Atmadharma magazine - Ank 027
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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। धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे ।
वर्ष त्रीजुं संपादक पोष
रामजी माणेकचंद दोशी
अंक त्रीजो वकील २४७२
पाप
पर द्रव्य प्रत्ये राग होवा छतां जे जीव ‘हुं
सम्यग्द्रष्टि छुं, मने बंध थतो नथी’ एम माने छे तेने
सम्यक्त्व केवुं? ते व्रत–समिति पाळे तोपण स्वपरनुं
ज्ञान नहि होवाथी ते पापी ज छे. पोताने बंध नथी थतो
एम मानीने स्वच्छंदे प्रवर्ते ते वळी सम्यग्द्रष्टि केवो?
अहीं कोई पूछे के “व्रत–समिति तो शुभ कार्य छे,
तो पछी व्रत–समिति पाळतां छतां ते जीवने पापी केम
कह्यो? ” तेनुं समाधान:– सिद्धांतमां पाप मिथ्यात्वने ज
कह्युं छे; ज्यां सुधी मिथ्यात्व रहे त्यां सुधी शुभ–अशुभ
सर्व क्रियाने अध्यात्ममां परमार्थे पाप ज कहेवाय छे.
वळी व्यवहारनयनी प्रधानतामां व्यवहारी जीवोने
अशुभ छोडावी शुभमां लगाडवा शुभ क्रियाने कथंचित्
पुण्य पण कहेवाय छे. आम कहेवाथी स्याद्वाद मतमां
कांई विरोध नथी.
श्री समयसार – गुजराती, पानुं २प६
वार्षिक लवाजम छुटक नकल
अढी रूपिया चार आना
• आत्मधर्म कार्यालय सुवर्णपुरी – सोनगढ काठियावाड •