Atmadharma magazine - Ank 107
(Year 9 - Vir Nirvana Samvat 2478, A.D. 1952)
(Devanagari transliteration).

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: २१२ : आत्मधर्म–१०७ : भाद्रपद : २००८ :
तेनी क्रिया तेनाथी थाय छे, हुं तो तेनो जाणनार छुं. आत्मानी शक्तिनो विकास थतां पोतामां सर्वज्ञपणुं प्रगटे,
पण आत्मानी शक्तिनो विकास थतां ते परनुं कांई करी दे के जगतनो उद्धार करी दे–एम बनतुं नथी.
साधकने पर्यायमां सर्वज्ञता प्रगटी न होवा छतां ते पोतानी सर्वज्ञत्वशक्तिनी प्रतीत करे छे; ते प्रतीत
पर्यायनी सामे जोईने करी नथी पण स्वभाव सामे जोईने करी छे. वर्तमान पर्याय तो पोते ज अल्पज्ञ छे, ते
अल्पज्ञताना आश्रये सर्वज्ञतानी प्रतीत केम थाय? अल्पज्ञपर्याय वडे सर्वज्ञतानी प्रतीत थाय, पण
अल्पज्ञताना आश्रये सर्वज्ञतानी प्रतीत न थाय; त्रिकाळी स्वभावना आश्रये ज सर्वज्ञतानी प्रतीत थाय छे.
प्रतीत करनारी तो पर्याय छे पण तेने आश्रय द्रव्यनो छे. द्रव्यना आश्रये सर्वज्ञतानी प्रतीत करनार जीवने
सर्वज्ञतारूपे परिणमन थया वगर रहे नहि.
हजी पोताने सर्वज्ञपणुं प्रगट्या पहेलांं पण ‘मारो आत्मा त्रणेकाळे सर्वज्ञतापणे परिणमवानी
ताकातवाळो छे’ एम जेणे स्वसन्मुख थईने नक्की कर्युं ते जीव अल्पज्ञताने, रागने के परने पोतानुं स्वरूप न
माने. अल्पज्ञपर्याय वखते पण सर्वज्ञत्वशक्ति होवानो जेणे निर्णय कर्यो तेनी रुचिनुं जोर अल्पज्ञपर्याय
उपरथी खसीने अखंड स्वभावमां वळी गयुं छे, एटले ते ‘सर्वज्ञभगवाननो नंदन’ थयो छे.
आत्माना बधा गुणो पोतामां ज कार्य करे छे. आत्मा पोताना अनंतगुण–पर्यायोनो विभु छे, अनंत
गुण–पर्यायमां तेनी सत्ता व्यापे छे, पण आत्मा परनो विभु नथी, पर उपर तेनी सत्ता नथी. तेम जगतना
समस्त पदार्थोने, तेना गुणोने तेम ज तेनी भावांतर के क्षेत्रांतररूप अवस्थाओने–बधाने एकसाथे जाणे एवुं
आत्माना ज्ञाननुं विभुत्व छे; जे आत्मा पोतानी आवी ज्ञानशक्तिनी प्रतीत करे ते ज खरो जैन अने
सर्वज्ञदेवनो भक्त छे; पण आत्मा परनुं ल्ये–मूके–फेरफार करे एम जे माने छे ते आत्मानी शक्तिने, सर्वज्ञदेवने
के जैनशासनने मानतो नथी, ते खरेखर जैन नथी.
जुओ भाई! आ शुं कहेवाय छे? आत्मा मोटो भगवान छे, तेनी मोटाईना आ गाणां गवाय छे. आ
कांई कल्पनाथी नथी कहेवातुं पण आत्मानो स्वभाव ज एवो छे. सर्वज्ञशक्ति बधा आत्मामां भरी छे.
‘सर्वज्ञ...’ एटले बधाने जाणनार. अनंत द्रव्य, अनंत गुणो, अनंती पर्यायो–ए बधाने जाणे एवो मोटो
महिमावंत पोतानो स्वभाव छे तेने अन्यपणे–विकारी स्वरूपे मानवो ते ज आत्मानी मोटी हिंसा छे. भाई रे!
तुं सर्वनो ज्ञ एटले जाणनार छो, पण परनुं तो कांई कदी करी शकतो ज नथी. ज्यां दरेक वस्तुए वस्तु जुदी छे
त्यां जुदी चीजनुं तुं शुं कर? तुं स्वतंत्र अने ते पण स्वतंत्र, बधा स्वतंत्र छे. अहो! अनेकान्तमां तो एकली
वीतरागता छे. ‘हुं मारापणे छुं ने परपणे नथी’ एम नक्की करतां ज अनंता परतत्त्वोथी उदास थईने
स्वतत्त्वमां रही गयो एटले वीतरागता थई गई, –आम अनेकान्तमां वीतरागता आवी जाय छे. अनेकान्त
कहो के भेदज्ञान कहो, तेना विना वीतरागता होय ज नहि.
अनेकान्त ते वीतरागी विज्ञान छे, तेमां सम्यग्ज्ञानपूर्वकनी वीतरागता छे; अने एकांतमां एटले के
स्व–परनी एकत्वबुद्धिमां अज्ञानसहितनो कषायभाव छे. अनेकान्तमां तो वीतरागी श्रद्धा वीतरागी ज्ञान ने
वीतरागी चारित्रनुं स्थापन छे एटले अनेकान्त ते ज मोक्षमार्ग छे, अनेकान्त ते परम अमृत छे. ज्यां परनुं
करवानुं मान्युं त्यां एकान्त छे, तेमां मिथ्यात्व अने राग–द्वेष भरेला छे, ते ज संसारनुं मूळ छे.
अनेकान्त दरेक पदार्थनुं स्वाधीन स्वरूप बतावे छे, दरेक पदार्थ पोताना स्वरूपथी ज अनंतधर्मवाळो छे
एम अनेकान्त बतावे छे. ‘अनेकान्त’ कहेतां ज स्वथी अस्ति ने परथी नास्ति एटले पोताथी परिपूर्ण अने
परथी पृथक् वस्तु सिद्ध थाय छे. हुं परथी शून्य छुं ने मारा स्वभावथी स्वाधीन–परिपूर्ण छुं–एम अनेकान्तमां
वीतरागीश्रद्धा छे, स्व–पर तत्त्वनी भिन्नतानुं वीतरागीज्ञान छे, अने तेमां ज स्वरूपस्थिरतारूप
वीतरागीचारित्र छे केमके परथी भिन्नता जाणी एटले ज्ञान परमां न रोकातां स्वमां ठर्युं. –ए रीते
वीतरागीश्रद्धा वीतरागीज्ञान अने वीतरागीचारित्र ए त्रणेय अनेकान्तमां आवी जाय छे.
हुं बीजानुं कांई करी दउं एवी जेनी मान्यता छे तेणे सामा तत्त्वने पराधीन मान्युं छे. जेणे एक पण
तत्त्वने पराधीन मान्युं तेणे जगतना समस्त पदार्थोने पराधीनस्वरूपे मान्या छे, अने स्वाधीन तत्त्वने कहेनारा