Atmadharma magazine - Ank 089
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration). Entry point of HTML version.

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आत्मधर्म
वर्ष ०८
सळंग अंक ०८९
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001 Nov 2005 First electronic version.

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“भगवान श्री सीमंधर जिन स्वागत अंक”
८९
: संपादक :
वकील रामजी माणेकचंद दोशी
साधकना
साथीदार
आजे ‘मुक्तिमंडप’ नां मांगलिक छे. सर्वज्ञ परमात्मा श्री सीमंधर
भगवान पासे कुंदकुंदाचार्यदेव गया हता अने तेमनो साक्षात् दिव्यध्वनि सांभळीने
जे शास्त्रो रच्चा छे तेमां अपूर्व अप्रतिहत भावो ऊतार्या छे. ते भावोनी जे प्रतीत
करे ते पोतानी मोक्ष परिणतिने लेतां वच्चे सीमंधर परमात्माने उतारे छे के हे
परमात्मा? आप पूरी परिणति पाम्या छो, अने आपने साथे राखीने अमे पण
साधकमांथी पूरा थवाना छीए... वच्चे विघ्न आववानुं नथी.. जे भावे साधकदशामां
उपड्या छीए ते ज भावे पूरुं करवाना छीए, तेमां फेर नथी–नथी–नथी... सीमंधर
प्रभुजीना “कार ध्वनिमांथी कुंदकुंद भगवान वस्तुनो स्वभाव लईने आव्या...
अने...तेनी ज कांईक प्रसादी अहीं भव्य मुमुक्षुओने पीरसाय छे...


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: आत्मधर्म : ८९ : ८३/अ :
भगवान श्री सीमंधरजिन–स्वागत अंक
... आजे भेटया... ए
भगवान
जेमने भेटवा माटे भक्तजनोना अंतरमां ऊंडी ऊंडी
अभिलाषा रह्या करती हती ते भगवान आजे भेटया...
पू. गुरुदेवश्रीना प्रतापे सीमंधरनाथ आजे भेटया...
भक्तोना जीवनाधार भगवान आजे भेटया...
बराबर आजथी दस वर्ष पहेलांं...धन्य ए फागण सुद बीज! सौराष्ट्रनी भूमिमां
सेंकडो वर्ष बाद वीतरागी जिनबिंबनी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा–महोत्सवनो अति मंगळ
प्रसंग, तीर्थंधाम सोनगढमां, आजथी दस वर्ष पहेलांं वीर सं. २४६७ना फागण सुद
बीजे, सौराष्ट्रना धर्म धूरंधर पू. गुरुदेवश्रीनी छत्रछायामां थयो...सोनगढना
जिनमंदिरमां
सीमंधर भगवाननी ए प्रतिष्ठाने आजे दस वर्ष पूरां थाय छे.
अहो! ए महोत्सव वखतनां कल्याणक द्रश्यो...ने ए वखतनी भक्तिनो
उल्लास...! वळी ए वखतनां पू. गुरुदेवश्रीनां प्रवचनो...अने तेमां वहेली भक्तिनी
अत्रुटधारा...ए बधुं य आजेय भक्तजनोनां हये तरवरी रह्युं छे.
... ते वखते आ ‘आत्मधर्म’ नो जन्म नहोतो थयो...परंतु हवे आजे सीमंधर
नाथनी भक्तिमां साथ पूराववा ते समर्थ बन्युं छे... अने तेथी सीमंधरप्रभुनी भक्तिना
आ मंगळ–महोत्सव प्रसंगे भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक प्रसिद्ध करीने ते
पोताने कृतार्थ माने छे.
विदेहवासी...हे सीमंधरनाथ! आप ‘सुवर्णधाम’ मां... अथवा कहो के
भक्तोना अंत मां...पधार्या पछी आ भरतक्षेत्रना जिनेंद्रशासनमां अनेक अनेक
मंगलवृद्धि थई छे...अहो! प्रभु! आपना शुं शुं सन्मान करीए? कई रीते आपनुं स्वागत
करीए? हे नाथ! आपना महान स्वागतना आ पवित्र महोत्सवमां साथ पूराववा आ
‘स्वागत–अंक’ आपना चरणे धरीने आपनुं स्वागत करीए छीए... आपनुं बहु बहु
सन्मान करीए छीए..आपने भक्ति–पुष्पोथी वधावीए छीए.
अमे छीए
आपना सुवर्णपुरीवासी भक्तो.
[भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक]

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: ८३/ब : : फागण : २४७७
आचार्यदेव आत्मवैभवथी शुद्ध–आत्मा
देखाडे छे

















सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने अंतर रमणतारूप चारित्रदशा ते आत्मानो निज वैभव छे.
समयसारनी पांचमी गाथामां श्री आचार्यदेव कहे छे के जे कांई मारा आत्मानो निजवैभव छे ते प्रगट
समृद्धिना सर्व सामर्थ्यथी हुं आ स्वथी एकत्व अने परथी जुदा आत्माने दर्शावीश. जेम गृहस्थने त्यां
लग्न होय त्यारे जेटली समृद्धि होय तेटली बहार काढे, तेम अहीं समयसारमां मोक्षना मांडवे श्री
कुंदकुंदाचार्य भगवान पोताना सर्व आत्मवैभववडे शुद्धात्मानुं वर्णन करे छे. ‘अहीं पचमकाळ छे, अमे
छद्मस्थ छीए, छतां अमे आत्म–रिद्धि पाम्या छीए, ने पूर्ण ज्ञानी जे कही गया ते ज जगत पासे
स्वानुभव वडे मूकीए छीए. जेटलो अमारो अंतर ज्ञान वैभव प्रगट्यो छे ते सर्वथी, आत्मानुभव रूप
श्रद्धाना पूरा बळथी आ एकत्व विभक्त आत्माने दर्शावीशुं.’
श्री आचार्यदेव कहे छे के हुं जाते जवाबदारीथी कहीश; जाते जोई जाणीने अपूर्व आत्मानी वात निज
वैभववडे कहीश. आम जात अनुभवथी तेओ कहे छे. पछी विनयथी एम पण कहेशे के तीर्थंकर भगवाने आम
कह्युं छे. अहीं आचार्यदेव सघळी जवाबदारी पोताना उपर राखीने जाहेर करे छे, तेथी जे कहेशे ते क्यांयथी
झडपी लीधुं छे–एम नथी, पण निज वैभवथी स्वानुभववडे आत्मानो अपूर्व धर्म कहे छे अने कहे छे के जेम हुं
मारा निजआत्मवैभवथी कहुं छुं तेम तमे पण तमारा स्वानुभवथी प्रमाण करजो.
जुओ, समयसार–प्रवचनो भाग १ पृ. १३६–७
[भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक]

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फागण : २४७७ : ८३ :
धन्य
ए सीमंधरप्रभुनो
प्रतिष्ठा – महोत्सव
श्री सीमंधरप्रभुना प्रतिष्ठा महोत्सवनां
केटलांक उल्लासभर्या संस्मरणो
* * * * *
श्री जिनेन्द्रदेवना पंचकल्याणक एटले दुनियानो सर्वोत्कृष्ट मांगळिक महोत्सव! ए पंचकल्याणक
संसारमांथी जीवोने ओछा करीने मोक्ष–जीवोनी वृद्धि करनारा छे.
परम पूज्य गुरुदेवश्रीना पुनित प्रतापे, सौराष्ट्रमां एवा पंचकल्याणकना मंगळ महोत्सवो ऊजववानुं
अने नीहाळवानुं सौभाग्य मुमुक्षुओने पांच वार सांपड्युं छे. तेमां सौथी पहेलो प्रसंग सोनगढमां सीमंधर
प्रभुनी पंच कल्याणक प्रतिष्ठा थई त्यारे ऊजवायो.
वीर सं. २४६७ ना फागण सुद बीजे सोनगढना जिनमंदिरमां सीमंधरप्रभुनी प्रतिष्ठा थई. आजे तो ए
प्रसंगने दस वर्ष वीती गया...छतां भक्तजनोना हृदयमां ते वखतनो उल्लास एवो ने एवो ताजो छे...तेनुं
स्मरण करतां आजे पण भक्तजनोनां हृदय भक्तिरसमां भींजाई जाय छे.
वीर सं. २४६प मां पू. गुरुदेवश्री संघ सहित पालीताणा शत्रुंजयतीर्थनी यात्राए पधार्या...त्यां भगवाननां
दर्शन करतां करतां कोई विरला भक्तोने एवी भावना जागी के ‘अरेरे! आपणने साक्षात् भगवाननो तो विरह,
पण भगवाननी वीतरागीमूद्रानां पण दर्शन न मळे!’ एम भाव थतां सोनगढमां वीतरागी प्रतिमा स्थापवानुं दील
थयुं...पछी तो भगवानने स्थापवा माटेनी भक्तोनी ए भावना फेलाती फेलाती पू. गुरुदेवश्री पासे पहोंची अने पू.
गुरुदेवश्रीने पण वीतरागी जिनप्रतिमा स्थापवाना भाव थया...ने एकवार पद्मनंदी पचीसीना वांचन वखते
प्रवचनमां जिनप्रतिमा संबंधी एवी वात आवी के ‘जे भव्य जीव नानामां नानुं जिनमंदिर अने जव जेवडा
जिनप्रतिमा बनावे छे तेने पण एवा पुण्यनी प्राप्ति थाय छे के साक्षात् सरस्वती पण तेना पुण्यनुं वर्णन करी शकती
नथी; तो बीजानी तो शुं वात?’ पू. गुरुदेवना श्री मुखेथी ए वात सांभळतां राजकोटना शेठ श्री नानालालभाई
तथा तेमना बंधुओने सोनगढमां वीतरागी जिनमंदिर कराववानी भावना थई... अने तेमना तरफथी जिनमंदिर
बधायुं. ए रीते भक्तोना अंतरनी ऊंडी भावनानां
बीजडां फाल्यां ने खरेखर सोनगढमां सीमंधर भगवान
भेट्या...
प्रतिष्ठा पहेलांं माह सुद रना रोज सुप्रभाते
सूर्यना किरणो बहार नीकळतां मंगल मुहूर्ते घणा
उल्लास पूर्वक श्री सीमंधरादि भगवंतोनो ग्राम
प्रवेशोत्सव थयो हतो. भगवान पधार्या... ने पहेली
वखत तेमनी भव्य मूद्रा नीरखतां ज पू. गुरुदेव
भक्तिथी स्तब्ध थई गया... आंखोमांथी आंसु वही
गया. हजी भगवाननी प्रतिष्ठा थई न हती पण पू.
गुरुदेवने एटली बधी लगनी लागी हती के वारे वारे
भगवान पासे जईने बेसता ने दिवसनो
भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक

