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Atmadharma is a magazine that has been published from
Songadh, since 1943. We have re-typed and uploaded the
old Atmadharma Magazines to our website
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original Atmadharma Magazines. There may be some
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Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust
(Shree Shantilal Ratilal Shah-Parivar)
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ચિદાનંદસ્વભાવની અભિમુખ જઈને તેના અતીન્દ્રિય આનંદનો અનુભવ
પ્રભો! અનાદિથી તને તારા સ્વભાવનું સાચું બહુમાન જ આવ્યું નથી અને
સર્વજ્ઞ–ભગવંતો થયા તેઓ આત્મામાંથી જ થયા છે અને તારા આત્મામાં
બહુમાન કર, અને તે સ્વભાવની સન્મુખ થઈને તારા સ્વભાવના આનંદનું
વેદન કરીને તારા આત્માનું અભિનંદન કર, તેમાં જ તારું હિત છે; આ
આપે તેમાં કાંઈ હિત નથી.
સ્વભાવથી જ થાય છે. જડમાં પણ ક્ષણે ક્ષણે હાલત પલટાય એવી તેના
સ્વભાવની તાકાત છે, જીવને લઈને તેનું કાર્ય થાય એમ બનતું નથી. પરંતુ
છે. પણ ભાઈ! એમાં તારી મહત્તા નથી, તું તો જ્ઞાનસ્વભાવ છો તે
સ્વભાવની મહત્તાને લક્ષમાં તો લે. પરનાં કાર્યોથી તારી મહત્તા નથી પણ
ચૈતન્ય સ્વરૂપથી તારી મહત્તા છે. તારા ચૈતન્યસ્વરૂપની મહત્તાને લક્ષમાં
પ્રભુતાને જાણ ને પરના કર્તાપણાનું અભિમાન છોડ તો તારા ભવભ્રમણનો
અંત આવે.
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આપવામાં આવ્યા છે.
છે કે “નિશ્ચયનયના આશ્રયે જ મુક્તિ થાય છે, ને વ્યવહારનયના અવલંબનથી મોક્ષ થતો નથી,” અને એ
રહસ્યને આજે પૂ. ગુરુદેવ સુપ્રસિદ્ધ કરીને સમજાવી રહ્યા છે. કેટલાક જીવોને આ વાત ઈષ્ટ નથી લાગતી તેથી,
‘નિશ્ચયનયના આશ્રયે મુક્તિ થાય’ એ વાતનો વિરોધ કરવા માટે તેઓ એમ કહે છે કે ‘નિશ્ચયનય તે જ્ઞાન
નથી પણ જડ છે. ’ જ્ઞાનના અંશને જડ કહેનારું તેમનું આ કથન આગમોથી એકદમ વિપરીત છે. વાસ્તવિકપણે
‘નય’ તે જડ નથી પણ શ્રુતજ્ઞાનનો અંશ છે એવું દર્શાવનારા કેટલાક મુખ્ય શાસ્ત્ર આધારો અહીં આપવામાં
આવ્યા છે.
નયને જ્ઞાનાત્મક કહેવો તે ઉપચાર નથી પણ નયને શબ્દાત્મક કહેવો તે ઉપચાર છે. આ સબંધમાં પણ
કેટલાક મુખ્ય શાસ્ત્રાધારો અહીં આપવામાં આવ્યા છે.
આવ્યા છે.
‘નય’ પણ પોતાના વિષયનો ગ્રાહક એટલે કે જાણનાર છે. તેમાં તફાવત માત્ર એટલો છે કે પ્રમાણ પોતાના
વિષયભૂત પદાર્થનું સર્વદેશ–ગ્રાહક છે, જ્યારે નય તેના એકદેશને ગ્રાહક છે. એ રીતે પદાર્થને અને નયને
વિષય–વિષયીપણું છે. જ્યાં નયને ‘ગ્રાહક’ કહ્યો હોય ત્યાં ગ્રાહક એટલે જાણનાર એવો અર્થ થાય છે. આ
બાબતમાં પણ કેટલાક મુખ્ય શાસ્ત્રાધારો આપવામાં આવ્યા છે.
