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परमात्मा? आप पूरी परिणति पाम्या छो, अने आपने साथे राखीने अमे पण
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अभिलाषा रह्या करती हती ते भगवान आजे भेटया...
पू. गुरुदेवश्रीना प्रतापे सीमंधरनाथ आजे भेटया...
भक्तोना जीवनाधार भगवान आजे भेटया...
प्रसंग, तीर्थंधाम सोनगढमां, आजथी दस वर्ष पहेलांं वीर सं. २४६७ना फागण सुद
बीजे, सौराष्ट्रना धर्म धूरंधर पू. गुरुदेवश्रीनी छत्रछायामां थयो...सोनगढना
जिनमंदिरमां
अत्रुटधारा...ए बधुं य आजेय भक्तजनोनां हये तरवरी रह्युं छे.
आ मंगळ–महोत्सव प्रसंगे भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक प्रसिद्ध करीने ते
पोताने कृतार्थ माने छे.
मंगलवृद्धि थई छे...अहो! प्रभु! आपना शुं शुं सन्मान करीए? कई रीते आपनुं स्वागत
करीए? हे नाथ! आपना महान स्वागतना आ पवित्र महोत्सवमां साथ पूराववा आ
‘स्वागत–अंक’ आपना चरणे धरीने आपनुं स्वागत करीए छीए... आपनुं बहु बहु
सन्मान करीए छीए..आपने भक्ति–पुष्पोथी वधावीए छीए.
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सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने अंतर रमणतारूप चारित्रदशा ते आत्मानो निज वैभव छे.
समृद्धिना सर्व सामर्थ्यथी हुं आ स्वथी एकत्व अने परथी जुदा आत्माने दर्शावीश. जेम गृहस्थने त्यां
लग्न होय त्यारे जेटली समृद्धि होय तेटली बहार काढे, तेम अहीं समयसारमां मोक्षना मांडवे श्री
कुंदकुंदाचार्य भगवान पोताना सर्व आत्मवैभववडे शुद्धात्मानुं वर्णन करे छे. ‘अहीं पचमकाळ छे, अमे
छद्मस्थ छीए, छतां अमे आत्म–रिद्धि पाम्या छीए, ने पूर्ण ज्ञानी जे कही गया ते ज जगत पासे
स्वानुभव वडे मूकीए छीए. जेटलो अमारो अंतर ज्ञान वैभव प्रगट्यो छे ते सर्वथी, आत्मानुभव रूप
श्रद्धाना पूरा बळथी आ एकत्व विभक्त आत्माने दर्शावीशुं.’
कह्युं छे. अहीं आचार्यदेव सघळी जवाबदारी पोताना उपर राखीने जाहेर करे छे, तेथी जे कहेशे ते क्यांयथी
झडपी लीधुं छे–एम नथी, पण निज वैभवथी स्वानुभववडे आत्मानो अपूर्व धर्म कहे छे अने कहे छे के जेम हुं
मारा निजआत्मवैभवथी कहुं छुं तेम तमे पण तमारा स्वानुभवथी प्रमाण करजो.
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प्रभुनी पंच कल्याणक प्रतिष्ठा थई त्यारे ऊजवायो.
स्मरण करतां आजे पण भक्तजनोनां हृदय भक्तिरसमां भींजाई जाय छे.
पण भगवाननी वीतरागीमूद्रानां पण दर्शन न मळे!’ एम भाव थतां सोनगढमां वीतरागी प्रतिमा स्थापवानुं दील
थयुं...पछी तो भगवानने स्थापवा माटेनी भक्तोनी ए भावना फेलाती फेलाती पू. गुरुदेवश्री पासे पहोंची अने पू.
गुरुदेवश्रीने पण वीतरागी जिनप्रतिमा स्थापवाना भाव थया...ने एकवार पद्मनंदी पचीसीना वांचन वखते
प्रवचनमां जिनप्रतिमा संबंधी एवी वात आवी के ‘जे भव्य जीव नानामां नानुं जिनमंदिर अने जव जेवडा
जिनप्रतिमा बनावे छे तेने पण एवा पुण्यनी प्राप्ति थाय छे के साक्षात् सरस्वती पण तेना पुण्यनुं वर्णन करी शकती
नथी; तो बीजानी तो शुं वात?’ पू. गुरुदेवना श्री मुखेथी ए वात सांभळतां राजकोटना शेठ श्री नानालालभाई
तथा तेमना बंधुओने सोनगढमां वीतरागी जिनमंदिर कराववानी भावना थई... अने तेमना तरफथी जिनमंदिर
बधायुं. ए रीते भक्तोना अंतरनी ऊंडी भावनानां
बीजडां फाल्यां ने खरेखर सोनगढमां सीमंधर भगवान
भेट्या...
उल्लास पूर्वक श्री सीमंधरादि भगवंतोनो ग्राम
प्रवेशोत्सव थयो हतो. भगवान पधार्या... ने पहेली
वखत तेमनी भव्य मूद्रा नीरखतां ज पू. गुरुदेव
भक्तिथी स्तब्ध थई गया... आंखोमांथी आंसु वही
गया. हजी भगवाननी प्रतिष्ठा थई न हती पण पू.
गुरुदेवने एटली बधी लगनी लागी हती के वारे वारे
भगवान पासे जईने बेसता ने दिवसनो
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हती. भगवाननी मूद्रा एटली बधी भव्य हती के गुरुदेवने तो ते जोतां तृप्ति ज थती न हती... वारंवार हरतां
ने फरतां प्रभु पासे जईने बेसतां अने भगवाननी
शांत मूद्रा नीहाळी नीहाळीने कहेतां के–– ‘अहो...
होय सीमंधर जिन... दीठां लोयण आज...’
जोया? चालो... तमने भगवान बतावुं.’ –एम
कहीने ओरडीमां तेडी जईने बतावतां के जुओ,
आ भगवान! आपणे अहीं प्रतिष्ठा थवानी छे ते
आ भगवान छे...
