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अशांतिरुप – अज्ञानरुप, एम द्रव्य – पर्यायनो मेळ बेसतो न
हतो, द्रव्य – पर्यायनी एकता थती न हती, द्रव्य – पर्यायनी
जुदाई रहेती हती; परंतु हे नाथ
स्वभाव छे एवी ज परिणतिरुपे परिणमन थयुं; त्यां स्वभाव अने
तेनी परिणति, द्रव्य अने पर्याय, ए बंनेनी एकरुपता थई, एटले
हवे ‘हुं’ अने ‘तुं’ कांई जुदा नथी; जेवो स्वभाव एवी परिणति
– एम बंनेनुं एकत्व वेदाय छे. चैतन्यनी अनुभूति द्रव्य – गुण
– पर्याय ए त्रणेनी शुद्ध – एकतारुप छे; द्रव्य अने पर्यायनुं
भिन्नपणुं अनुभूतिमां कदी होतुं नथी. अंतरना परम शुद्ध
परमार्थमां शुद्ध द्रव्य – पर्यायनुं भिन्नपणुं जरापण वेदातुं नथी;
एक शुद्धआत्मा ज वेदाय छे, ए ज परमार्थ छे, ए ज
अनुभूतिगम्य आत्मा छे. आवा आत्मानी प्रतीत ए ज
सम्यग्दर्शन छे. परंतु द्रव्य अने पर्यायने भिन्न पाडीने प्रतीत
करवी – तेमां नथी तो सम्यग्दर्शन, के नथी तेमां स्वानुभूतिनो
आनंद, अने नथी तेमां परमार्थरुप आत्मतत्त्व.
दीनतानुं नामनिशान रहेतुं नथी. हवे तो हुं मोक्षनो साधक, हुं
पोते ज चैतन्य परमेश्वर – एम परम प्रतीत, परम आत्मसंतोष
अने दीनतारहितपणुं आत्मामां वेदाय छे. ।।४०।।
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मुक्ति सुख ने श्रद्धा पण बळवान जो;
निःशंक निर्भय तृप्ति ने अति धीरता,
सर्वे भावो आवी मुजमां समाय जो.....
वैराग्य पण भेगो समाय छे. ए सम्यक्त्व परभावोथी परम
विरक्त स्वयं – पोते ज वैराग्यस्वरुप छे. ज्ञान – शांति अने
आनंद ए पण चैतन्यमां ज समाय छे; मुक्ति, सुख के श्रद्धा ए
पण आ स्वानुभूतिनी अंदर समायेला छे. अहो, जे स्वानुभूतिनी
अंदर एकसाथे वैराग्य-ज्ञान-शांति-आनंद-भावना-मुक्ति-सुख-
श्रद्धा ए बधाय बळवानपणे समाई जाय छे, अने एवा बीजा
अनंत चैतन्यभावो अंतरमां अभेदपणे वेदाय छे, – ते
स्वानुभूतिनी शी वात
एनी साथे एकत्वरुप थई शकतो नथी – आम परम निःशंकपणे
आत्मतत्त्व सदाय अंतरमां वेदाया करे छे; ए तत्त्वमां कदी शंका
पडती नथी, के चैतन्यनुं चैतन्यपणुं मटी जशे एवो कोई भय –
शंका रहेती नथी; त्यां निर्भयता थई जाय छे, परम तृप्ति थई जाय
छे, चैतन्यनुं परम वात्सल्य, परम अभेदभाव जागी जाय छे,
अत्यंत धीरपणुं प्रगटी जाय छे. अहा, ए धैर्यनी शी वात
ऊठे तोपण, चैतन्य पोताना चैतन्यनी अनुभूतिना भावने छोडतो
नथी, अनुभूतिना भावथी ते डगतो नथी, अनुभूतिनी जे मजा,
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प्रसन्नता, अनुभूतिनी जे शांति, तेने आ जीव छोडतो नथी,
तेनाथी डगतो नथी, तेमां ढीलप करतो नथी; आम चैतन्यना सर्वे
भावो एक चैतन्यनी अनुभूतिमां, आत्मानी अनुभूतिमां आवीने
मारामां समाई गया छे. अहो, अहो
थईने अत्यारे पण मारा माथा उपर जाणे हाथ फेरवी रह्या छे,
अने मने मोक्षना आशीर्वाद आपी रह्या छे.....अहो संतो
हो – एवो प्रसन्नतानो भाव मने असंख्यप्रदेशमां वेदाय छे. जेम
महावीरप्रभुनो जीव सिंहना भवमां मुनिवरोना प्रसादथी ज्यारे
सम्यग्दर्शन पामे छे त्यारे मुनिवरो परम वत्सलताथी ते सिंहना
मस्तक उपर हाथ फेरवे छे; अहा
जाणे मारा आत्मा उपर फेरवी रह्या हो.....एम मारा आत्माना
असंख्यप्रदेशमां आनंदनी – हर्षनी झणझणाटी थाय छे.
