Atmadharma magazine - Ank 119
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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ः २४२ः आत्मधर्मः ११९
संपत्ति नथी. अनंतगुणनुं निधान अंदर त्रिकाळ भर्युं छे ते शाश्वत संपदाने अज्ञानी ओळखतो नथी. जो ते
निधानने ओळखे तो परनुं अभिमान छूटी जाय ने अनादिकाळनी दीनतानो अंत आवीने सिद्धपदनां निधान
प्रगटे. माटे त्रिकाळी शक्तिनी शोभानो महिमा करवो ते ज सम्यग्दर्शननो अने सिद्धपदनो उपाय छे.
आत्माना अनंत गुणोमां एक ज्ञानगुण छे, ते त्रिकाळ छे, तेनी एक समयनी पूर्ण निर्मळ केवळज्ञान
अवस्थामां त्रणकाळ त्रणलोकना समस्त द्रव्य–गुण–पर्याय जणाय छे एवुं तेनुं अनंत सामर्थ्य छे. अहो!
अचिंत्य सामर्थ्यवाळुं ने विकल्प विनानुं एवुं पूर्ण शुद्धस्वभावरूप जे केवळज्ञान तेनो महिमा केटलो? अने जे
द्रव्यना आश्रये ते केवळज्ञान प्रगटयुं तेना अपार सामर्थ्यना महिमानी तो शुं वात!! केवळज्ञान थया पछी
एवी ने एवी पर्याय समये समये नवी नवी थया करे छे. केवळज्ञाननी एक पर्याय करतां बीजी पर्यायमां
जाणवानुं सामर्थ्य हीणुं के अधिक थतुं नथी, सामर्थ्य एटलुं ने एटलुं रहे छे, छतां तेमां पण अगुरुलघुगुणनुं
सूक्ष्म परिणमन तो समये समये थया ज करे छे–एवो ज कोई अचिंत्यस्वभाव छे, ते केवळीगम्य छे. जुओ, आ
केवळज्ञाननी गंभीरता! छद्मस्थना ज्ञानमां जो बधुं ज जणाई जाय तो पछी केवळज्ञाननुं माहात्म्य कयां रह्युं?
केवळज्ञानमां जेटलुं जणाय ते बधुंय छद्मस्थ न जाणी शके, परंतु पोताना आत्महितने माटे प्रयोजनभूत जे होय
तेने तो सम्यग्ज्ञानी छद्मस्थ पण बराबर निःसंदेहपणे जाणी शके छे. आत्माना अगुरुलघुस्वभावनुं कोई एवुं
अचिंत्य सूक्ष्म परिणमन छे ते केवळीगम्य छे.
–सत्तरमी अगुरुलघुत्वशक्तिनुं वर्णन अहीं पूरुं थयुं.
* * *
आत्मानी समजण
सौथी पहेलां सत्समागमे आत्मानी साची समजण करवी ते
भवभ्रमणथी छूटवानुं कारण छे. अनंतकाळमां जीवे बधुं कर्युं छे पण
आत्मानी साची समजण कदी करी नथी. आत्मानी साची समजण
अपूर्व छे, जो एक समय पण आत्माने ओळखे तो मुक्तिनो रस्तो
थया वगर रहे नहीं. आज समजे,....काले समजे के बे–पांच भवे
समजे,–पण आत्माने समज्ये ज भवथी छूटको थाय तेम छे, आत्माने
समज्या वगर कदी भवथी निवेडा आवे तेम नथी.
–प्रवचनमांथी.
***
आ...त्मा...नी वा....र्ता
पोतानुं अपूर्व कल्याण करवा माटे आत्मानी आ वात समजवा
जेवी छे. जेम लौकिक कथा–वार्ता होय तो ते समजवुं सहेलुं लागे छे,–तेम
आ पण चैतन्य भगवान आत्मानी वार्ता ज छे; माटे आ समजवामां होंश
अने उत्साह आववो जोईए; आत्मानी साची समजण पूर्वे अनंत काळमां
करी नथी तेथी शरूआतमां नवुं लागे पण रुचि अने उल्लासथी समजवा
मांगे तो बधुं समजाय तेम छे–मारे हवे तो मारा आत्मानुं हित करवुं छे.
एम जेने अंतरमां दरकार जागे तेनी बुद्धि आत्मानी समजण तरफ वळ्‌या
विना रहे नहि.
***