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[हिंदी] प्रमाण के द्वारा ग्रहण की गई वस्तु के एक अंश में वस्तु का निश्चय करनेवाले ज्ञान को नय कहते हैं।
प्रमाणनयावित्यस्मिन् सूत्रे परिगृहीतौ। नयवाक्यादुत्पन्नबोधः प्रमाणमेव न नय, इत्येतस्य ज्ञापनार्थं ताभ्यां वस्त्वधिगम इति
भण्यते। अथवा प्रधानीकृतबोधः पुुरुषः प्रमाणम्, अप्रधानीकृतबोधो नयः।
नय हैं, इस प्रकार सूत्र में ग्रहण किये गये हैं। नयवाक्य से उत्पन्न बोध प्रमाण ही है, नय नहीं है; इस बात के ज्ञापनार्थ ‘उन
करनेवाला नय है। [–षट्खंडागम पु
शंका– नय किसे कहते हैं?
समाधान– प्रमाण के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ के एकदेश में वस्तु का निश्चय करानेवाले ज्ञान को नय कहते हैं।
पर्याय को अर्थरूप से ग्रहण करता है।। ७५।। यह अन्तरंग नय का लक्षण है।। [–श्री कसायपाहुड पुस्तक १ पृ
अभिप्राय से संबंध रखता है। [–श्री कसायपाहुड पुस्तक १ पृ
अविसेसमसजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि।।१४।।
जाने बिना यथार्थ आत्मा को कैसे जाना जा सकता है? इसलिये दूसरे नय को–उसके प्रतिपक्षी शुद्ध द्रव्यार्थिकनय को ग्रहण
करके, एक असाधारण ज्ञायक–मात्र आत्मा का भाव लेकर, उसे शुद्धनय की द्रष्टि से
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चैतन्यशक्तिमात्र है।
श्री गुरुने इस शुद्धनय को प्रगट करके उपदेश किया है कि बद्धस्पृष्ट आदि पाँच भावों रहित पूर्ण ज्ञानघनस्वभाव आत्मा को
जानकर श्रद्धान करना चाहिये, पर्यायबुद्धि नहीं रहनी चाहिये।
ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुद्ध्वा।
ही है, ऐसा आशय समझना चाहिये।
आश्रय लेने से सम्यक्द्रष्टि हो सकता है; इसे जाने बिना जबतक जीव व्यवहार में मग्न है तबतक आत्मा का ज्ञान–श्रद्धानरूप
निश्चयसम्यक्त्व नहीं हो सकता।” [,, ,, समयसार पृ
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से भिन्न
शुद्धनय आत्मस्वभाव को प्रगट करता हुआ उदयरूप होता है। वह आत्मस्वभाव को परद्रव्य, परद्रव्य के भाव तथा
है
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तत्किं ज्ञानघनस्य बंधनमहो भूयोभवेदात्मनः।।५५।।
स्वरूप को ही केवल जानते हैं, परंतु
में समस्त विकल्पों से पर, परमात्मा, ज्ञानात्मा, प्रत्यग्ज्योति, आत्मख्यातिरूप, अनुभूतिमात्र समयसार है।
मैकाव्यमेव कलयंति सदैव ये ते।
रागादिमुक्तमनसः सततं भवंतः
पश्यंति बंधविधुरं समयस्य सारम्।।१२०।।
वर्तते हुए बन्धरहित समय के सार को
सो एकाग्रता का अभ्यास।
शुद्धनय तो केवलज्ञान होने पर होता है। [,, ,, हिंदी समयसार पृ
रागादियोगमुपयांति विमुक्तबोधाः।
ते कर्मबंधमिह बिभ्रति पूर्वबद्ध–
द्रव्यास्त्रवैः कृतविचित्र विकल्पजालम्।।
नास्ति बंधस्तदत्यागात्तत्त्यागाब्दंध एव हि।।१२२।।
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त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वंकषः कर्मणाम्।।
तत्रस्थाः स्वमरीचिचक्रमचिरात्संहृत्य निर्यद्बहिः
