Atmadharma magazine - Ank 093
(Year 8 - Vir Nirvana Samvat 2477, A.D. 1951)
(Devanagari transliteration). Entry point of HTML version.

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आत्मधर्म
वर्ष ०८
सळंग अंक ०९३
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001 Sept 2005 First electronic version.

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वर्ष ८ मुं, अंक नवमो, अषाढ २४७७
९३
: संपादक:
वकील रामजी माणेकचंद दोशी
... तो मनुष्यपणुं शुं
कामनुं?
कोई कहे–‘आत्मानी झीणी वात अमने न समजाय.’ पण भाई! आत्मानी वात न
समजाय एम कहे तो अनंतकाळे महा दुर्लभ मनुष्यपणुं मळ्‌युं शुं कामनुं? आत्माना
भान विना जगतमां कैंक कूतरां, अणशियां जन्मे–मरे छे, तेनो महिमा नथी. तेम
अनंतकाळे महान दुर्लभ मनुष्यपणुं पामी अपूर्व आत्मस्वभावने सत्समागम वडे न
जाणे तो तेनी कांई किंमत नथी; अने जो पात्रता वडे आत्मस्वभावने जाणे तो ते
ज्ञाननो महिमा अपार छे.
(पृ. १६)
जेटलो काळ परने माटे गाळे छे तेटलो काळ जो स्वने माटे गाळे तो कल्याण थया
विना रहे नहीं. भाई रे! अनंतकाळे महादुर्लभ मनुष्यपणुं मळ्‌युं, तेमां कल्याण न कर्युं
तो क्यारे करीश?
–समयसार प्रवचनो १, पृ. ९०.

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सुवर्णपुरी समाचार
(सोनगढ : जेठ वद ८)

• परम पूज्य गुरुदेवश्री सुखशांतिमां बिराजे छे.
• हाल सवारे प्रवचनमां श्रीप्रवचनसारजी वंचाय छे; तेमां छेल्ला भागमां वर्णवेल ४७ नयोनुं स्वरूप
वंचाय छे. थोडा दिवसोमां श्री प्रवचनसार पूरुं थशे; त्यारपछी श्रीकार्तिकेयानुप्रेक्षा प्रवचनमां वंचाशे.
कार्तिकेयानुप्रेक्षा बे हजार वर्ष करतां य वधारे पुराणुं शास्त्र छे. अने तेमां बार वैराग्य भावनाओनुं उत्तम
वर्णन छे.
• बपोरना प्रवचनमां श्री समयसारजी (नवमी वखत) वंचाय छे; तेमां हाल निर्जरा अधिकार वंचाय
छे. आ उपरांत भक्ति, रात्रिचर्चा वगेरे कार्यक्रम हंमेश मुजब चाले छे.
• हाल प्रेसमां मुख्य श्री नियमसार शास्त्र अक्षरश: गुजराती अनुवाद सहित छपाय छे. अनुवादकार्य
थोडा वखतमां पूरुं थशे. आ शास्त्रनी १८७ गाथाओ छे, तेमांथी लगभग १प० गाथाओ छपाई गई छे.
भादरवा सुद पांचम दरमियान आ पवित्र शास्त्रनुं प्रकाशन थई जशे–एवो संभव छे.
आ सिवाय समयसार–प्रवचनो (बंध अधिकार) छपाय छे ते थोडा वखतमां प्रसिद्ध थशे.
पंचकल्याणक–प्रवचनो छपाई गया छे ते पण बंधाईने थोडा वखतमां प्रसिद्ध थशे. आ पुस्तक सचित्र छे.
नियमसार–प्रवचनो (शुद्धभाव अधिकार) छपाईने प्रसिद्ध थई गयेल छे, तेनी किंमत १–१०–० छे.
ब्रह्मचर्य–प्रतिज्ञा
वैशाख वद आठमना मंगल दिने बरवाळाना भाईश्री चीमनलाल भाईलाल तथा तेमना धर्मपत्नी
प्रभावतीबेन–ए बंनेए सजोडे पू. गुरुदेवश्री पासे आजीवन ब्रह्मचर्यप्रतिज्ञा अंगीकार करी छे; ते माटे तेमने
धन्यवाद!
सुधारो: आत्मधर्म अंक ९२
आत्मधर्म अंक ९२ पृष्ठ १७७ पहेली कोलमनी लाईन १–२मां–‘आत्माने लक्षे विकार पण छे’ एम
छपाई गयुं छे तेने बदले ‘आत्माने परलक्षे विकार पण छे’ एम सुधारीने वांचवुं.
चैतन्यतत्त्वनो महिमा अने दुर्लभता
अहो, आत्माना शुद्धस्वभावनी अत्यंत महिमावाळी वात जीवोए यथार्थपणे कदी सांभळी नथी.
अत्यारे चैतन्यतत्त्वना महिमानी साची वात सांभळवा मळवी पण घणी दुर्लभ थई पडी छे. जे जीव घणो
जिज्ञासु ने घणो लायक थईने आत्मस्वभावनी आ वात सांभळे तेनुं कल्याण थई जाय तेम छे.
–प्रवचनमांथी

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अषाढ: २४७७ : १८३ :
आत्मार्थीनुं पहेलुं कर्तव्य–७
परम कल्याणनुं मूळियुं –
सम्यग्दर्शन प्रगस्टवा माटेनी भूमिका
वीर सं. २४७६ भादरवा सुद ४ शुक्रवार
जेने पोताना आत्मनुं हित करवुं होय तेणे पहेलांं शुं करवुं ते वात चाले छे. जे आत्मार्थी छे एटले के
जेने पोतानुं कल्याण करवानी भावना छे तेणे देहथी भिन्न चैतन्यमूर्ति आत्मा कोण छे तेने जाणवो जोईए.
आत्माने जाणवा माटे प्रथम नव तत्त्वोनुं ज्ञान करवुं जोईए. ते नव तत्त्वोमां प्रथम जीव अने अजीव ए बे
जातनां तत्त्वो अनादिअनंत छे, कोईए तेने बनाव्यां नथी ने तेनो कदी नाश थतो नथी. जीव अने अजीव ए
बे स्वतंत्र तत्त्वो छे अने ते बेना संबंधे बंनेनी अवस्थामां सात तत्त्वो थाय छे. आत्मामां पोतानी योग्यताथी
पुण्य, पापादि सात प्रकारनी अवस्था थाय छे ने तेमां निमित्तरूपे अजीवमां पण ते सात प्रकार पडे छे.
आत्मा चैतन्यवस्तु त्रिकाळी छे, पण तेने भूलीने अवस्थामां मिथ्यात्व अने राग–द्वेषथी अज्ञानी जीव
अनादि काळथी बंधायेल छे; ते बंधनभाव आत्मानी योग्यताथी छे, कोई बीजाए तेने बंधन कर्युं नथी. जीवने
वर्तमान अवस्थामां जो भावबंधन न होय तो आनंदनो प्रगट अनुभव होवो जोईए. पण आनंदनो प्रगट
अनुभव नथी केम के ते पोतानी पर्यायमां विकारना भावबंधनथी बंधायेलो छे. स्फटिकना ऊजळा स्वच्छ
स्वरूपमां जे राती–काळी झांई पडे छे ते तेनुं मूळ स्वरूप नथी पण स्फटिकनो विकार छे, उपाधि छे, तेम जीवनो
स्वच्छ चैतन्यस्वभाव छे, तेनी अवस्थामां जे पुण्य–पापना भाव थाय छे ने तेनुं स्वरूप नथी पण विकार छे,
बंधन छे; विकारभाव ते जीव–बंध छे ने तेमां निमित्तरूप जडकर्मो छे ते अजीव–बंध छे. ए रीते जीव–अजीव
बंनेनी अवस्था भिन्न भिन्न छे. जो पर निमित्तनी अपेक्षा वगर एकला आत्माना स्वभावथी विकार थाय तो
तो ते स्वभाव थई जाय, ने कदी टळी शके नहीं. पण विकार ते जीवनी अवस्थानी क्षणिक योग्यता छे ने तेमां
द्रव्यकर्म निमित्तरूप छे. निमित्तना लक्षे विकार थाय छे, स्वभावना लक्षे विकार के बंधनभाव थतो नथी.
[अहीं सुधी बंध सुधीनां आठ तत्त्वोनुं विवेचन थयुं, हवे नवमा तत्त्वनुं विवेचन थाय छे.]
नवमुं मोक्षतत्त्व छे. जीवनी पूर्ण पवित्र सर्वज्ञ–वीतरागी आनंददशा ते मोक्ष छे. ते मोक्षपणे थवानी
लायकात जीवनी अवस्थामां छे ने जडकर्मनो अभाव तेमां निमित्तरूप छे. जीवमां पवित्र मोक्षभाव प्रगट्यो त्यां
कर्मो तेनी मेळे छूटी गया. जीव अने अजीव ए बे त्रिकाळी तत्त्वो छे तेने, तेम ज तेनी पर्यायमां सात तत्त्वरूप
परिणमन थाय छे तेने, –नवे तत्त्वोने ओळखवा जोईए.
मोक्षरूपे थवानी योग्यता जीवनी छे, ने जड कर्मोनुं छूटी जवुं ते निमित्त छे, ते अजीव–मोक्ष छे.––ए
प्रमाणे अहीं प्रथम तो मोक्षतत्त्वनी ओळखाण करावी छे. अंर्तस्वभावना आश्रये जीवनी परिपूर्ण पवित्र
अवस्था प्रगटे तेने मोक्ष कहे छे तेम ज अजीव कर्मो छूटी जवारूप पुद्गलनी अवस्थाने पण मोक्ष कहेवाय छे.
मोक्षतत्त्वने जाणी लीधुं तेथी मोक्ष थई जतो नथी, पण मोक्ष वगेरे नवे तत्त्वोने जाण्या पछी ते भेदनो आश्रय
छोडी अंतरना अभेदस्वभावना आश्रये मोक्षदशा प्रगटे छे.