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: ८४ : आत्मधर्म : ८९
घणो वखत भगवान पासे बेसी रहेतां... ‘हरतां फरतां प्रगट हरि देखुं रे...’ एना जेवी ते वखतनी स्थिति
हती. भगवाननी मूद्रा एटली बधी भव्य हती के गुरुदेवने तो ते जोतां तृप्ति ज थती न हती... वारंवार हरतां
ने फरतां प्रभु पासे जईने बेसतां अने भगवाननी
शांत मूद्रा नीहाळी नीहाळीने कहेतां के–– ‘अहो...
अमिय भरी मूरति रची रे... उपमा न घटे
कोय, शांत सुधारस झीलती रे... निरखत तृप्ति न
होय सीमंधर जिन... दीठां लोयण आज...’
वळी बहारगामना जे नवा नवा भक्त
जनो आवे तेमने पण पूछतां के ‘तमे भगवान
जोया? चालो... तमने भगवान बतावुं.’ –एम
कहीने ओरडीमां तेडी जईने बतावतां के जुओ,
आ भगवान! आपणे अहीं प्रतिष्ठा थवानी छे ते
आ भगवान छे...
माह वद ११ थी फागण सुद २ सुधी
भगवाननी पंचकल्याणक प्रतिष्ठानो अठ्ठाई
महोत्सव ऊजवायो... जीवनमां पहेली ज वार
पंचकल्याणक प्रतिष्ठानो प्रसंग होवाथी, ने पहेल
वहेला ज भगवान भेटता होवाथी भक्तजनोने
अपूर्व उल्लास हतो... जाणे प्रभुना पंचकल्याणक
साक्षात् ज थता होय एवुं लागतुं हतुं. त्यारे भक्तो होंसथी गाता हता के–
‘सुंदर स्वर्णपुरीमां स्वर्ण–रवि आजे ऊग्यो रे,
भव्यजनोना हैये हर्षानंद अपार... श्री सीमंधर प्रभुजी
पधार्या छे एम आंगणे रे...’
प्रतिष्ठा महोत्सवना ए दिवसोमां पू. गुरुदेवश्रीनां
व्याख्यानो पण वीतरागी सीमंधर भगवानने भेटवानी
धूनथी भरेलां आवतां हतां... भक्तिरसना भाव भीनां ए
प्रवचनोमां वारंवार भगवानने याद करतां पू. गुरुदेव
आंसुभीनी आंखे कहेतां... ‘हे भगवान्! आपना विरहमां
आपनी स्थापना करीने विरहने भूलावशुं..!’ दस वर्ष
पहेलांंना ए प्रवचनो आजे पण मुमुक्षु भक्त जनोनां हैयांने
हचमचावी मूके छे ने तेमना रूंवाटे रूंवाटे भक्ति जगाडे छे.
ए प्रतिष्ठा महोत्सवने नजरे नीहाळवा भाग्यवंत
थयेला भक्तजनोने ते वखतना उल्लासनुं वर्णन करतां
आजे पण तृप्ति थती नथी अने अति प्रमोदित थतां कहे छे
के ‘अहो! शुं कहीए! ए वखते तो पहेली ज वखत
प्रतिष्ठानो महोत्सव... जीवनमां कदी नहि जोयेल भगवानना भेटा... अने तेमांय वळी मूळनायकपणे श्री
सीमंधरनाथ भगवान! एटले पछी शुं बाकी रहे!’ प्रभु भक्तोना अंतरपटमां कोतराई गयेला ए धन्य
प्रसंगना संस्मरणोनो अंश मात्र आजे दस वर्षे अहीं शब्दारूढ थयो छे.
ए प्रतिष्ठा महोत्सव प्रसंगे ‘कहाननगर’ वसाव्युं हतुं... प्रतिष्ठा महोत्सवमां एक हाथी पण हतो.
प्रभुजीना जन्मकल्याणक वगेरे प्रसंगे ज्यारे कहाननगरने प्रदक्षिणा करवानुं आवतुं हतुं त्यारे ते हाथी पण
एवी गंभीरपणे प्रदक्षिणा करतो हतो–जाणे के ते पण
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागतअंक)

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फागण : २४७७ : ८५ :
भगवाननी भक्तिनुं सौभाग्य पोताने मळ्‌युं ते माटे पोतानो प्रमोद जाहेर करी रह्यो होय.. ने पोताने धन्य
मानी रह्यो होय! आम तेनी मलपति चाल उपरथी भक्तोने लागतुं हतुं.
माह वद अमासे, भगवाननो जन्म कल्याणक थयो त्यारे, एक बाजु जन्मनी वधाईनां वाजां... बीजी
बाजु दीपकोनो झगमगाट... एम अचानक द्रश्यो जोईने भक्तो थोडी वार तो ‘आ शुं? ...आ शुं?’ एवा
आश्चर्यमां पडी जतां... ने पछी ज्यारे खबर पडती के अहो! आ तो भगवानना जन्मनी वधाई! के तरत ज
पाछुं वातावरण उल्लासथी ऊभराई जतुं. अहो! ए प्रसंगो नजरे निहाळनारा तो कहे छे के ते दिवसे अमने
एम ज लागतुं हतुं के आ सोनगढ जाणे के महाविदेह बनी गयुं हतुं अने अहीं ज सीमंधर भगवानना पंच
कल्याणक थता हता.
हाथी उपर, भगवानना जन्म कल्याणकनी भव्य यात्रा नीकळी हती. जन्माभिषेक माटे नदी किनारे
मेरुपर्वतनी रचना थई हती. हजारो भक्तोनां टोळां वच्चे मेरुपर्वत उपर ज्यारे भगवाननो जन्माभिषेक थयो
हतो ते वखते आकाश एवुं विचित्र रंगबेरंगी थतुं हतुं–जाणे के... प्रभुना जन्माभिषेकने देखीने प्रभुना
चरणोमां कोई रंगबेरंगी साथिया पूरी रह्युं होय!
फागण सुद एकमे भगवानना दीक्षा कल्याणकनो प्रसंग हतो. तेमां ज्यारे प्रभुश्रीनो केशलोच करवानुं
आव्युं त्यारे दीक्षावनमां आम्रवृक्ष नीचे पू. गुरुदेवश्रीए आते गंभीरताथी भगवाननो केशलोच करतां कह्युं के
‘हे भगवान! आप तो स्वयंबुद्ध छो... आप तो आपना स्व हस्ते ज केशलोच करो, पण आ तो आपनी
स्थापना होवाथी मात्र अमारो उपचार छे.’
दीक्षाविधि पूरो थतां वनमांथी पाछा फरवानो समय आव्यो त्यारे, भगवानने न देखवाथी अनेक
भक्तो पूछवा लाग्या के ‘भगवान क्यां? भगवान क्यां?’ अने ज्यारे प्रतिष्ठा करावनार पंडितजीए
खूलासो करतां कह्युं के ‘भगवान तो हवे मुनि थया.. ने तेओ तो वन जंगलमां विचरी गया... हवे ते
आपणी साथे पीछा नहि आवे..’ त्यारे बधां भक्तो उदासचित्ते पाछा फर्या... भगवान वगर बधाने सूनुं
सूनुं लागतुं हतुं.
केटलाक वखत बाद, वनमां विहार करीने प्रभुजी ज्यारे पाछा पधार्या त्यारे, स्वरूपानंदमां झूलता ए
परम वीतरागी नाथने नीरखतां ज जे अति अति भावथी पू. गुरुदेवश्रीए तेमने नमस्कार कर्या हता... ते
प्रसंगनुं भाव भर्युं द्रश्य भक्तोना स्मृतिपटमां आजे य तरवरी रह्युं छे.
पछी ज्यारे मुनि थयेला भगवान गाममां आहार माटे पधार्या त्यारे अति प्रसन्नता पूर्वक प्रभुने
आहार देतां भक्तोना हैये हरख समातो न हतो... उपरथी रत्नवृष्टि थई रही हती... अने ज्यारे हाथमां खीर
लईने प्रभुजीने आहार कराव्यो त्यारे तो जाणे साक्षात् भगवानने आहारदान करता होईए तेवो आहलाद
अंदरमां जागतो हतो. ‘अहो! ते वखतना भावोनी शुं वात करीए?’
पहेली फागण सुद बीजे भगवानना केवळज्ञान कल्याणकनो प्रसंग आव्यो. भगवानने केवळज्ञान थयुं...
दीपकोथी जगमगता समवसरणनी रचना थई... ए समवसरणने देखी देखीने भक्तजनो भक्तिथी नाचवा
लाग्या. अने वाजित्रो लईने समवसरणनी प्रदक्षिणा करवा लाग्या.
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

