page version

background image
फागण : २४७७ : १११ :
बिराजे छे ने आ बधुं जे कहेवाय छे ते महाविदेहमां ईन्द्रो करी रह्या छे. आ कल्पना नथी... वीतरागदेवना आ
गाणां साचे साचा गवाय छे. जेणे गारा–माटीना ने सांठीकडाना झूंपडां ज भाळ्‌या होय तेने कहे के अमुक ठेकाणे
तो हाथीदांतना मोटा महेल थाय छे... तो तेने ए वात केम गळे ऊतरे? तेम वीतरागदेवना आ गाणां
अज्ञानीओने गळे ऊतरवा कठण पडे छे... केमके कदी जोयुं नथी... जाण्युं नथी. सीमंधर भगवान अत्यारे
समवसरणमां बिराजे छे त्यां अनेक संतो केवळज्ञान पामे छे... ईन्द्रो अने देवो स्तुति करवा आवे छे ने
भावना करे छे के हे नाथ! अमे मनुष्यपणुं पामीने क्यारे केवळज्ञान पामीए? अहीं भक्तिना भावमां
ऊछळेला भक्तो कहे छे के हे सीमंधरनाथ! अमने महाविदेहना मानवीओनी ईर्षा थाय छे... अरेरे!
महाविदेहना मानवी आपना साक्षात् चरणने सेवे... अने अमारे आ भरतक्षेत्रमां अवतार... आटला
आंतरां? अमने तारा विरह...! ए नाथ! आत्माने तेना ओरता थाय छे... परमार्थे, भगवान अंदरमां छे तेनुं
भान ते भगवाननी स्तुति छे... निमित्त तरीके तीर्थंकर भगवाननी स्तुति छे... समजी समजीने जे भगवानना
गाणां गाशे ते भगवान थाशे.
(३४) भक्तना हृदयमां कोतरायेली वीतरागनी भक्ति
हे भगवान! आपना निर्मळ स्वरूपनी स्तुति करता ईन्द्रादिकने देखीने मन विनाना भमराने य
तेनी ईर्षा थई अने ते पण गूंजारव वडे आपनी स्तुति करवा लाग्यो... तो हे जिनेन्द्र! जेने मनुष्यनो
अवतार मळ्‌यो... आर्यक्षेत्र मळ्‌युं... जैन संप्रदाय मळ्‌यो... सत्यनुं श्रवण मळ्‌युं ने अपूर्व वातो काने पडी तेने
लाभ न थाय ने तारी भक्ति न जागे ए केम बने? हे प्रभो! तारा समवसरणमां फूल वरसता होय ते पण
जाणे के तारी स्तुतिना शब्दोना हारडा ज वरसता होय एम अमने लागे छे. जुओ तो खरा! भक्त क्षणे ने
पळे भगवानने ज भाळे छे... चोवीसे कलाकनी क्रियामां ‘भगवान आत्मा वीतराग’ एवुं रटण चाले छे. हे
वीतराग! तें तो तारुं कार्य पूरुं करी लीधुं... ने अमारे हजी अधुरुं रही गयुं छे एटले चोवीस कलाकमां क्षण
पण तारी वीतरागतानां विस्मरण केम थाय? जेम माताथी विखूटा पडेला बाळकने मातानुं क्षण पण
विस्मरण न थाय तेम धर्मात्माओना हृदयमां तीर्थंकरोनी स्तुति एवी कोतराई गई छे के एक समय पण ते
न भूलाय.
भरत चक्रवर्ती ऋषभदेवप्रभुना पुत्र छे, भगवाननां परम भक्त छे, सम्यग्द्रष्टि छे, ते ज भवे
मोक्षमां जनारा छे, छखंडना धणी छे, जेना लखवाना चाकनी (काकिणी रत्ननी) एक हजार देवो सेवा करे
छे, ते दिग्विजय करीने वृषभाचल पर्वत उपर ज्यारे पोतानुं नाम लखे छे त्यारे कहे छे के अरे! आ पर्वत
उपर अनंत चक्रवर्तीओनां नाम लखाया ने भूंसाया... मारुं नाम लखवा माटे मारी पहेलांंना चक्रवर्तीओए
लखेला नामने मारे भूंसाडवुं पडे छे... ने मारा लखेला नामने वळी कोई बीजो भूंसाडशे... धिक्कार आ
मोहने! धन्य छे त्रिलोकनाथ प्रभु वीतरागने.. मारे आ भवे मोक्ष जवुं छे, भगवाने मने कह्युं छे के तुं आ
भवे मोक्ष जईश... छतां आ अस्थिरतानो मोह थाय छे तेने धिक्कार छे. अहो! अंतरमां वीतरागता
सिवाय बीजा भावनो जराय आदर नथी... मोहने कर्तव्य मान्युं नथी... भिन्नपणानुं भान खसीने मोहमां
भळता नथी. अंदर पोतानी प्रभुतानुं निःशंकभान छे, अवस्थानी अपेक्षाए आत्माने वखोडे छे ने पूर्ण
स्वभावनां गाणां गाय छे. ए रीते, हे वीतरागदेव! मोटा मोटा चक्रवर्तीओना हृदयमां पण तारी स्तुति
कोतराई गई छे.