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: १८४: आत्मधर्म: ९३
ओळखाण करावी; ते नव तत्त्वोने ओळखवानुं प्रायेजन शुं छे ते हवे कहेशे. नव तत्त्वने ओळखीने अंतरमां
अभेद चैतन्यमूर्ति स्वभावनो शुद्धनयथी अनुभव करवो ते ज प्रयोजन छे, ने एवो अनुभव करवो ते ज
सम्यग्दर्शन छे, ते कल्याणनुं मूळियुं छे.
जुओ, चैतन्यनी समजण अनंतकाळमां नथी करी; अनादि काळथी संसारपरिभ्रमण करे छे तेमां
चैतन्यनी समजणनो रस्तो लीधा वगर बीजा बधा बाह्य साधनो कर्यां छे, पण संसारभ्रमण नथी टळ्‌युं. केम के
चैतन्यनी समजण करवी ते ज संसारभ्रमण टाळवानो उपाय छे, ते उपाय बाकी रही गयो छे. तेथी श्रीमद्
राजचंद्रजी नीचेना काव्यमां ‘शुं साधन बाकी रही गयुं’ ते जणावतां कहे छे के–
यम नियम संयम आप क्यिो,
पुनि त्याग विराग अथाग लह्यो,
वनवास रयो, मुख मौन रह्यो,
द्रढ आसन पद्म लगाय दियो;
× ×
वह साधन वार अनंत क्यिो,
तदपि कछू हाथ हजु न पर्यो;
अब कयों न विचारत है मनसें,
कछू ओर रहा उन साधनसें.
यम, नियम, व्रत, तप, बाह्य, त्याग वैराग्य वगेरे बधा साधन कर्या पण चैतन्यस्वरूपी पोतानो आत्मा
कोण छे तेनी समजणरूप साचुं साधन बाकी रही गयुं, तेथी जीव किंचित् कल्याण पाम्यो नथी.
भगवान श्री कुंदकुंदाचार्य देव कहे छे के हे भव्य आत्माओ! आत्माना अभेद स्वरूपनो अनुभव करतां
पहेलांं वच्चे नव तत्त्वनी भेदरूप प्रतीति आव्या विना रहेती नथी, पण ते नवतत्त्वना भेदरूप विचारनो ज
आश्रय मानीने अटकशो नहि; नवतत्त्वना भेदरूप विचारना आश्रये अटकवाथी सम्यक् आत्मा अनुभवमां
आवतो नथी. पण ते भेदनो आश्रय छोडीने–रागमिश्रित विचारनो अभाव करीने, अभेदस्वभावसन्मुख थईने
शुद्ध आत्मानो निर्विकल्प अनुभव अने प्रतीत करतां सम्यक्श्रद्धा थाय छे, ते आत्माना कल्याणनो उपाय छे.
अवस्थामां जीवनी योग्यता अने अजीवनुं निमित्तपणुं–एवो निमित्तनैमित्तिक संबंध जो न होय तो
सात तत्त्वो ज सिद्ध थता नथी. जीव अने अजीवनी अवस्थामां निमित्तनैमित्तिक संबंध छे ते द्रष्टिथी जोतां
नवतत्त्वोना भेद विद्यमान छे. अने जो एकला चैतन्यमूर्ति अखण्ड जीवतत्त्वने लक्षमां ल्यो तो, द्रव्यद्रष्टिमां
निमित्तनैमित्तिक संबंध पण नहि होवाथी, नवतत्त्वना भेद पडता नथी; माटे शुद्ध चैतन्य स्वभावनी द्रष्टिथी
जोतां नवतत्त्वो अभूतार्थ छे ने एक चैतन्य परमतत्त्व ज प्रकाशमान छे. जो के वर्तमान निर्मळपर्याय छे खरी
पण ते अभेदमां भळी जाय छे, अर्थात् द्रव्य अने पर्यायना भेदनो विकल्प ते जीवने नथी. आवो अनुभव ते
ज सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ने सम्यक्चारित्र छे.
जीवना भावरूप साततत्त्वो जीवमां छे, तेम ज तेमां निमित्तरूपे जडनी अवस्थामां साततत्त्वो छे ते
अजीवमां छे. आवा सात प्रकारो एकला शुद्ध जीवमां के एकला अजीवमां होय नहि. ए नव तत्त्वोनुं घणी घणी
रीते वर्णन कहेवायुं छे. ते प्रमाणे नव तत्त्वोने नक्की कर्या वगर आत्मानुं स्वरूप समजी शकाय नहि अने
पोतानुं स्वरूप शुं छे ते समज्या वगर चैतन्यसुखनी प्राप्ति थाय नहि.
‘अमूल्य तत्त्वविचार’ मां श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के–
हुं कोण छुं? क्यांथी थयो? शुं स्वरूप छे मारुं खरूं?
कोना संबंधे वळगणा छे? राखुं के ए परिहरुं?
एना विचार विवेक पूर्वक शांतभावे जो कर्यां,
तो सर्व आत्मिकज्ञाननां सिद्धांततत्त्वो अनुभव्यां.
विचार तेमां आवी जाय छे. हुं चैतन्यस्वरूप जीव छुं, शरीरादि अजीव छे ते हुं नथी, पुण्य–पाप–आस्रव ने बंध
ए भावो दुःखरूप छे, संवर–निर्जरा भाव ते सुखनुं कारण छे ते धर्म छे, मोक्ष ते पूर्ण सुखरूप निर्मळदशा छे. –
आ प्रमाणे एक जीव संबंधी विचार करतां नवे तत्त्वो आवी जाय छे.