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परम भक्तिपूर्वक आपना चरणोमां शिष नमावुं छुं...आपना
हाथने मारा मस्तक उपर मुकावीने हुं आपना आशीर्वाद झीली
रह्यो छुं. अहो आपनुं आत्मध्यान...ते चैतन्यनी अत्यंत महत्ता ने
महान अद्भुतता बतावे छे, अने मने पण एवा चैतन्यना
ध्यानमां लई जाय छे. प्रभो
हुं स्वानुभूति पाम्यो छुं. प्रभो, हवे स्वानुभूतिरुप थया पछी
फरीने एकवार मारे आपना महान दर्शन करवा, ने आपना
चरणोमां मारुं शिर झुकावीने, आपनी परम मुद्रानो मारा पर जे
उपकार थयो छे ते उपकारने प्रसिद्ध करवा, आराधकभावसहित
आपनी यात्रा करवा आववुं छे; हुं हवे आपनो साधर्मी नानोभाई
थईने आपनी पासे आववा चाहुं छुं. अहो प्रभो
अत्यारे भगवान बाहुबलीदेवनी
यात्रा अर्थे श्रवणबेलगोला गया
छे.....त्यां भगवान बाहुबलीप्रभुना
चरणोमां अत्यारे हजारो भक्तजनो
बेठा हशे; बाहुबलीप्रभुनुं परम
अडग आत्मध्यान, एमनी परम शांत
चैतन्यमुद्रा, एमनी आत्मसाधनानी
परम शूरवीरता – ए देखीदेखीने
भक्तोए चैतन्यनी महान भावना
भावी हशे. प्रभो बाहुबली...मारा
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हवे आपनी मंगळ यात्रा करवा चाहुं छुं. अहो प्रभो
करवा सोनगढमां रह्यो छुं. अहो वर्द्धमान जिनेन्द्र
मजानो आनंद लेता हता
मोक्षनो साधक छे.....अथवा, स्वानुभूतिना अंशनी अपेक्षाए
कहीए तो ते आत्मा पोते मोक्षस्वरुप ज छे.
अद्भुत जीवनचरित्रनुं आलेखन करवा माटे हुं सोनगढमां रह्यो
छुं. अहो सर्वज्ञपिता
आलेखन साधकभावसहित हुं करी रह्यो छुं. -आ मारा जीवननो
एक धन्य महान आनंदनो प्रसंग छे.....आपना महान उपकारनी
प्रसिद्धिनो आ प्रसंग छे ते भव्य जीवोने पण आपना साचा
स्वरुपनी ओळखाण करावीने सम्यग्दर्शन पामवामां हेतुभूत थशे.
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पण महान प्रसन्नता ने आनंद थाय छे.
एक सुंदर पारणाझुलननी हालतीचालती रचना साथे, त्रिशलामाता
अने वर्द्धमानकुंवरनी अत्यंत मीठी – मधुरी चर्चाथी भरपूर माता
– पुत्रनो संवाद अंतरना भावोनी सहज उर्मिथी रचायेल ते
सुमधुर संगीत साथे टेप – केसेटमां उतारेल; तेना द्वारा
त्रिशलामाता अने वर्द्धमानकुमारनी मीठी मधुरी वाणी सांभळीने
लाखो जीवो खुश – खुश थया. अहो, नानकडा – तीर्थंकर पारणिये
झुलतां झुलतां पोतानी माता साथे अत्यंत वहालथी धर्मचर्चा करता
होय – ए द्रश्यो देखीने – सांभळीने कोने आनंद न थाय
चोवीसतीर्थंकरोना महापुराणमां वांची शकशो.)