(३प) भक्ति–सरिता... अने केवळज्ञान–समुद्र
अहीं स्तुतिकार कहे छे के अहो! जेने मन न हतुं एवा भमरा पण भगवानने देखीने स्तुति करवा
लाग्या... अने, अमारुं आ भक्तिनुं स्तोत्र सांभळतां जो तने अंतरमां आहलाद न आवे तो अरे जीव! तुं
भमरामांथी ये जईश? पोताने भक्तिनो भाव ऊछळ्‌यो छे तेथी आचार्यदेव तो ज्यां जुए त्यां बधायने
भगवाननी भक्ति करता ज भाळी रह्या छे. हे भगवान! भमराने मन न होय ने तारी स्तुति करवा माटे मन
आप्युं, तो हे प्रभु! मारामां केवळज्ञान नथी ते पूरुं आप. भमराने पण मन आप्युं तो मने शुं नहि आप?
एम अलंकार करीने भक्तिमां पण आचार्यदेव पोताना केवळज्ञानना ज भणकार बोलावे छे. (ए रीते आ
भक्ति सरिता केवळज्ञान–समुद्रमां जईने मळे छे.)
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 35 of 43
single page version

background image
: ११२ : आत्मधर्म : ८९
मोक्षार्थीने मुक्तिनो उल्लास
* * * * *
आत्मार्थीनां परिणाम उल्लासित होय छे; केम के आत्मस्वभावने
साधीने अल्पकाळमां संसारथी मुक्त थईने तेने सिद्ध थवुं छे, तेथी
पोतानी मुक्तिनो तेने निरंतर उल्लास होय छे अने तेथी ते उल्लासित
वीर्यवान होय छे.
* * * * *
(१)
श्री परमात्म–प्रकाशमां पशुनो दाखलो आपीने कहे छे के मोक्षमां जो उत्तम सुख न होत तो पशु पण
बंधनमांथी छूटकारानी ईच्छा केम करत? जुओ, बंधनमां बंधायेला वाछरडाने पाणी पावा माटे बंधनथी छूटो
करवा मांडे त्यां ते छूटवाना हरखमां कुदाकुद करवा मांडे छे; अहा! छूटवाना टाणे ढोरनुं बच्चुं पण होंशथी कुदका
मारे छे–नाचे छे. तो अरे जीव! तुं अनादि अनादिकाळथी अज्ञानभावे आ संसारबंधनमां बंधायेलो छे, अने
हवे आ मनुष्यभवमां सत्समागमे ए संसारबंधनथी छूटवाना टाणां आव्या छे. श्री आचार्यदेव कहे छे के अमे
संसारथी छूटीने मोक्ष थाय तेवी वात संभळावीए... अने ते सांभळतां जो तने संसारथी छूटकारानी होंश न
आवे तो तुं पेला वाछरडामांथी पण जाय तेवो छे! खुल्ली हवामां फरवानुं ने छूटा पाणी पीवानुं टाणुं मळतां
छूटापणानी मोज माणवामां वाछरडाने पण केवी होंश आवे छे!! तो जे समजवाथी अनादिना संसारबंधन
छूटीने मोक्षना परम आनंदनी प्राप्ति थाय–एवी चैतन्यस्वभावनी वात ज्ञानी पासेथी सांभळतां कया आत्मार्थी
जीवने अंतरमां होंश ने उल्लास न आवे? अने जेने अंतरमां सत् समजवानो उल्लास छे तेने अल्पकाळमां
मुक्ति थया विना रहे नहीं. पहेलांं तो जीवने संसारभ्रमणमां मनुष्यभव अने सत्नुं श्रवण ज मळवुं बहु मोंघुं
छे. अने कवचित् सत्नुं श्रवण मळ्‌युं त्यारे पण जीवे अंतरमां बेसायुं नहि, तेथी ज संसारमां रखडयो. भाई!