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: ८६ : आत्मधर्म : ८९
फागण सुद बीजे प्रभुश्रीना निर्वाण कल्याणक प्रसंगे पावापुरीनो देखाय थयो हतो. (प्रतिष्ठामां विधिनायक श्री
महावीर प्रभुजी हता.)
पंचकल्याणकना विधविध प्रसंगोए वारंवार ‘उदक चंदन...’ आदि श्लोको द्वारा जिनेन्द्र पूजन थतुं हतुं
ते पण सौराष्ट्रना मुमुक्षुओने माटे आनंदाश्चर्यजनक हतुं.
आ प्रतिष्ठा महोत्सवमां पंच कल्याणकना नवा नवा भक्तिभीनां द्रश्यो देखीने कठण हैयां पण भक्तिथी
पीगळी जतां हतां... प्रतिष्ठा महोत्सव देखीने शेठ श्री बेचरलालभाईने प्रमोद आवी जतां पोताना मोटाभाई
(शेठश्री नानालालभाई) ना पगमां पडीने आंसुभीनी आंखे कहेता के ‘भाई! आ बधुं तमारा प्रतापे अमने
जोवा मळ्‌युं छे...’ त्यारे नानालालभाई कहेता... ‘गुरुदेवनो ए बधो उपकार छे.’
* * * * *
पंच कल्याणक वखते ज्यारे भगवान ने मंडपमां लाववामां आवता हता त्यारे पू. गुरुदेव श्री
भक्तिवशे भगवानी पाछळ पाछळ ज फरतां हतां... जाणे के एक क्षण पण प्रभुथी अळगा रहेवुं गमतुं न
हतुं... अने, अहो! प्रतिष्ठित थयेला श्री सीमंधर भगवाने ज्यारे जिनमंदिरमां प्रवेश कर्यो त्यारे तो
गुरुदेव बारणामां ज तेमनुं स्वागत करतां प्रभुजी पासे नमी पड्या... जिनमंदिरना द्वारमां प्रभु पधारतां
ज तेमनाथी साष्टांगनमन थई गयुं.. ते वखते घणा भक्तोना नयनमांथी भक्तिरस वरसतो हतो... जेम
चक्रवर्ती पोते ज्यारे कोईना चरण ते ढळी पडे ने ए द्रश्य तेना सेवकोने निःस्तब्ध बनावी दे... तेम
भगवान श्री सीमंधरनाथनी सन्मुख ज्यारे गुरुदेव बहु भक्तिपूर्वक नमी पड्या त्यारे सौ भक्तजनोए
द्रश्य निःस्तब्ध पणे नीहाळता रही गया... अने कोई जुदुं ज वातावरण छवाई गयुं... खरेखर! आवा
आवा कोईक प्रसंगे भगवान पासे बाळक जेवा बनी जनारा ए महात्माओनां हृदयना भावो कळवा
घणीवार मुश्केल बनी जाय छे. ए खास प्रसंगनुं वर्णन करतां आत्मार्थी भाई श्री हिंमतलालभाई पू.
गुरुदेवश्रीना जीवन चरित्रमां लखे छे के–
‘सीमंधर भगवान मंदिरमां प्रथम पधार्या त्यारे
गुरुदेवने भक्तिरसनी खूमारी चडी गई अने आखो देह
भक्तिरसना मूर्त स्वरूप जेवो शांत शांत निश्चष्ट भासवा
लाग्यो. गुरुदेवथी साष्टांग प्रणमन थई गयुं अने
भक्तिरसमां अत्यंत एकाग्रताने लीधे देह एम ने एम बे
त्रण मिनिट सुधी निश्चेष्टपणे पडी रह्यो. आ भक्तिनुं
अद्भुत द्रश्य, पासे ऊभेला मुमुक्षुओथी जीरवी शकातुं
नहोतुं; तेमनां नेत्रोमां अश्रु ऊभरायां अने चित्तमां भक्ति
ऊभराई. गुरुदेवे पोताना परम पवित्र हाथे प्रतिष्ठा पण
भक्ति भावमां जाणे देहनुं भान भूली गया होय एवा
अपूर्व भावे करी हती.’
श्री सीमंधर भगवानना प्रतिमाजी एटला बधा
भव्य... सुंदर... अने भाववाहिनी छे के तेना दर्शन करनारने तृप्ति ज नथी थती... फरी फरीने ए जिनमूद्रा जोया
ज करवानुं मन थया करे छे... एनी मुखमूद्रा पण जाणे के महाविदेहना सीमंधर भगवाननी मूद्राने मळती
आवती होय! –एवुं ज लागे छे. तेमांय ज्यारे चारे बाजु प्रकाश होय त्यारे तो शांतसुधारस
(भगवान श्री सीमंधर जिन स्वागत अंक)

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फागण : २४७७ : ८७ :
झीलती भगवाननी मूद्रा उपशमरसथी रेलाई रहे छे... ए पावनकारी भव्यमुद्राना दर्शनथी दूरदूरना
यात्राळुजनो पोताने कृतकृत्य माने छे. खरेखर––
‘जेनी मुद्रा जोतां आत्मस्वरूप लखाय छे रे, जेनी भक्तिथी चारित्र विमळता थाय... एवा
चैतन्यमूर्तिप्रभुजी अहो! अम आंगणे रे.’
भगवाननी प्रतिष्ठा बाद राजकोटना मुमुक्षुसंघे पू. गुरुदेवश्रीने राजकोट पधारवानी विनंति करेल त्यारे
पू. गुरुदेवश्रीए कहेल के ‘आ वर्षे तो विहार करवो नथी... अहीं भगवान पधार्या छे एटले तेमनां धराई
धराईने दर्शन करवा माटे आ वर्षे तो क्यांय विहार करवो ज नथी.’
सोनगढना जिनमंदिरमां मूळनायक भगवान श्री सीमंधर प्रभु छे; ने तेमनी आजुबाजुमां श्री पद्मप्रभु
तथा श्री शांतिनाथ प्रभु छे ए उपरांत श्री महावीरप्रभु, श्री आदिनाथ प्रभु अने श्री पार्श्वनाथप्रभु छे. तथा
जिनमंदिरना उपरना भागमां गीरीनगरना वासी श्री नेमनाथ प्रभुजी बिराजे छे. वीर सं. २४६६ ना फागण
सुद बीजे नेमनाथप्रभुनी कल्याणक भूमि गीरनारनी टोच उपर नेमनाथप्रभुनी भक्ति ने शुद्धात्मानी धून थई
हती.. ने २४६७ ना बराबर फागण सुद बीजे अहीं जिनमंदिरमां नेमनाथ प्रभुजी पधार्या... जाणे के भक्तिए
भगवानने आकर्षी लीधा!
ए रीते सोनगढनो ए प्रतिष्ठा महोत्सव सौराष्ट्रने माटे अपूर्व हतो.. ए महोत्सव नजरे नीहाळवानुं
महाभाग्य जेमने मळ्‌युं हशे तेमना अंतरपटमां ते वखतना उल्लासित संस्मरणो हजी गूजतां हशे... अहोभाग्य
छे भक्तजनोना के परम पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रतापे भगवान भेट्या... अने तेओश्रीना ज महान उपकारथी
भक्तजनो भगवानने ओळखता थया... आजे य भक्तजनो गौरवपूर्वक गद्गद् भावे वारंवार कहे छे के...
‘हे गुरुदेव... हे गुरुदेव! आपना ज परम परम प्रतापथी अमने अहीं श्री सीमंधरादि जिनेन्द्र
भगवंतोनो भेटो थयो... आवा आवा सर्व प्रसंगोमां, हे कृपानाथ! आपनो ज महान उपकार छे... अमारा
जीवनमां आपनो परम उपकार छे...
जेनी द्वारा जिनजी आव्या भव्ये ओळख्या रे, ते श्री कान गुरुनो छे अनुपम उपकार... नित्ये देव–
गुरुनां चरणकमळ हृदये वसो रे...’
प्र... भा.. व... ना
स्मृति... अने... आभार
‘आत्मधर्म’ ना आ खास ‘भगवान श्री सीमंधर जिनस्वागत अंक’ ना खर्च तरीके
राजकोटना स्व० शेठ भगवानलाल रणछोडदासना रमरणार्थे तेमना सुपुत्र भाई श्री
बुद्धिधन वगेरे तरफथी रूा. ७प० श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्टने आपवामां आव्या छे..
अने ए रीते ‘आत्मधर्म’ नी प्रभावनामां साथ आप्यो छे. आ उपरांत ‘श्री कुंदकुंद
श्राविकाशाळा’ ना फंडमां पण रूा. २प१ तेमना तरफथी आपवामां आव्या छे. तेमनी आ
मदद माटे तेमनो आभार मानवामां आवे छे.
बीजुं, आ अंकमां छपायेल भावनाचित्र तेम ज मुख पृष्ठना स्केच अने ब्लोक करावी
आपवा माटे, तेम ज आ अंकनुं पूंठुं मुंबईमां छपावी आपवा माटे भाई श्री रतिलाल जेचंद
शाहे घणी महेनत लीधी छे, ते माटे तेमना आभारनी पण नोंध लईए छीए.
सुधारो
आत्मधर्म अंक ८८ पृ. ७९ कोलम १ लाईन ८–९ मां ‘श्रद्धामां
तो पुण्य अने पाप बंने होय छे’ एम छपायुं छे तेने बदले ‘श्रद्धामां
तो पुण्य अने पाप बंने हेय छे’ ए प्रमाणे सुधारीने वांचवुं.
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

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: ८८ : आत्मधर्म : ८९
जिनप्रतिमा जिनसारखी
“ते सर्वने साथे तथा प्रत्येकने प्रत्येकने,
वंदुं वळी हुं मनुष्यक्षेत्रे–वर्तता अर्हंतने.”
आजे अहींना जिनमंदिरमां भगवान श्री सीमधर प्रभुनी प्रतिष्ठानो महोत्सव छे तेथी मांगलिक छे...
भगवानना विरह वखते भगवाननी प्रतिमामां तेमनी स्थापना करवामां आवे छे. तीर्थंकर भगवाननी
वीतरागी प्रतिमा पण तीर्थंकर तूल्य छे. जुओ, पंडित बनारसीदासजी कहे छे के– ‘
जिनप्रतिमा जिनखारखी
हे भगवान! आपनी वीतरागी ध्यानस्थ प्रतिमाने जोतां ज्ञायकबिंबनुं स्मरण थाय छे. आवा प्रतिमाने
भगवान तरीके कोण माने? ...तो कहे छे के:–
‘कूहत बनारसी अलप भव थिति जाकी
सोइ जिनप्रतिमा प्रभानैं जिन सारखी।’
अंदरना चैतन्य भगवान आत्मानुं जेने लक्ष छे, अने बहारमां निमित्त तरीके पूर्णदशाने पामेला श्री
सर्वज्ञ परमात्मानी जेने ओळखाण थई छे, ते साक्षात् सर्वज्ञदेवना विरह वखते तेमनी प्रतिमाने सर्वज्ञदेव
तरीके स्थापे छे, ने ए रीते भानपूर्वक जिनप्रतिमाने जिनवर तूल्य मानीने दर्शन–पूजनादि करे छे. अहो!
भगवान आवा पूर्ण सर्वज्ञपदने पाम्या ने मारो स्वभाव पण आवो ज छे–आवी भावनाथी पण घणी निर्जरा
थाय छे. भगवान जेवो पोतानो स्वभाव छे एवा लक्ष पूर्वक जे जिनप्रतिमाने जिन–तूल्य माने छे तेने विशेष
भव होता नथी.
(भगवान श्री सीमधंर जिन–स्वागत अंक)