महोत्सव ऊजवायो... जीवनमां पहेली ज वार
पंचकल्याणक प्रतिष्ठानो प्रसंग होवाथी, ने पहेल
वहेला ज भगवान भेटता होवाथी भक्तजनोने
अपूर्व उल्लास हतो... जाणे प्रभुना पंचकल्याणक
साक्षात् ज थता होय एवुं लागतुं हतुं. त्यारे भक्तो होंसथी गाता हता के–
पधार्या छे एम आंगणे रे...’
प्रवचनोमां वारंवार भगवानने याद करतां पू. गुरुदेव
आंसुभीनी आंखे कहेतां... ‘हे भगवान्! आपना विरहमां
आपनी स्थापना करीने विरहने भूलावशुं..!’ दस वर्ष
पहेलांंना ए प्रवचनो आजे पण मुमुक्षु भक्त जनोनां हैयांने
हचमचावी मूके छे ने तेमना रूंवाटे रूंवाटे भक्ति जगाडे छे.
आजे पण तृप्ति थती नथी अने अति प्रमोदित थतां कहे छे
के ‘अहो! शुं कहीए! ए वखते तो पहेली ज वखत
सीमंधरनाथ भगवान! एटले पछी शुं बाकी रहे!’ प्रभु भक्तोना अंतरपटमां कोतराई गयेला ए धन्य
प्रसंगना संस्मरणोनो अंश मात्र आजे दस वर्षे अहीं शब्दारूढ थयो छे.
एवी गंभीरपणे प्रदक्षिणा करतो हतो–जाणे के ते पण
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मानी रह्यो होय! आम तेनी मलपति चाल उपरथी भक्तोने लागतुं हतुं.
आश्चर्यमां पडी जतां... ने पछी ज्यारे खबर पडती के अहो! आ तो भगवानना जन्मनी वधाई! के तरत ज
पाछुं वातावरण उल्लासथी ऊभराई जतुं. अहो! ए प्रसंगो नजरे निहाळनारा तो कहे छे के ते दिवसे अमने
एम ज लागतुं हतुं के आ सोनगढ जाणे के महाविदेह बनी गयुं हतुं अने अहीं ज सीमंधर भगवानना पंच
कल्याणक थता हता.
हतो ते वखते आकाश एवुं विचित्र रंगबेरंगी थतुं हतुं–जाणे के... प्रभुना जन्माभिषेकने देखीने प्रभुना
चरणोमां कोई रंगबेरंगी साथिया पूरी रह्युं होय!
‘हे भगवान! आप तो स्वयंबुद्ध छो... आप तो आपना स्व हस्ते ज केशलोच करो, पण आ तो आपनी
स्थापना होवाथी मात्र अमारो उपचार छे.’
खूलासो करतां कह्युं के ‘भगवान तो हवे मुनि थया.. ने तेओ तो वन जंगलमां विचरी गया... हवे ते
आपणी साथे पीछा नहि आवे..’ त्यारे बधां भक्तो उदासचित्ते पाछा फर्या... भगवान वगर बधाने सूनुं
सूनुं लागतुं हतुं.
प्रसंगनुं भाव भर्युं द्रश्य भक्तोना स्मृतिपटमां आजे य तरवरी रह्युं छे.
लईने प्रभुजीने आहार कराव्यो त्यारे तो जाणे साक्षात् भगवानने आहारदान करता होईए तेवो आहलाद
अंदरमां जागतो हतो. ‘अहो! ते वखतना भावोनी शुं वात करीए?’
लाग्या. अने वाजित्रो लईने समवसरणनी प्रदक्षिणा करवा लाग्या.
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महावीर प्रभुजी हता.)
(शेठश्री नानालालभाई) ना पगमां पडीने आंसुभीनी आंखे कहेता के ‘भाई! आ बधुं तमारा प्रतापे अमने
जोवा मळ्युं छे...’ त्यारे नानालालभाई कहेता... ‘गुरुदेवनो ए बधो उपकार छे.’
हतुं... अने, अहो! प्रतिष्ठित थयेला श्री सीमंधर भगवाने ज्यारे जिनमंदिरमां प्रवेश कर्यो त्यारे तो
गुरुदेव बारणामां ज तेमनुं स्वागत करतां प्रभुजी पासे नमी पड्या... जिनमंदिरना द्वारमां प्रभु पधारतां
ज तेमनाथी साष्टांगनमन थई गयुं.. ते वखते घणा भक्तोना नयनमांथी भक्तिरस वरसतो हतो... जेम
चक्रवर्ती पोते ज्यारे कोईना चरण ते ढळी पडे ने ए द्रश्य तेना सेवकोने निःस्तब्ध बनावी दे... तेम
भगवान श्री सीमंधरनाथनी सन्मुख ज्यारे गुरुदेव बहु भक्तिपूर्वक नमी पड्या त्यारे सौ भक्तजनोए
द्रश्य निःस्तब्ध पणे नीहाळता रही गया... अने कोई जुदुं ज वातावरण छवाई गयुं... खरेखर! आवा
आवा कोईक प्रसंगे भगवान पासे बाळक जेवा बनी जनारा ए महात्माओनां हृदयना भावो कळवा
घणीवार मुश्केल बनी जाय छे. ए खास प्रसंगनुं वर्णन करतां आत्मार्थी भाई श्री हिंमतलालभाई पू.
गुरुदेवश्रीना जीवन चरित्रमां लखे छे के–
भक्तिरसना मूर्त स्वरूप जेवो शांत शांत निश्चष्ट भासवा
लाग्यो. गुरुदेवथी साष्टांग प्रणमन थई गयुं अने
भक्तिरसमां अत्यंत एकाग्रताने लीधे देह एम ने एम बे
त्रण मिनिट सुधी निश्चेष्टपणे पडी रह्यो. आ भक्तिनुं
अद्भुत द्रश्य, पासे ऊभेला मुमुक्षुओथी जीरवी शकातुं
नहोतुं; तेमनां नेत्रोमां अश्रु ऊभरायां अने चित्तमां भक्ति
ऊभराई. गुरुदेवे पोताना परम पवित्र हाथे प्रतिष्ठा पण
भक्ति भावमां जाणे देहनुं भान भूली गया होय एवा
अपूर्व भावे करी हती.’