आ तने नथी शोभतुं... आवा मोंघा अवसरे पण तुं आत्मस्वभावने नहि समज तो पछी क्यारे समजीश?
अने ए समज्या वगर तारा भवभ्रमणनो छेडो क्यांथी आवशे? माटे अंदरथी उल्लास लावीने सत्समागमे
आत्मानी साची समजण करी ले.
(२)
आत्माए अनंतकाळथी एक सेंकड पण पोताना स्वभावने लक्षमां लीधो नथी, तेथी तेनी समजण कठण
लागे छे ने शरीरादि बाह्यक्रियामां धर्म मानीने मनुष्यभव मफतमां गूमावे छे. जो आत्मस्वभावनी रुचिथी
अभ्यास करे तो तेनी समजण सहेली छे. स्वभावनी वात मोंघी न होय. दरेक आत्मामां समजवानुं सामर्थ्य
छे... पण पोतानी मुक्तिनी वात सांभळीने अंदरथी उल्लास आववो जोईए... तो झट समजाय. जेम–बळदने
ज्यारे घरेथी छोडीने खेतरमां काम करवा लई जाय त्यारे तो धीमे धीमे जाय ने जतां वार लगाडे; पण खेतरना
कामथी छूटीने घरे पाछा वळे त्यारे तो दोडता दोडता आवे... केम के तेने खबर छे के हवे कामना बंधनथी छूटीने
घरे चार पहोर सुधी शांतिथी घास खावानुं छे. तेथी तेने होंश आवे छे ने तेनी गतिमां वेग आवे छे. जुओ,
बळद जेवा प्राणीने पण छूटकारानी होंश आवे छे. तेम–आत्मा अनादिकाळथी स्वभावघरथी छूटीने संसारमां
बळदनी जेम रखडे छे... श्री गुरु तेने स्वभावघरमां पाछो वाळवानी वात संभळावे छे. पोतानी मुक्तिनो मार्ग
सांभळीने जीवने जो होंश न आवे तो ते पेला बळदमांथीये जाय? पात्र जीवने तो पोताना स्वभावनी वात
सांभळतां ज अंतरथी मुक्तिनो उल्लास आवे छे अने तेनुं परिणमन स्वभावसन्मुख वेगथी वाळे छे. जेटलो
काळ संसारमां रखडयो तेटलो काळ मोक्षनो उपाय करवामां न लागे, केमके विकार करतां स्वभाव तरफनुं वीर्य
अनंतु छे, तेथी ते अल्पकाळमां ज मोक्षने साधी ल्ये छे... पण ते माटे जीवने अंतरमां यथार्थ उल्लास आववो
जोईए.
(–पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी)
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 36 of 43
single page version

background image
फागण : २४७७ : ११३ :
भक्तो
कहे छे–अमने भगवान भेट्या...
‘... भगवान भेट्या...’ ... जिन मंदिर...
भगवाननी वीतरागी मुद्राने निहाळतां अंतरमां पोताना वीतरागभावनी वृद्धि माटे भगवानना भक्त
प्रसन्नताथी कहे छे के–
उपशमरस वरसे रे... प्रभु! तारा नयनमां...
हृदयकमलमां दया अनंत उभराय जो...
वदनकमल पर प्रसन्नता प्रसरी रही...
चरणकमलमां भक्तिरस रेलाय जो...
जुओ भक्ति!! भाव तो पोतानो छे ने? पोताने वीतरागता गोठी छे तेनुं ज पोते बहुमान करे छे.
भगवाननी प्रतिमाने जोतां भक्तो कहे छे के–अहो! अमने भगवान भेट्या... साक्षात् सीमंधरभगवान
अमारा आंगणे पधार्या... प्रतिष्ठा पछी भगवान ज्यारे जिनमंदिरमां पधारता हता त्यारे भक्तो कहेता हता के
‘पधारो.. हे नाथ! पधारो...’ ए भक्तो कांई गांडपणथी कहेतां न हता पण भक्तिना भावथी कहेता हता. –हे
नाथ! आप त्यां बिराजो अने अमे अहीं भरतमां रह्या... पण हे नाथ! अम भक्तोनी विनंति सूणीने आप
अहीं पधार्या... आम भावनाथी भगवान साथे वातुं करे! भगवानने ज्यारे मंदिरमां स्थापे छे त्यारे भक्तो
भावना करे छे के हे भगवान आत्मा! हवे अंदरमांथी तुं प्रगट था... आत्मामां भगवानने स्थाप्या हवे
भगवानपणुं प्रगट्ये ज छूटको... पोताना आत्मामां जेणे भगवानपणुं स्थाप्युं ते एक क्षण पण भगवानने केम
भूले? हे नाथ! हे. चैतन्यमूर्ति भगवान! आखी दुनिया भूलाय पण एक तने केम भूलाय? तारी
वीतरागताने एक क्षण पण न भूलुं. अज्ञानी जीव पोतानी वीतरागताने भूलीने साक्षात् तीर्थंकर भगवानना
समवसरणमां गयो, पण तेने कांई लाभ न थयो. पोते तत्त्वने न समजे तो भगवान पण शुं करे? जेम,
पारसमणिनो तो स्वभाव एवो छे के तेनो स्पर्श थतां लोढामांथी सोनुं थई जाय. पण जो लोढामां उपर काट
होय तो पारसमणि शुं करे? अहीं कुंदकुंदभगवान कहे छे के हे नाथ! आपनी पवित्रता पासे पुण्य तो धोया छे...