पूर्णं ज्ञानघनौधमेकमचलं पश्यंति शांतं महः।।१२३।।
निकलती हुई अपनी ज्ञानकिरणों के समूह को अल्पकाल में ही समेटकर, पूर्णज्ञानघन के पुंजरूप, एक, अचल, शांत तेज
को–तेजःपुंज को देखते हैं अर्थात् अनुभव करते हैं।
चैतन्यमात्र शुद्धआत्मा में एकाग्र–स्थिर होती जाती है। इस प्रकार शुद्धनय का आश्रय लेनेवाले जीव बाहर निकलती हुई ज्ञान
की विशेष व्यक्तताओं को अल्पकाल में ही समेटकर, शुद्धनय में
शुक्लध्यान में प्रवृत्ति करके अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्रगट करते है; शुद्धनय का ऐसा माहात्म्य है। इसलिये श्री गुरुओं का यह
उपदेश है कि जबतक शुद्धनय के अवलम्बन से केवलज्ञान उत्पन्न न हो तबतक सम्यक्द्रष्टि जीवों को शुद्धनय का त्याग नहीं
करना चाहिये। [,, ,, समयसार पृ
क्योंकि व्यवहारनय के भी पराश्रितता समान ही है। और इसप्रकार यह व्यवहारनय निषेध करने योग्य ही है; क्योंकि
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शुद्धरूप अनुभव करना ही मुमुक्षु जीव का हित है।
दोण्णिवि लिंगाणि भणदि मोक्खहे’ व्यावहारिक नयो द्वे लिंगे मोक्षपथे मन्यते।
[रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला का समयसार जयसेनाचार्य की टीका, पृ
तपसा भवतीति।
સહજનિશ્ચયચારિત્ર આ તપથી હોય છે.
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विशेषों को न देखनेवाले जीवों को ‘वह सब जीवद्रव्य है’ ऐसा भासित होता है।
विशेष तुल्यकाल में ही
एक ही साथ सर्व नदियों के जल को जाननेवाले ज्ञान से देखा जाय तो समुद्र सर्व नदियों के जलस्वरूप ज्ञात होता है,
उसीप्रकार एक ही साथ सर्व धर्मों को जाननेवाले प्रमाण से देखा जाय तो आत्मा अनेक धर्मस्वरूप ज्ञात होता है। इस प्रकार
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उवओग णयवियप्पं णाणेण य वत्थु अत्थस्स।।२।।
कृत्वा वस्तुग्राहकं प्रमाणं वस्त्वेक–देशग्राहको नय इतिचेत् [णाणेण य] ज्ञातृत्वेन परिच्छेदकत्वेन ग्राहकत्वेन
का भेद कर के अंश द्वारा अंशीका ज्ञान कराता है। इसीसे प्रमाणज्ञान सकलादेशी और नयज्ञान विकलादेशी माना गया है।
सकलादेश में सकल शब्द से अनंत धर्मात्मक वस्तु का बोध होता है। जो ज्ञान सकल अर्थात् अनंतधर्मात्मक वस्तु का बोध
ज्ञान विकल अर्थात् एक धर्म द्वारा अनंत धर्मात्मक वस्तु का बोध कराता है वह विकलादेशी होने से नयज्ञान माना गया है।
[पृ
समाधान–– आगम में अनेकांत दो प्रकार का बतलाया है–सम्यगनेकान्त और मिथ्याअनेकान्त।
[–,, पृ
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प्रमाण और नयों के द्वारा तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान होना सिद्ध है। [भावार्थ] लोक में पदार्थों के परिज्ञान में प्रमाण और
ही नहीं सकता। है। इसलिए तत्त्वपरीक्षकों को प्रमाणनय विकल्पों से सिद्ध तत्त्वों को अंगीकार करना ही पड़ता है।
कार्त्स्न्यतो देशतो वापि स प्रमाणनयैरिह।।
विशुद्ध्यपकर्षणमन्तरेण नयो धर्ममात्रं वा विकलमादिशति प्रमाणस्य विकलादेशित्व