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अषाढ: २४७७ : १८५ :
जीव अने अजीव तो स्वतंत्र तत्त्वो छे, ने तेमांथी जीवनी अवस्थामां पुण्य–पाप–आस्रव–संवर–निर्जरा–
बंध अने मोक्ष एवा सात प्रकार पोतानी योग्यताथी पडे छे, तथा अजीवतत्त्व तेना निमित्तरूप छे तेनी
अवस्थामां पण पुण्य–पाप वगेरे सात प्रकारो पडे छे. एक आत्मा ज सर्वव्यापक छे ने बीजुं बधुं भ्रम छे–एम
जे माने तेने सात तत्त्वो रहेता नथी, अने सात तत्त्वना ज्ञान वगर आत्मानुं ज्ञान थई शकतुं नथी. साते
तत्त्वोमां बब्बे बोल लागु पडे छे, एक जीवरूप छे ने बीजुं अजीवरूप छे.
आत्माने समज्या वगर जीवनो अनंतकाळ गयो; ते अनंतकाळमां बीजा बाह्य उपायोने कल्याणनुं
साधन मान्युं पण अंतरमां सिद्ध भगवान जेवो चैतन्यमूर्ति आत्मा बिराजी रह्यो छे तेनुं शरण लउं तो कल्याण
प्रगटे–एम न मान्युं. पूजा, भक्ति, व्रत, उपवास वगेरेना शुभरागने ने क्रियाकांडने मुक्तिनुं साधन मान्युं पण
ए बधो य राग तो संसारनुं कारण छे, राग ते आत्मानी मुक्तिनुं कारण नथी. आम समजीने शुं करवुं? –के
नवतत्त्वोने अने आत्माना अभेद स्वभावने जाणीने आत्मस्वभाव तरफ वळवुं, तेनो ज आश्रय करवो, ए ज
धर्म छे ने ए ज कल्याण छे.
जे जीव विषय–कषायमां ज डूबेलो छे ने तत्त्वना विचारनो पण अवकाश लेतो नथी, ते तो पापमां
पडेलो छे, तेनी अहीं वात नथी. पण, मारे आत्मानुं कल्याण करवुं छे–एम जेने जिज्ञासा जागी छे, विषय–
कषायोथी कंईक पाछो फरीने जे नवतत्त्वना विचार करे छे ने अंतरमां आत्मानो अनुभव करवा मांगे छे तेनी
आ वात छे. नवतत्त्वनो विचार पांच ईन्द्रियोनो विषय नथी, पांच ईन्द्रियोना अवलंबने नवतत्त्वनो निर्णय
थतो नथी; एटले नवतत्त्वनो विचार करनार जीव पांच ईन्द्रियोना विषयोथी तो पाछो फरी गयो छे. हजी
मननुं अवलंबन छे, पण ते जीव मनना अवलंबनमां अटकवा नथी मांगतो, ते तो मननुं अवलंबन पण
छोडीने अभेद आत्मानो अनुभव करवा मांगे छे. स्वलक्षथी रागनो नकार अने स्वभावनो आदर करनारो जे
भाव छे ते निमित्त अने रागनी अपेक्षा विनानो भाव छे, तेमां भेदना अवलंबननी रुचि छोडीने अभेद
स्वभावनो अनुभव करवानी रुचिनुं जे जोर छे ते निश्चय–सम्यग्दर्शननुं कारण थाय छे.
विचार कर्या तेना करतां आ कांईक जुदी रीतनी वात छे. पूर्वे नवतत्त्वना विचार कर्या ते अभेदस्वरूपना लक्ष
वगर कर्या छे, ने अहीं तो अभेदस्वरूपना लक्ष सहितनी वात छे. पूर्वे एकला मनना स्थूळ विषयथी
नवतत्त्वना विचाररूप आंगणा सुधी तो आत्मा अनंतवार आव्यो छे, पण त्यांथी आगळ विकल्प तोडी ध्रुव
चैतन्यतत्त्वमां एकपणानी श्रद्धा करवानी अपूर्व समजण शुं छे ते न समज्यो तेथी भवभ्रमण ऊभुं रह्युं. परंतु
अहीं तो एवी वात लीधी नथी. अहीं तो अपूर्व शैलीनुं कथन छे के आत्मानो अनुभव करवा माटे जे
नवतत्त्वना विचार सुधी आव्यो छे ते नवतत्त्वनो विकल्प तोडी अभेद आत्मानो अनुभव करे ज छे.
नवतत्त्वना विचार सुधी आवीने पाछो फरी जाय एवी वात अहीं छे ज नहीं.
निश्चयना अनुभवमां तो नवतत्त्व वगेरे व्यवहार अभूतार्थ छे, परंतु निश्चयनो अनुभव प्रगट
करवानी पात्रतावाळा जीवने एवो ज व्यवहार होय, एथी विरुद्ध बीजो व्यवहार न होय. व्यवहारने सर्वथा
अभूतार्थ गणीने तेमां गोटा वाळे अने तत्त्वनो निर्णय न करे तो ते तो हजी परमार्थना आंगणे पण नथी
आव्यो. कुतत्त्वोनी मान्यता ते परमार्थनुं आंगणुं नथी पण साचा तत्त्वोनी मान्यता ते परमार्थनुं आंगणुं छे.
जेम कोईने नागरना घरमां जवुं होय ने भंगीयाना आंगणे जईने ऊभो रहे तो ते नागरना घरमां प्रवेशी शके
नहि, पण जो नागरना ज घरना आंगणे ऊभो होय तो ते नागरना घरमां प्रवेश करी शके. तेम सर्वज्ञ प्रभुए
कहेला चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मानो अनुभव करवा माटे सर्वज्ञदेवे कहेलां आ नवतत्त्वो वगेरेनो निर्णय
करवो ते प्रथम अनुभवनुं आंगणुं छे, तेनो जे निर्णय करता नथी ने बीजा कुतत्त्वोने माने छे ते तो हजी
सर्वज्ञ–भगवाने कहेला आत्मस्वभावना अनुभवना आंगणे पण नथी आव्यो, तो तेने अनुभवरूपी घरमां तो
प्रवेश क्यांथी थाय? पहेलांं रागमिश्रित विचारथी नवतत्त्व वगेरेनो निर्णय करे पछी अभेद ज्ञायकस्वभाव
तरफ वळीने अनुभव करतां ते बधा भेदो अभूतार्थ छे.

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: १८६: आत्मधर्म: ९३
साचा नवतत्त्वनी ओळखाणमां सुदेव–गुरु–शास्त्रनी अने कुदेवादिनी ओळखाण पण आवी जाय छे.
आस्रव अने बंधतत्त्वनी ओळखाणमां कुदेवादिनी ओळखाण आवी जाय छे. नवतत्त्वना स्वरूपने विपरीतपणे
बतावे ते बधा कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्र छे. संवर अने निर्जराभाव ते निर्मळ दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग छे,
साधकभाव छे. आचार्य, उपाध्याय अने साधु ते गुरु छे, तेमनुं तथा ज्ञानी धर्मात्माओनुं स्वरूप संवर–
निर्जरामां आवी जाय छे. मोक्ष ते आत्मानी पूर्ण निर्मळदशा छे, अर्हंत अने सिद्ध परमात्मा सर्वज्ञ वीतरागदेव
छे तेमनुं स्वरूप मोक्षतत्त्वमां आवी जाय छे. ए रीते नवतत्त्वमां पंचपरमेष्ठी वगेरेनुं स्वरूप पण आवी जाय
छे. नवतत्त्वमां आखा विश्वना बधा पदार्थो आवी जाय छे. नवतत्त्व सिवाय बीजुं कोई तत्त्व जगतमां नथी.
अहीं कहेलो व्यवहार ते सम्यग्दर्शननुं आंगणुं छे. कुदेवादिना आंगणे ऊभो होय ते तो अंतरमां
आत्माना घरमां प्रवेशी शकतो नथी. आत्माना घरमां प्रवेशनारने नवतत्त्वनी श्रद्धारूप आंगणुं वच्चे आवे छे.
जेम भंगीयाना आंगणे ऊभेलो नागरना घरमां प्रवेशी न शके पण नागरना आंगणे ऊभेलो ज नागरना
घरमां प्रवेश करी शके छे. तेम आत्माना अनुभवमां जवा माटे नवतत्त्वरूप आंगणुं समजवुं.
अहीं आचार्यदेवे परमार्थ आत्माना अनुभवना निमित्त तरीके नवतत्त्वना विकल्परूप व्यवहार वर्णव्यो
छे. आ निमित्त ते पोतानी पर्याय ज छे. अनुभव पहेलांं वच्चे एवी पर्याय थया वगर रहेती नथी. अने
सम्यग्दर्शनना निमित्त तरीके जे पंचेन्द्रियपणुं, देव–गुरु–शास्त्र वगेरेनुं वर्णन आवे छे ते तो बाह्य संयोगरूप
निमित्तो छे, ते तो स्वयं होय छे, तेमां जीवनो वर्तमान प्रयत्न नथी. ने आ नवतत्त्वनी श्रद्धारूप व्यवहार तो
पोताना वर्तमान प्रयत्नथी थाय छे, तेथी आ आध्यात्मग्रंथमां सम्यग्दर्शनना निमित्त तरीके तेनी ज वात लीधी
छे. आ समयसारमां घणी गूढता भरी छे.
× × ×
हवे, नवतत्त्वोने जाणीने परमार्थ सम्यग्दर्शन प्रगट करवा माटे शुं करवुं ते विषे आचार्यदेव विशेष स्पष्ट
खुलासो करे छे; पहेलांं सामान्यपणे वात करी, हवे ते वात विशेषपणे समजावे छे––
‘बाह्यद्रष्टिथी जोईए तो:– जीव–पुद्गलनी अनादि बंध पर्यायनी समीप जईने एकपणे अनुभव करतां
नवतत्त्वो भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे अने एक जीवद्रव्यना स्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां तेओ
अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे; (जीवना एकाकार स्वरूपमां तेओ नथी;) तेथी आ नवतत्त्वोमां भूतार्थनयथी एक
जीव ज प्रकाशमान छे.’ अज्ञानीने नवतत्त्वोमां जीव अने अजीव एक थईने परिणमतां होय–एम स्थूलद्रष्टिथी
लागे छे, पण ज्ञानी तो नवे तत्त्वमां जीव अने अजीवनुं जुदुं जुदुं परिणमन छे एम जाणे छे. ज्ञानी
अंर्तद्रष्टिथी जीव–अजीवने जुदा जुदा परिणमता देखे छे–ए वात पछी लेशे.
जेने जीव–अजीवनुं भेदज्ञान नथी एवो अज्ञानी जीव नवतत्त्वना विकल्पथी जीव–पुद्गलना बंधपर्यायनी
समीप जईने अनुभव करे छे, अखंड चिदानंद चैतन्यनी एकाताने चूकीने बाह्य संयोगने जुए छे, बाह्य लक्षथी
आत्मा अने कर्मनी अवस्थानो एकपणे अनुभव करतां तो नवतत्त्वो भूतार्थ छे–विद्यमान छे, व्यवहारनयथी
जोतां पर्यायमां नवतत्त्वना विकल्पो थाय छे; पण जेने एकला नवतत्त्वोनुं भूतार्थपणुं ज भासे छे ने एकरूप
चैतन्यस्वभावनुं भूतार्थपणुं नथी भासतुं ते मिथ्याद्रष्टि छे. जीव–पुद्गलना संबंधनुं लक्ष छोडीने, एकला शुद्ध
जीवतत्त्वने ज लक्षमां लईने अनुभव करतां एकलो भगवान आत्मा ज शुद्ध जीवपणे प्रकाशमान छे ने
नवतत्त्वो अभूतार्थ छे; एवो अनुभव करवो ते सम्यग्दर्शन छे. अभेद आत्मानी श्रद्धा कर्या पहेलांं एटले के
धर्मनी पहेली दशा थतां पहेलांं जिज्ञासु जीवने नवतत्त्वनुं ज्ञान निमित्तरूपे होय छे. नवतत्त्वो सर्वथा छे ज
नहि–एम नथी.
आत्मा अने कर्मना संबंधथी थतां नवतत्त्वोनी द्रष्टि छोडीने एकला ज्ञायकनी द्रष्टिथी स्वभावसन्मुख
जईने अनुभव करवो ते सम्यग्दर्शन छे. जेम एकला पाणीना प्रवाहमां भंग न पडे पण वच्चे नालांना निमित्ते
तेना प्रवाहमां भंग पडे छे, तेम जो कर्म साथेना संबंधना लक्षथी जीवनो विचार करो तो नवतत्त्वना भेद
विचारमां आवे छे, पण ते निमित्तनुं लक्ष छोडीने एकला चैतन्यस्वभावने ज द्रष्टिमां ल्यो तो तेमां भंगभेद
पडता नथी, ते एक ज प्रकारनो अनुभवमां आवे छे.