पुण्यवडे आपनी परमार्थस्तुति थई शकती नथी. शुद्ध ज्ञायक आत्मानी श्रद्धा, ज्ञान ने रमणता वडे ज आपनी
परमार्थस्तुति थाय छे. हे भगवान! आप तो पवित्र ने आपनी स्तुति पण पवित्र. जे जीव आत्माना
पवित्रस्वभावने ओळखे छे ते ज केवळीभगवाननां साचा गाणां गाय छे ने ते ज परमार्थस्तुति करे छे. जेने
पोताना गुणनी ओळखाण थई छे ते बीजा विशेष गुणवंतने देखीने तेना गुणनुं बहुमान करे छे ने पोते पण
तेवा गुण प्रगट करीने पूर्ण परमात्मा थाय छे; ए रीते भगवाननी साची भक्तिनुं फळ मुक्ति छे. –सोनगढ
प्रतिष्ठा महोत्सवना प्रवचनोमांथी.
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 37 of 43
single page version

background image
: ११४ : आत्मधर्म : ८९
साची भक्तिनुं फळ मुक्ति

(१) भगवाननी भक्ति
वीतरागदेव तीर्थंकर भगवाननी साची स्तुति करनार जीव केवो होय! तेनी वात आ समयसारजीनी
३१ मी गाथामां छे; ने आपणे अहीं पण सीमंधर भगवाननी भक्तिनो मोटो प्रसंग छे. पांच जड ईन्द्रियो,
तेना विषयभूत बाह्य पदार्थो तेमज ते तरफ वळता खंडखंडज्ञानरूप भावेन्द्रियो–ते मारुं स्वरूप नहि, हुं तो
अखंड ज्ञायक छुं–आम जे समजे ते जीव वीतरागप्रभुनी साची स्तुति करे छे. आ सिवाय परने, विकारने के
खंडखंडरूप ज्ञानने ज जे आत्मानुं स्वरूप माने तेणे वीतरागने ओळख्या नथी. वीतराग भगवाननो आत्मा
तो अतीन्द्रिय अखंडज्ञान–आनंदमय छे, तेमनी साची भक्ति करवा माटे तेवा आत्मस्वरूपने ओळखवुं तो
पडशे ने? ओळख्या विना भक्ति कोनी करशे? शुद्ध आत्मस्वरूपनी श्रद्धा अने ज्ञान करवा ते भगवाननी
पहेली स्तुति छे. जेवा भगवान छे तेना जेवो कांईक भाव पोतामां प्रगट करे तो ते भगवाननो भक्त कहेवाय
ने! भगवान ईन्द्रियोथी जाणता नथी माटे ईन्द्रियोथी भिन्न छे, रागरहित छे ने पूर्णज्ञानमय छे, एवो ज
पोतानो आत्मा छे, पोते भगवानथी जराय ऊणो के अधूरो नथी एवी श्रद्धाथी धर्मनी शरूआत थाय छे ने ते
ज भगवाननी भक्ति छे.