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फागण : २४७७ : ८९ :
श्री परमात्म–प्रकाशमां कहे छे के आ जीवने अनादिसंसारमां बे वस्तु मळवी अत्यंत दुर्लभ छे. कई बे
वस्तु? एक तो शुद्धसम्यक्त्व अने बीजा श्री जिनवर स्वामी, जिनवर स्वामी खरेखर क्यारे मळ्‌या कहेवाय?
संयोगरूपे तो भगवान घणी वार मळी गया. पण अंतरमां भगवान जेवा पोताना आत्मानुं लक्ष करे तो
खरेखर जिनवर स्वामी मळ्‌या कहेवाय. श्री कुंदकुंदाचार्य भगवान प्रवचनसारमां कहे छे के–जे जीव अरिहंत
भगवानना द्रव्य–गुण–पर्यायने जाणे छे ते जीव खरेखर पोताना आत्माने जाणे छे ने तेनो मोह क्षय पामी
जाय छे. आत्माने वास्तविक तत्त्वज्ञान प्राप्त थवुं अनंतकाळे दुर्लभ छे, अने ए तत्त्वज्ञान पामवानो योग
मळवो पण घणो दुर्लभ छे. साचा देव–गुरु शुं कहे छे ते समजवानो अवसर अनंतकाळे आवे छे. आवा
प्रसंगने बराबर उत्साहथी वधावी लेवो जोईए. बहारनो प्रसंग तो तेना कारणे भजे छे, पण अंदर साची
समजणनो उत्साह जोईए. आत्मानी समजणनी दरकार वगर एकली बहारनी हो–हा करे तेमां कल्याण नथी.
आत्माना भान पछी पण वीतरागी देव–गुरु प्रत्ये बहुमान अने भक्तिनो भाव तो आवे पण ज्ञानी तेने धर्म
न माने, ते शुभरागमां ज सर्वस्व मानीने तेमां अटकी न जाय. अज्ञानीओ तो ते रागमां ज सर्वस्व मानीने,
तेने ज धर्म मानीने त्यां अटकी पडे छे. अष्टाह्निका महोत्सव वखते घणा सम्यग्द्रष्टि देवो पण नंदिश्वर द्वीपे जाय
छे, अने त्यां शाश्वत बिराजमान रत्नमणिना जिनबिंबना दर्शन–पूजन करीने भक्तिथी नाची ऊठे छे.
अंर्तद्रष्टि पूर्वकना ज्ञानीनी भक्तिना खेल अज्ञानीने समजवा मुश्केल पडे तेम छे. भगवाननी उपशांत प्रतिमा
पासे त्रण ज्ञानधारी एकावतारी सम्यग्द्रष्टि ईन्द्र–ईन्द्राणीओ पण नानी बाळिकानी जेम भक्तिभावथी नाची
ऊठे छे. अंदर चैतन्यबिंब आत्मानुं भान छे, एवी निश्चयनी भूमिका होवा छतां नीचली दशामां तेवो राग
वच्चे आवे छे, ने ते रागना निमित्तभूत वीतरागी जिनबिंब छे. एवा रागने तथा तेना निमित्तने न ज माने
तो ते अज्ञानी छे, अने ते रागथी के निमित्तथी ज धर्म माने तो ते पण अज्ञानी छे. वस्तुस्थिति जेम छे तेम
जाणवी जोईए.
श्री पद्मनंदिपच्चीसीमां दररोज करवा योग्य श्रावकना छ कर्तव्योनुं वर्णन करतां कहे छे के–
देवपूजा गुरोपास्ति स्वाध्याय संयमस्तपः।
दानश्वेति गृहस्थाणां षट्कर्माणि दिनेदिने।।७।।
श्रावकाचार
श्री जिनेन्द्रदेवनी पूजा, गुरुओनी उपासना, स्वाध्याय संयम तप अने दान–ते छ कार्यो गृहस्थोए दिन–
दिन प्रति हंमेशांं करवा योग्य छे. सर्वज्ञ भगवान केवा होय, गुरु केवा होय तेनी ओळखाणनी मुख्यता
सहितनी आ आ वात छे. मुनिओ तो ज्ञान ध्यानमां लीन रहे छे, तेथी तेमनी वात जुदी, पण गृहस्थो तो
अनेक प्रकारना हिंसादि पापमां पडेला छे ते पाप भावथी बचवा देव पूजा वगेरेनो उपदेश छे. ते उपदेशमां
गृहस्थोने आवा प्रकारनो राग होय छे तेनुं ज्ञान कराव्युं छे. धर्म तो अंतरना ध्रुव चैतन्य स्वभावना आश्रये
जे वीतरागीभाव थाय तेमां ज छे. अनादि वीतराग शासननुं आ वर्णन छे. अहीं जेमनी स्थापना थाय छे ते
श्री सीमंधर भगवान अत्यारे महाविदेहक्षेत्रमां आ ज वात कही रह्या छे. जे आ समजे तेनुं कल्याण छे. न
समजनारा तो रखडी ज रह्या छे एटले तेनी शुं वात करवी? भगवानना पंचकल्याणकमां भगवाने कहेलो
आत्मस्वभाव समजे तो कल्याण थाय. माटे आत्मानो स्वभाव शुं छे तेनी समजण करवी तेनी ज मुख्यता छे,
ने ते ज धर्मनुं मूळ छे.
(–लाठीमां श्री सीमंधरादि भगवंतोनी प्रतिष्ठा वखते पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनमांथी)
बादशाहनो हुकम
ऊंधी मान्यता–मिथ्यात्व ए ‘बादशाही’ गुणठाणुं छे. जेम बादशाहना हुकमने
मानवानी कोई ना न पाडे तेम परनुं कर्तापणुं मानवुं ते मिथ्यात्वरूप बादशाहनो हुकम छे, तेथी
परनुं अमे करी शकीए एवी मान्यतानी कोई अज्ञानी ना न पाडे. पुण्यथी धर्म थाय एटले के
विकारथी आत्मगुण प्रगटे–एवी ऊंधी मान्यताथी, मोहरूपी भूते अज्ञानी जीवोने वश कर्या छे.
जुओ–समयसार प्रवचनो भा. १ पृ. १२३

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: ९० : आत्मधर्म : ८९
भगवानना भक्तना हृदयमां ऊछळती
भक्तिनी लहरीओ
तीर्थंधाम सोनगढमां भगवानश्री सीमंधर प्रभुनी पंचकल्याणक
प्रतिष्ठाना अठ्ठाई महोत्सव प्रसंगे, वीर सं. २४६७ ना माह वद ११ ना रोज,
पद्मनदी पचीसीना शांतिनाथस्तोत्र पर पू. गुरुदेवश्रीनुं भक्तिभर्यु प्रवचन
(१) वीतराग भगवाननी भक्ति कोने उल्लसे?
आ देहदेवळमां चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा रहेलो छे, ते पोते शांति अने सुख स्वभाववाळो छे.
शांति के सुख माटे तेने देह–मन–वाणीनी जरूर नथी. देह अने ईन्द्रियोना लक्षे मानेलुं सुख ते खरेखर सुख
नथी पण विकार छे. जेने आत्मानुं भान नथी ने लक्ष्मी वगेरेमां सुख मान्युं छे ते जीवने लक्ष्मीनी रुचि
होवाथी ते लक्ष्मीवाळानां वखाण करे छे; अने जेने रागरहित आत्मानुं भान छे ने वीतरागता गोठी छे ते जीव
वीतराग परमात्माने ओळखीने तेमनां गुणगान करे छे. जेम घरे लक्ष्मीवाळा बे–पांच मोटा महेमान के राजा
आवे त्यां अज्ञानी लक्ष्मीनी रुचिवाळो तेमनां गुणगान करतां कहे छे के ‘आजे मारे सोनानो सूरज ऊग्यो..’ –
पण त्यां तो मात्र ममतानुं पोषण छे. अहीं वीतरागतानी भावनावाळा भगवानना भक्त कहे छे के धन्य
भाग्य! आज अमारा आंगणे भगवान पधार्या...आजे अमारे सोनानो सूरज ऊग्यो. आम परमात्माने
ओळखीने तेमनां गाणां गाय ते साची भक्ति छे. जेम नाना छ महिनाना बाळकने पैसा शुं कहेवाय तेनी
खबर नथी, तेणे तो फक्त मातानुं दूध भाळ्‌युं छे एटले तेने लक्ष्मीवाळा उपर प्रेम शेनो आवे? तेम जेणे
आत्माना वीतराग स्वभावने ओळख्यो नथी, वीतराग भगवानने ओळख्या नथी तेने वीतराग भगवान
उपर खरो प्रेम आवतो नथी. जेने वीतरागतानुं भान छे ते तो वीतराग भगवानने जोतां भक्तिथी उल्लसी
जाय छे.
आ शरीर तो हाडका वगेरेनुं ढींगलुं छे, त तो अनाज, दूध वगेरेमांथी थयुं छे. आत्मा माताना पेटमां आव्यो
त्यारे आ शरीरने साथे लाव्यो न हतो... तेम ज पछी पण शरीरनी तो स्मशानमां राख थशे ने आत्मा बीजे चाल्यो
जशे. अंदर आत्मा देहथी भिन्न छे ते कायम टकनार छे. एवा आत्मामां ज सुख छे, तेने भूलीने अज्ञानी जीव
शरीर–आबरू–लक्ष्मी वगेरे बाह्य पदार्थोमां सुख माने छे, एटले ते तेनुं बहुमान करे छे, तो ते जीव सर्वज्ञ
वीतरागदेवनुं बहुमान केम करी शके? देह अने ईन्द्रियो विनानुं साचुं सुख जेमने प्रगटी गयुं छे एवा वीतरागी
परमात्मानुं स्वरूप जाण्या विना तेमना गुणगान थई शके नहि. जेने विषयोमां सुखनी बुद्धि छे ते कदाच भगवान
पासे जशे तो त्यां पण पुण्य अने स्वर्गादिनां वखाण करशे. ‘हे परमात्मा! आप पूर्ण थई गया छो, आपने ज्ञान
अने सुख पूर्ण प्रगटी गयां छे... हुं पण शक्तिए आपना जेवो परिपूर्ण होवा छतां हजी अवस्थाए अधूरो छुं... मारुं
सुख मारा स्वभावमां भर्युं छे ते प्रगट करवा, आपनी पूर्णतानुं अनुमोदन करतां... तेनां गाणां गातां... संसारनो
प्रेम तोडीने वीतरागता वधारीश.’ ––जेने आवुं ज्ञान होय ते ज वीतरागप्रभुनी साची स्तुति करे छे.
(२) ‘सीमंधर’ प्रभुनी स्तुति
जुओ, अहीं श्री सीमंधर परमात्मानी प्रतिष्ठा थवानी छे. ते सीमंधर परमात्मा अत्यारे महाविदेह
क्षेत्रमां साक्षात् बिराजे छे. ‘सीमंधर’ एटले शुं? ‘सीम’ एटले सीमा अर्थात् मर्यादा अने ‘घर’ एटले
धरनार; आत्माना स्वरूपनी मर्यादाने जे धारण करे ते सीमंधर. आत्माना ज्ञानस्वरूपनी मर्यादामां राग–द्वेषादि
नथी. ए रीते राग–द्वेष–रहित ज्ञानस्वभावनी मर्यादाने भगवाने धारण करी छे अर्थात् भगवानना आत्माने
उत्कृष्ट ज्ञानदशा प्रगटी छे. भगवान जेवो पोताना आत्मानो स्वभाव ओळखवो तेने भगवाननी स्तुति
कहेवाय छे. भगवाननी स्तुति कहो के भगवानना गुणगान कहो. ‘हे नाथ! आपना जेवी पूर्णदशा मारामां
प्रगटी नथी, परंतु हे प्रभो! जेटलुं सामर्थ्य आपनामां छे तेटलुं ज परिपूर्ण सामर्थ्य मारामां भर्युं छे, तारा जेवा
मारा स्वभावमां एकाग्र थतां मारो राग टळे ने सुख मळे... ए रीते हुं पण पूर्ण परमात्मा थईश.’ आनुं नाम
भगवाननी भक्ति! जेने आवुं भान नथी ते
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