अनंत चेतन – रत्नो नीकळ्या तीर जो;
गीरनार पण एनी साक्षी पूरतो,
अहो, अहो श्री प्रद्युम्न साक्षात जो.....
– अहो, अहो श्री नेमिप्रभु साक्षात जो.....
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चैतन्यपाताळ उल्लसीने अनंता चैतन्यरत्नो बहार किनारे आव्या
एटले के परिणतिमां प्रगटरुप थया. आ रीते स्वानुभूतिमां समुद्र
करतां पण वधारे गंभीरता छे अने अनंत चैतन्यगुणरुपी रत्नो
निर्मळपणे उल्लसी – उल्लसीने ए अनुभूतिमां परिणमी रह्या छे.
मोटा पर्वत करतां पण ए स्वानुभूतिनुं गौरव घणुं महान छे.
आ गीरनारने तीर्थ तरीके कोण पूजे
काळा पथराने तीर्थ तरीके कोण मानत
खरेखर अहीं विचरेला संतोनी स्वानुभूतिनी पूजा छे; स्वानुभूतिनुं
स्मरण करीने आ गीरनारने तीर्थ तरीके पूजीए छीए.
स्वानुभूतिने साक्षात् देखीए छीए.....नेमनाथ प्रभुनी परम
वैराग्यमय आनंदपरिणतिने साक्षात् देखीए छीए. अहो
भगवंतो
तीर्थ जेवी लागे छे तेथी तेने पण अमे मस्तक नमावीने पूजीए
छीए....एनी रजने अमारा शिर पर चडावीए छीए.
गीरनारमां रह्यो हतो ( – मारा भाभी पण आवेला) ते वखते
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स्मरण करतो हतो; अने आ स्वानुभूति – प्रकाशनां बाकी रहेलां
पदोनी रचना में त्यां पूरी करी हती.
गिरनार आव्या; वैशाख सुद चोथे (नवलभाई वगेरे साथे) अमे
गिरनारनी यात्रा करी. पांचमी टूंक – मोक्षटूंकनी यात्रा कर्या बाद
प्रद्युम्नस्वामीनी चोथी टूंक तरफ जवानी भावना जागी. डोळीवाळा
एक भाई अमने पांचमी टूंकेथी पाछळना टूंका रस्ते चोथी टूंक
तरफ जवा दोरी गया; परंतु थोडुंक चाल्या त्यां पाछळनो रस्तो
एवो गंभीर कटोकटीभरेलो अने जोखमी आव्यो के अमे तो स्तब्ध
थई गया; हवे शुं करवुं
आवी, – ते साव ऊभी शिला उपर केम करीने चडवुं ते अमारा
माटे एक मोटो गंभीर कटोकटीनो प्रश्न थई पडयो.....वधारे वखत
त्यां पग मांडीने ऊभा रही शकाय एटली जग्या पण न हती, के
हवे पाछा पगले पाछा फरी शकाय तेवुं पण रह्युं न हतुं. झाझो
विचार करवानो टाईम न हतो. पग ध्रुजे तो बाजुमां भयंकर
खीणमां पडीने मरवानुं हतुं. ऊंची ऊभी शिला उपर पण कई रीते
चडवुं
जराय टेको आपी शकीए एवी कोई जातनी परिस्थिति नहि;
आवी कटोकटीभरेली निरालंबी दशामां, एककोर देहथी भिन्न
चैतन्यनुं अंतरमां स्मरण थतुं हतुं. अने ए वखत बहु ज थोडीक
क्षणनो ज प्रसंग हतो....बे – पांच मिनिटनी अंदर ज जे कांई
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केमके ऊभुं रहेवानुं स्थान ज न हतुं; जो पग ध्रूजे तो नीचे ऊंडी
खीण हती : हवे.....? बस, लांबो विचार कर्या वगर अहा, एक
क्षण – बे क्षण थई त्यां तो, अंदर आम देहथी भिन्न चैतन्यना
धडाका बोलवा मांडया होय.....एवी गंभीर परिस्थितिमांथी अमे
पसार थई गया. ए धडाका अंदर लाग्या एनी असर आजे
अत्यारे पण नथी भुलाती. धडाका एटले
साक्षात् अत्यारे देखी लउं, अथवा देखाई गयुं – एवी कोई, न
कल्पी शकाय एवी अकल्प्य वेदना ए वखते थयेली; अलबत्त, ए
कांई स्वानुभूति न हती, परंतु एक एवो धडाको हतो के जाणे
आत्माने जगाडी दीधो.