(२) भगवानना दर्शननुं फळ
जे जीव धर्म करवा मागे छे तेने धर्म करीने पोतामां टकावी राखवो छे, पोते ज्यां रहे त्यां धर्म साथे ज
रहे एवो धर्म करवो छे. धर्म जो बहारना पदार्थथी थतो होय तो तो ते बाह्य पदार्थ खसी जतां धर्म पण खसी
जाय. –माटे एवो धर्म न होय. धर्म तो अंतरमां आत्माना ज आश्रये छे, आत्मा सिवाय बहारना कोई
पदार्थना आश्रये आत्मानो धर्म थतो नथी. लोको भगवानना दर्शन करवा जाय त्यां एम मानी ल्ये छे के अमे
धर्म करी आव्या... केम जाणे भगवान पासे एनो धर्म होय! अरे भाई! जो बहारमां भगवानना दर्शनथी ज
तारो धर्म होय तो तो ते भगवानना दर्शन करे तेटलो वखत धर्म रहे ने त्यांथी खसी जतां तारो धर्म पण खसी
जाय.. एटले घरमां तो कोईने धर्म थाय ज नहि! जेवा भगवान वीतराग छे तेवो ज भगवान हुं छुं एम भान
करीने अंतरमां चैतन्यमूर्ति भगवानना सम्यक् दर्शन करे तो ते भगवानना दर्शनथी धर्म थाय छे, ने ए
भगवान तो ज्यां जाय त्यां साथे ज छे एटले ते धर्म पण सदाय रह्या ज करे छे. जो एकवार पण एवा
भगवानना दर्शन करे तो जन्म–मरण टळी जाय.
(३) आत्मामां भगवाननी प्रतिष्ठा करे ते भगवान थाय
भगवाननी स्तुतिमां घणा कहे के ‘हे नाथ! हे जिनेन्द्र! आप पूर्ण वीतराग छो, सर्वज्ञ छो;’ परंतु
‘मारो आत्मा पण रागरहित सर्वज्ञस्वरूप छे’ एम पोताना आत्मानी पण श्रद्धाने भेगी भेळवीने जो
भगवाननी स्तुति करे तो ज ते साची स्तुति छे. अहीं भगवाननी प्रतिष्ठा थाय छे तेमां पण भगवाननी
भक्तिमां आवुं लक्ष राखवुं जोईए, जे आवुं लक्ष राखे तेणे ज खरेखर भगवानने स्थाप्या कहेवाय... तेणे
पोताना आत्मामां भगवाननी प्रतिष्ठा करी कहेवाय... ते अल्पकाळे साक्षात् भगवान थई जशे.
(४) आत्मानी समजण अने भक्तिनो भाव
लोको धर्म करवानुं माने छे पण ज्ञानी तेने आत्मानी ओळखाण करवानुं कहे त्यारे ते कहे छे के कोण
जाणे, आत्मा क्यां हशे! ने केवो हशे! ते कांई खबर पडती नथी. ज्ञानी कहे छे के अरे भाई! जेने धर्म करवो छे
तेने जाण्या वगर तुं धर्म कई रीते करीश? आत्माने जाण्या विना आत्मा तरफ वळीश कई रीते? अने आत्मा
तरफ वळ्‌या विना तने धर्म क्यांथी थशे? समज्या विना पुण्यमां धर्म मानी लईश तेमां तो ऊंधी द्रष्टिनुं पोषण
थशे. ज्ञानी धर्मात्माने भगवाननी भक्ति वगेरेनो भाव आवशे पण तेनी द्रष्टि
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 38 of 43
single page version

background image
फागण : २४७७ : ११५ :
आत्मा उपर पडी छे, –तेने आत्मानुं भान छे, ते भानमां तेने क्षणे क्षणे धर्म थाय छे. साचुं समजे तेने
वीतरागीदेव–गुरु–शास्त्र उपर भक्तिनो प्रशस्त राग आव्या विना रहेशे नहि. भगवाननी भक्तिना भावनो
निषेध करीने जे खावा–पीवा वगेरेना भूंडा रागमां जोडाय ते तो मरीने दुर्गतिमां जशे. वीतरागी आत्मानुं लक्ष
थाय अने आकरा राग न टळे ए केम बने? मारुं स्वरूप ज्ञान छे, राग मारुं स्वरूप नथी एम जे सत्यने जाणे
छे तेने लक्ष्मी वगेरेनी ममता उपर सहेजे काप मूकाई जाय छे, ने भगवाननी भक्ति–प्रभावना वगेरेनो भाव
ऊछळे छे. छतां त्यां ते जाणे छे के आ राग छे, आ कांई धर्म नथी. अंतरमां शुद्ध चिदानंदस्वरूपने जाणीने ते
प्रगट कर्या विना जन्म–मरण टळशे नहि.