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फागण : २४७७ : ९१ :
खरेखर भगवाननां गाणां के भगवाननी स्तुति करतो नथी, ते तो मात्र राग अने पुण्यनां गणां गाय छे.
(३) त्रण छत्रोना वर्णनद्वारा त्रिलोकपति शांतिनाथ प्रभुनी स्तुति
अहीं पद्मनंदी पचीसीना आ अधिकारमां आचार्यदेवे श्री शांतिनाथ भगवाननी स्तुति करी छे. तेमां
पहेलांं श्लोकमां कहे छे के–
त्रेलोक्याधिपतित्वसूचनपरं लोकेश्वरैरुद्धृतं।
यस्योपर्युपरीन्दुमण्डलनिभं छत्रत्रयं राजते।।
अश्रांतोद्रतकेवलोज्वलरुचा निर्भर्सितार्कप्रभं।
सोऽस्मान् पातु निरंजनो जिनपतिः श्री शांतिनाथः सदा।।
जेमना मस्तक उपर त्रण लोकनुं स्वामीत्व सूचवनारा अने चन्द्र समान, ईन्द्ररचित त्रण छत्रो शोभी रह्या
छे तेम ज निरंतर उदयमान एवी केवळज्ञाननी निर्मळ काति वडे जेमणे सूर्यनी प्रभाने पण ढांकी दीधी छे अने जेओ
सर्व पापथी रहित छे एवा श्री शांतिनाथ भगवान सदा अमारी रक्षा करो.
जेओ पूर्ण आत्मस्वरूपने पाम्या होय अने पुण्यमां पण पूरा होय ते तीर्थंकरभगवान छे. पूर्ण
आत्मस्वरूपने पामीने मुक्त थनारा घणा जीवो होय छे, पण जे पोते पूर्ण आत्मस्वरूप पामीने पोतानुं कल्याण करे
तेम ज बीजा लाखो–करोडो जीवोने कल्याणमां निमित्त थाय एवा तीर्थंकर थनारा जीवो तो बहु थोडा होय छे.
भरतक्षेत्रमां छेल्ली चोवीसीमां श्री शांतिनाथभगवान सोळमा तीर्थंकर थया. अत्यारे तो तेओ मोक्षदशामां सिद्धपणे
बिराजे छे. पण ज्यारे तेओ आ भरतक्षेत्रमां तीर्थंकर पणे विचरता हता त्यारनो उपचार करीने श्री आचार्यदेव
तेमनी स्तुति करे छे.
भगवानने पूर्ण आत्मदशा प्रगटी छे अने भगवाननी उपर भक्तिपूर्वक मणी–रत्नना त्रण छत्रो ईन्द्र
रचे छे, ते तेमना पुण्यनो अतिशय छे. आचार्यदेव कहे छे के हे नाथ! आ त्रण छत्रो एम सूचवे छे के आप ज
त्रणलोकना नाथ छो... त्रणलोकमां सारमां सार होय तो ते अनंतज्ञानने पामेलो आपनो आत्मा ज छे. ए
सिवाय देह–मन–वाणी के ईन्द्रियविषयो ते कोई आ जगतमां उत्तम नथी.
(४) गर्भकल्याणक
प्रसंगे ईन्द्रद्वारा माता–
पितानी स्तुति
जुओ, अहीं
सीमंधरप्रभुनी प्रतिष्ठामां
महावीर भगवानना
पंचकल्याणक थशे; तेमां
घणुं आवशे. ज्यारे
गर्भकल्याणक थशे त्यारे
ईन्द्रो आवीने भगवानना
माता–पितानी स्तुति
करतां कहेशे के अहो! धन्य
माता! ने धन्य पिता! हे
माता! तमे जगतना
माता छो. तमारी
उज्जवळ कूंखे छ महिना
पछी एक त्रिलोकनाथ तीर्थंकर
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

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: ९२ : आत्मधर्म : ८९
नो आत्मा आववानो छे. हे त्रिलोकनाथनी जनेता! हे जगत जननी! तने धन्य छे! हजी तो भगवाननो
आत्मा स्वर्गादिमां होय, ने त्यांनुं आयुष्य छ महीना बाकी रहेतां ज्यां तीर्थंकरना भवनुं आयुष्य बंधाय त्यां
तो ईन्द्रोना आसन चळे अने इंद अवधि ज्ञानथी जुए के आ शुं!! अहो! त्रिलोकनाथ तीर्थंकरभगवान छ
महिना पछी आ मातानी कूखे पधारवाना... एम जाणीने ईन्द्रो पण तीर्थंकरप्रभुना माता पितानी प्रशंसा करे
छे.. ने रोज रोज रत्नवर्षो थाय छे. भगवानना गुणनो आ बधो महिमा छे. जेम आसो सुद पुनमना बींदवा
जे छीपमां पडे ते छीपुं पण जुदी जातनी होय ने तेमांथी किंमती रत्न पाके. तेम त्रिलोकनाथ तीर्थंकरनो आत्मा
जेने त्यां अवतरे ते मातापिता पण अल्पकाळे मोक्षगामी होय छे. साधारण घरे भगवान अवतरे नहि.
(प) भगवानना साचा भक्तो अने साची स्तुति
भगवान बाळकपणे जन्मे त्यारे ईन्द्रो तेमनी सामे भक्ति करे.. तो पछी केवळज्ञान थाय त्यारे
मुनिवरोने ईन्द्रो तेमनी स्तुति करे तेमां शुं नवाई! भगवान तो वीतराग छे. भगवाननी धर्मसभामां कोई
तत्त्वज्ञाननो सीधो विरोध न करी शके. मुनिवरो पण सर्वज्ञवीतराग भगवाननुं स्तोत्र बनावीने अंतरमां
पोतानी वीतरागताने घूंटे छे. ईन्द्रो तो स्तुति करे ज छे ने मुनिवरो पण भगवाननी स्तोत्र बनावीने अंतरमां
पोतानी वीतरागताने घूंटे छे. ईन्द्रो तो स्तुति करे ज छे ने मुनिवरो पण भगवाननी स्तुति करे छे. अहो!
भगवानने सर्वज्ञता प्रगटी.. एवुं केवळज्ञान लेवा माटे, संसारनो तीव्रराग छेदवा सर्वज्ञवीतरागपणुं शुं छे ते
ओळखीने, ‘मारे पण आवुं सर्वज्ञपणुं अने वीतरागता ज आदरणीय छे, बीजा कोई रागादि भावो आदरणीय
नथी’ –एवी श्रद्धा अने ज्ञान करतां कर्मनां तो खोखां ऊडी जाय छे. रागरहित स्वभावनुं भान थवा छतां
अस्थिरतानो अल्प राग रहे ते रागथी ऊंचा पुण्य बंधाई जाय छे, पण धर्मीने ते रागनी भावना नथी. घणुं
अनाज पाके त्यां साथे घास पण थाय, पण खेडुतनी द्रष्टि अनाज उपर होय छे तेम साधक भूमिकामां रागने
लीधे पुण्य थई जाय पण धर्मात्मानी द्रष्टि रागरहित स्वभाव उपर होय छे.
अहीं आचार्यदेव श्री शांतिनाथभगवाननुं स्तवन करे छे. बधा आत्मानो स्वभाव शांतिनाथ भगवान
जेवो छे. शक्तिरूपे अंदर परमात्मपणुं भर्युं छे, ते ओळखीने जेणे प्रगट कर्युं ते त्रिलोकनाथ भगवान थया छे.
एवी ओळखाण करवी ते भगवाननी साची स्तुति छे.
हे नाथ! आपने केवळज्ञान प्रगट्युं छे ते ज सार छे. आपना केवळज्ञाननी प्रभा तो निरतंर उदयमान
छे. सूर्यनी प्रभा तो सवारे ऊगे ने रात्रे अस्त थई जाय. पण आपना केवळज्ञाननी प्रभा तो ऊगी ते ऊगी...
ते कदी अस्त पामे नहि. हे प्रभो! आपना आवा त्रिकाळीज्ञानना महिमा पासे चार ज्ञाननो पण महिमा
अमने लागतो नथी, तो रागादिनो आदर तो होय ज क्यांथी? केवळज्ञानमां एक समयमां त्रण काळ त्रण लोक
जणाय छे. आ आत्माने सारमां सार वस्तु होय तो ते केवळज्ञान छे. हे नाथ! मने सम्यक्मति–श्रुतज्ञान छे
पण मारी मीट केवळज्ञान उपर छे. अंदर पूर्ण स्वभाव शक्ति पडी छे तेनुं भान छे, ने ते शक्तिमां लीन थईने
पूर्ण केवळज्ञान प्रगट करवानी भावना छे... आ अल्पज्ञान वर्ते छे तेनो महिमा नथी. –आम स्तुति करतां
आचार्यदेव कहे छे के ‘श्री शांतिनाथ भगवान अमारी रक्षा करो’ भक्तिमां तो निमित्तथी बोलाय, पण तेनो
भाव एवो छे के आत्मानुं शांतिस्वरूप वर्तमान विकार अवस्थामांथी बचावो ने पूर्ण परमात्मपद प्रगट करो.
हे वीतराग परमात्मा! आत्मा निर्मळ आनंदघन छे तेवी दशा मने प्रगटो, तेनी हुं भावना करुं छुं... ने
आपने तेवी पूर्णानंददशा प्रगटी गई छे तेथी आपना गाणां गाउं छुं... मने जे गोठ्युं छे तेनां हुं गाणां गाउं छुं.
मारी जे वर्तमानसाधक अवस्था छे तेमांथी हुं पाछो न पडुं ने स्वभावद्रष्टिना जोरे अप्रतिहतपणे आगळ ज
वधीने पूरो थाउं–एवी भावनाथी स्तुतिकार निमित्तथी कहे छे के हे शांतिनाथ भगवान! आप अमारी रक्षा
करो.
(६) भगवाननो भक्त के जडनो?
भगवान पासे जे जीव शरीरनुं रक्षण करवानी भावना करे छे तेने तो अशुभभाव छे; कोई कहे के शरीर
सारूं होय तो संयम पळे, तो तेनी वात जूठी छे. शरीर हाडका चामडानो पिंड छे, शुं तेना आधारे संयम रहेतो
हशे? संयम तो आत्मानी निर्मळ दशा छे. आत्माना पवित्र गुणोनुं भान करीने तेना आश्रये
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