के कारण पूज्य है। और ज्ञानावरण के साधारण क्षयोपशम से या विशिष्ट जातिके छ़ोटे क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ नयज्ञान
स्वार्थैकदेशनिर्णीतिलक्षणो हि नयः स्मृतः।।४।।
आचार्योंकी परिपाटी से स्मरण होता चला आया है। तथा अपने को और अर्थ को एक देशरूप से जानना नय का लक्षण आर्ष
आम्नाय अनुसार मानते आये हैं। [,, ,, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पु
सरोवर के समान वह असमुद्र भी नहीं है, किन्तु वह समुद्र का एक अंश कहा जाता है।
है। [,, ,, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पु
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प्रमाणत्वेन निर्णीतेः प्रमाणादपरो नयः।।२०।।
स्यात्प्रमाणैकदेशस्तु सर्वथाप्यविरोधतः।।२१।।
आदि भी दोष नहीं आते हैं। [,, ,, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पु
श्रुतमूला नयाः सिद्धाः वक्ष्यमाणाः प्रमाणवत्।।२७।।
स स्वार्थश्च परार्थश्च ज्ञानशब्दात्मकात्ततः।।४७।।
वचनस्वरूप उन प्रमाण और नयोंसे हुआ अधिगम दूसरों के लिये उपयोगी है। [,, ,, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पु
तैसे ही नयका विषय भी वस्तु
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प्रमाणेन प्रमीयन्ते नीयन्ते च नयैस्तथा।।१४।।
एकदेशस्य नेता य स नयोऽनेकधा मतः।।६७।।
सकती हैं और इसलिये अवयवों के ज्ञानरूप जो नय वे भी अनंत पर्यंत हो सकते हैं।
द्रव्य व पर्याय इन दोनों वस्तुअंशोंको जो ज्ञान जान सकते हैं उन दोनों ज्ञानोंको दो नय कहना चाहिये।
किसी वस्तु में अमुक एक पर्याय होने की योग्यतामात्र देखकर वह पर्याय वर्तमान में न रहते हुए भी उस वस्तु को
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विषय–विषयी–संबंध के वश यदि विषयीज्ञानके नाम विषयों में लगा दें तो प्रतिपादित होनेवाले पदार्थों को भी नय कहना
उचित ही है। इसलिये नयों के–ज्ञाननय, शब्दनय, अर्थनय–ये तीन प्रकार हैं। [तत्त्वार्थसार पृ
तं इह णयं पउंत्त णाणी पुण तेहि णातेहिं।।२।।
तं खलु णाणवियप्पं सम्मं मिच्छं च णायव्वं।।९।।
वत्थुसहावविहूणा सम्माइट्ठी कहं हुंति।।१०।।
सब्भूया सब्भूए उवयरिए च दुणवतियत्था।।१६।।
सो दव्वत्थो भणिओ विवरीओ पज्जयत्थो दु।।१७।।
भण्णइ सो सुद्धणओ खलु कम्मोवाहिणिरवेक्खो।।१८।।
सो सद्दणओ भणिओ णेओ पुस्साइयाण जहा।।४०।।
ते चदु अत्थपहाणा सद्दपहाणा हु तिण्णियरा।।४४।।
अह तं एवं भूदो संभवदो मुणह अत्थेसु।।४५।।
तह णयसिद्धो जोई अप्पा अणुहवउ अणवरयं।।७८।।
भावा जीवे भणिया णयेण सव्वेवि णायव्वा।।७५।।
भणियं खु तं पमाणं पच्चक्खपरोक्ख भेएहिं।।१७०।।
जं दोहि णिण्णयठ्ठं तं णिक्खेवे हवे विसयं।।१७२।।
तहविह णया वि भणिया सवि यप्पा णिव्वियप्पा वि।।१।। [पृ
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युक्तं चायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत्।।१।।
णयविसयं तस्संसं सियभणितं तंपि पुवुत्तं।।२४७।।
तं सावेक्खं तत्तं णिरवेक्खो ताण विवरीयं।।२५०।।
बुज्झन्तो खलु अठ्ठे खवदि स मोहं पमाणणयजोगे।।३१७।।