ज हतो, आत्मानी भावना वधु ने वधु ऊंडी भावतो ज हतो; ए
भावनाने एक जबरजस्त टेको आपे एवो आ गीरनारनी चोथी
टूंक उपरनो प्रसंग बन्यो. त्यारपछी तो राजकोट (गुरुदेव साथे)
गया अने परिणाम बस
पाडीने नांखी आव्या, हवे तो एकलो आत्मा ज लईने आव्या
छीए. एटले एकला आत्मानी धूनमां रहेतां – रहेतां, एनुं घूंटण
करतां – करतां, राजकोटथी पछी तो गुरुदेव साथे जयपुर गया.
जयपुरमां बस, त्यां पं. टोडरमलजी – स्मारक – भवनमां
सीमंधर भगवान पासे हुं आखो दिवस परम निवृत्तिथी बेसी
रहेतो; मारी समयसार – स्वाध्याय अत्यंत घोलनपूर्वक करतो;
अने देहने तो गीरनारनी चोथी टूंके मुकी आव्यो छुं एटले हवे तो
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एकली आत्मअनुभूति तरफना परिणाम खूब – खूब घूंटाया;
बस
बेनश्री – बेननी परिणति जोवा मळी; कर्मधाराथी भिन्न परम
शांत ज्ञानधारा केवुं काम करती होय छे
काम केवुं छे
२४९९ अने २५०१ मां) गिरनार यात्रा करी; तेमां बीजीवार
गुरुदेवनी साथे ( – धर्मचक्रना रथमां बेसीने) गिरनार गयेल,
त्यारे त्यां मानस्तंभना प्रतिष्ठा महोत्सवमां में धर्मध्वजनुं
आरोहण कर्युं. आ वखते अत्यंत साहस करीने फरीने प्रद्युम्न टूंक
(चोथी टूंक) उपर चडया अने यात्रा करी आव्या. जेम आत्मानी
अनुभूतिनो साचो रस्तो जोई लीधेलो तेम आ वखते चोथी टूंकनो
पण साचो रस्तो जोईने ते रस्ते अमे गया. जो के यात्रानो पंथ
चोथी टूंके चडवानो घणो ज विकट छे, एकला आत्माना अवलंबने
पोते पोतानी शक्तिनी ताकात उपर आधार राखीने ज त्यां जई
शकाय छे; तेम चैतन्यनो पंथ, चैतन्यनी स्वानुभूतिनो (चोथा
गुणस्थाने चडवानो) पंथ पण अंदरमां एकदम निरालंबी छे, तेना
उपर चालवुं ए महान शूरवीर आत्मार्थी पुरुषोनुं काम छे; पोते
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जोरे ज स्वानुभूति थई शके छे. अहो, ए चोथी टूंकनी यात्रा एक
(२४९७ मां) स्वानुभूति पहेलांनी यात्रा, अने पछी बीजी आ
स्वानुभूति पछीनी यात्रा (२५०१ मां) – ए बंने खरेखर
यादगार छे.
