Atmadharma magazine - Ank 130
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration).

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: १९८: आत्मधर्म–१३० : श्रावण: २०१०:
आवो भाव आव्या विना रहेतो ज नथी, पण ते शुभराग छे. पद्मनंदी मुनिराज कहे छे के–
यात्राभिःस्नपनैर्महोत्सवशतेः पूजामिरुल्लोचकै
नैवेद्यैर्वलिभिर्ध्वजैश्च कलशैस्तौर्य त्रिकेर्जागारैः।
घंटा चामरदर्पणादिभिरपि प्रस्तार्य शोभां परां
भव्यः पुण्यमुपार्जयन्ति सततं सत्यत्र चैत्यालये।।
–देशव्रतोद्योतन : २३
आ जगतमां चैत्यालय थतां भव्यजीवो यात्रा, कलशाभिषेक वगेरे सेंकडो प्रकारना मोटामोटा उत्सवोथी,
तथा पूजा, चांदनी वगेरेथी, ध्वजारोपणथी, कलशारोपणथी अत्यंत सुंदर वाजींत्रोथी तेमज घंट, चामर, छत्र,
दर्पण वगेरेथी ते चैत्यालयनी उत्कृष्ट शोभा वधारीने पुण्य संचय करे छे; माटे भव्यजीवोए चैत्यालयनुं निर्माण
अवश्य कराववुं जोईए.
शास्त्रमां आवो शुभरागनो उपदेश आवे; पण आत्माना भान वगर शुभराग करीने कोई एम मानी
ल्ये के आनाथी मने धर्म थई गयो अथवा आ मने धर्मनुं कारण थशे तो आचार्यदेव कहे छे के अरे भाई! तुं
तो ज्ञानमूर्ति छो, राग ते खरेखर तारुं अवयव नथी, तारा ज्ञानरूपी अवयवने अंतरमां एकाग्र करीने
ज्ञानानंदस्वरूपने लक्षमां ले, तो आत्मबोध थाय ने अविकारी शांति प्रगटे. तेनुं नाम धर्म छे. आ सिवाय बीजी
रीते धर्म थतो नथी, बहारनी क्रियाथी के शुभरागथी धर्म थवानुं जे मनावता होय ते मिथ्याद्रष्टि छे.
सिद्ध भगवंतो अने अरिहंत भगवंतो केवळज्ञान प्रगट करीने परमात्मा थया; तेमनुं केवळज्ञान क्यांथी
आव्युं? शरीरमांथी के रागमांथी ते केवळज्ञान आव्युं नथी, पहेलांं ओछुं ज्ञान हतुं तेमांथी पण ते केवळज्ञान
आव्युं नथी; पण अंतरमां ज्ञानानंदस्वभाव परिपूर्ण सामर्थ्यथी भरपूर छे तेनुं अवलंबन लईने एकाग्र थतां
तेमांथी केवळज्ञान प्रगटी जाय छे. हे जीव! तारो आत्मा आवा परिपूर्ण सामर्थ्यथी भरेलो छे; आवां स्वसंवेद्य
आनंदमूर्ति आत्माने प्रतीतमां लईने तेनो अनुभव कर तो वर्तमानमां अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय.
बधा आत्मा अनादिअनंत छे, दरेक आत्मा ज्ञानस्वरूप छे. जेटलुं एक आत्मा जाणे छे तेटलुं जाणवानी ताकात
दरेक आत्मामां छे. केवळी भगवान त्रणकाळ त्रणलोकने एक समयमां जाणे छे ते ज्ञान अंतरनी शक्तिमांथी
आव्युं छे, ने एवी शक्ति दरेक आत्मामां भरेली छे. वर्तमान व्यक्तज्ञान अल्प होवा छतां ते परिपूर्ण ज्ञाननो
अंश छे, ते व्यक्तज्ञानने अंतर्मूख करीने परिपूर्ण ज्ञानशक्तिनुं अवलंबन करतां केवळज्ञान प्रगटी जाय छे.
ज्ञानशक्तिना अवलंबन सिवाय बीजो कोई उपाय नथी. पहेलांं यथार्थ आत्मबोध करवो जोईए. आत्मबोध
करवो ते धर्मनी प्रथम क्रिया छे. धर्म चीज अपूर्व छे, दुनिया बहारथी ने रागथी धर्म मानी बेठी छे, पण धर्मनुं
स्वरूप एवुं नथी. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रय ते मोक्षनुं कारण छे; तेमां आत्मानो यथार्थ बोध करवो
ते सम्यग्ज्ञान छे, ते मोक्षमार्गनुं एक रत्न छे. आवो आत्मबोध प्रगट करवो ते धर्मनी शरूआत छे.
* सम्यग्दर्शननुं सामर्थ्य *
ज्ञान स्वरूप अभेद आत्मानी प्रतीति करवी ते
अपूर्व सम्यग्दर्शन–धर्म छे. एक समयनुं सम्यग्दर्शन
अनंत जन्म–मरणना मूळने छेदी नाखे छे. अंतरना
चिदानंद स्वभावनी ओळखाण करीने आवुं अपूर्व
सम्यग्दर्शन अनादिथी एक सेकंड पण जीवे कर्युं नथी.
बीजुं बधुं करी चुक्यो–शुभ भावथी व्रत–तप–पूजा ने
त्याग कर्या पण हुं पोते चैतन्य ज्योत भगवान छुं,
एवा आत्मभान वगर एक पण भव घट्यो नहि.