ज करवानुं मन थया करे छे... एनी मुखमूद्रा पण जाणे के महाविदेहना सीमंधर भगवाननी मूद्राने मळती
आवती होय! –एवुं ज लागे छे. तेमांय ज्यारे चारे बाजु प्रकाश होय त्यारे तो शांतसुधारस
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यात्राळुजनो पोताने कृतकृत्य माने छे. खरेखर––
धराईने दर्शन करवा माटे आ वर्षे तो क्यांय विहार करवो ज नथी.’
जिनमंदिरना उपरना भागमां गीरीनगरना वासी श्री नेमनाथ प्रभुजी बिराजे छे. वीर सं. २४६६ ना फागण
सुद बीजे नेमनाथप्रभुनी कल्याणक भूमि गीरनारनी टोच उपर नेमनाथप्रभुनी भक्ति ने शुद्धात्मानी धून थई
हती.. ने २४६७ ना बराबर फागण सुद बीजे अहीं जिनमंदिरमां नेमनाथ प्रभुजी पधार्या... जाणे के भक्तिए
भगवानने आकर्षी लीधा!
छे भक्तजनोना के परम पूज्य गुरुदेवश्रीना प्रतापे भगवान भेट्या... अने तेओश्रीना ज महान उपकारथी
भक्तजनो भगवानने ओळखता थया... आजे य भक्तजनो गौरवपूर्वक गद्गद् भावे वारंवार कहे छे के...
जीवनमां आपनो परम उपकार छे...
बुद्धिधन वगेरे तरफथी रूा. ७प० श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्टने आपवामां आव्या छे..
अने ए रीते ‘आत्मधर्म’ नी प्रभावनामां साथ आप्यो छे. आ उपरांत ‘श्री कुंदकुंद
श्राविकाशाळा’ ना फंडमां पण रूा. २प१ तेमना तरफथी आपवामां आव्या छे. तेमनी आ
मदद माटे तेमनो आभार मानवामां आवे छे.
शाहे घणी महेनत लीधी छे, ते माटे तेमना आभारनी पण नोंध लईए छीए.
तो पुण्य अने पाप बंने हेय छे’ ए प्रमाणे सुधारीने वांचवुं.
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वीतरागी प्रतिमा पण तीर्थंकर तूल्य छे. जुओ, पंडित बनारसीदासजी कहे छे के– ‘
भगवान तरीके कोण माने? ...तो कहे छे के:–
तरीके स्थापे छे, ने ए रीते भानपूर्वक जिनप्रतिमाने जिनवर तूल्य मानीने दर्शन–पूजनादि करे छे. अहो!
भगवान आवा पूर्ण सर्वज्ञपदने पाम्या ने मारो स्वभाव पण आवो ज छे–आवी भावनाथी पण घणी निर्जरा
थाय छे. भगवान जेवो पोतानो स्वभाव छे एवा लक्ष पूर्वक जे जिनप्रतिमाने जिन–तूल्य माने छे तेने विशेष
भव होता नथी.
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संयोगरूपे तो भगवान घणी वार मळी गया. पण अंतरमां भगवान जेवा पोताना आत्मानुं लक्ष करे तो
खरेखर जिनवर स्वामी मळ्या कहेवाय. श्री कुंदकुंदाचार्य भगवान प्रवचनसारमां कहे छे के–जे जीव अरिहंत
जाय छे. आत्माने वास्तविक तत्त्वज्ञान प्राप्त थवुं अनंतकाळे दुर्लभ छे, अने ए तत्त्वज्ञान पामवानो योग
मळवो पण घणो दुर्लभ छे. साचा देव–गुरु शुं कहे छे ते समजवानो अवसर अनंतकाळे आवे छे. आवा
प्रसंगने बराबर उत्साहथी वधावी लेवो जोईए. बहारनो प्रसंग तो तेना कारणे भजे छे, पण अंदर साची
समजणनो उत्साह जोईए. आत्मानी समजणनी दरकार वगर एकली बहारनी हो–हा करे तेमां कल्याण नथी.
आत्माना भान पछी पण वीतरागी देव–गुरु प्रत्ये बहुमान अने भक्तिनो भाव तो आवे पण ज्ञानी तेने धर्म
न माने, ते शुभरागमां ज सर्वस्व मानीने तेमां अटकी न जाय. अज्ञानीओ तो ते रागमां ज सर्वस्व मानीने,
तेने ज धर्म मानीने त्यां अटकी पडे छे. अष्टाह्निका महोत्सव वखते घणा सम्यग्द्रष्टि देवो पण नंदिश्वर द्वीपे जाय
छे, अने त्यां शाश्वत बिराजमान रत्नमणिना जिनबिंबना दर्शन–पूजन करीने भक्तिथी नाची ऊठे छे.
पासे त्रण ज्ञानधारी एकावतारी सम्यग्द्रष्टि ईन्द्र–ईन्द्राणीओ पण नानी बाळिकानी जेम भक्तिभावथी नाची
ऊठे छे. अंदर चैतन्यबिंब आत्मानुं भान छे, एवी निश्चयनी भूमिका होवा छतां नीचली दशामां तेवो राग
वच्चे आवे छे, ने ते रागना निमित्तभूत वीतरागी जिनबिंब छे. एवा रागने तथा तेना निमित्तने न ज माने
तो ते अज्ञानी छे, अने ते रागथी के निमित्तथी ज धर्म माने तो ते पण अज्ञानी छे. वस्तुस्थिति जेम छे तेम
जाणवी जोईए.
दानश्वेति गृहस्थाणां षट्कर्माणि दिनेदिने।।७।।
सहितनी आ आ वात छे. मुनिओ तो ज्ञान ध्यानमां लीन रहे छे, तेथी तेमनी वात जुदी, पण गृहस्थो तो
अनेक प्रकारना हिंसादि पापमां पडेला छे ते पाप भावथी बचवा देव पूजा वगेरेनो उपदेश छे. ते उपदेशमां
गृहस्थोने आवा प्रकारनो राग होय छे तेनुं ज्ञान कराव्युं छे. धर्म तो अंतरना ध्रुव चैतन्य स्वभावना आश्रये
जे वीतरागीभाव थाय तेमां ज छे. अनादि वीतराग शासननुं आ वर्णन छे. अहीं जेमनी स्थापना थाय छे ते
समजनारा तो रखडी ज रह्या छे एटले तेनी शुं वात करवी? भगवानना पंचकल्याणकमां भगवाने कहेलो
आत्मस्वभाव समजे तो कल्याण थाय. माटे आत्मानो स्वभाव शुं छे तेनी समजण करवी तेनी ज मुख्यता छे,
ने ते ज धर्मनुं मूळ छे.