घणीवार में तीव्र आत्मिक भावनाओ भावी छे, आत्मकल्याणना
सुंदर भावो त्यां जगाडया छे; ए सहेसावन
मुनि भगवंतोनी साथे रहीने चैतन्यना रत्नत्रयनी आराधना हुं
शीखतो होउं, – एवुं जीवन त्यां हुं गाळतो हतो. अने आ
स्वानुभूति – प्रकाशनी रचनानी पूर्णतानो प्रसंग पण कुदरत योगे
गिरनारमां ज बन्यो छे. ते स्वानुभूति – प्रकाशनुं हवे आ ४३ मुं
पद छे : –
दीधो अपूर्व चैतन्यनो संदेश जो;
हरिवंशमां लीधो हरिए मुजने,
अमे बंने सुराष्ट्रना शणगार जो.....
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सातसो मुनिवरो अहींथी मोक्ष पाम्या छे.
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आप संसारथी एकदम विरक्त थया; विरक्त तो हता ज, पण
मुनि थवाने योग्य विरक्त थया; अने मुनि थईने सहस्राम्रवनमां
ध्यानमां बिराज्या.....एटले सहेसावन ते आपनी परम
वैराग्यभूमि – ते मने पण परम वैराग्यभावना जगाडे छे.
लगावी, शुक्लध्याननी श्रेणी चडवा मांडी; सातिशय अप्रमत्त
उपरांत क्षपकश्रेणीमां आरुढ थई आठमुं – नवमुं दशमुं – बारमुं
गुणस्थान प्रगट करी, वीतराग थईने क्षणमात्रमां अद्भुत
केवळज्ञान प्रगट करीने आप तेरमा गुणस्थाने बिराज्या. अहा,
चैतन्यनी सर्वज्ञता आपने आ सहस्राम्रवनमां प्रगटी छे.
सहेसावनमां बेठा होईए त्यारे जाणे चैतन्यनी सर्वज्ञताने ज
देखता होईए.....अंतरमां सर्वज्ञस्वभावी चैतन्यतत्त्व ज देखातुं
होय
सहेसावनमां ज शरु कर्युं. अहो, आ सहेसावन.....ज्यां भगवान
नेम मुनि थया, ज्यां भगवाने केवळज्ञान प्रगट कर्युं, अने ज्यां
दिव्यध्वनि द्वारा भगवाने चैतन्यतत्त्वनुं अद्भुत स्वरुप अमारा
जेवा भव्य जीवोने समजाव्युं. वाह प्रभु
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हरिवंशमां थया छे. मारुं नाम हरि छे एटले हुं पण हरिवंशनो
ज छुं.....अने हवे तो, हे नाथ
जाणे आपनो ज उपकार छे. प्रभो
आपना परिवारनो ने सौराष्ट्रना शणगाररुप बन्यो छुं. अहा,
ज्यां स्वानुभूतिवाळा जीवो वसता होय ए भूमि खरेखर
शणगाररुप छे. ज्यां विराधक जीवो ज वसता होय ए स्मशान;
ज्यां चैतन्यनी आराधना न होय, ज्यां धर्मनो किल्लोल – आनंद
न होय – एवी भूमि ते केम शोभे
खरेखर शणगाररुपे शोभे छे. तेथी आ सौराष्ट्रभूमि पण, हे
भगवान
शोभावी रह्या छीए. प्रभो
छे; गिरनार ए पण महान तीर्थ छे – ज्यांथी नेमनाथप्रभु अने
करोडो मुनिवरो मुक्ति पाम्या छे. अने एवी रीते आ सोनगढ ए
पण मारे माटे तो तीर्थ ज छे, केमके अनुभूतिवाळा जीवो अहीं
वसे छे अने तीर्थस्वरुप अनुभूतिनी प्राप्ति मने आ सोनगढक्षेत्रमां
– जे रुममां हुं २८ वर्षथी रहुं छुं ते रुममां – आत्मध्यान वडे
थई छे : (धन्य स्वानुभूति
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ज्यां थई छे मुज अनुभूति साक्षात् जो;
अषाड वदनी सातम केवी शोभती
ज्यां प्रगटी ते आ सोनगढक्षेत्र – ए पण एक तीर्थ ज छे. –
आवी साक्षात् अनुभूति अषाड वद सातमना दिवसे प्रगटी छे,
तेथी ए दिवस पण मारे माटे एक अभूतपूर्व, अपूर्व छे; संसार
अने मोक्षनी वच्चे छीणी मारनारी मंगल क्षण ते क्षण मारे माटे
तीर्थनुं ज कारण छे.