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अषाढ: २४७७ : १८७ :
वळी जेम एकला पाणीमां मीठुं, खाटुं के खारुं एवा भेदो पडता नथी; मीठुं, खाटुं के खारुं एवा जे भेदो
पडे छे ते साकर, लींबु के नीमक वगेरे परनिमित्तना संगनी अपेक्षाए पडे छे, निमित्तना संगनी अपेक्षाए
जोतां पाणीमां ते भेदो भूतार्थ छे. पण एकला पाणीना स्वभावने जोतां तेमां मीठुं, खाटुं के खारुं एवा भेदो
पडता नथी तेथी ते भेदो अभूतार्थ छे. तेम आत्मामां एकला स्वभावथी जोतां तो तेमां भेद नथी, पण जड
कर्मना संयोगनी अपेक्षाथी जोतां आत्मानी पर्यायमां बंध, मोक्ष वगेरे सात प्रकार पडे छे, पर्यायद्रष्टिथी ते भेदो
भूतार्थ छे. अने जो एकला आत्माना त्रिकाळी स्वभावनी द्रष्टिथी अनुभव करवामां आवे तो तेमां बंध, मोक्ष
वगेरे सात प्रकारो नथी तेथी ते अभूतार्थ छे. एटले स्वभावद्रष्टिथी तो नवतत्त्वोमां एक भूतार्थ जीव ज
प्रकाशमान छे, –तेमां एक अभेद जीवनो ज अनुभव छे, ने ते ज परमार्थ सम्यग्दर्शननो विषय छे. आवुं
समज्या वगर अनंत काळमां जे कर्युं तेनाथी परिभ्रमण ज थयुं छे ने एक भव पण घट्यो नथी. आ अपूर्व
समजण करवी ते ज भवभ्रमणथी बचवानो उपाय छे.
नव तत्त्वो क्यां रहे छे? के जीव अने अजीव तो स्वतंत्र तत्त्वो छे, ने तेमना संबंधथी सात तत्त्वो थाय
छे, तेमां जीवना साततत्त्वो जीवनी अवस्थामां रहे छे ने अजीवना सात तत्त्वो अजीवनी अवस्थामां रहे छे.
पण अज्ञानीने ते बंनेनी भिन्नतानुं भान नथी एटले जाणे के जीव अने अजीव बंने भेगां थईने परिणमता
होय एम तेने लागे छे. अज्ञानी भिन्न अखंड चैतन्यतत्त्वने चूकीने, जड अने चेतनने एक माने छे अने तेथी
पर्यायबुद्धिमां ते नव तत्त्वोनो ज भूतार्थपणे अनुभव अनादिथी करी रह्यो छे पण स्वभाव तरफ वळीने
एकरूप स्वभावनो अनुभव करतो नथी. मुक्तस्वभावनी द्रष्टिए तो आत्मा एकरूप छे तेमां नवतत्त्वो नथी,
पण बाह्य संयोगी द्रष्टिथी–वर्तमानद्रष्टिथी–व्यवहारद्रष्टिथी जुओ तो नवतत्त्वो भूतार्थ देखाय छे. अने जो
वर्तमान पर्यायने स्वभावमां एकाग्र करीने वर्तमानमां स्वभावने जुओ तो नवतत्त्वो अभूतार्थ छे, ने एकलो
ज्ञायक आत्मा ज अनुभवमां आवे छे.
भगवान आचार्यदेव कहे छे के अखंड ज्ञायकवस्तुनी द्रष्टिए तो आत्मामां एकपणुं ज छे ने तेना आश्रये
एकपणानी ज उत्पत्ति थाय छे. जो के पर्यायमां निर्मळताना प्रकारो पडे छे पण ते पर्याय अभेदआत्मामां ज
एकाग्र थाय छे, माटे अभेदआत्मानो ज अनुभव छे.
अज्ञानीने जड–चेतननी एकत्त्वबुद्धिथी अनादिथी नवतत्त्वो उपर ज द्रष्टि छे, जडना संगथी भिन्न,
एकला चैतन्यतत्त्वनी तेने खबर नथी. अहो, मारामां अनंत गुणो होवा छतां हुं अभेदस्वभावी एक वस्तु छुं.
ज्ञायकस्वरूप छुं–आवो अनुभव करवो ते परमार्थसम्यग्दर्शन छे. अभेद आत्माना अनुभवमां ‘हुं ज्ञान छुं’
एवा गुणभेदना विकल्पनो पण अवकाश नथी तो पछी नव तत्त्वना विकल्प तो क्यांथी होय? हजी नवतत्त्वोने
पण जे न माने तेने तो व्यवहारधर्म पण होय नहि. तेम ज परना संयोगनी समीप जईने नवतत्त्वोनो
भूतार्थपणे अनुभव करवो–अर्थात् एक जीवने नवतत्त्वपणे अनुभववो–ते पण हजी सम्यग्दर्शन नथी.
सम्यग्दर्शन कई रीते छे ते हवे कहे छे: अंतरमां चैतन्यस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां ते नवतत्वो
अभूतार्थ छे ने एक परम पारिणामिक ज्ञायक आत्मा ज ‘भूतार्थपणे’ अनुभवाय छे; एवो अनुभव करवो ते
ज सम्यग्दर्शन छे. अभेद स्वभावनी प्रधानताथी आत्मानो अनुभव करतां ते ज्ञायकमूर्ति भगवान तो एक ज
छे, एकपणुं छोडीने ते नव प्रकारपणे थयेलो नथी.
अहो, आवी सरस वात! पात्र थईने समजे तो न्याल थई जाय तेवुं छे. पहेलांं सत्समागमे आ वात काने
पडे पछी अंतरमां विचार करीने निर्णय करे, तो तेनो अनुभव थाय. ज्यां मुख्यता चैतन्य तरफनी थई त्यां
अभेद चैतन्य ज द्रष्टिमां रहे छे, नव भेदनो विकल्प आवे तेनी मुख्यता थती नथी, माटे ते अभूतार्थ छे. हुं–जीव
चैतन्य परिपूर्ण छुं–एकरूप छुं, एवा स्वभावनी द्रष्टिमां एकतानी ज मुख्यता छे ने तेमां नवतत्त्वोनी अनेकता
गौण थई जाय छे, तेथी शुद्धनयमां नवतत्त्वो अभूतार्थ छे. आत्माना अभेद स्वभावनी द्रष्टि छोडीने पर्यायमां
पर संगनी अपेक्षाथी जोतां नवतत्त्वो भूतार्थ छे पण ज्यां शुद्धनयथी भेदनुं लक्ष छूटीने अभेद स्वभावनी
मुख्यतामां वळ्‌यो त्यां भेदरूप नवतत्त्वोनो अनुभव नथी माटे ते अभूतार्थ छे, ने एक शुद्ध आत्मा ज