विकारथी आत्मगुण प्रगटे–एवी ऊंधी मान्यताथी, मोहरूपी भूते अज्ञानी जीवोने वश कर्या छे.
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आ देहदेवळमां चैतन्यस्वरूप भगवान आत्मा रहेलो छे, ते पोते शांति अने सुख स्वभाववाळो छे.
नथी पण विकार छे. जेने आत्मानुं भान नथी ने लक्ष्मी वगेरेमां सुख मान्युं छे ते जीवने लक्ष्मीनी रुचि
होवाथी ते लक्ष्मीवाळानां वखाण करे छे; अने जेने रागरहित आत्मानुं भान छे ने वीतरागता गोठी छे ते जीव
वीतराग परमात्माने ओळखीने तेमनां गुणगान करे छे. जेम घरे लक्ष्मीवाळा बे–पांच मोटा महेमान के राजा
आवे त्यां अज्ञानी लक्ष्मीनी रुचिवाळो तेमनां गुणगान करतां कहे छे के ‘आजे मारे सोनानो सूरज ऊग्यो..’ –
पण त्यां तो मात्र ममतानुं पोषण छे. अहीं वीतरागतानी भावनावाळा भगवानना भक्त कहे छे के धन्य
ओळखीने तेमनां गाणां गाय ते साची भक्ति छे. जेम नाना छ महिनाना बाळकने पैसा शुं कहेवाय तेनी
खबर नथी, तेणे तो फक्त मातानुं दूध भाळ्युं छे एटले तेने लक्ष्मीवाळा उपर प्रेम शेनो आवे? तेम जेणे
आत्माना वीतराग स्वभावने ओळख्यो नथी, वीतराग भगवानने ओळख्या नथी तेने वीतराग भगवान
उपर खरो प्रेम आवतो नथी. जेने वीतरागतानुं भान छे ते तो वीतराग भगवानने जोतां भक्तिथी उल्लसी
जाय छे.
जशे. अंदर आत्मा देहथी भिन्न छे ते कायम टकनार छे. एवा आत्मामां ज सुख छे, तेने भूलीने अज्ञानी जीव
वीतरागदेवनुं बहुमान केम करी शके? देह अने ईन्द्रियो विनानुं साचुं सुख जेमने प्रगटी गयुं छे एवा वीतरागी
परमात्मानुं स्वरूप जाण्या विना तेमना गुणगान थई शके नहि. जेने विषयोमां सुखनी बुद्धि छे ते कदाच भगवान
पासे जशे तो त्यां पण पुण्य अने स्वर्गादिनां वखाण करशे. ‘हे परमात्मा! आप पूर्ण थई गया छो, आपने ज्ञान
अने सुख पूर्ण प्रगटी गयां छे... हुं पण शक्तिए आपना जेवो परिपूर्ण होवा छतां हजी अवस्थाए अधूरो छुं... मारुं
सुख मारा स्वभावमां भर्युं छे ते प्रगट करवा, आपनी पूर्णतानुं अनुमोदन करतां... तेनां गाणां गातां... संसारनो
प्रेम तोडीने वीतरागता वधारीश.’ ––जेने आवुं ज्ञान होय ते ज वीतरागप्रभुनी साची स्तुति करे छे.
जुओ, अहीं श्री सीमंधर परमात्मानी प्रतिष्ठा थवानी छे. ते सीमंधर परमात्मा अत्यारे महाविदेह
नथी. ए रीते राग–द्वेष–रहित ज्ञानस्वभावनी मर्यादाने भगवाने धारण करी छे अर्थात् भगवानना आत्माने
उत्कृष्ट ज्ञानदशा प्रगटी छे. भगवान जेवो पोताना आत्मानो स्वभाव ओळखवो तेने भगवाननी स्तुति
कहेवाय छे. भगवाननी स्तुति कहो के भगवानना गुणगान कहो. ‘हे नाथ! आपना जेवी पूर्णदशा मारामां
प्रगटी नथी, परंतु हे प्रभो! जेटलुं सामर्थ्य आपनामां छे तेटलुं ज परिपूर्ण सामर्थ्य मारामां भर्युं छे, तारा जेवा
मारा स्वभावमां एकाग्र थतां मारो राग टळे ने सुख मळे... ए रीते हुं पण पूर्ण परमात्मा थईश.’ आनुं नाम
भगवाननी भक्ति! जेने आवुं भान नथी ते
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अहीं पद्मनंदी पचीसीना आ अधिकारमां आचार्यदेवे श्री शांतिनाथ भगवाननी स्तुति करी छे. तेमां
यस्योपर्युपरीन्दुमण्डलनिभं छत्रत्रयं राजते।।
अश्रांतोद्रतकेवलोज्वलरुचा निर्भर्सितार्कप्रभं।
सोऽस्मान् पातु निरंजनो जिनपतिः श्री शांतिनाथः सदा।।
सर्व पापथी रहित छे एवा श्री शांतिनाथ भगवान सदा अमारी रक्षा करो.
तेम ज बीजा लाखो–करोडो जीवोने कल्याणमां निमित्त थाय एवा तीर्थंकर थनारा जीवो तो बहु थोडा होय छे.
भरतक्षेत्रमां छेल्ली चोवीसीमां श्री शांतिनाथभगवान सोळमा तीर्थंकर थया. अत्यारे तो तेओ मोक्षदशामां सिद्धपणे
बिराजे छे. पण ज्यारे तेओ आ भरतक्षेत्रमां तीर्थंकर पणे विचरता हता त्यारनो उपचार करीने श्री आचार्यदेव
तेमनी स्तुति करे छे.