(प) सीमंधर भगवाननी साची भक्ति ने ए भक्तिनुं फळ मुक्ति
जुओ... धर्मनी आ यथार्थ वात मळवी बहु मोंघी छे.. बाह्य साधु थईने बधुं छोडी जंगलमां जईने
सूकाई जाय तोय आ वस्तुद्रष्टि मळे तेम नथी... अत्यारे लोकोने सत्य वात सांभळवा मळवी पण दुर्लभ थई
गई छे. जेने स्व उपर द्रष्टि पडी नथी तेने धर्म क्यांथी थाय? धर्म तो आत्मामांथी थाय छे एटले पहेलांं परथी
नीराळा आत्मस्वभावनी श्रद्धा करे तो धर्म थाय; ए सिवाय बहारथी कांई मळे तेम नथी.–आवुं भान करवुं ते
ज सीमंधरभगवाननी साची भक्ति छे ने ए भक्तिनुं फळ मुक्ति छे.
(सोनगढ प्रतिष्ठा महोत्सव प्रसंगे फागण सुद बीजना प्रवचनमांथी वी. सं. २४६७)
भगवानी भावना कोने जागे?
धर्मात्मा पोताना भावने जुए छे, पोताना भावमां राग टळीने वीतरागतानी वृद्धि केम थाय?
ते ज जुए छे. वीतरागताना निमित्त तो निमित्तने कारणे होय छे. अंदर पोते भगवान ज बेठो छे, ते
भगवानपणुं जेने गोठव्युं छे ते बाह्यमां वीतरागी प्रतिबिंबमां भगवानते स्थापे छे. पोताना भावनो
निक्षेप करीने कहे छे के ‘आ भगवान छे.’ त्यां भाव तो पोतानो छे ने! प्रतिष्ठा पछी ज्यारे सीमंधर
भगवान जिनमंदिरमां पधारता हता त्यारे भक्तो कहेता हता के पधारो... भगवान पधारो! हे
भगवान... आपने अमे अहीं पधरावीए छीए... एटले हवे अंदरथी आपना जेवुं स्वरूप छे ते प्रगट्ये
छूटको... बहारमां तो भगवाननी स्थापना छे ने अंदरमां साक्षात् भगवान छे.. जेने भावमां
भगवानपणुं गोठयुं छे ते निमित्तमां ‘आ भगवान छे’ एम स्थापे छे... ते अंदरना भगवानने
स्वीकारतो... भगवानपणुं प्रगट कर्या विना रहेशे नहि. अहो! जे क्षणे आत्मामां भगवानपणुं प्रगटे ते
घडी ने ते पळने धन्य छे... आवी भावना कोने जागे? –के जेने अंतरमां भगवान जेवो पोतानो
स्वभाव भास्यो होय तेने आवी भावना थाय, ने ते अल्पकाळे भगवान थया विना रहे नहि.
(–सोनगढ प्रतिष्ठा महोत्सवनां प्रवचनोमांथी)
प्रकाश पहेलांनी संध्या
चेतन जड न थाय ने जड चेतन न थाय. जडना स्वभावमां चेतनपणुं न होय ने चेतनना
स्वभावमां जडपणुं न होय. जडना संयोगे थतो विकार पण खरेखर चेतननो स्वभाव नथी. जेवा
सर्वज्ञदेव वीतराग बिंब छे तेवो ज आत्मानो स्वभाव छे. –आवा लक्षसहित वीतराग भगवाननी
भक्ति वगेरेनो राग आवे ते सवारनी संध्या जेवो छे. जेम सवारनी संध्या पाछळ सूर्य ऊगे छे ने
सांजनी संध्या पाछळ सूर्य अस्त थई जाय छे. तेम वीतरागताना लक्षपूर्वक भगवाननी भक्ति
वगेरेनो जे शुभराग छे ते सवारनी संध्या जेवो छे, तेनी पाछळ झळहळतो चैतन्य सूर्य ऊगवानो छे.
जेने वीतरागतानुं लक्ष नथी, वीतरागदेवनी भक्ति नथी अने एकला शरीरादि जडना रागने ज पोषे
छे तेने तो ते संध्या पाछळ अंधारुं आवशे, तेनाथी चैतन्यसूर्य ढंकाई जशे. ज्यां स्वभावनुं लक्ष छे
त्यां वर्तमान रागनी रातपनी मुख्यता नथी; पण, आ राग मारुं स्वरूप नथी–एम वीतरागस्वरूपना
लक्षे ते राग टळीने चैतन्यप्रकाश प्रगटशे ने पूर्ण केवळज्ञान थशे.