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: १८८: आत्मधर्म: ९३
भूतार्थपणे प्रकाशमान छे. आवा शुद्धात्मानो अनुभव थतां सम्यग्दर्शन प्रगट्युं. ते सम्यग्दर्शन पछी
धर्मीने नवतत्त्वना विकल्प आवे पण तेमनी शुद्ध द्रष्टिमां ते विकल्पोनी मुख्यता नथी, एकाकार चैतन्यनी ज
मुख्यता छे माटे ते नवतत्त्वो अभूतार्थ छे. ‘अभूतार्थ’ कहेतां ते नवतत्त्वोना विकल्प अभेद स्वभावनी द्रष्टिमां
उत्पन्न ज थता नथी.
जुओ तो खरा, भगवान आत्मानी केवी सरस वात छे! आ कोई बहारनी वात नथी पण अंतरमां
पोताना आत्मानी ज वात छे. भाई, तारे सुख ने शांति जोईए छे ने! तो तुं क्यां तेनी शोध करीश? क्यांय
बहारमां–देव, गुरु, शास्त्र, के स्त्री, लक्ष्मी, शरीर वगेरेमां सुखशांति शोधवाथी ते मळे तेम नथी. तारे सुख–
शांति जोईता होय, सम्यग्दर्शन जोईतुं होय, सत्य जोईतुं होय, आत्मसाक्षात्कार जोईतो होय तो कायमी चिदानंद
स्वभावमां ज तेने शोध, अंतर स्वभावमां शोध्ये ज ते मळे तेम छे. सत्समागमे नव तत्त्वोने जाणीने
अंतरंगमां भूतार्थ चैतन्यस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां सम्यग्दर्शन, सुख–शांति, सत्य ने
आत्मसाक्षात्कार थाय छे.
नवतत्त्वमां पहेलुं जीवतत्त्व केवडुं? के सिद्ध भगवानना आत्मा जेवडुं. जेवडो सिद्ध भगवाननो आत्मा
छे तेवडो ज दरेकनो आत्मा परिपूर्ण छे. ‘सिद्ध समान सदा पद मेरो’–मारुं आत्मस्वरूप सदाय सिद्ध समान छे.
आवो आत्मा ते सम्यग्दर्शननो विषय छे अर्थात् सम्यग्दर्शन पोताना आत्माने तेवो कबूले छे. सम्यग्दर्शन थतां
पोताना सिद्ध समान आत्मानुं संवेदन थाय छे–अनुभव थाय छे. सम्यग्दर्शननो विषय एकलो आत्मा छे,
नवतत्वना भेदो सम्यग्दर्शननो विषय छे ज नहि. नवतत्वो ते तो भेदो सम्यग्दर्शन माटेनुं बारदान छे.
बारदान उपरथी मालनुं अनुमान थाय के आने केवो माल लेवो छे? जेम कोई फाट्योतूट्यो काळो कोथळो लईने
बजारमां जतो होय तो अनुमान थाय के आ माणस कांई केसर लेवा नथी जतो पण कोलसा लेवा जतो हशे.
अने कोई सारी काचनी बरणी लईने बजारमां जतो होय तो अनुमान थाय के आ दाणा के कोलसा लेवा नथी
जतो पण केसर वगेरे उत्तम चीज लेवा जाय छे. तेम जे जीव कुदेव–कुगुरुओने पोषी रह्यो छे एटले जेने
बारदान तरीके ज कुदेव–कुगुरु छे, तो अनुमान थाय छे के ते जीव आत्मानो धर्म लेवा नथी नीकळ्‌यो पण
विषयकषाय पोषवा नीकळ्‌यो छे; जेनी पासे नवतत्त्वनी श्रद्धारूप बारदान नथी तो एम समजवुं के ते जीव
आत्मानी श्रद्धारूपी माल लेवा नीकळ्‌यो नथी पण संसारमां रखडवानो माल लेवा नीकळ्‌यो छे. जे जीव शुद्ध
आत्मानी श्रद्धारूपी माल लेवा नीकळ्‌यो छे. होय तेनी पासे साचा देव–गुरुए कहेला नवतत्त्वोनी श्रद्धा ज
बारदानरूपे होय. पहेलांं नवतत्त्वोने कबूल्या पछी तेना भेदनुं लक्ष छोडीने शुद्धनयना अवलंबनथी अभेद
आत्मानो अनुभव करतां धर्म प्रगटे छे. पण जे कुतत्त्वोने माने छे ने जेने नवतत्त्वोनुं भान नथी तेने तो
चैतन्यनो अनुभव थवानी योग्यता ज नथी. शरीरनी क्रियाथी के पूजा–दया वगेरेथी जे धर्म मनावे ते शणनो
कोथळो लईने माल लेवा नीकळ्‌यो छे, ते कोथळामां सम्यग्दर्शनरूपी माल नहि रहे. हजी तो जीव अने शरीर
भेगां थईने बोलवा वगेरेनुं कार्य करे छे एम जे माने तेणे तो व्यवहारु नवतत्त्वोने पण जाण्यां नथी, तेने तो
यथार्थ पुण्यप्राप्ति पण होती नथी. अने नवतत्त्व मानीने त्यां ज अटकी रहे तो ते पण मात्र पुण्यबंधमां अटकी
रहे छे, तेने धर्मनी प्राप्ति थती नथी. नवतत्त्वने मान्या पछी अभेद एक चैतन्यस्वभावनी समीप जईने
अनुभव करे तेने अपूर्व धर्म प्रगटे छे.
अहीं तो, जे नवतत्त्वनी व्यवहारश्रद्धा सुधी आव्यो छे एवा शिष्यने परमार्थ सम्यग्दर्शन कराववा माटे
श्री आचार्यदेव कहे छे के–तुं चैतन्यज्योत वस्तु स्वभावनी अंतरद्रष्टि कर, एकरूप चैतन्यनी द्रष्टिमां नवतत्त्वना
भंग–भेदनो विकल्प ऊभो थतो नथी पण एक शुद्ध चैतन्य आत्मा ज अनुभवाय छे, तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे,
तेनुं ज नाम आत्मसाक्षात्कार छे ने ते ज धर्मनी पहेली भूमिका छे.
अभेद स्वभावनी द्रष्टिथी जोतां नवतत्त्वो देखातां नथी, पण एक आत्मा ज शुद्धपणे देखाय छे, तेथी
भूतार्थनयथी जोतां नवतत्त्वोमां एक शुद्ध जीव ज प्रकाशमान छे. अने ए ज सम्यग्दर्शननुं ध्येय छे.
व्यवहारद्रष्टिमां नवतत्त्वो छे पण स्वभावद्रष्टिमां नवतत्त्वो नथी. स्वभावद्रष्टिथी एवो अनुभव करवो ते ज
धर्म छे. *