जागी रे जागी चेतना देवी अपूर्व जो;
चेतनाए तो छोडया बाहिर भावने,
लीधो – लीधो एक ज शांतरसपिंड जो.....
परभावोथी छूटी आवी आत्ममां,
लीधो एणे आनंदमय निज स्वाद जो...
प्रसंग देखेलो, ते प्रसंग उपरथी मने स्वानुभूति जागी..
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धर्ममाताओनो मारा उपर अचिंत्य – अपूर्व – कल्पनातीत घणो
ज घणो उपकार छे; जेवो तीर्थंकरोनो उपकार.....एवो ज ए
माताओनो मारा उपर परम अचिंत्य उपकार; एमनुं परम
वात्सल्य, मने स्वानुभूति पामवामां खरेखर कारणरुप थयुं छे.
एवी ए चेतनवंती माताओने, एवा ए चेतनवंता जीवोना
साधकभावने देखीने मने पण मारी चेतना जागी ऊठी.....ने
आराधक भाव प्रगटयो.
भिन्नपणे केवा जुदा जुदा काम करी रह्या छे
भिन्नपणुं, एवुं ज अत्यंत भिन्नपणुं – चेतनानुं अने कषायनुं,
मने मारा आत्मामां पण अत्यंत स्पष्ट, वेदनपूर्वक देखायुं, एटले
के कषायोथी भिन्न उपयोग थयो अने पोताना चैतन्यरसमां मग्न
थईने पोते पोतानी स्वानुभूति करी लीधी.
स्वानुभूति थवाना टाणे चेतना अने कषायनी भिन्नता देखाणी –
स्पष्ट देखाणी, एना जोरे अंतरमां स्वानुभूतिनुं वेदन कर्युं; त्यारे
चेतनाए बाह्य भावोने तो साव छोडी दीधा हता; एकला
चैतन्यरसमां लीन थई, चेतना पोते एकला चैतन्यरसरुपे ज
परिणमीने, पोते पोतानुं स्वसंवेदन करती – करती, पोताना
एकला शांतरसना पिंडने ज पोते ग्रहण कर्यो; अने ए सिवायना,
जे शांतरसमां समाई न शके एवा, समस्त पर भावोने तेणे
अत्यंतपणे पोतानाथी बहार राख्या, – तेनाथी पोते सर्वथा जुदी
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चेतना, धर्मात्मा साधक जीवोने होय एवी ए चेतना, – अहो
पाम्यो आशीष प्रभुनी हुं साक्षात जो;
ज्ञानदर्पणमां दीठो नीकट मोक्षने,
अहो प्रभो
साक्षात् प्रत्यक्ष देख्युं. आपनी सर्वज्ञतामां मारो मोक्ष देखाय छे
एवुं मने ज्यारे अंतरथी ‘एक जात’नुं भान थयुं त्यारथी मने
सर्वज्ञता प्रत्ये कोई परम अचिंत्य बहुमान आव्युं; मारी मुक्तिनो
विश्वास अंदरथी आव्यो अने मारा प्रयत्नमां भेदज्ञाननी दिशा
खुलवा मांडी.
आशीष आप्या.....केमके आपनुं ज्ञान मारी मुक्तिने, मारी
स्वानुभूतिने साक्षात् देखी रह्युं छे, तेथी ए साक्षात् ज्ञानद्वारा, ए
साक्षात् ज्ञाननी प्रतीत द्वारा मने आपना आशीर्वाद ज मळ्या छे.
आपे आपना ज्ञानदर्पणमां मारो मोक्ष देखेलो छे; जे ज्ञानदर्पणमां
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– तेथी हे नाथ
उत्कृष्ट मंगळरुप छे, मारुं ज्ञान पण तेवुं ज, भले आपना करतां
नानुं पण जातिमां आपना जेवुं ज, मंगळरुप छे.
