Atmadharma magazine - Ank 169
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः६ः आत्मधर्मः १६९
आनंद
अहो! सम्यग्द्रष्टि पोताना आत्मा सिवाय क्यांय सुख देखतो नथी, ते सुखने
पोताना आत्मामां ज देखे छे. आथी कदी पण तेने आत्मानो महिमा छूटीने परनो
महिमा आवी जतो नथी.
हें भाई! तारो आनंद तारामां ज शोध तारो आनंद तारामां ज छे, ते बहार
शोधवाथी नहि मळे. तारुं आखुं द्रव्य ज सर्वप्रदेशे आनंदथी भरेलुं छे; तेने देख, तो
तने तारा अपूर्व आनंदनो अनुभव थाय. पोतानो आनंद पोतामां ज छे–एम
जाणीने तुं आनंदित था.
– पू. गुरुदेव.
मुख्यता थईने स्वभाव ढंकाई जाय एम कदी बनतुं नथी. अल्पदोष होय तेने जाणे छे पण तेथी एम शंका नथी करता
के मारो आखो स्वभाव मलिन थई गयो. द्रष्टिमां ज्ञानानंद स्वभावनी मुख्यतामां धर्मीने अल्प दोषनी गौणता
होवाथी उपगूहन अंग वर्ते ज छे, ने क्षणे क्षणे तेनी आत्मशुद्धि वधती जाय छे; तेथी धर्मीने क्षणे क्षणे निर्जरा थती
जाय छे.
धर्मीए पोताना शुद्ध चैतन्यमूर्ति स्वभावमां उपयोग जोडयो छे तेनुं नाम परमार्थे ‘सिद्धभक्ति’ छे,
शुद्धस्वभाव उपर ज्यां द्रष्टि छे त्यां अल्पदोष उपर द्रष्टि ज नथी तेथी तेने दोषनुं उपगूहन वर्ते छे. चैतन्यस्वभावने
प्रसिद्ध करीने दोषनुं उपगूहन करी नाख्युं छे; एक क्षण पण दोषनी मुख्यता करीने स्वभावने चूकी जता नथी, तेथी तेने
शुद्धता वधती ज जाय छे.–आवुं धर्मीनुं उपगूहन छे; तेने समये समये मोक्षपर्यायनी सन्मुख ज परिणमन थई रह्युं छे.
अहो! द्रष्टिनुं ध्येय तो द्रव्य छे ने द्रव्य तो मुक्त स्वरूप छे; माटे मुक्तस्वरूपनी द्रष्टिमां धर्मी क्षणे क्षणे मुक्त ज थतो
जाय छे. खरेखर मिथ्यात्व ज संसार छे, ने सम्यकत्त्व ते मुक्ति छे. धर्मीने अंतरमां शुद्ध चैतन्यस्वभाव उपर द्रष्टि छे,
तेनी ज भक्ति छे, अने तेनुं फळ मुक्ति छे. पर्यायना अल्पदोष प्रत्ये आदर नथी तेथी तेनी भक्ति नथी; ते
अल्पदोषने मुख्य करीने स्वभावनी शुद्धताने भूली जता नथी. आवा धर्मात्माने अशुद्धता घटती ज जाय छे ने शुद्धता
वधती ज जाय छे;–एटले तेने बंधन थतुं नथी पण कर्मोनी निर्जरा ज थती जाय छे, तेथी अल्पकाळमां ते मुक्त थई
जशे.
धर्मीनेय जे राग छे ते कांई निर्जरानुं कारण नथी. पण अंतर्मुख द्रष्टिना परिणमनथी क्षणे क्षणे जे
आत्मशुद्धिनी वृद्धि थाय छे ते ज निर्जरानुं कारण छे. जराक निर्बळताथी राग थाय, पण ते राग प्रत्ये धर्मीनी द्रष्टिनुं
जोर नथी, धर्मीनी द्रष्टिनुं जोर तो अखंड ज्ञायकमूर्ति स्वभाव उपर ज छे; ते द्रष्टिना जोरे शुद्धिनी वृद्धि थईने कर्मोनी
निर्जरा ज थती जाय छे.
* * *
(६) सम्यग्द्रष्टिनुं स्थितिकरण–अंग
ज्ञानानंदस्वरूप आत्मानी श्रद्धामां समकितीने निःशंकता वगेरे आठ गुणो होय छे तेनुं आ वर्णन छे.
उन्मार्गगमने स्वात्मने
पण मार्गमां जे स्थापतो,
चिन्मूर्ति ते स्थितिकरणयुत
समकितद्रष्टि जाणवो. २३४.
धर्मात्मा सम्यग्द्रष्टि अंर्तस्वभावनी श्रद्धाना बळे पोताना आत्माने मोक्षमार्गमां स्थिर राखे छे, कोई पण
प्रसंगना भयथी ते पोताना आत्माने मोक्षमार्गथी डगवा देता नथी. जो के अस्थिरताना रागादि थाय छे,