Atmadharma magazine - Ank 082
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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ध र्म नुं मू ळ स म्य ग् द र्श न
श्रावण : संपादक : वर्ष: सातमुं
२०६ रामजी माणेकचंद दोशी अंक दसमो
वकील
ज्ञानीनो विरोध अज्ञानी न करे तो कोण करे?
हे जीव! त्रणेकाळना ज्ञानीओनुं ए ज कहेवुं छे के तुं त्रिकाळज्ञायक स्वतंत्र
छे, परमात्मा जेवो छे, ते समजीने तेवो था. अनंतकाळमां पोताने न समज्यो
तेथी ज जगतमां रखडवुं थयुं छे. आत्माने नहि समजनाराओ ज्ञानी सामे पोकार
कर्या करे छे पण ज्ञानी तो जगत समक्ष सत्य जाहेर करी, पोतानुं एकलानुं
कल्याण करी चाल्या गया. ज्ञानीनो विरोध अज्ञानी न करे तो कोण करे? अज्ञानी
कहे छे के ‘अमारी मानेली बधी वात उथापो छो ते द्वेष न कहेवाय?’ ज्ञानी कहे
छे के भाई! सत्यनुं स्थापन करवामां असत्यनो निषेध सहेजे थाय छे. तेमां द्वेष
नथी पण साची करुणा छे. तुं न समजे तोपण प्रभु छे. सत्यनो विरोध करनारा
पण बधा स्वभावे प्रभु छे. ते पोते ज्यारे सवळा थईने समजशे त्यारे बधी
अवळाईने क्षणमां टाळवाने सामर्थ्यवाळा छे. ज्ञानी कोई व्यक्तिनो निषेध नथी
करता पण खोटी मान्यतानो निषेध करे छे, तेमां जगतना बधा प्राणीओ उपर
करुणा छे. तेओ जाणे छे के जेनी द्रष्टि मिथ्याग्रहमां छे ते जाते समजे तो ज सुधरे.
माटे ते आ कहे छे के ‘तेरी शुद्धता तो बडी, लेकिन तेरी अशुद्धता भी बडी.’
साक्षात् तीर्थंकर भगवान पण तने न समजावी शके. तारी पात्रता विना तने
कोई सुधारी शके नहि.
– समयसार–प्रवचन भाग १ पृ. १५३
छूटक नकल वार्षिक लवाजम
चार आना त्रण रूपिया
अनेकान्त मुद्रणालय ∴ मोटा आंकडिया ∴ काठियावाड