Atmadharma magazine - Ank 335
(Year 28 - Vir Nirvana Samvat 2497, A.D. 1971)
(Devanagari transliteration). Entry point of HTML version.

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३३५
अहो, आत्मअनुभूति!
सम्यकत्वभावे परिणमेलो हुं जाणुं छुं के मारा
सम्यकत्वादिमां हुं ज छुं; मारो आत्मा ज सम्यक्त्वरूप छे.–
आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दसणे चरित्ते य
मारा ज्ञान–दर्शन–चारित्रमां मारो आत्मा ज छे; बीजुं कोई
नहीं. मारा ज्ञान–दर्शन–चारित्रमां ज हुं छुं, एनाथी बहार कांई हुं
नथी.
–आवी जेने आत्मअनुभूति छे ते जीव धर्मी छे. तेना
सम्यकत्वादि सर्व भावोमां आत्मा ज उपादेय छे. सम्यक्त्वादिमां
आत्मा ज नजीक छे, ने परभावो दूर छे–बहार छे.
विकल्पो मारा सम्यकत्व–ज्ञानादिमां निकट नथी पण दूर छे. मारो
परम आत्मा ज मारा सम्यक्त्व–ज्ञानादिमां निकट छे, जराय दूर नथी.
आ रीते सर्वत्र पोतानो आत्मा ज उपादेय छे. ज्ञानी जाणे
छे के सहज शुद्ध ज्ञानचेतनारूपे हुं परिणमेलो छुं ने मारी आ
चेतनामां हुं ज तन्मय छुं. वाह, आत्मअनुभूति!