त्रणलोकना नाथ छो... त्रणलोकमां सारमां सार होय तो ते अनंतज्ञानने पामेलो आपनो आत्मा ज छे. ए
सिवाय देह–मन–वाणी के ईन्द्रियविषयो ते कोई आ जगतमां उत्तम नथी.
पितानी स्तुति
महावीर भगवानना
पंचकल्याणक थशे; तेमां
घणुं आवशे. ज्यारे
गर्भकल्याणक थशे त्यारे
ईन्द्रो आवीने भगवानना
माता–पितानी स्तुति
करतां कहेशे के अहो! धन्य
माता! ने धन्य पिता! हे
माता! तमे जगतना
माता छो. तमारी
उज्जवळ कूंखे छ महिना
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आत्मा स्वर्गादिमां होय, ने त्यांनुं आयुष्य छ महीना बाकी रहेतां ज्यां तीर्थंकरना भवनुं आयुष्य बंधाय त्यां
तो ईन्द्रोना आसन चळे अने इंद अवधि ज्ञानथी जुए के आ शुं!! अहो! त्रिलोकनाथ तीर्थंकरभगवान छ
महिना पछी आ मातानी कूखे पधारवाना... एम जाणीने ईन्द्रो पण तीर्थंकरप्रभुना माता पितानी प्रशंसा करे
जे छीपमां पडे ते छीपुं पण जुदी जातनी होय ने तेमांथी किंमती रत्न पाके. तेम त्रिलोकनाथ तीर्थंकरनो आत्मा
जेने त्यां अवतरे ते मातापिता पण अल्पकाळे मोक्षगामी होय छे. साधारण घरे भगवान अवतरे नहि.
भगवान बाळकपणे जन्मे त्यारे ईन्द्रो तेमनी सामे भक्ति करे.. तो पछी केवळज्ञान थाय त्यारे
तत्त्वज्ञाननो सीधो विरोध न करी शके. मुनिवरो पण सर्वज्ञवीतराग भगवाननुं स्तोत्र बनावीने अंतरमां
पोतानी वीतरागताने घूंटे छे. ईन्द्रो तो स्तुति करे ज छे ने मुनिवरो पण भगवाननी स्तोत्र बनावीने अंतरमां
पोतानी वीतरागताने घूंटे छे. ईन्द्रो तो स्तुति करे ज छे ने मुनिवरो पण भगवाननी स्तुति करे छे. अहो!
ओळखीने, ‘मारे पण आवुं सर्वज्ञपणुं अने वीतरागता ज आदरणीय छे, बीजा कोई रागादि भावो आदरणीय
नथी’ –एवी श्रद्धा अने ज्ञान करतां कर्मनां तो खोखां ऊडी जाय छे. रागरहित स्वभावनुं भान थवा छतां
अस्थिरतानो अल्प राग रहे ते रागथी ऊंचा पुण्य बंधाई जाय छे, पण धर्मीने ते रागनी भावना नथी. घणुं
अनाज पाके त्यां साथे घास पण थाय, पण खेडुतनी द्रष्टि अनाज उपर होय छे तेम साधक भूमिकामां रागने
लीधे पुण्य थई जाय पण धर्मात्मानी द्रष्टि रागरहित स्वभाव उपर होय छे.
एवी ओळखाण करवी ते भगवाननी साची स्तुति छे.
ते कदी अस्त पामे नहि. हे प्रभो! आपना आवा त्रिकाळीज्ञानना महिमा पासे चार ज्ञाननो पण महिमा
अमने लागतो नथी, तो रागादिनो आदर तो होय ज क्यांथी? केवळज्ञानमां एक समयमां त्रण काळ त्रण लोक
जणाय छे. आ आत्माने सारमां सार वस्तु होय तो ते केवळज्ञान छे. हे नाथ! मने सम्यक्मति–श्रुतज्ञान छे
पण मारी मीट केवळज्ञान उपर छे. अंदर पूर्ण स्वभाव शक्ति पडी छे तेनुं भान छे, ने ते शक्तिमां लीन थईने
पूर्ण केवळज्ञान प्रगट करवानी भावना छे... आ अल्पज्ञान वर्ते छे तेनो महिमा नथी. –आम स्तुति करतां
आचार्यदेव कहे छे के ‘श्री शांतिनाथ भगवान अमारी रक्षा करो’ भक्तिमां तो निमित्तथी बोलाय, पण तेनो
मारी जे वर्तमानसाधक अवस्था छे तेमांथी हुं पाछो न पडुं ने स्वभावद्रष्टिना जोरे अप्रतिहतपणे आगळ ज
वधीने पूरो थाउं–एवी भावनाथी स्तुतिकार निमित्तथी कहे छे के हे शांतिनाथ भगवान! आप अमारी रक्षा
करो.
भगवान पासे जे जीव शरीरनुं रक्षण करवानी भावना करे छे तेने तो अशुभभाव छे; कोई कहे के शरीर
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नथी. शरीरमां रोग–निरोग अवस्था थवी ते तेने आधीन छे, ने अंदर आकुळता के शांति करवी ते आत्माने
आधीन छे.
उत्तर:– हा, आत्मा अनंतबळनो धणी छे ए वात साची, पण ते बळ पोतामां के परमां? आत्मानी
एवी मान्यता ते महा मूर्खता छे, जड–चेतनना जुदापणानुं पण तेने भान नथी. पोतामां अनंतज्ञान, सुख
वगेरे प्रगट करवानी अनंत शक्ति आत्मामां छे, पण शरीरादिमां फेरफार करवानी आत्मामां जरापण शक्ति
नथी. भगवान पासे पोताना अनंत केवळज्ञाननी भावना करवाने बदले शरीरनी ने पुण्यनी भावना करे तो
तेने साची भावना करतां ज नथी आवडयुं. जेम चक्रवर्ती राजा प्रसन्न थईने कहे के ‘मांग... मांग, तुं जे माग
चैतन्यचक्रवर्ती भगवानमां केवळज्ञान आपवानी ताकात छे. तेने बदले भगवान पासे जईने कोई एवी
भावना करे के हे भगवान! शरीर सारूं राखजो ने पुण्य आपजो...’ तो ते मूर्ख छे, जेने जडनी अने रागनी
भावना छे ते भगवाननो भक्त नथी... वीतरागनो दास नथी, ते आत्मानो दास नथी पण जडनो दास छे.
