निरंतर.....भाववा.....जेवी.....भावना
हुं जाणनार छुं–एम जाणनार तत्त्वनुं लक्ष राखवुं.
देह ते हुं नथी, देह मारो नथी, हुं तो देहथी भिन्न जाणनार छुं.
जाणनारमां मुंझवण नथी.
शरीरमां व्याधि छे पण ज्ञानमां व्याधि नथी.
मारामां व्याधि नथी, हुं तो व्याधिनो जाणनार छुं.
शरीरमां भींस पडे पण ज्ञानमां भींस नथी.
ज्ञान तो धीर–शांत–जाणनार छे.–आम आत्मानुं लक्ष राखवुं.
हुं देह साथे एकमेक थईने कदी रह्यो नथी,
हुं तो मारा ज्ञान साथे ज एकमेक छुं.
कदी पण मारा ज्ञानथी छूटीने हुं देहस्वरूप थयो नथी,
देहमां रह्यो छतां देहथी जुदो ज छुं.
देहनो वियोग थवा छतां मारा ज्ञानतत्त्वनो कदी नाश थतो नथी.
रोगादि शरीरमां थाय, परंतु शरीर हुं नथी, हुं तो अतीन्द्रिज्ञान छुं, मारा ज्ञानमां
रोगादिनो प्रवेश नथी.
अहो! ए ज्ञानतत्त्व केवुं!–के गमे तेवा व्याधि वगेरे प्रसंग वखते पण जेना लक्षे
शांति रहे....जेना लक्षे सर्व प्रकारनी मुंझवण टळी जाय......
अहो! आवुं ज्ञानमय आनंदतत्त्व!! ते हुं ज छुं.
–आवुं लक्ष राखे तेने मृत्यु वखते मुंझवण थती नथी; ते वखते य तेने चैतन्यनी
जागृति रहे छे. भिन्नतानी आवी भावना जीवनमां निरंतर भाववा जेवी छे.
(–एक प्रसंग उपरथी.)