(–सोनगढ प्रतिष्ठा महोत्सवनां प्रवचनोमांथी)
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 39 of 43
single page version

background image
: ११६ : आत्मधर्म : ८९
सीमंधर भगवान
(तेमना संबंधमां जाणवा योग्य केटलीक विगतो)
* * * * *
सीमंधर भगवानना परम भक्त परम पूज्य गुरुदेवश्रीना पवित्र हस्ते, सौराष्ट्रमां पांच वखत
पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सवमां एकंदर ९७ जिनप्रतिमाओनी प्रतिष्ठा थई छे... तेमांथी दस प्रतिमाओ
श्री सीमंधर भगवाननी छे. जेम अढी हजार वर्ष पहेलांं आ भरतभूमि उपर श्री महावीर भगवान
तीर्थंकरपणे विचरी रह्या हता तेम अत्यारे पण आ पृथ्वी उपरना ‘महाविदेह’ नामना क्षेत्रमां श्री
सीमंधर भगवान तीर्थंकरपणे साक्षात् विचरी रह्या छे. तेओ अत्यारे अरिहंतपदे बिराजे छे... ‘नमो
अरिहंताणं’ एम आपणे कहीए तेमां ते सीमंधर भगवानने पण नमस्कार आवी जाय छे. ज्यां श्री
सीमंधर भगवान बिराजे छे ते महाविदेह क्षेत्र अहींथी पूर्व दिशामां एटलुं बधुं दूर आवेलुं छे के कोई
वाहनद्वारा अत्यारे त्यां पहोंची शकाय नहीं. आम छतां, जे जंबुद्वीपमां आपणुं भरतक्षेत्र छे ते ज
द्वीपमां महाविदेह क्षेत्र आवेलुं छे, बंने एक ज द्वीपमां आवेला छे... एटले जे द्वीपमां जे श्री सीमंधर
भगवान विचरे छे ते ज द्वीपमां आपणे रहीए छीए.
श्री सीमंधर भगवाननुं बीजुं नाम स्वयंप्रभ भगवान छे; तेमना पिताजीनुं नाम श्रेयांसराय
अने माताजीनुं नाम सत्यदेवी छे. तेमनी काया कंचनवरणी छे, देहनी ऊंचाई पांचसो धनुष छे. तेमनुं
लंछन वृषभ छे. तेमनो जन्म सीता नामनी नदीनी उत्तरे आवेला पुष्कलावती देशना पुंडरीकपुर
नगरमां थयो हतो, तेमनुं आयुष्य ८४ लाख पूर्वनुं छे तेमांथी अत्यारे लगभग ८३ लाख पूर्व वीत्या
छे. तेमनुं समवसरण बार योजन व्यासनुं छे; तेमना समवसरणमां मनुष्योनी सभाना नायक श्री
पद्मरथ चक्रवर्ती छे. ज्यारे श्रीकृष्णनी रुकिमणी राणीनो पुत्र प्रद्युम्नकुमार खोवाई गयो हतो त्यारे
अहींथी श्री नारदजी ते प्रद्युम्नकुमारनुं चरित्र सांभळवा माटे महाविदेहक्षेत्रे सीमंधर प्रभु पासे गया
हता. त्यारे ए पद्मरथ चक्रवर्तीए आश्चर्यथी भगवानने पूछयुं हतुं के ‘आ शुं छे... आ कोण छे?’ –आ
प्रकारनुं विस्तारथी वर्णन श्री प्रद्युम्नचरित्रना छठ्ठा सर्गमां छे.
वळी ‘पद्मपुराण’मां पण अहीं मुनिसुव्रतप्रभुना वखतमां थयेला नारदनुं महाविदेहमां
सीमंधरप्रभु पासे जवानुं वर्णन आवे छे, तेमां आ प्रमाणे कह्युं छे: ‘जिनेन्द्रनी कथामां जेमनुं मन
आसक्त छे एवा दशरथ महाराजाना दरबारमां एकवार नारद आवे छे अने दशरथराजा तेमने नवीन
समाचार पूछे छे त्यारे, जिनेन्द्रचंद्रनुं चरित्र प्रत्यक्ष देखवाथी जेने परम हर्ष उपज्यो छे एवा ते नारद
कहे छे के हे राजन! हुं महाविदेहक्षेत्रे गयो हतो; ते क्षेत्र उत्तम जीवोथी भरेलुं छे, त्यां ठेरठेर श्री
जिनराजनां मंदिरो छे ने ठेरठेर महा मुनिओ बिराजे छे; त्यां धर्मनो महान उद्योत छे; श्री तीर्थंकरदेव,
चक्रवर्ती, बळदेव–वासुदेव प्रतिवासुदेव वगेरे त्यां ऊपजे छे; त्यां जईने पुंडरिकिणी नगरीमां में श्री
सीमंधर स्वामीनो तप कल्याणक देख्यो; तथा जेवो अहीं श्री मुनिसुव्रतनाथनो सुमेरूपर्वत उपर
जन्माभिषेक आपणे सांभळ्‌यो छे तेवो श्री सीमंधर स्वामीना जन्माभिषेकनो उत्सव में सांभळ्‌यो...