जेने पोतानी पूर्णतानी भावना छे ते सर्वज्ञपरमात्मानी पूर्णताने ओळखीने तेमनी स्तुति करे छे. अहीं
भगवानना केवळज्ञाननी स्तुति करी. हवे बीजा श्लोकमां देवदुंदुभीनुं वर्णन करीने भगवानना केवळज्ञाननी
स्तुति करे छे––
–एतद्धोषतीव यस्य विबुधैरास्फालितो दुन्दुभिः
सोऽस्मानू पातु निरंजनो जिनपतिः श्री शांतिनाथः सदा।।२।।
त्रिलोकपति परमदेव श्री शांतिनाथ भगवान ज छे, अने समस्ततत्त्वोनुं वर्णन करनारा तेमना ज वचनो
सज्जनोने मान्य छे; ए सिवाय बीजुं तो कोई समस्त पदार्थोने जाणनार, उत्कृष्ट के त्रिलोकपति नथी तेम ज
तेनां वचन संमत नथी.’ एवा निरंजन श्री शांतिनाथ भगवान अमारी रक्षा करो.
हे प्रभु! सत्पुरुषोने एक तारु ज शरण छे... प्रभु! तुं ज सर्वज्ञ वीतराग छो.. जुओ, भगवानना
धर्मसभामां देवदुंदुभी–नगारां वागे छे. बापु! आ प्रत्यक्ष वगेरे प्रमाणथी सिद्ध छे. जगतना नाना गजमां आ वात
झट न बेसे, तेनो कल्पनानो गज तो खोटो पडे.. पण आ गज खोटो पडे तेम नथी. हे भगवान! तारा दुंदुभीना
नादमां अमने तो एवुं ज संभळाय छे के– ‘अरे! मनुष्यो ने देवो! –जगतना जीवो! तमारे शरणभूत होय तो आ
शांतिनाथ भगवान बिराजे छे ते ज छे, त्यां आवो.. अने तेमनां ज वचन सांभळो... केम के त्रण लोकनुं ज्ञान होय
तो तेमने ज छे. स्तुतिकार कहे छे के हे नाथ! आ नगारानो नाद आपनी सर्वज्ञतानो ज पोकार करी रह्यो छे. हे
वचनो ज संमत करो... त्रण लोकना नाथ ने परम देवाधिदेव होय तो आ सीमंधर भगवान छे... शांतिनाथ
भगवान छे. तमारे जो सर्वज्ञवीतराग पद जोईतुं होय तो अहीं आवो..
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ते प्रभुता प्रगटवानुं कारण छे.
आत्मा ज्ञानस्वभाव छे... त्रण काळ त्रण लोकने जाणे तेवुं एक एक आत्मामां सामर्थ्य छे... तेनुं भान
तेमने स्त्री नथी, वस्त्र नथी, शस्त्र नथी. तेमनी धर्मसभामां दिव्यनगारुं वागे छे ते कहे छे के: ‘...जेने आत्मा
जो’ तो होय.. जेने अशांति टाळीने शांतिना कुंडमां न्हावुं होय... आत्माना अनंत सागरमां रसबोळ थवुं
होय... सुखमां तरबोळ थवुं होय... ते जीवो अहीं भगवाननी धर्मसभामां आवो ने तेमनी वाणी समजो.. जेने
चैतन्यभगवानने भेटवुं होय ते आ भगवान पासे आवो. आवो रे आवो! धर्मसभामां, आत्माने ओळखीने
अनंत काळनी भूख भांगवी होय ने स्वरूपसंयम मेळववो होय.. दुःख टाळवुं. होय ने शांति जोईती होय तो.’
–आम भगवाननुं दुंदुभीनगारुं पोकार कर छे... अने भगवानना समवसरणमां अनेक संतो–मुनिओ,
जंघाचरणादि ऋद्धिधारक मुनिओनां टोळेटोळां, देवो ने विद्याधरो आकाश मार्गे आवी आवीने दर्शन करे छे.
जंगलमां त्राड पाडता सिंह वगेरे तीर्यंचो पण भगवान पासे आवीने शांत थई बेसी जाय छे. पहेलांं
सर्वज्ञभगवान केवा होय ते ओळखवुं जोईए. जेना हाथमां कांई शस्त्र होय तो तेने कोई प्रत्ये वेरबुद्धि छे एटले
ते वीतराग नथी, बाजुमां स्त्री राखी होयने ब्रह्मचारी पण थयो नथी. तो ते भगवान क्यांथी होय? जे हाथमां
माळा गणतो होय ते कोईनी स्तुति करे छे एटले ते पण पूरो नथी, अधूरो छे. जे पोते रागी ने अपूर्ण होय ते
बीजाने पूर्णतानुं कारण केम थाय?–एटले ते देव न होय. वळी जे वस्त्र राखे तेने शरीर उपरनो राग टळ्यो
नथी एटले ते पण देव न होय.
सीमंधरनाथ पासे! भगवानना केवळज्ञाननी प्रतीत करनारने खरेखर पोताना पूर्ण ज्ञानस्वभावनी प्रतीत
थाय छे.
अहीं स्तुतिमां आचार्यदेवे ए वात सिद्ध करी छे के आत्मामां केवळज्ञान सामर्थ्य छे अने त्रणकाळ
भगवानने देह उपर वस्त्रादि त्रणकाळ त्रणलोकमां होतां नथी. अहो, आवी पूर्ण परमात्मदशाना साधक एवा
संतमुनिओने पण वस्त्र न होय, वस्त्रसहित तो मुनिदशा पण न होय, तो पछी पूर्णदशा पामेला त्रणलोकना
नाथ एवा परमात्माने तो वस्त्रादि शेनां होय? आ कोई वाडानी वात नथी पण वस्तुना स्वरूपनी वात छे.
