Atmadharma magazine - Ank 089
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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: १०८ : आत्मधर्म : ८९
धन्य निहाळुं सिमंधरनाथने रे!
(भेटे झूले छे तलवार... ए राग)
आज पधार्या जिननाथ... जिनधाम सोहे सोहामणा...
आज पधार्या सीमंधरनाथ... सुवर्णधाम सोहे सोहामणा..
जिनमंदिरे वाजिंत्रो छवायां.. जिनद्वारे तोरण बंधाय... जिनधाम...
साक्षात् सीमंधरनाथ अहो आंगणे... चितडुं हरखी जाय... जिनधाम..
मनहर मूरत जिनेश्वरदेवनी... प्रशांतकारी देदार... जिनधाम...
जिनेश्वरदेवने नयने निरखतां.. आतमने निरखाय... जिनधाम..
रगरगमां जिनभक्ति प्रगटतां... सहु सिद्धि चैतन्यमां थाय... जिनधाम..
स्वयंभु विभु स्वयंप्रकाश छो... ज्ञानेश्वर भगवान... जिनधाम...
अशेषनाणी कल्याणकारी... सर्व विभाव विमुक्त... जिनधाम...
सरवंगे सरव ज्योत जागी... यिद् रमे चिद्मांही... जिनधाम...
नव परम केवल लब्धि मंडीत... निराहार निरंजनदेव... जिनधाम...
स्थिवर महेश्वर ज्येष्ट जिननाथ छो... अग्रेसर अर्हंत... जिनधाम...
चैतन्यनाथ देखुं अहो आंगणे... चौद ब्रह्मांड आधार... जिनधाम...
भरतक्षेत्रमां विरह हता जिनना... आजे भेट्या भगवान... जिनधाम...
कई विध पूजुं स्तवुं हुं तुजने... आंगणे पधार्या जिननाथ... जिनधाम...
नाचुं गाउं ने शुं रे करुं हुं... नजरे निहाळुं सीमंधरनाथ... जिनधाम...
गुरु प्रतापे जिनेंद्रदेव देख्या... मन वांछित सिद्धया आज... जिनधाम...
गुरुदेवे जिनस्वरूप बताव्या... बताव्या आत्मस्वरूप... जिनधाम...
देवगुरुनी महिमा अपार छे... तुज भक्ति हो दिनरात... जिनधाम...
(भगवान श्री सीमंधर जिन–स्वागत अंक)

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आज मारा हृदयमां आनंदसागर उच्छले....
जिनचन्द्रना दर्शन वडे, संताप सवि स्हेजे टले।। ।।रामनो संगम थये जे हर्ष पामे जानकी...
कळीकाळमां जिनदेवनुं दर्शन जीवन आधार छे.... तेवी ज रीते भविकने, जिनदेवना दर्शन थकी।। ।।
पामशे जे शुद्ध भावे, तरी जशे संसार ते.।। ।।श्री गुरु वचनामृत सुणी जाण्युं अमे जिनदर्शने...
भव वने भमतां थकां भूला पडेला मार्गमां... आत्म जागे, पाप भागे, सिद्धनी पदवी मळे।। ।।
दर्शनरूपी दीपक लई, जाशुं अमे अपवर्गमां.।। ।।

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आत्मार्थीना मनोरथ गर्भित
श्री सद्गुरु स्तुति
(हरिगीत)
संसारसागर तारवा जिनवाणी छे नौका भली,
ज्ञानी सुकानी मळ्‌या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यराशि फळ्‌यो अहो! गुरु कहान तुं नाविक मळ्‌यो.
(अनुष्टुप)
अहो! भक्त चिदात्माना, सीमंधर–वीर–कुंदना!
बाह्यांतर विभवो तारा, तारे नाव मुमुक्षुनां.
(शिखरिणी)
सदा द्रष्टि तारी विमळ निज चैतन्य नीरखे,
अने ज्ञप्तिमांही दरव–गुण–पर्याय विलसे;
निजालंबी भावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो, वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
(शार्दुलविक्रीडित)
हैयुं ‘सत सत, ज्ञान ज्ञान’ धबके ने वज्रवाणी छुटे,
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके, परद्रव्य नातो तुटे;
–रागद्वेष रुचे न, जंप न वळे भावेंद्रिमां–अंशमां,
टंकोत्कीर्ण अकंप ज्ञानमहिमां हृदये रहे सर्वदा.
(वसंततिलका)
नित्ये सुधाझरण चंद्र तने नमुं हुं,
करूणा अकारण समुद्र तने नमुं हुं;
हे ज्ञानपोषक सुमेध! तने नमुं हुं,
आ दासना जीवनशिल्पी! तने नमुं हुं
(सग्धर)
ऊंडी ऊंडी, ऊंडेथी सुखनिधि सतना वायु नित्य वहुंती,
वाणी चिन्मूर्ति! तारी उर–अनुभवना सूक्ष्मभावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी,
खोयेलुं रत्न पामुं,–मनरथ मननो; पूरजो शक्तिशाळी!
– आत्मार्थी विद्वान भाई श्री हिंमतलाल जे. शाहे व्यक्त करेल भावना, मागसर वद १३