ATMADHARMA Regd. No. B. 4787
बहुमान प्रगट्युं छे. गामोगाम बाळको, युवानो ने वृद्धोमां, जैनो ने जैनेतरोमां महाराजश्रीए आत्मविचारनां
प्रबळ आंदोलनो फेलाव्या छे अने आ मोंघा मनुष्यभवमां जो जीवे देह, वाणी अने मनथी पर एवा परम
तत्त्वनुं भान न कर्युं तेनी रुचि पण न करी, तो आ मनुष्यभव निष्फळ छे’ एम दांडी पीटीने जाहेर कर्युं छे
अने जाहेर करे छे.
ए अमृतसिंचक योगिराज काठियावाडनी बहार विचर्या नथी. जो तेओश्री हिंदुस्तानमां विचरे तो
आखा भारतवर्षमां धर्मनी प्रभावना करी हजारो तृषावंत जीवोनी तृषा छिपावी शके एवी अद्भुत शक्ति
तेमनामां देखाय छे.
आवी अद्भुत शक्तिना धरनार पवित्रात्मा कानजीस्वामी काठियावाडनी महा प्रतिभाशाळी विभूति छे.
तेमना परिचयमां आवनार पर तेमना प्रतिभायुक्त व्यक्तित्वनो प्रभाव पड्या विना रहेतो नथी. तेओश्री
अनेक सद्गुणोथी अलंकृत छे. तेमनी कुशाग्र बुद्धि दरेक वस्तुना हार्दमां ऊतरी जाय छे. तेमनी स्मरणशक्ति
वर्षोनी वातने तिथिवार सहित याद राखी शके छे. तेमनुं हृदय वज्रथीये कठण ने कुसुमथीये कोमळ छे. तेओश्री
अवगुण पासे अणनम होवा छतां सहेज गुण देखातां नमी पडे छे. बाळब्रह्मचारी कानजीस्वामी एक
अध्यात्ममस्त आत्मानुभवी पुरुष छे, अध्यात्ममस्ती तेमनी रगेरगमां व्यापी गई छे. आत्मानुभव तेमना
शब्दे शब्दमां झळके छे. तेमना श्वासे श्वासे ‘वीतराग! वीतराग!’ नो रणकार ऊठे छे. कानजीस्वामी
काठियावाडनुं अद्वितीय रत्न छे. काठियावाड कानजीस्वामीथी गौरववंत छे.
हिंमतलाल जेठालाल शाह.
बी. एस. सी.
(अनुसंधान पा. ८२ थी चालु)
दर्शनने नक्की करनार ज्ञान ज छे. कोई पण गुणने जाणनार ज्ञान ज छे. दर्शन पोते अस्तिरूप गुण छे.
महिमा बधे ज्ञाननो ज छे; बधे चैतन्य ज्योतनुं ज चमकवुं छे. (समयसारमां) ज्यां ज्यां ‘प्रज्ञा’ थी
वर्णन होय त्यां बधे ठेकाणे ज्ञानने आम ज (उपर प्रमाणे ज) कह्युं छे.
अपूर्ण ज्ञान भले निमित्त ल्ये छे पण दर्शनना विषयने लक्षमां लेनार ज्ञान छे. एक समयमां विकल्प
रहित जाणवानो ज्ञाननो स्वभाव छे; दर्शननो अभेद विषय लक्षमां ल्ये त्यारे ज ज्ञाननी पर्याय खीले छे. एम
नक्की करनार पण ज्ञाननी पर्याय ज छे.
‘ज्ञान निमित्तने जाणे छे’ एमां पर तरफ वजन जाय छे एना करतां ज्ञाने दर्शननो विषय नक्की कर्यो
त्यारे ज्ञान सम्यक् थयुं छे एम सामान्यपणे जे ज्ञान कर्युं छे तेनुं जोर (वजन) जोईए.
ज्ञान गुणने विशेष, सविकल्प के साकार कहेवाय छे. ज्ञान पोताने जाणे छे अने परने पण जाणे छे तेथी
विशेष कह्यो छे; सविकल्प कहेवाथी ‘ज्ञानमां रागविकल्प छे’ एम नथी कह्युं–पण ज्ञाननुं स्व–पर प्रकाशकपणुं कह्युं
छे; तथा साकार कह्युं तेथी कांई जडना आकारवाळुं नथी, पण तेनो स्वपरने जाणवानो स्वभाव बताव्यो छे.
दरेक वस्तु सामान्य–विशेषपणे एटले के द्वैतपणे होय छे. चेतना पण द्वैतपणे अर्थात् दर्शन अने
ज्ञानरूप सामान्य–विशेषपणे छे. ‘विशेषमां बधुं आवे छे विशेष दर्शनने नक्की करनार छे. ’
अहीं सामान्य विशेष शा माटे लीधा छे?
(१) विशेषमां बधुं समाई जाय छे.
(२) पुण्य–पाप के राग–द्वेषने कोई ‘आत्मानुं विशेष’ कहेतां होय तो तेम नथी. पण पर्याय ते विशेष
छे अने अखंड द्रव्य ते सामान्य छे.
(३) चेतना सामान्य विशेष स्वरूप छे, सामान्य विशेष (दर्शन–ज्ञान) वगर चेतना होई शके नहीं अने
चेतना वगर आत्मा न होय. कारणके व्यापक चेतना छे अने व्याप्य आत्मा छे. व्यापक विना व्याप्य होय नहीं.
ज्ञान तो पोतानुं स्वरूप छे. तेनो स्वपर प्रकाशक स्वभाव छे, तेनी एक समयनी एक पर्यायमां आखो
स्वभाव अने अवस्था बधुं आवे छे.
मुद्रक:– चुनीलाल माणेकचंद रवाणी. शिष्ट साहित्य मुद्रणालय विज्यावाडी, मोटा आंकडिया. ता. २४–४–४४
प्रकाशक–जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, विज्यावाडी, मोटा आंकडिया, काठियावाड