सुयणाणेण णयेहिं य णिरविक्खं दीसए णेव।।२६१।।
तं जाणदि णाणं ते तिण्णिव णयविसेसा य।।२६५।।
लोयाण पण्हवसदो ववहारपवत्तणठ्ठं च।।३११।।
जो आयरेण मण्णदि जीवाजीवादि णवविहं अत्थं।
सुदणाणेण णयेहिं य सो सद्दिट्ठी हवे सुद्धो।।३१२।।
रहित होनेके कारण परमहंसस्वरूप है। [द्रव्यसंग्रह गा
पौग्दिलिकः किल शब्दो द्रव्यम् भावश्च चिदिति जीवगुणः।।
न यतो ज्ञानं गुण इति शुद्धं ज्ञेयं च किन्तु तद्योगात।।
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कहलाता है।
स्यादवयवि प्रमाणं स्युस्तदवयवा नयास्तदंशत्वात्।।५६२।।
व्यवहारप्रतिषेधः स एव निश्चयनयस्य वाच्यः स्यात्।।
अर्थाकारेण विना नेति निषेधावबोधशून्यत्वात्।।६०५।।
अविकल्पवदतिवागिव स्यादनुभवैकगम्यवाच्यार्थः।।६२९।।
यदि वा सम्यग्द्रष्टिस्तद्द्रष्टिः कार्यकारी स्यात्।
तस्मात् स उपादेयो नोपादेयस्तदन्यनयवादः।।६६०।।
मैत्री प्रमाणमिति वा स्वपराकारावगाहि यज्ज्ञानम्।।६६५।।
एकविकल्पो नयसादुभयविकल्पः प्रमाणमिति बोधः।।६६६।।
उभयोरन्तर्भेदो विषयविशेषान्न वस्तुतो भेदः।।
अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितान्नयात्।।
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[अर्थ] प्रमाण के अंशों का नाम नय है।
[भावार्थ] वस्तु के एक देश के ग्रहण करनेवाले–विषय करनेवाले ज्ञान को नय कहते हैं। [–आलापपद्धति पृ
प्रमाणेन वस्तुसंगृहीतार्थैकांशो नयः, श्रुतविकल्पो वा, ज्ञातुरभिप्रायो वा नयः, नानास्वभावेंभ्यो व्यावर्त्य
स्याद्वादः सकलादेशो नयो विकलसंकथा।।६२।। [– लधीयस्त्रय पृ
नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः।।५२।।
થતાં જ્ઞાન–દર્શન વધે છે અને ત્યારે જ વિષયગ્રહણની શક્તિ વધે છે.”
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उत्तरः– चार उपाय हैं–लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेप।
७३ प्रश्नः– आगमप्रमाण किसको कहते हैं?
उत्तरः– आप्तके वचन आदिसे उत्पन्न हुए पदार्थ के ज्ञानको।
८५ प्रश्नः– नय किसको कहते हैं?
उत्तरः– वस्तुके एकदेशको जाननेवाले ज्ञानको नय कहते हैं।
८७ प्रश्नः– निश्चयनय किसको कहते हैं?
उत्तरः– वस्तुके किसी असली अंशके ग्रहण करनेवाले ज्ञान को निश्चयनय कहते हैं।
* નય તે જડ નથી પણ શ્રુતજ્ઞાનનો અંશ છે.
* નયને જ્ઞાનાત્મક કહેવો તે ઉપચાર નથી, પણ નયને શબ્દાત્મક કહેવો તે ઉપચાર છે.
* નય અને નયના વિષયની અભેદવિવક્ષાએ, નયના વિષયભૂત પદાર્થને પણ નય કહેવામાં આવે છે.
* નયને અને પદાર્થને વિષય–વિષયીપણું છે.
* નય તેના વિષયભૂત અર્થનો ‘ગ્રાહક’ છે, ત્યાં ‘ગ્રાહક’નો અર્થ ‘જાણનાર’ છે.
ભગવાન શુદ્ધાત્માના સ્વરૂપને દેખનારો હોવાથી જે ઉપાદેય છે અને જે સમ્યક્ શ્રુતજ્ઞાનનો અંશ છે–એવો જે ‘નિશ્ચયનય,’ તે
કે નિશ્ચયનય વગેરે નયો તે જડ નથી પણ જ્ઞાનનો અંશ છે; અને તેમાં ‘નિશ્ચયનયાશ્રિત મુનિવરો પ્રાપ્તિ કરે નિર્વાણની’ એવું ભગવાન
કુંદકુંદાચાર્યદેવનું સૂત્ર પરમ અબાધિત છે. આવો નિર્ણય કરીને, પોતાના શ્રુતજ્ઞાનને શુદ્ધ સ્વભાવ તરફ વાળીને નિશ્ચયનયનું અવલંબન