Atmadharma magazine - Ank 170
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः६ः आत्मधर्मः १७०
दशरथः–
हा, मंत्रीजी! सत्य कहुं छुं. मारुं अंतर पण वेदनाना आघातथी दुःख अनुभवे छे...पण शुं करुं!
नायबमंत्रीः– प्रभो! आप वीतरागी जैनशासनना भक्त अने महासम्राट छो...आप समर्थ अने ज्ञानना सागर
छो, आपनी विचक्षण बुद्धि विकटमां विकट कोयडाने पण उकेली नांखवा समर्थ छे; माटे आप योग्य
उकेल बतावो.
दशरथः– उकेल? उकेल शो बतावुं? सांभळो, थोडा दिवस पहेलां ‘सर्वभूतहित’ मुनिराजना दर्शननो लाभ
मळ्‌यो, ने ए महासंत मुनिराजना श्रीमुखथी मारा पूर्व भवनुं वृत्तांत सांभळीने मारुं चित्त अडगपणे
वैराग्य तरफ ढळी गयुं छे. पवित्र जिनदीक्षा अंगीकार करुं ते ज आ जीवननी परम सफळता छे. बाह्य
पदार्थो के भोगविषयो ते कोई आत्माने सुख आपवा समर्थ नथी. हवे रत्नयत्र धर्मनी आराधना वडे
शीघ्र कल्याण करी लेवा अंतरात्मा उतावळो थई रह्यो छे. त्यारे बीजी तरफनो प्रसंग पण संसार प्रत्ये
वैराग्यजनक छे. काले आ अयोध्यानी राजगादी पर रामने बदले भरतनो अभिषेक थशे...राणी
कैकेयीने हुं वरदान आपी चूकयो छुं ते अफर ज रहेशे...वचननुं पालन करवुं ते रघुकुळनी रीत छे, माटे
हवे विलंब व्यर्थ छे. रामचंद्रने बोलावो.
मंत्रीः– जेवी आज्ञा! कोण छे हाजर?
हजुरीः– जी महाराज! शी आज्ञा छे?
मंत्रीः– जाओ, रामचंद्रजीने तेडी लावो.
हजुरीः– जेवी आज्ञा.
(हजुरी नमन करीने जाय छे...थोडीवारे राम प्रवेशे छे.)
रामः– (वंदन करीने)ः परम पूज्य पिताश्री, शी आज्ञा छे?
दशरथः– (थोडीवार विचार करीने, धीमा अवाजे कहे छे)ः पुत्र! तारुं अविनाशी कल्याण हो..मारा चित्तमां
वैराग्य अने क्षोभनी मिश्र लागणीना वादळ छवाई रह्या छे..जगतना आ बाह्य पदार्थो सुनकार अने
सडेला तरणा जेवा भासे छे..अंतरमां विचारोना वादळ दोडादोड करता कंईक अवनवुं थवानी आगाही
आपे छे.
रामः– पिताजी! आपना हृदयनी वात स्फोट करीने समजावो..आपना अंतरना क्षोभने वहेली तके दूर करवा
हुं आसमान–जमीनने एक करीश..आपनी चिंतातुर मुद्राने जोतां अमने पारावार दुःख थाय छे..माटे
आप शीघ्र आज्ञा करो.
दशरथः– पुत्र! तमे जाणो छो के युद्ध वखते तमारी माता कैकेयीए रथ चलावीने आपणने विजय अपाव्यो
हतो, रथ चलाववानी तेनी कुशळताथी ज हुं ते वखते बची शक्यो हतो, ने ते वखते प्रसन्न
थईने में तेने वरदान मांगवा कह्युं हतुं; त्यारे तेणे ए वरदान बाकी राखेलुं, हवे तारा
राज्याभिषेक–वखते ते पोताना वरदाननी मांगणी करे छे के मारा पुत्र भरतनो राज्याभिषेक
करो. आ परिस्थितिमां जो हुं भरतनो राज्याभिषेक न करुं तो हुं वचनभंग थाउं ने जगतमां
मारी अपकीर्ति थशे! वळी राजनीतिनो विचार करतां मोटा पुत्रने छोडीने नाना पुत्रनो
राज्याभिषेक करवो ते कार्य न्यायविरोधी लागे छे. वळी भरतने राज्य आपुं तो लक्ष्मण सहित
तमे शुं करशो? तमे बंने पुत्रो महाशूरवीर अने विनयवंत तथा विचारवान छो, तेथी हवे हुं शुं
करुं? ए कठिन समश्या थई पडी छे, ने तेथी ज मारा अंतरमां क्षोभ थाय छे.
रामः– पिताजी! निश्चिंतपणे आप आपना वचननुं पालन करो, अमारी चिंता छोडी दो, ने खुशीथी
भरतकुमारनो राज्याभिषेक करो. जो वचनभंगथी आपणा कुळनी अपकीर्ति आवे तो आ
राजसंपदा के इन्द्रनी संपदा पण अमारे शुं कामनी छे? जे सुपुत्र छे ते एवुं ज काम करे छे के
जेथी पिता–माताने लेशमात्र दुःख न थाय. पुत्रनुं आ ज पुत्रपणुं छे; नीतिना पंडितजन एम ज
कहे छे के–जे पिताने पवित्र करे अने तेनुं कष्ट दूर करे ते पुत्र छे, पवित्र करवुं एटले शुं? के
पिताने धर्मसन्मुख करवा. हे पिताजी! राज्यनी संपदानो अमने मोह नथी, वनवास पण अमने
कठिन नथी; अमने दुःख मात्र