Atmadharma magazine - Ank 092
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration).

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९२
: संपादक :
वकील रामजी माणेकचंद दोशी
खेडूतनी जिज्ञासा
जीव अज्ञानने लीधे अनादिकाळथी अवतारमां बळदनी जेम दुःखी थई रह्यो
छे; छतां तेनाथी छूटवानी जिज्ञासा पण मूढ जीवने थती नथी. नाना गामडामां एक
खेडूत पूछतो हतो के ‘महाराज! आत्मा अवतारमां रझडे छे, ते रझडवानो अंत आवे
ने मुक्ति थाय, एवुं कंईक बतावो!’ आवो जिज्ञासानो प्रश्न पण कोईकने ज ऊठे छे.
आवा मोंघा टाणां फरी फरीने मळतां नथी, माटे जिज्ञासु थई, अंतरमां मेळवणी
करीने साचुं आत्मस्वरूप शुं छे ते समजवुं जोईए; केमके जे शुद्ध आत्माने ओळखे छे
ते ज शुद्धात्मानी प्राप्ति करे छे.
–प्रवचनमांथी