घरमां हजारो स्त्रीओना संगमां रहेतो होय अने कोई कहे के मने स्त्री वगेरेनो जराय राग नथी,–तो ए केम
बने? राग टळ्यो होय तो रागना निमित्तो पण टळी ज जाय. जेम बदाममां अंदरनुं रातुं फोतरुं नीकळी जाय
तो उपली छाल पण नीकळी ज गई होय. तेम निर्मळ आनंदघन आत्मस्वभावमां लीन थईने जेणे अंदरथी
रागरूपी रातपने काढी नांखी तेने बाह्यमां वस्त्र–स्त्री–आदि रागनां निमित्तो पण छूटी ज जाय छे. अरिहंतदेव
अने निर्ग्रथ गुरुनुं स्वरूप शुं छे ते जाण्या विना घणा बोले छे के ‘अरिहंतदेव अने निर्ग्रंथ गुरुनुं शरण
भवोभव होजो.’ पण अरे भई! अरिहंतदेव अने निर्ग्रंथ गुरु केवा होय तेना भान वगर तुं शरण कोनुं
लईश? ओळखाण तो कर, ओळखाण वगर तने साचुं शरण नहि मळे. रागरहित भगवानने जाण्या वगर
तारो पोतानो आत्मा रागरहित केवो छे ते पण ओळखाय नहि अने तेनी ओळखाण वगर आत्माने साचुं
शरण थाय नहि. अरिहंतदेव तो व्यवहारशरण छे, परमार्थशरण तो पोतानो आत्मा ज छे, हजी जेने
अरिहंतनुंय भान नथी ते पोताना आत्मानुं शरण तो क्यांथी लेशे? जेने बाह्यमां रागा–
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जे देव तरीके माने छे तेने अरिहंतप्रभुनो आदर नथी. जे पोते रागमां वर्ती रह्या छे ते तो पोते ज अशरण छे,
तो ते बीजाने शरणभूत क्यांथी थाय? माटे स्तुतिकारे कह्युं के हे नाथ! देवाधिदेव सर्वज्ञ तो आप ज छो, संतोने
आपनुं ज शरण छे. अहो! अत्यारे महाविदेहमां तो गणधरो ने ईन्द्रो, संतो अने चक्रवर्तीओ सीमंधर प्रभुनो
अहीं तो भगवाननो विरह छे...छतां जे जीव भाव करे तेने भाव तो पोतामां छे ने! पोताना भावनो लाभ
पोताने छे.
कोई श्रोताजन कहे छे के हे नाथ! अमारे तो आजे अहीं ज सुवर्णपुरी बनी गई...अहीं ज अमारे
(–धर्मवृद्धि) थशे...जेनां भाग्य हशे ते जोशे...जे थाय छे ते अत्यारे जोई रह्या छे. अहो! आवा पंचकल्याणकना
वात करीए? साधारण प्राणीने आ वात न बेसे, पण प्रतीत करीने मानजो...ज्ञानीना गज जुदा होय छे,
अज्ञानीना गजे माप न आवे. वळी अत्यारे देश–काळ टूंका अने विषयकषायमां डूबेलां जीवोनी वृत्ति पण टूंकी,
तेने भगवाननी कल्पना पण शुं आवे? जेम
बापे प० हाथनो ताको लावीने घेर राख्यो होय,
नानो छोकरो पोताना नाना हाथथी मापीने कहे
के ‘आ तो १०० हाथनो छे, माटे बापा भूल्या
हशे!’ पण बाप तेने कहे छे के भाई! तारा
हाथनुं माप अमारा लेवड–देवडना व्यवहारमां
अज्ञानीनी कल्पनामां न आवे, पण तेथी
ज्ञानीनी वात खोटी नथी. वस्तुनुं स्वरूप समजे
तो बधी वात अंतरमां बेसी जाय...बापु!
अणसमजणे क्यांय आरा आवे तेम नथी. अरे!
अनंतकाळे आ मोंघो मनुष्यभव मळ्यो, वळी
आवा देव–गुरु भेट्या, सत् समजीने कल्याण
करवानां टाणां आव्यां छे; देवने दुर्लभ एवा
आवे! आजे शुक्रवार... ने सामा शुक्रवारे
भगवाननी प्रतिष्ठा जुओ, आ शुक्रवारे दाळिया
थवाना छे...आत्मानुं दाळदर टाळवुं होय तेने
टळी जशे. जुओ तो खरा, कुदरत शुं करे छे!
लोकोमां बोले छे के कांई ‘शकरवार’ थाय तेम छे
एटले के कांई आपणा दाळिया थाय तेवुं छे? तो
कहे छे के–हा, अहीं शुक्रवारे दाळिया थवाना छे...
दाळदर टळवानां छे...त्रिलोकनाथ भगवान
शुक्रवारनुं आव्युं छे. भगवान पोते साक्षात् न आवे पण ते त्रिलोकनाथ
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के जे भगवाननी यथार्थ ओळखाण करे तेने भव न रहे...जन्म–मरण त्रणकाळमां न रहे...भगवानने ओळखीने
तेनां गाणां गाय तेने त्रणलोकमां भवमां रखडवानी शंका न रहे. वळी भगवाननी प्रतिष्ठाना दिवसे बीज छे.
जेम चंद्रनी बीज ऊगी ते वधीने पुनम थाय ज...तेम आ भगवानने ओळखीने तेमनी पोताना आत्मामां जे
चंद्र ऊग्यो ते वधीने पूर्णिमा–केवळज्ञान थया विना रहे नहीं. वळी उपरना भागमां श्री नेमनाथप्रभुनी प्रतिष्ठा
थशे, तेमां पण कुदरतनो केवो मेळ छे? जुओ, गया वर्षे, नेमनाथ प्रभुनी कल्याणक भूमि गीरनार पर्वत उपर
समश्रेणीनी टूंके बराबर फागण सुद बीजे हता...ने अहीं आ वर्षे बराबर फागण सुद बीजे ज सवारे श्री
नेमनाथ भगवाननी प्रतिष्ठा थशे... समश्रेणीनी टूंके भगवाननी भक्ति अने आत्मानी धून करीने ज्यारे नीचे
आव्या त्यारे लोको होंशथी एम कहेता हता के ‘अमे तो जाणे मोक्षमां जई आव्या...तेवुं लागे छे.’ त्यां जे दिवस
हतो ते ज दिवसे अहीं भगवाननी प्रतिष्ठा थशे...मांगळिकमां बधो मेळ कुदरते थई जाय छे.