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अषाढ: २४७७ : १८९:
‘जे शुध्ध जाणे आत्मने ते शुध्ध आत्म ज मेळवे’
वीर सं. २४७प ना वैशाख वद १४ ना रोज लाठीमां
श्री प्रवचनसार गाथा १९४ उपर पू. गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन
[गाथा १९४ नी टीका]
[१प] शुद्धात्माने जाणे तेने शुद्धता थाय
‘आयथोक्त विधि वडे शुद्धात्माने जे ध्रुव जाणे छे, तेने तेमां ज प्रवृत्ति द्वारा शुद्धात्मत्व होय छे;’
आत्मामां सारुं केम थाय ने नसारुं–अठीक केम टळे तेनी आ वात छे. सारुं करवुं, सुख, धर्म, कल्याण ए बधुं
एक ज छे. जीव अज्ञानभावे अध्रुव एवा विकारने तथा संयोगोने पोतानुं स्वरूप मानतो हतो ते अधर्म हतो.
हवे, परद्रव्यनुं आलंबन अशुद्धतानुं कारण छे ने स्वद्रव्यनुं आलंबन शुद्धतानुं कारण छे–एम पूर्वे कहेला विधि
वडे शुद्धात्माने जाण्यो ते धर्म छे. मूळ सूत्रमां ‘
जो एवं जाणित्ता’ एम कह्युं छे तेमांथी श्री अमृतचंद्र आचार्यदेवे
टीकामां आ रहस्य खोल्युं छे.
मारामां पर वस्तुनो अभाव छे ने रागद्वेष पण मारा कल्याणनुं कारण नथी, ए बधा अध्रुव पदार्थो छे
ते मने शरणरूप नथी. मारो उपयोगस्वरूप आत्मा ध्रुव छे ते ज मने शरणरूप छे;–आ प्रमाणे जे पोताना शुद्ध
आत्माने जाणे छे तेने तेना आश्रये शुद्धता प्रगटे छे. पहेलांं मलिन भावोने पोतानुं स्वरूप मानतो त्यारे
शुद्धता प्रगटती न हती, हवे ते मान्यता फेरवीने शुद्ध आत्माने जाण्यो एटले शुद्धता प्रगटी.
[१६] आ वात कोने समजावे छे?
पहेलांं अनादिथी आत्माने अशुद्ध मानतो हतो, ते मिथ्या मान्यता सर्वथा असत् (अर्थात् सर्वथा
अभावरूप) नथी, पण अज्ञानीनी अवस्थामां ते मिथ्यामान्यता थाय छे, ते एक समयपूरती सत् (–भावरूप)
छे. जो ऊंधी मान्यता आत्मामां सर्वथा थती ज न होय तो शुद्धात्माने समजीने ते टाळवानुं पण रहेतुं नथी,
एटले आत्माने समजवानो उपदेश आपवानुं पण रहेतुं नथी. अनादिथी आत्माने क्षणिक विकार जेटलो मान्यो
छे ते मिथ्या मान्यता छोडाववा श्री आचार्यदेव समजावे छे के आत्मानो स्वभाव त्रिकाळ शुद्ध उपयोगस्वरूप
ध्रुव छे, तेनी श्रद्धा करो.
[१७] ‘राग वखते शुद्ध आत्माना श्रद्धा–ज्ञान केम थई शके? ’ श्रद्धा, ज्ञान, चारित्रनुं
भिन्न भिन्न कार्य.
प्रश्न:– आत्मामां राग–द्वेष थता होवा छतां ते राग–द्वेष हुं नहि–एम ते क्षणे ज केम मान्यता थाय?
राग–द्वेष वखते ज राग–द्वेष रहित ज्ञानस्वभावनी श्रद्धा कई रीते थई शके?
उत्तर:– राग–द्वेष थता देखाय छे ते तो पर्यायद्रष्टि छे, ते ज वखते जो पर्यायद्रष्टि गौण करीने स्वभावनी
द्रष्टिथी जुओ तो आत्मानो स्वभाव रागरहित ज छे, –एनी श्रद्धा ने अनुभव थाय छे. राग होवा छतां शुद्ध
आत्मा ते रागथी रहित छे, –एम ज्ञानवडे शुद्धआत्मा जणाय छे. आत्मामां एक ज गुण नथी पण श्रद्धा–ज्ञान–
चारित्र वगेरे अनंत गुणो छे; राग–द्वेष थाय ते चारित्रगुणनुं विकारी परिणमन छे ने शुद्धात्माने मानवो ते
श्रद्धागुणनुं निर्मळ परिणमन छे तथा शुद्धात्माने जाणवो ते ज्ञानगुणनुं निर्मळ परिणमन छे. ए रीते दरेक गुणनुं
परिणमन भिन्न भिन्न कार्य करे छे. चारित्रना परिणमनमां विकारदशा होवा छतां, श्रद्धाज्ञान तेमां न वळतां
त्रिकाळी शुद्ध स्वभावमां वळ्‌या, श्रद्धानी पर्याये विकाररहित आखा शुद्ध आत्मामां वळीने तेने मान्यो छे अने
ज्ञाननी पर्याय पण चारित्रना विकारनो नकार करीने स्वभावमां वळी छे एटले तेणे पण विकाररहित शुद्ध
आत्माने जाण्यो छे. आ रीते, चारित्रनी पर्यायमां राग–द्वेष होवा छतां श्रद्धा–ज्ञान स्व तरफ वळतां शुद्ध आत्मानी
श्रद्धा तथा ज्ञान थाय छे. राग वखते जो रागरहित शुद्ध आत्मानुं भान थई शकतुं न होय तो कोई जीवने चोथुं–
पांचमुं–छठ्ठुं वगेरे गुणस्थान के साधकदशा ज प्रगटी शके नहि अने साधक भाव वगर मोक्षनो पण अभाव ठरे.

