Atmadharma magazine - Ank 116
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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ः १७८ः आत्मधर्मः ११६
* सर्वज्ञभगवाननी
व्यवहारस्तुति
पण कोने होय? *
मवसरणमां बिराजमान श्री तीर्थंकर भगवाननी स्तुति आ प्रमाणे करवामां आवे छे के हे
जिनेन्द्र! आपनुं शरीर परम सुंदर अने अविकार छे, आपनो देह दिव्य परमऔदारिक छे; जन्म्या
त्यारथी आपने आहार हतो पण निहार न हतो, ने परमात्मदशा थया पछी तो आहार न रह्यो; आपनुं
रूप सर्वने प्रिय लागे छे. आपनी वाणी भव्यजीवोने अमृत जेवी लागे छे; आपनी मुद्रा समुद्र जेवी
अति गंभीर छे, आपना ज्ञानमां बधुं प्रतिभास्युं होवाथी मुद्रा उपर जरापण विस्मय के कुतूहलता थती
नथी; वळी आपनी मुद्रा चळाचळता रहित छे, दुनियाना विविध बनावो ज्ञानमां प्रतिभासवां छतां
आपनी मुद्रा वीतरागताथी जरापण चलायमान थती नथी. वळी हे नाथ! आपनी धर्मसभामां सिंह
अने हरण, बिलाडी अने उंदर वगेरे जातिविरोधी प्राणीओ पण शांत थई निर्भयपणे एकसाथे बेसे छे
ने कोई कोईनी हिंसा करतां नथी.–आवा आवा प्रकारे शरीरादिकना वर्णनथी भगवाननी जे स्तुति
करवामां आवे छे ते व्यवहारथी ज छे, परमार्थे शरीरादिना स्तवनथी आत्मानी स्तुति थती नथी; केमके
शरीरनुं रूप के दिव्यध्वनि वगेरे कांई भगवाननुं खरुं स्वरूप नथी, ते तो पुण्यनुं फळ छे, भगवाननो
आत्मा तेनाथी जुदो छे. जो ते बाह्य पुण्यना फळना वर्णनने ज भगवाननुं खरुं स्वरूप मानी ल्ये अने
ते पुण्यथी भिन्न सर्वज्ञ भगवानना स्वरूपने न ओळखे (एटले के ज्ञानस्वभावी आत्माने न ओळखे)
तो ते जीव अज्ञानी छे, ते बहु तो पुण्य बांधे, पण तेने भगवाननी साची स्तुति (निश्चयथी के
व्यवहारथी) होती नथी. भगवान आत्माना परमार्थ स्वरूपने जे जाणे तेने ज भगवाननी साची स्तुति
होय छे. भगवान आत्मानुं परमार्थ स्वरूप जे जीव जाणे ते पुण्यने आत्मानुं स्वरूप माने नहि, पुण्यथी
धर्म माने नहि, देहनी क्रियाने आत्मानी माने नहि. कथनमां भले देहनुं वर्णन आवे, परंतु ते वखते य,
‘भगवाननो आत्मा तो देहथी जुदो ज्ञानस्वरूप छे, वीतराग छे अने मारो आत्मा पण तेवो ज
ज्ञानस्वरूप वीतराग छे’–एवुं लक्ष जो अंतरमां होय तो ज त्यां भगवाननी व्यवहार स्तुति छे; पण जो
तेवुं लक्ष न होय तो तो व्यवहारस्तुति पण साची नथी, केमके निश्चयना लक्ष वगर व्यवहार पण न
होय. जेने निश्चयनुं लक्ष नथी ते जीव खरेखर भगवाननी स्तुति नथी करतो, पण विकारनी अने जडनी
स्तुति करे छे; भगवानने तो ते ओळखतो नथी, ते तो शरीरने अने पुण्यना फळने ज भगवान माने
छे. धर्मीने देहथी अने रागथी भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्मानुं भान छे, तेने भगवाननी स्तुतिनो शुभराग
थाय अने शरीरना गुणनी वात व्यवहारे आवे, पण त्यां ते धर्मीनुं लक्ष तो ज्ञानस्वरूप आत्मा उपर छे,
भगवानना आत्माना गुण साथे ते पोताना आत्माना गुणने मापे छे, अने जेटलो गुणनो अंश प्रगटय
ो तेटली भगवाननी स्तुति थई एम ते जाणे छे; ते ज भगवाननां साचां गाणां गाय छे. भगवाननो
भक्त अल्पज्ञताने के रागने आदरतो नथी, पण रागरहित सर्वज्ञस्वभावने ज आदरे छे. त्यां जे
शुभराग रह्यो तेने ‘भगवाननी व्यवहार स्तुति’ नो आरोप आवे छे. केवळी प्रभु जेवो मारो आत्मा,
जेनाथी धर्म थाय ने जन्म–मरण टळे, एम जेणे पोताना ज्ञानस्वभावनी प्रतीत करी ते जीव
भगवाननो भक्त थयो, ते जिनेन्द्रनो नंदन थयो.....तेने ईंद्रियाधीनपणुं टळ्‌युं एटले ते जितेन्द्रिय
थयो....धर्मात्मा थयो. आ रीते ज्ञानस्वभावी आत्मानुं सम्यग्ज्ञान अने सम्यग्दर्शन करवुं ते ज
भगवाननी वास्तविक स्तुति छे अने त्यां ज व्यवहार स्तुति होय छे.
(–सोनगढ प्रतिष्ठा–महोत्सवनां प्रवचनमांथीः सं. १९९७)
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