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फागण : २४७७ : ९३ :
रहेतां ईन्द्रियदमननो भाव प्रगटे छे, तेनुं नाम संयम छे. ते संयमभाव आत्माना आश्रये छे, शरीरना आधारे
नथी. शरीरमां रोग–निरोग अवस्था थवी ते तेने आधीन छे, ने अंदर आकुळता के शांति करवी ते आत्माने
आधीन छे.
प्रश्न:– आत्मा तो अनंतबळनो धणी छे एम आप कहो छो ने?’
उत्तर:– हा, आत्मा अनंतबळनो धणी छे ए वात साची, पण ते बळ पोतामां के परमां? आत्मानी
शक्ति परमां कांई करी न शके. जड देह–मन–वाणी वगेरे उपर आत्मानो पुरुषार्थ कांई काम करे के असर करे
एवी मान्यता ते महा मूर्खता छे, जड–चेतनना जुदापणानुं पण तेने भान नथी. पोतामां अनंतज्ञान, सुख
वगेरे प्रगट करवानी अनंत शक्ति आत्मामां छे, पण शरीरादिमां फेरफार करवानी आत्मामां जरापण शक्ति
नथी. भगवान पासे पोताना अनंत केवळज्ञाननी भावना करवाने बदले शरीरनी ने पुण्यनी भावना करे तो
तेने साची भावना करतां ज नथी आवडयुं. जेम चक्रवर्ती राजा प्रसन्न थईने कहे के ‘मांग... मांग, तुं जे माग
ते आपुं.’ त्यारे कोई मुर्खो एम कहे के ‘काढी नांख वासीदुं.’ –तो तेने मागतां ज न आवडयुं. तेम
चैतन्यचक्रवर्ती भगवानमां केवळज्ञान आपवानी ताकात छे. तेने बदले भगवान पासे जईने कोई एवी
भावना करे के हे भगवान! शरीर सारूं राखजो ने पुण्य आपजो...’ तो ते मूर्ख छे, जेने जडनी अने रागनी
भावना छे ते भगवाननो भक्त नथी... वीतरागनो दास नथी, ते आत्मानो दास नथी पण जडनो दास छे.
* * * * *
(७) दुंदुभीना वर्णन द्वारा भगवानना दिव्यज्ञाननी स्तुति
जेने पोतानी पूर्णतानी भावना छे ते सर्वज्ञपरमात्मानी पूर्णताने ओळखीने तेमनी स्तुति करे छे. अहीं
श्री शांतिनाथ भगवाननी स्तुति पद्मनंदीआचार्य करे छे. तेमां पहेलांं श्लोकमां त्रण छत्रनुं वर्णन करीने
भगवानना केवळज्ञाननी स्तुति करी. हवे बीजा श्लोकमां देवदुंदुभीनुं वर्णन करीने भगवानना केवळज्ञाननी
स्तुति करे छे––
‘देवः सर्वविदेष एव परमो नान्यस्त्रिलोकीपतिः
संत्यस्यैव समस्ततत्त्वविषया वाचः सतां सम्मताः।’
–एतद्धोषतीव यस्य विबुधैरास्फालितो दुन्दुभिः
सोऽस्मानू पातु निरंजनो जिनपतिः श्री शांतिनाथः सदा।।२।।
हे नाथ! आपना समवसरणमां देवताओ वडे बजाववामां आवती दुंदुभी (दिव्य नगारुं) नो नाद
मानो के जगतमां आ ज वातने प्रगटपणे कही रह्यो छे के– ‘समस्त पदार्थोने जाणनारा, उत्कृष्ट अने
त्रिलोकपति परमदेव श्री शांतिनाथ भगवान ज छे, अने समस्ततत्त्वोनुं वर्णन करनारा तेमना ज वचनो
सज्जनोने मान्य छे; ए सिवाय बीजुं तो कोई समस्त पदार्थोने जाणनार, उत्कृष्ट के त्रिलोकपति नथी तेम ज
तेनां वचन संमत नथी.’ एवा निरंजन श्री शांतिनाथ भगवान अमारी रक्षा करो.
(८) नगाराना नादमां भगवाननी सर्वज्ञतानो पोकार
हे प्रभु! सत्पुरुषोने एक तारु ज शरण छे... प्रभु! तुं ज सर्वज्ञ वीतराग छो.. जुओ, भगवानना
समवरणमां देवदुंदुभी वागे छे तेनो शास्त्रमां लेख छे ने महाविदेहमां ते प्रमाणे थई रह्युं छे.. श्री सीमंधर भगवाननी
धर्मसभामां देवदुंदुभी–नगारां वागे छे. बापु! आ प्रत्यक्ष वगेरे प्रमाणथी सिद्ध छे. जगतना नाना गजमां आ वात
झट न बेसे, तेनो कल्पनानो गज तो खोटो पडे.. पण आ गज खोटो पडे तेम नथी. हे भगवान! तारा दुंदुभीना
नादमां अमने तो एवुं ज संभळाय छे के– ‘अरे! मनुष्यो ने देवो! –जगतना जीवो! तमारे शरणभूत होय तो आ
शांतिनाथ भगवान बिराजे छे ते ज छे, त्यां आवो.. अने तेमनां ज वचन सांभळो... केम के त्रण लोकनुं ज्ञान होय
तो तेमने ज छे. स्तुतिकार कहे छे के हे नाथ! आ नगारानो नाद आपनी सर्वज्ञतानो ज पोकार करी रह्यो छे. हे
जीवो! तमे अहीं आवो... आ भगवाननुं शरण ल्यो. जेने त्रणकाळ त्रणलोकनुं ज्ञान प्रगट छे एवा आ भगवाननां
वचनो ज संमत करो... त्रण लोकना नाथ ने परम देवाधिदेव होय तो आ सीमंधर भगवान छे... शांतिनाथ
भगवान छे. तमारे जो सर्वज्ञवीतराग पद जोईतुं होय तो अहीं आवो..
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