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: १९०: आत्मधर्म: ९३
राग–द्वेष ते चारित्रगुणनी अवस्था छे. जो आत्मामां चारित्र सिवाय बीजा ज्ञानादि अनंत गुणो न
होय तो धर्म थई शके नहीं. केम के जे चारित्र पोते विकारमां अटक्युं होय ते पोते विकाररहित स्वभावनो
निर्णय केम करी शके? अने ते निर्णय वगर धर्म क्यांथी थाय? माटे चारित्र सिवाय बीजा ज्ञान, श्रद्धा वगेरे
गुणो छे; तेथी चारित्रनी दशामां विकार होवा छतां ते ज वखते ज्ञानगुणना कार्य वडे शुद्धआत्मानुं ज्ञान
थाय छे तथा श्रद्धागुणना कार्यवडे शुद्धात्मानी श्रद्धा थाय छे. अने ए शुद्धात्मानी श्रद्धा–ज्ञानना जोरे
स्वभावसन्मुख परिणमतां चारित्रना विकारनो पण क्रमे क्रमे नाश थतो जाय छे. सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान थतां
तेनी साथे चारित्र पण अंशे शुद्ध तो थाय छे. सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान थवा छतां चारित्र सर्वथा अशुद्ध ज रहे–
एम बनतुं नथी. चारित्रनुं वर्तन थोडुंक ऊंधुंं होवा छतां, ते वखते श्रद्धा–ज्ञानगुणना स्वाश्रित परिणमनवडे
विकाररहित आत्मानी श्रद्धा तथा ज्ञान थाय छे. माटे, जो कोई जीव आत्मामां अनंतगुणो न माने ने एक
ज गुण माने तो तेने साधकदशा थई शके ज नहि, तेने तो विकार वखते विकार जेटलो ज आत्मा मानवानुं
रहे, पण विकार वखते विकाररहित शुद्ध आत्मानी श्रद्धा तथा ज्ञान तेने थई शके नहि, केम के ते गुणोने ज
तेणे स्वीकार्या नथी. अवस्थामां राग–द्वेषरूप जे क्षणिक मलिनता छे ते ज्ञान सिवाय बीजा गुणनी छे,
ज्ञाननी मलिनता नथी. तेथी ते मलिनताथी जुदुं रहीने ज्ञाने स्वभाव तरफ वळीने आत्माना निर्मळ
गुणोने जाण्या, एटले तेना आश्रये साधकदशा शरू थई गई. ते जीव पोताने क्षणिक राग–द्वेष जेटलो ज
मानी लेतो नथी.
आत्मानी वर्तमान पर्यायमां रागादि मलिनता छे ते चारित्रगुणनी विपरीतदशा छे. त्यां तेने ज
अज्ञानी आखो आत्मा मानतो तेथी मिथ्या श्रद्धा–ज्ञान हतां. हवे ते मिथ्या मान्यता फेरवीने श्रद्धा–ज्ञान
स्वसन्मुख थतां एम मान्युं के त्रिकाळ ध्रुव चैतन्य ते ज हुं छुं, मारा त्रिकाळी स्वभावमां मलिनता नथी;
अवस्थामां जे क्षणिक अल्प मलिनता छे तेटलो आखो आत्मा नथी. स्वभाव तरफ वळेला स्व–पर प्रकाशक
ज्ञाने ते मलिनताने ज्ञेय तरीके जाणी खरी के आ चारित्रनो दोष छे, पण ते मारो मूळ स्वभाव नथी. ते
दोष वखते पण बीजा ज्ञान–श्रद्धान् गुणवडे ध्रुव शुद्ध नित्य आत्मानुं ज्ञान–श्रद्धान थाय छे, एटले विकार
वखते पण शुद्ध आत्माना सम्यक् श्रद्धान–ज्ञानमां धर्मी जीवने शंका पडती नथी. जो एकेक आत्मामां श्रद्धा–
ज्ञान–चारित्र वगेरे अनेक गुणोने (एटले के अनेकांत स्वभावने) न स्वीकारो तो साधकपणुं ज साबित
थाय नहि, ने साधकपणा वगर बाधकपणुं पण सिद्ध न थाय, एटले संसार–मोक्षनो ज अभाव ठरे. –परंतु
ए वात प्रत्यक्ष विरुद्ध छे.
वळी जो सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान थतां तेनी साथे ज पूरुं चारित्र ऊघडी जतुं होय ने वर्तननो जरा पण
दोष न रहेतो होय तो साधकपणाना प्रकारो ज पडे नहि पण सम्यक्श्रद्धा साथे ज बधा जीवोने वीतरागता
थई जाय, एटले कथंचित् गुणभेदरूप जे वस्तुस्वरूप छे ते सिद्ध थाय नहि, माटे ते पण विरुद्ध छे.
आत्मवस्तुमां श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र वगेरे अनेक गुणो छे अने गुण अपेक्षाए ते दरेकनुं कार्य भिन्न
भिन्न छे–आम यथार्थ अनेकांतने समजे तो ज वस्तुस्वरूपनी सिद्धि थाय.
[१८] कल्याण केम थाय?
जीवने अवस्थामां अकल्याण छे ते टाळीने कल्याण प्रगट करवुं छे. अवस्थामां अकल्याण छे ते टळीने
कल्याण क्यांथी आवशे? अवस्थामां अकल्याण होवा छतां, जेमांथी कल्याण प्रगटे छे एवी ध्रुव वस्तुनी
श्रद्धा करवाथी तेना आधारे कल्याण प्रगटतुं जाय छे. ध्रुव वस्तुनी श्रद्धा थई त्यां अंशे कल्याण प्रगट्युं छे ने
हजी अंशे अकल्याण पण छे. जो संपूर्ण कल्याण थई जाय तो अकल्याण बाकी रहे नहि. रागद्वेष ते अकल्याण
छे ने वीतरागभाव ते कल्याण छे. अवस्थामां अंशे अकल्याण (–रागद्वेष) होवा छतां शुद्ध आत्मानो विवेक
थाय छे ने सम्यक्श्रद्धा ज्ञानरूप कल्याण प्रगटे छे. तेथी श्रीआचार्यदेवे पहेलांं शुद्ध आत्माने जाणवानी वात
मूकी छे. शुद्धात्माने जाणवानी साथे ज पूरुं ज वर्तन (–वीतरागता) थई जतुं नथी पण तेमां क्रम पडे छे.
जो सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान थतांनी साथे ज चारित्र पूरुं थई जतुं होय तो साधकदशा रहे नहि.

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अषाढ: २४७७ : १९१:
[१९] दरेक जीवनी स्वतंत्रता अने देव–गुरु–शास्त्र वगेरेनी सिद्धि
‘शुद्धात्माने जे ध्रुव जाणे छे तेने...शुद्धात्मत्व होय छे’ एम कह्युं, एटले जो बधा जीवो शुद्धात्माने जाणे
तो ज पोताने शुद्धात्मा जणाय–एम नथी, पण बधा जीवोथी पोते स्वतंत्र छे. बधा आत्मा जुदा जुदा स्वतंत्र
छे, तेमांथी जे शुद्धात्माने जाणे तेने ज शुद्धात्मदशा प्रगटे छे, ने जे शुद्धात्माने नथी जाणतो तेने शुद्धात्मदशा थती
नथी. वळी आमां परिणमन पण नक्की थई गयुं; केम के अनादिथी शुद्ध आत्माने जाण्यो न हतो ते अज्ञानदशा
पलटीने हवे शुद्धत्माने जाण्यो. जो अवस्था पलटती न होय तो एम बनी शके नहि. ए प्रमाणे शुद्ध आत्माने
जाणीने तेमां लीनताथी जे पूर्ण शुद्ध थई गया ते ‘देव’ छे. शुद्धात्माने जाण्यो होवा छतां जेमने हजी पूर्ण
शुद्धदशा प्रगटी नथी पण साधकदशा छे ते ‘गुरु’ छे, ने आवा देव–गुरुनी अनेकांतमय वाणी ते शास्त्र छे. शुद्ध
आत्माने जाणे ते वखते ज आत्मा पूरो शुद्ध सर्वज्ञ थई जतो नथी पण हजी स्वभाव तरफ विशेषपणे वळवानुं
ने अशुद्धता टाळवानुं–साधकपणुं रहे छे, एटले ज्ञानना भेदो तेम ज गुणस्थानना भेदो पडे छे. –आ रीते
अनेक प्रकार सिद्धि थई जाय छे.
[२०] सम्यक्श्रद्धा–ज्ञाननुं कार्य
आत्मामां–श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र वगेरे अनेक गुणो त्रिकाळ छे, तेने जो न मानो तो आ वात सिद्ध थई
शकशे नहीं. चारित्रनी दशामां विकार होवा छतां श्रद्धाज्ञाने तेनुं लक्ष छोडीने ज्यारे शुद्ध आत्मस्वभावनो
स्वीकार कर्यो त्यारथी अपूर्व धर्मकळानी शरूआत थई छे. वर्तननी क्षणिक मलिनताने सम्यक्श्रद्धा स्वीकारती
नथी पण ध्रुव शुद्ध द्रव्यने ज ते स्वीकारे छे, अने ते ध्रुवना ज आधारे वर्तननी पूर्णता थईने हुं सर्वज्ञ थई
जईश–एम ज्ञान जाणे छे.
[२१] सम्यक्श्रद्धा–ज्ञानरूप धर्म, अने सम्यक्चारित्ररूपधर्म: पहेलांं केटलो अधर्म टळे?
आत्मानो जे शुद्ध ध्रुवस्वभाव छे ते तो नित्य छे, ते कायमी पदार्थने कांई नवो बनाववो नथी; पण
वर्तमान क्षणिक अवस्थामां अधर्म छे ते टाळीने धर्मदशा नवी प्रगट करवी छे. बधो अधर्म एक साथे टळी जतो
नथी पण ते टाळवामां क्रम पडे छे. जे जीव धर्मी थाय तेने सौथी पहेलांं केटलो अधर्म टळे? पहेलांं शुद्ध
आत्माने जाणतां मिथ्याश्रद्धा अने मिथ्याज्ञानरूप अधर्म तो टळी जाय छे, ने चारित्रना अधर्मनो एक अंश टळे
छे पण चारित्रनो बधो अधर्म टळी जतो नथी. पहेलांं सम्यक्श्रद्धा अने सम्यग्ज्ञानरूप धर्म एक साथे प्रगटे छे
ने पछी सम्यक् चारित्र थाय छे, ते चारित्रधर्म क्रमे क्रमे प्रगटे छे. ‘हुं शुद्ध, ध्रुव, उपयोगस्वरूप छुं’ एम जे
श्रद्धा–ज्ञाने मान्युं तथा जाण्युं ते धर्म छे, अने जे राग–द्वेष थाय छे ते अधर्म छे; ए रीते साधकने अंशे धर्मने
अंशे अधर्म बंने साथे छे. पहेलांं शुद्ध आत्माने जाणतो न हतो ने पुण्य–पापने ज पोतानुं स्वरूप मानतो त्यारे
तो ते जीवने श्रद्धा, ज्ञान ने वर्तन ए त्रणे खोटां हतां एटले एकलो अधर्म ज हतो. ते अधर्मीपणामां तो जीव
विकारने अने परने ज ज्ञानमां ज्ञेय करतो ने तेनी ज श्रद्धा करतो हतो तेने बदले हवे ज्ञानने स्व तरफ वाळीने
आत्माने ज ज्ञाननुं स्वज्ञेय कर्युं ने तेनी ज श्रद्धा करी, त्यां ज्ञान अने श्रद्धा सुधर्यां ने चारित्रनो पण एक अंश
सुधर्यो. छतां हजी ते धर्मीने चारित्रमां अंशे विकार पण छे. परंतु ते विकार होवा छतां तेना सम्यक्श्रद्धा–
ज्ञानरूप धर्मनो नाश थतो नथी. ए रीते पहेलांं तो मिथ्याश्रद्धा अने मिथ्याज्ञानरूप अधर्म टळे छे ने पछी ज
रागद्वेष टळे छे.
अधर्मदशा वखते पुण्य–पापने जाणवामां एकत्वबुद्धिथी जे ज्ञान रोकातुं हतुं तेनुं कार्य धर्मदशा थतां फर्युं
ने हवे ते ध्रुव चैतन्यस्वभावने जाणवामां तेना आश्रयमां रोकायुं. तथा पहेलांं जे श्रद्धा पुण्यपापने ज आत्मा
मानती हती तेणे हवे ध्रुव चैतन्यस्वभावनी श्रद्धा करी. – आ रीते ज्ञान अने श्रद्धामां धर्मनी क्रिया थई. हवे
मात्र चारित्रनो अल्प दोष रह्यो, तेने पण शुद्ध स्वभावमां एकाग्रता वडे टाळीने परमात्मा थई जशे. परंतु जेने
श्रद्धा–ज्ञान ज साचां नथी तेने तो कदी विकार टळतो ज नथी. पहेलांं सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान थया पछी ज चारित्रदोष
टळे ने परमात्मदशा थाय.

