Atmadharma magazine - Ank 159
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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निर्विकल्परसनुं पान करो
[समाधिशतक गा. ३९ उपरना पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी]


भावलिंगी संतमुनिने समाधिमरणनो अवसर होय... आसपास बीजा मुनिओ
बेठा होय;–त्यां ते मुनिने कोईवार तृषाथी कदाच पाणी पीवानी जराक वृत्ति ऊठी जाय
ने पाणी मांगे... के... ‘पाणी!’
त्यां बीजा मुनिओ तेने वात्सल्यथी संबोधे छे के अरे मुनि! आ शुं!! अत्यारे
पाणीनी वृत्ति!! अंतरमां निर्विकल्परसना पाणी पीओ... अंतरमां डुबकी मारीने
अतीन्द्रिय आनंदना सागरमांथी आनंदना अमृत पीओ... ने आ पाणीनी वृत्ति छोडो...
अत्यारे समाधिनो अवसर छे... अनंतवार दरिया भराय एटला पाणी पीधां... छतां
तृषा न छीपी... माटे ए पाणीने भूली जाओ... ने अंतरमां चैतन्यना निर्विकल्प
अमृतनुं पान करो.........
“निर्विकल्पसमुत्पन्नं ज्ञानमेव सुधारसम्।
विवेकं अंजुलिं कृत्वा तत् पिबंति तपस्विनः।।”
तपस्वी–मुनिवरो विवेकरूपी अंजलिवडे, निर्विकल्पदशामां उत्पन्न थता ज्ञानरूपी
सुधारसनुं पान करे छे. हे मुनिश्रेष्ठ! तमे पण निर्विकल्प आनंदरसनुं पान करीने अनंत
काळनी तृषाने छीपावी द्यो........
आम ज्यारे बीजा मुनिराज संबोधन करे छे त्यारे ते मुनि पण तरत पाणीनी
वृत्ति तोडी नांखे छे... ने निर्विकल्प थईने अतीन्द्रिय आनंदना अमृतने पीए छे.......
अहो! धन्य ते निर्विकल्परसनुं पान करनारा वनवासी संतोने!