तेमना तपकल्याणकने तो में प्रत्यक्ष ज देख्यो.’
(जुओ, पद्मपुराण सर्ग २३ पृ. २प८)
ए उपरांत, प्रभु श्री कुंदकुंदाचार्यदेव सीमंधर भगवानना समवसरणमां गया हता ने आठ दिवस सुधी
त्यां रहीने प्रभुना दिव्यध्वनिनुं श्रवण. तेम ज त्यांना श्रुतकेवळी आदि मुनिवरोनो परिचय कर्यो हतो... ए
वात तो सुप्रसिद्ध छे. ‘समवसरण–स्तुति’मां ते
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

PDF/HTML Page 40 of 43
single page version

background image
फागण : २४७७ : ११७ :
प्रसंगनुं वर्णन नीचे मुजब कर्युं छे––
(१)
बहु ऋद्धिधारी कुंदकुंद मुनि हता ए काळमां...
जे श्रुतज्ञान प्रवीण ने अध्यात्मरत योगी हता...
आचार्यने मन एकदा जिनविरहताप थयो महा...
रे! रे! सीमंधर जिनना विरहा पड्या आ भरतमां.
(२)
एकाएक छूट्यो ध्वनि जिनतणो ‘सद्धर्म वृद्धि हजो.’
सीमंधरजिनना समोसरणमां, ना अर्थ पाम्या जनो;
संधिहीन ध्वनि सूणी परिषदे आश्चर्य व्याप्युं महा,
थोडीवार महीं तहीं मुनि दीठा अध्यात्म मूर्ति समा.
(३)
जोडी हाथ ऊभा प्रभु–प्रणमतां शी भक्तिमां लीनता!
नानो देह अने दिगंबर दशा, विस्मित लोको थता.
चक्री विस्मय भक्तिथी जिन पूछे ‘हे नाथ! छे कोण आ?
‘–छे आचार्य समर्थ ए भरतना सद्धर्म वृद्धिकरा.’
(४)
सूणी ए वात जिनवरनी, हर्ष जन हृदये वहे,
नानकडा मुनिकुंजरने ‘एलाचार्य’ जनो कहे.
(प)
प्रत्यक्ष जिनवरदर्शने बहु हर्ष एलाचार्यने,
“ कार सूणतां जिनतणो अमृत मळ्‌युं मुनि हृदयने.
सप्ताह एक सूणी ध्वनि श्रुतकेवळी परिचय करी,
शंका निवारण सहु करी मुनि भरतमां आव्या फरी.
(–ए द्रश्य माटे जुओ सोनगढमां सीमंधर प्रभुनुं समवसरण)
ज्यां श्री सीमंधरादि तीर्थंकरो विचरे छे एवा विदेहक्षेत्रना देशो अतिवृष्टि, अनावृष्टि के मरकी आदि
रोगोथी रहित छे; तेम ज जिनदेव सिवायना कोई कुदेवो, कुलिंग के कुमत पण त्यां होता नथी, ते देशो सदाय
केवळी भगवंतो अने तीर्थंकरो, चक्रवर्तीओ वगेरे श्लाका पुरुषोथी भरेला होय छे.
धन्य हो ते धर्मभूमिना धर्मात्माओने...!
* * * * *
विचरंता वीस जिनने वंदु भावे.
आ दुनियामां अत्यारे जैनधर्मना धुरंधर वीस तीर्थंकर भगवंतो साक्षात् विचरी रह्या छे, तेमनां मंगळ नामो–
१. श्री सीमंधर भगवान ६. श्री स्वयंप्रभ भगवान ११. श्री वज्रधर भगवान १६. श्री नेमप्रभ भगवान
२. श्री युगमंधर भगवान ७. श्री ऋषभानन भगवान १२. श्री चंद्रानन भगवान १७. श्री वीरसेन भगवान
३. श्री बाहु भगवान ८. श्री अनंतवीर्य भगवान १३. श्री चंद्रबाहु भगवान १८. श्री महाभद्र भगवान
४. श्री सुबाहु भगवान ९. श्री सूरप्रभ भगवान १४. श्री भुजंगम भगवान १९. श्री देवयश भगवान
प. श्री संजातक भगवान १०. श्री विशालकीर्ति भगवान १प. श्री ईश्वर भगवान २०. श्री अजितवीर्य भगवान
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)