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: ९४ : आत्मधर्म : ८९
आ भगवाननुं सेवन करो... भगवाननां वचनमां कहेला आत्मानी श्रद्धा करो...
लोकमां जेम लक्ष्मी वगेरेनी रुचिवाळा लोको राजा वगेरेनी पासे जईने तेनी प्रशंसा करे छे, तेम अहीं
लोकोत्तर मार्गमां प्रभुताना भानवाळा भक्तो प्रभुनी स्तुति–प्रशंसा करे छे... तेमां पोतानी प्रभुतानी भावना
ते प्रभुता प्रगटवानुं कारण छे.
(९) आवो रे... आवो... भगवानने भेटवा!
आत्मा ज्ञानस्वभाव छे... त्रण काळ त्रण लोकने जाणे तेवुं एक एक आत्मामां सामर्थ्य छे... तेनुं भान
करीने जेने तेवी पूर्ण शक्ति प्रगट थई गई छे ते सर्वज्ञदेव छे. तेने राग नथी.. ज्ञाननी कांई अधूराश नथी;
तेमने स्त्री नथी, वस्त्र नथी, शस्त्र नथी. तेमनी धर्मसभामां दिव्यनगारुं वागे छे ते कहे छे के: ‘...जेने आत्मा
जो’ तो होय.. जेने अशांति टाळीने शांतिना कुंडमां न्हावुं होय... आत्माना अनंत सागरमां रसबोळ थवुं
होय... सुखमां तरबोळ थवुं होय... ते जीवो अहीं भगवाननी धर्मसभामां आवो ने तेमनी वाणी समजो.. जेने
चैतन्यभगवानने भेटवुं होय ते आ भगवान पासे आवो. आवो रे आवो! धर्मसभामां, आत्माने ओळखीने
अनंत काळनी भूख भांगवी होय ने स्वरूपसंयम मेळववो होय.. दुःख टाळवुं. होय ने शांति जोईती होय तो.’
–आम भगवाननुं दुंदुभीनगारुं पोकार कर छे... अने भगवानना समवसरणमां अनेक संतो–मुनिओ,
जंघाचरणादि ऋद्धिधारक मुनिओनां टोळेटोळां, देवो ने विद्याधरो आकाश मार्गे आवी आवीने दर्शन करे छे.
जंगलमां त्राड पाडता सिंह वगेरे तीर्यंचो पण भगवान पासे आवीने शांत थई बेसी जाय छे. पहेलांं
सर्वज्ञभगवान केवा होय ते ओळखवुं जोईए. जेना हाथमां कांई शस्त्र होय तो तेने कोई प्रत्ये वेरबुद्धि छे एटले
ते वीतराग नथी, बाजुमां स्त्री राखी होयने ब्रह्मचारी पण थयो नथी. तो ते भगवान क्यांथी होय? जे हाथमां
माळा गणतो होय ते कोईनी स्तुति करे छे एटले ते पण पूरो नथी, अधूरो छे. जे पोते रागी ने अपूर्ण होय ते
बीजाने पूर्णतानुं कारण केम थाय?–एटले ते देव न होय. वळी जे वस्त्र राखे तेने शरीर उपरनो राग टळ्‌यो
नथी एटले ते पण देव न होय.
जेने आत्माना पूर्णस्वरूपने ओळखीने...आत्माना वीतरागीस्वरूपनी लगनी लगाडवी होय ते आ
सर्वज्ञ वीतरागभगवानने ओळखो. ‘नगारुं’ कहे छे के तमारे आत्मानी लगनी लगाडवी होय तो आवो...
सीमंधरनाथ पासे! भगवानना केवळज्ञाननी प्रतीत करनारने खरेखर पोताना पूर्ण ज्ञानस्वभावनी प्रतीत
थाय छे.
(१०) भगवाननी ओळखाण अने साचुं शरण
अहीं स्तुतिमां आचार्यदेवे ए वात सिद्ध करी छे के आत्मामां केवळज्ञान सामर्थ्य छे अने त्रणकाळ
त्रणलोकने जाणवानी ताकात उघडे छे; आवुं सामर्थ्य दरेक आत्मामां छे. जेने आवुं सामर्थ्य प्रगट्युं होय एवा
भगवानने देह उपर वस्त्रादि त्रणकाळ त्रणलोकमां होतां नथी. अहो, आवी पूर्ण परमात्मदशाना साधक एवा
संतमुनिओने पण वस्त्र न होय, वस्त्रसहित तो मुनिदशा पण न होय, तो पछी पूर्णदशा पामेला त्रणलोकना
नाथ एवा परमात्माने तो वस्त्रादि शेनां होय? आ कोई वाडानी वात नथी पण वस्तुना स्वरूपनी वात छे.
घरमां हजारो स्त्रीओना संगमां रहेतो होय अने कोई कहे के मने स्त्री वगेरेनो जराय राग नथी,–तो ए केम
बने? राग टळ्‌यो होय तो रागना निमित्तो पण टळी ज जाय. जेम बदाममां अंदरनुं रातुं फोतरुं नीकळी जाय
तो उपली छाल पण नीकळी ज गई होय. तेम निर्मळ आनंदघन आत्मस्वभावमां लीन थईने जेणे अंदरथी
रागरूपी रातपने काढी नांखी तेने बाह्यमां वस्त्र–स्त्री–आदि रागनां निमित्तो पण छूटी ज जाय छे. अरिहंतदेव
अने निर्ग्रथ गुरुनुं स्वरूप शुं छे ते जाण्या विना घणा बोले छे के ‘अरिहंतदेव अने निर्ग्रंथ गुरुनुं शरण
भवोभव होजो.’ पण अरे भई! अरिहंतदेव अने निर्ग्रंथ गुरु केवा होय तेना भान वगर तुं शरण कोनुं
लईश? ओळखाण तो कर, ओळखाण वगर तने साचुं शरण नहि मळे. रागरहित भगवानने जाण्या वगर
तारो पोतानो आत्मा रागरहित केवो छे ते पण ओळखाय नहि अने तेनी ओळखाण वगर आत्माने साचुं
शरण थाय नहि. अरिहंतदेव तो व्यवहारशरण छे, परमार्थशरण तो पोतानो आत्मा ज छे, हजी जेने
अरिहंतनुंय भान नथी ते पोताना आत्मानुं शरण तो क्यांथी लेशे? जेने बाह्यमां रागा–
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

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फागण : २४७७ : ९५ :
दिनां साधन वर्ततां होय तेने अंदरनो राग टळ्‌यो नथी, अने जे रागी छे ते साचा देव नथी. एवा रागी जीवने
जे देव तरीके माने छे तेने अरिहंतप्रभुनो आदर नथी. जे पोते रागमां वर्ती रह्या छे ते तो पोते ज अशरण छे,
तो ते बीजाने शरणभूत क्यांथी थाय? माटे स्तुतिकारे कह्युं के हे नाथ! देवाधिदेव सर्वज्ञ तो आप ज छो, संतोने
आपनुं ज शरण छे. अहो! अत्यारे महाविदेहमां तो गणधरो ने ईन्द्रो, संतो अने चक्रवर्तीओ सीमंधर प्रभुनो
आदर करे छे...अहीं तो रांका...भिखारी...पुण्यमां नबळा ने टूंका मनवाळां जीवो भगवाननो शुं आदर करशे?
अहीं तो भगवाननो विरह छे...छतां जे जीव भाव करे तेने भाव तो पोतामां छे ने! पोताना भावनो लाभ
पोताने छे.
(११) ‘धर्मवृद्धिनो महोत्सव’...‘कल्याणनां टाणां’...‘आत्माना शुक्रवार’...‘भगवानना भेटा...’
कोई श्रोताजन कहे छे के हे नाथ! अमारे तो आजे अहीं ज सुवर्णपुरी बनी गई...अहीं ज अमारे
महाविदेह जेवुं बनी गयुं!
श्री गुरु कहे छे के भाई! आ तो हजी शरूआत छे. हजी ‘कळश’ चडवानो तो बाकी छे. आमां बे वात
आवी जाय छे एक तो श्री जिनमंदिर उपर कळश चडवानो बाकी छे ते; अने ए उपरांत हजु कांई कांई नवीन
(–धर्मवृद्धि) थशे...जेनां भाग्य हशे ते जोशे...जे थाय छे ते अत्यारे जोई रह्या छे. अहो! आवा पंचकल्याणकना
पवित्र उत्सवो माटे तो देव पण झंखना करे...ईन्द्रो पण भगवाननी प्रार्थना करे...अत्यारे आ भरतक्षेत्रे शुं
वात करीए? साधारण प्राणीने आ वात न बेसे, पण प्रतीत करीने मानजो...ज्ञानीना गज जुदा होय छे,
अज्ञानीना गजे माप न आवे. वळी अत्यारे देश–काळ टूंका अने विषयकषायमां डूबेलां जीवोनी वृत्ति पण टूंकी,
तेने भगवाननी कल्पना पण शुं आवे? जेम
बापे प० हाथनो ताको लावीने घेर राख्यो होय,
नानो छोकरो पोताना नाना हाथथी मापीने कहे
के ‘आ तो १०० हाथनो छे, माटे बापा भूल्या
हशे!’ पण बाप तेने कहे छे के भाई! तारा
हाथनुं माप अमारा लेवड–देवडना व्यवहारमां
काम न आवे, तेम ज्ञानीनी अपूर्व वात
अज्ञानीनी कल्पनामां न आवे, पण तेथी
ज्ञानीनी वात खोटी नथी. वस्तुनुं स्वरूप समजे
तो बधी वात अंतरमां बेसी जाय...बापु!
अणसमजणे क्यांय आरा आवे तेम नथी. अरे!
अनंतकाळे आ मोंघो मनुष्यभव मळ्‌यो, वळी
आवा देव–गुरु भेट्या, सत् समजीने कल्याण
करवानां टाणां आव्यां छे; देवने दुर्लभ एवा
टांणा छे. आवा टांणे भक्ति करवा देवो पण
आवे! आजे शुक्रवार... ने सामा शुक्रवारे
भगवाननी प्रतिष्ठा जुओ, आ शुक्रवारे दाळिया
थवाना छे...आत्मानुं दाळदर टाळवुं होय तेने
टळी जशे. जुओ तो खरा, कुदरत शुं करे छे!
लोकोमां बोले छे के कांई ‘शकरवार’ थाय तेम छे
एटले के कांई आपणा दाळिया थाय तेवुं छे? तो
कहे छे के–हा, अहीं शुक्रवारे दाळिया थवाना छे...
दाळदर टळवानां छे...त्रिलोकनाथ भगवान
भेटवाना छे...प्रतिष्ठानुं मंगलमुहूर्त बीज ने
शुक्रवारनुं आव्युं छे. भगवान पोते साक्षात् न आवे पण ते त्रिलोकनाथ
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