ओळखाण करी छे; अने हवे आपनी सेवानुं सम्यक् फळ पण मने
मळी चूक्युं छे. अहो प्रभो
बेनश्री पासेथी प्राप्त थया छे; पूज्य बेनश्री चंपाबेन, मारा
भगवती उपकारी माता, तेमनी परम कृपाथी, परम प्रसन्नताथी,
हे प्रभो
विश्वास, – आपना स्वरुपनी परम ओळखाण, आपनुं
समवसरण, कुंदकुंद स्वामीनी आपना प्रत्येनी भक्ति, त्यां वसता
धर्मात्मा जीवो – ए बधुंय साक्षात्कार – प्रतीतरुप थाय छे; अने
ए प्रसंगनो – एटले के जातिस्मरण ज्ञान द्वारा मने आपनी जे
प्रकारे प्राप्ति थई ते प्रसंगनो पण, – मारा उपर, मारा जीवनमां
धर्मनी आराधना करवा माटे, मने घणो ज उपकार थयो छे.
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कुंदकुंद ने कहान गुरु – प्रत्यक्ष जो;
आतमदेव तमे तो अतिअति शोभता,
झट झट बस
साधर्मी संत – धर्मात्माओ, हुं तमने नमस्कार करुं छुं.....जेवा
नमस्कार कुंदकुंद स्वामीए प्रवचनसारना मंगलाचरणमां
पंचपरमेष्ठी भगवंतोने कर्या छे तेवा ज नमस्कार हे स्वानुभूतिवंता
संतो
विदेहगमन – ए बधुंय आ जीवने परम उपकारभूत थयेल छे.
स्वानुभूतिनुं परम स्पष्ट स्वरुप आपे समयसारमां जे रीते
समजाव्युं छे ते समयसारनी स्वाध्याय करतां – करतां, में
स्वानुभूतिना लक्षे समयसारनी १०० वखत स्वाध्याय शरु करेली,
१०० वखतनी स्वाध्याय अंतरना ऊंडा मंथनपूर्वक करतां – करतां,
ज्यारे ३५ मी वखत हुं समयसारनी स्वाध्याय करतो हतो अने
तेमां देहादिकथी भिन्न चैतन्यस्वरुप आत्मअनुभूतिनुं वर्णन
(गा. २३ – २४ – २५ मां) चालतुं हतुं के हे जीव
एवुं अनुभूतिनुं वर्णन चालतुं हतुं, ते वांच्युं ते लगभगमां मने
स्वानुभूति थई. आपना समयसारना भावोनुं घोलन हे
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अने १०० वखत मारे तेनी स्वाध्याय करवानी उत्तम भावना छे.
तेमां अत्यारे समयसारनी स्वाध्याय कुल ७० मी वखत चाली रही
छे, एटले के स्वानुभूति थया पछी ३६ मी वखत एनी स्वाध्याय
चाली रही छे. आ पहेलां में ३४ वखत एनी स्वाध्याय पूरी करी
हती, अने आ बधानी प्राप्ति मने थई ते कहानगुरुना प्रतापे थई
छे. आवा कुंदकुंद प्रभु मळ्या, आवा पूज्य धर्ममाता मळ्या, आवा
आत्मानी स्वानुभूति मळी अने आवुं समयसार मळ्युं...ए बधो
उपकार भावि तीर्थंकर कहान गुरुदेवनो छे....तेथी हे
कुंदकुंदस्वामी
भक्तिपूर्वक हुं आपने नमस्कार करुं छुं. अने –
आतमदेव, हुं पोते ज मारी स्वानुभूतिथी शोभतो, हुं पोते मने
नमस्कार करुं तो – तो भेद पडी जाय छे. हुं मारामां नमेलो
नमस्कारस्वरुप ज छुं; मारी परिणति के जे मारा स्वरुपमां ज
नमेली छे – तेमां, ‘आ हुं’ अने ‘आ मारी परिणति’ एवुं द्वैत
स्वानुभूतिमां नथी – नथी. माटे अद्वैतरुप, स्वानुभूतिमां जे अद्वैत
छे एवो हुं आतमदेव, अहो
महावीर भगवान जेवा साक्षात भगवान बनी जशो.