३३६
“मारी चैतन्यवस्तु मने सतत सुलभ छे”
मुमुक्षुने स्वानुभूतिप्रेरक एवो एक सुंदर न्याय गुरुदेव
घणा भावथी वारंवार कहे छे के–चैतन्यवस्तु धर्मीजीवोने सतत
सुलभ छे; केमके अंतरमां सत् छे, तेनो स्वीकार कर्यो त्यां ते सुलभ
छे. ‘आवो ज हुं छुं’ एम पोते पोताने जाणीने शुद्धआत्माने श्रद्धामां
लीधो त्यां ते पोताने सतत सुलभ छे, पोते पोताने सदा प्रत्यक्ष छे.
कांई नवी वस्तु बनाववानी नथी, पण पोते सत् जेवो छे तेवो
स्वीकार करवानो छे, तेथी ते सदा सुलभ छे. जेणे पोताना
स्वभावनो स्वीकार कर्यो तेने तो पोतानो आत्मा सुलभ, सदाय
प्राप्त छे; अज्ञानी श्रद्धा करतो नथी तेथी तेने स्ववस्तु देखाती नथी;
सत् पोतामां होवा छतां पोते तेने देखतो नथी–माटे तेने दुर्लभ लागे
छे. ज्ञानी तो जाणे छे के अहा, मारी चैतन्यवस्तु सदा मारी पासे ज
छे, तेथी मने सदा सुलभ छे, प्राप्त छे. हे जीव! तारामां सदाय प्राप्त
एवी तारी शुद्ध चैतन्यवस्तुनो स्वीकार करीने तुं पण तेने सुलभ
बनाव. तने एम थशे के–
‘वाह! मारी सुलभ वस्तु श्रीगुरुए मने मारामां बतावी.’
वीर सं. २४९७ आसो (लवाजम : चार रूपिया) वर्ष २८ : अंक १२