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: ९६ : आत्मधर्म : ८९
तीर्थंकर भगवाननी आज्ञा अनुसारे श्री सीमंधर भगवाननी प्रतिष्ठा थवानी छे; तेमां एवा शुक्रवार थवाना छे
के जे भगवाननी यथार्थ ओळखाण करे तेने भव न रहे...जन्म–मरण त्रणकाळमां न रहे...भगवानने ओळखीने
तेनां गाणां गाय तेने त्रणलोकमां भवमां रखडवानी शंका न रहे. वळी भगवाननी प्रतिष्ठाना दिवसे बीज छे.
जेम चंद्रनी बीज ऊगी ते वधीने पुनम थाय ज...तेम आ भगवानने ओळखीने तेमनी पोताना आत्मामां जे
प्रतिष्ठा करे एटले के हुं पण भगवान जेवो छुं–एम स्वभावनुं भान करे तेना आत्मामां सम्यग्ज्ञानरूपी बीजनो
चंद्र ऊग्यो ते वधीने पूर्णिमा–केवळज्ञान थया विना रहे नहीं. वळी उपरना भागमां श्री नेमनाथप्रभुनी प्रतिष्ठा
थशे, तेमां पण कुदरतनो केवो मेळ छे? जुओ, गया वर्षे, नेमनाथ प्रभुनी कल्याणक भूमि गीरनार पर्वत उपर
समश्रेणीनी टूंके बराबर फागण सुद बीजे हता...ने अहीं आ वर्षे बराबर फागण सुद बीजे ज सवारे श्री
नेमनाथ भगवाननी प्रतिष्ठा थशे... समश्रेणीनी टूंके भगवाननी भक्ति अने आत्मानी धून करीने ज्यारे नीचे
आव्या त्यारे लोको होंशथी एम कहेता हता के ‘अमे तो जाणे मोक्षमां जई आव्या...तेवुं लागे छे.’ त्यां जे दिवस
हतो ते ज दिवसे अहीं भगवाननी प्रतिष्ठा थशे...मांगळिकमां बधो मेळ कुदरते थई जाय छे.
(१२) जिनेन्द्र प्रतिष्ठा अने प्रतिष्ठाकारनुं वेदन
श्री जिनेन्द्र भगवाननी प्रतिष्ठानो आवो योग महाभाग्य होय तेने मळे छे. शास्त्रमां प्रतिष्ठा
करावनार गृहस्थनुं वर्णन आवे छे. ते गृहस्थ श्री गुरु पासे जईने विनयथी कहे छे के–हे स्वामी! मारी
पासे आवेली आ लक्ष्मी कूलटा स्त्री समान अनित्य छे, ए लक्ष्मी क्यारे वही जशे तेनो भरोसो नथी.
तेथी हुं श्री वीतराग भगवाननी प्रतिष्ठा करावीने तेनो सदउपयोग करवा मांगु छुं; माटे मने आज्ञा
आपो.–एम आज्ञा लईने ते जीव भगवाननी प्रतिष्ठा करावे छे. श्री गुरु तेने कहे छे के तारुं जीवन धन्य
छे! भगवाननी प्रतिष्ठा थतां भक्तो कहे छे के अहो! आ वीतरागदेव पधार्या...आजे अमने भगवान
भेट्या...जेने अंतरमां पूर्णानंद परमात्म स्वभावनुं लक्ष थयुं होय, ने बहारमां निमित्त तरीके साक्षात्
परमात्माने न भाळे त्यारे ते प्रतिमामां प्रभुनी प्रतिष्ठा करे छे. हे नाथ! तारा वियोगमां तारी प्रतिष्ठा
करीने तने अमारा अंतरमां पधरावीए छीए.
भक्तो भगवान पासे कहे छे–हे नाथ! –
भरतक्षेत्र
मानव पणो रे...
लीधो दुःसम काळ...
जिन पूरवधर
विरहथी रे. दुलहो
साधन चालो रे...
चंद्राननजिन...
भरतक्षेत्रना
भक्तो कहे छे के हे
नाथ! आ
भरतक्षेत्रे तारा
विरह पड्या छे.
अहो! महाविदेहमां
बिराजता
चैतन्यमूर्ति प्रभु
जेना चरणनी सो
सो ईन्द्रो सेवा
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

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फागण : २४७७ : ९७ :
करी रह्या छे एवा नाथनो अमने अहीं विरह पड्यो...आवो मनुष्य भव मळ्‌यो...पण उत्तममां उत्तम साधननो
वियोग पड्यो...हे प्रभो! तारा आ जातना विरहथी अमारो काळ जाय छे...हे सीमंधर नाथ...तारो साक्षात्
पतिनो–विरह छे ते अहीं प्रतिष्ठा करीने टाळशुं हे नाथ! ज्यां आप साक्षात् बिराजो त्यां अमारा अवतार
नहि...अमे आपनाथी दूर पड्या तो पण हे स्वामी! अमे अमारा आत्मामां आपनी प्रतिष्ठा करीने अमारुं पूरुं
करशुं.
अहो, ज्यां भगवान बिराजे छे त्यां तो धर्म धोखबंध चाली रह्यो छे; गणधरो, संतो, ईन्द्रो, चक्रवर्ती
वगेरे मोटा मोटा पुरुषो भगवानना धर्मने भक्तिपूर्वक सेवी रह्या छे. अहीं जे धर्म कहेवाय छे ते त्रणकाळ
त्रणलोकमां फरे तेम नथी,–जेने माटे ईन्द्रा, गणधरो ने तीर्थंकरो साक्षी छे. अहीं जेवो आत्मस्वभाव कहीए
छीए तेवो एकवार पण समजे तो एवुं अपूर्व ज्ञान प्रगटे के बस! भवनो अंत आवी जाय. अहो! आवी
परम सत्य वात, आत्म कल्याणनी अपूर्व वात! पामर जीवो तेनो विरोध करी रह्या छे, धर्मना नामे हळाहळ
थई रह्युं छे.. ज्यां जुओ त्यां घणो फेरफार छे...धर्मनो यथार्थ मार्ग भूलीने कोई कांई माने ने कोई कांई माने..
जेने जेम फावे तेम मनावी रह्या छे... हे नाथ! तीर्थंकरना विरहे भरतक्षेत्रमां जुदा जुदा अभिप्राय थई गया...
परंतु हे प्रभु! आपना प्रतापे अमारा नीवेडा आवी गया...पार आवी गयो...आपना प्रतापे बधा नीवेडा अने
समाधान आवी गया...पण जगतने केम समजाय? कोई महाभाग्यवान जीवो समजीने कल्याण पामी जाय छे.
हे नाथ...आपनी दिव्य वाणीनो धोध छूटतो हतो अने त्यां तो अनेक संतो केवळज्ञान पामता... तेने बदले
अहींना प्राणीमां तो अल्प पुण्य ने अल्प पुरुषार्थ? छतां य–भले ने ते अल्प होय परंतु केवळज्ञानने
ओळखीने तेनी श्रद्धा छे ने! एटले ते पुरुषार्थ अल्प होवा छतां केवळज्ञान साथे संधिवाळो छे, एटले वच्चे
भंग पड्या विना पूर्ण केवळज्ञाननो भेटो थये छूटको! ते त्रणकाळ त्रणलोकमां न फरे... हे नाथ! पूर्णतानो संदेह
नथी.. पण अधूरे आंतरा पड्या पड्या छे.. ते आंतरो अत्यारे तो आपनी ‘प्रतिष्ठा’ करीने टाळीए छीए..
(१३) प्रभुना दिव्य ध्वनिनी गर्जना
हे सीमंधरनाथ! महाविदेहमां ज्यां तारी ध्वनिनो धोध छूटे त्यां गणधरो झीले ने इंन्द्रो सेवे, तेनाथी
पाखंडीना पाखंड तूटी पडे... जेम सिंह जीवतो होय त्यारे तो बकरां तेनी सामे क्यांथी ऊभा रही शके? जीवतो
सिंह जे मार्गे संचरे ते मार्गना तरणांने हरणीयां खाय नहि. जीवता सिंह सामे तो बकरुं न टकी शके, अने
मरेला सिंहना चामडानुं बनावेलुं नगारुं पड्युं होय ते नगारा पासे बकरानां चामडानुं नगारुं न रही शके...
सिंहना चामडानुं बनावेलुं नगारुं होय तेना उपर ज्यां डांडी पडे त्यां तेना अवाजथी बकराना चामडानुं
बनावेलुं नगारुं फाटी पडे... तेम हे नाथ! हे जिनेन्द्र! तारा प्रताप सामे कोई न टकी शके... ज्यां तारी ध्वनिना
दिव्यनाद छूटे त्यां अज्ञानीओना अज्ञान तूटी पडे.. पाखंडीओनां पाखंड छूटी जाय... कुतर्कीओना कुतर्क नाश
पामे. प्रभु! आवो हो तो जगतमां एक तुं ज छो... तारा शरण विना कोई उपाये पूरुं थाय तेवुं नथी. तारा
समवसरणमां दिव्य दुंदुभी एम पोकार करी रह्यो छे के हे जीवो! तमारा बधा प्रमादकार्यो छोडीने अहीं आवो
अने मोक्षना साथीदार एवा आ भगवाननुं सेवन करो... तेमनो दिव्यध्वनि सांभळीने आत्मानी समजण
करो...
झेर उतारवानो मंत्र
आ समयसारमां तो महामंत्र छे. जेम सर्प डंस मारीने बीलमां गयो होय, तेने
मंत्रवादी मंत्रेली कलम मोकले छे, ते सर्पने बहार काढे छे अने सर्प आवीने झेर चूसी ल्ये छे.
तेम तीर्थंकर भगवाननी दिव्यवाणी आवी, तेमांथी श्री कुंदकुंदाचार्यदेव समयसारनी रचना
करीने, अज्ञान अंधकारमां सूतेला जीवो–के जेने परमां कर्तापणारूप ममताथी मोहरूपी सर्पनुं
झेर चडयुं छे–तेओने अमृत संजीवनीरूप न्याय वचन वडे मंत्रेली कलमो (–गाथाओ)
संभळावी, संसारनी गूफामांथी बहार काढी, तेमनां मोहरूपी झेरने उतारी नाखे छे.
–समयसार प्रवचनो भाग १ पृ. १३४–प
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)