श्री जिनेन्द्र भगवाननी प्रतिष्ठानो आवो योग महाभाग्य होय तेने मळे छे. शास्त्रमां प्रतिष्ठा
पासे आवेली आ लक्ष्मी कूलटा स्त्री समान अनित्य छे, ए लक्ष्मी क्यारे वही जशे तेनो भरोसो नथी.
तेथी हुं श्री वीतराग भगवाननी प्रतिष्ठा करावीने तेनो सदउपयोग करवा मांगु छुं; माटे मने आज्ञा
आपो.–एम आज्ञा लईने ते जीव भगवाननी प्रतिष्ठा करावे छे. श्री गुरु तेने कहे छे के तारुं जीवन धन्य
छे! भगवाननी प्रतिष्ठा थतां भक्तो कहे छे के अहो! आ वीतरागदेव पधार्या...आजे अमने भगवान
भेट्या...जेने अंतरमां पूर्णानंद परमात्म स्वभावनुं लक्ष थयुं होय, ने बहारमां निमित्त तरीके साक्षात्
परमात्माने न भाळे त्यारे ते प्रतिमामां प्रभुनी प्रतिष्ठा करे छे. हे नाथ! तारा वियोगमां तारी प्रतिष्ठा
करीने तने अमारा अंतरमां पधरावीए छीए.
लीधो दुःसम काळ...
जिन पूरवधर
विरहथी रे. दुलहो
साधन चालो रे...
चंद्राननजिन...
नाथ! आ
भरतक्षेत्रे तारा
विरह पड्या छे.
अहो! महाविदेहमां
जेना चरणनी सो
सो ईन्द्रो सेवा
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वियोग पड्यो...हे प्रभो! तारा आ जातना विरहथी अमारो काळ जाय छे...हे सीमंधर नाथ...तारो साक्षात्
पतिनो–विरह छे ते अहीं प्रतिष्ठा करीने टाळशुं हे नाथ! ज्यां आप साक्षात् बिराजो त्यां अमारा अवतार
नहि...अमे आपनाथी दूर पड्या तो पण हे स्वामी! अमे अमारा आत्मामां आपनी प्रतिष्ठा करीने अमारुं पूरुं
त्रणलोकमां फरे तेम नथी,–जेने माटे ईन्द्रा, गणधरो ने तीर्थंकरो साक्षी छे. अहीं जेवो आत्मस्वभाव कहीए
छीए तेवो एकवार पण समजे तो एवुं अपूर्व ज्ञान प्रगटे के बस! भवनो अंत आवी जाय. अहो! आवी
परम सत्य वात, आत्म कल्याणनी अपूर्व वात! पामर जीवो तेनो विरोध करी रह्या छे, धर्मना नामे हळाहळ
थई रह्युं छे.. ज्यां जुओ त्यां घणो फेरफार छे...धर्मनो यथार्थ मार्ग भूलीने कोई कांई माने ने कोई कांई माने..
जेने जेम फावे तेम मनावी रह्या छे... हे नाथ! तीर्थंकरना विरहे भरतक्षेत्रमां जुदा जुदा अभिप्राय थई गया...
परंतु हे प्रभु! आपना प्रतापे अमारा नीवेडा आवी गया...पार आवी गयो...आपना प्रतापे बधा नीवेडा अने
हे नाथ...आपनी दिव्य वाणीनो धोध छूटतो हतो अने त्यां तो अनेक संतो केवळज्ञान पामता... तेने बदले
अहींना प्राणीमां तो अल्प पुण्य ने अल्प पुरुषार्थ? छतां य–भले ने ते अल्प होय परंतु केवळज्ञानने
ओळखीने तेनी श्रद्धा छे ने! एटले ते पुरुषार्थ अल्प होवा छतां केवळज्ञान साथे संधिवाळो छे, एटले वच्चे
भंग पड्या विना पूर्ण केवळज्ञाननो भेटो थये छूटको! ते त्रणकाळ त्रणलोकमां न फरे... हे नाथ! पूर्णतानो संदेह
नथी.. पण अधूरे आंतरा पड्या पड्या छे.. ते आंतरो अत्यारे तो आपनी ‘प्रतिष्ठा’ करीने टाळीए छीए..
हे सीमंधरनाथ! महाविदेहमां ज्यां तारी ध्वनिनो धोध छूटे त्यां गणधरो झीले ने इंन्द्रो सेवे, तेनाथी
मरेला सिंहना चामडानुं बनावेलुं नगारुं पड्युं होय ते नगारा पासे बकरानां चामडानुं नगारुं न रही शके...
सिंहना चामडानुं बनावेलुं नगारुं होय तेना उपर ज्यां डांडी पडे त्यां तेना अवाजथी बकराना चामडानुं
बनावेलुं नगारुं फाटी पडे... तेम हे नाथ! हे जिनेन्द्र! तारा प्रताप सामे कोई न टकी शके... ज्यां तारी ध्वनिना
दिव्यनाद छूटे त्यां अज्ञानीओना अज्ञान तूटी पडे.. पाखंडीओनां पाखंड छूटी जाय... कुतर्कीओना कुतर्क नाश
पामे. प्रभु! आवो हो तो जगतमां एक तुं ज छो... तारा शरण विना कोई उपाये पूरुं थाय तेवुं नथी. तारा
समवसरणमां दिव्य दुंदुभी एम पोकार करी रह्यो छे के हे जीवो! तमारा बधा प्रमादकार्यो छोडीने अहीं आवो
अने मोक्षना साथीदार एवा आ भगवाननुं सेवन करो... तेमनो दिव्यध्वनि सांभळीने आत्मानी समजण
तेम तीर्थंकर भगवाननी दिव्यवाणी आवी, तेमांथी श्री कुंदकुंदाचार्यदेव समयसारनी रचना
करीने, अज्ञान अंधकारमां सूतेला जीवो–के जेने परमां कर्तापणारूप ममताथी मोहरूपी सर्पनुं
झेर चडयुं छे–तेओने अमृत संजीवनीरूप न्याय वचन वडे मंत्रेली कलमो (–गाथाओ)