Atmadharma magazine - Ank 333
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration). Entry point of HTML version.

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३३३
शुद्धपर्यायवडे शुद्धद्रव्यनो स्वीकार
ज्ञानरूप थईने ज ज्ञानस्वरूप आत्मानो स्वीकार थाय छे.
निर्मोहपरिणतिपूर्वक निर्मोह आत्मानो स्वीकार थाय छे.
दोषरहित परिणति वडे निर्दोष स्वभावनो स्वीकार थाय छे.
निःशल्यपरिणति वडे निःशल्य आत्मानो स्वीकार थाय छे.
‘आत्मा ज्ञायकभाव छे’ एम स्वीकार करनार परिणति ज्ञानरूप थई छे.
आत्मा निर्मोह छे – एम स्वीकार करनार परिणति निर्मोह थई छे.
आत्मा निर्दोष छे – एम स्वीकार करनार परिणति निर्दोष थई छे.
आत्मा निःशल्य छे – एम स्वीकार करनार परिणति निःशल्य थई छे.
ज्ञानपरिणति वगर ज्ञायकभावनो स्वीकार थई शके नहि.
निर्मोह परिणति वगर निर्मोहस्वभवनो स्वीकार थई शके नहि.
निर्दोष परिणति वगर निर्दोषस्वभावनो स्वीकार थई शके नहि.
निःशल्यपरिणति वगर निःशल्यस्वभावनो स्वीकार थई शके नहि.
– आम शुद्धद्रव्य ने शुद्धपर्यायनी अलौकिक संधि छे.
तंत्री: पुरुषोत्तमदास शिवलाल कामदार * संपादक: ब्र. हरिलाल जैन
वीर सं. २४९७ अषाढ (लवाजम: चार रूपिया) वर्ष २८: अंक ९