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: १९२: आत्मधर्म: ९३
[२२] आत्मानुं वर्तन केम सुधरे?
लोको कहे छे के ‘वर्तन सुधारो.’ पण वर्तन एटले शुं? देहनी क्रियामां आत्मानुं वर्तन नथी. वर्तन
एटले देहनी क्रिया नहि पण आत्माना अंतरना भाव छे. जेवो शुद्ध आत्मा छे तेने समजीने तेमां एकाग्रपणे
वर्तवुं ते ज साचुं वीतरागी वर्तन छे. अने शुद्ध आत्माने न समजतां विकारमां ज एकाग्रपणे वर्तवुं ते ऊंधुंं
वर्तन छे. ज्यां पोताना पूर्ण शुद्ध चैतन्यस्वभावने ज ज्ञाननुं ज्ञेय कर्युं अने तेनी श्रद्धा करी त्यां ज्ञान अने
श्रद्धानुं वर्तन तो सुधरी गयुं–अर्थात् ज्ञान अने श्रद्धा सम्यक् थया. चारित्रना वर्तनमां अमुक विकार होय छतां
ते विकारपरिणाम वखते पण श्रद्धा–ज्ञानने शुद्ध स्वभाव तरफ वाळीने तेनुं वर्तन सुधारी शकाय छे; ने एम
करवाथी ज धर्मनी शरूआत थाय छे. पर्यायमां विकार होवा छतां ते ज वखते ते विकारने मुख्य करीने तेमां
श्रद्धा–ज्ञानने वाळवा ते ज विधिवडे शुद्धात्मा जणाय छे ने अपूर्व कल्याणनी शरूआत थाय छे.
आत्मा त्रिकाळ छे, तेमां श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र ए त्रण मुख्य गुणो छे, तेनी पर्यायमां मलिनता छे.
अनादिथी पराश्रये ऊंधुंं परिणमन हतुं ते स्वभावनां आश्रये सवळुं थाय छे. चारित्रमां कांईक विपरीतता होवा
छतां श्रद्धां–ज्ञान शुद्ध स्वभाव तरफ वळीने शुद्ध आत्माने श्रद्धा–ज्ञानमां ल्ये छे. आ ज शुद्ध आत्माने जाणवानी
विधि छे. आ विधिथी जे शुद्धात्माने जाणे छे तेने ज आत्मानी शुद्धता प्रगटे छे.
[२३] साची सामायिक अने प्रतिक्रमण कोने होय?
सामायिक एटले समतानो लाभ थवो ते; ते सामायिक क्यारे थाय? आत्माना त्रिकाळ स्वभावमां
ज्ञान–आनंद छे, एवा त्रिकाळी स्वभावने जाणीने तेमां जे लीन थाय तेने आत्मानो आनंद प्रगटे छे ने
रागद्वेषना अभावरूप वीतरागी समता होय छे ते ज सामायिक छे. एवी ज सामायिकने भगवाने धर्म अने
मोक्षनुं कारण कह्युं छे. तथा ते जीव मिथ्यात्व–अविरति वगेरे पापथी पाछो फर्यो तेथी तेने प्रतिक्रमण पण थई
गयुं. आवी साची सामायिक अने साचुं प्रतिक्रमण शुद्ध आत्मानी समजण वगर कोई जीवने होय नहीं.
[२४] मोक्षार्थीने मुक्तिनो उल्लास [बळदनुं द्रष्टांत]
आत्माए अनंतकाळथी एक सेकंड पण पोताना स्वभावने लक्षमां लीधो नथी, तेथी तेनी समजण कठण
लागे छे ने शरीरादि बाह्य क्रियामां धर्म मानीने मनुष्यभव मफतमां गुमावे छे. जो आत्मस्वभावनी रुचिथी
अभ्यास करे तो तेनी समजण सहेली छे, स्वभावनी वात मोंघी न होय. दरेक आत्मामां समजवानुं सामर्थ्य छे.
पण पोतानी मुक्तिनी वात सांभळीने अंदरथी उल्लास आववो जोईए, तो झट समजाय. जेम बळदने ज्यारे
घेरथी छोडीने खेतरमां काम करवा लई जाय त्यारे तो धीमे धीमे जाय ने जतां वार लगाडे; पण ज्यारे खेतरना
कामथी छूटीने घरे पाछा वळे त्यारे तो दोडता दोडता आवे. केम के तेने खबर छे के हवे कामना बंधनथी छूटीने
चार पहोर सुधी शांतिथी घास खावानुं छे, तेथी तेने होंश आवे छे ने तेनी गतिमां वेग आवे छे. जुओ, बळद
जेवा प्राणीने पण छूटकारानी होंश आवे छे. तेम आत्मा अनादि काळथी स्वभाव–घरथी छूटीने संसारमां रखडे
छे; श्रीगुरु तेने स्वभाव–घरमां पाछो वळवानी वात संभळावे छे. पोतानी मुक्तिनो मार्ग सांभळीने जीवने जो
होंश न आवे तो ते पेला बळदमांथी ये जाय! पात्र जीवने तो पोताना स्वभावनी वात सांभळतां ज अंतरथी
मुक्तिनो उल्लास आवे छे अने तेनुं परिणमन स्वभावसन्मुख वेगथी वळे छे. जेटलो काळ संसारमां रखड्यो
तेटलो काळ मोक्षनो उपाय करवामां न लागे, केम के विकार करतां स्वभाव तरफनुं वीर्य अनंतु छे तेथी ते अल्प
काळमां ज मोक्षने साधी ल्ये छे. पण ते माटे जीवने अंतरमां यथार्थ उल्लास आववो जोईए.
[२प] मोक्षार्थीने मुक्तिनो उल्लास [वाछरडानुं द्रष्टांत]
श्री परमात्म–प्रकाशमां पशुनो दाखलो आपीने कहे छे के मोक्षमां जो उत्तम सुख न होत तो पशु

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अषाढ: २४७७ : १९३ :
पण बंधनमांथी छूटकारानी ईच्छा केम करत? जुओ, बंधनमां बंधायेल वाछरडाने पाणी पावा माटे
बंधनथी छूटो करवा मांडे त्यां ते छूटवाना हरखमां कूदाकूद करवा मांडे छे; अहा! छूटवाना टाणे ढोरनुं बच्चुं पण
होंशथी कूदका मारे छे–नाचे छे. तो अरे जीव! तुं अनादि अनादिकाळथी अज्ञानभावे आ संसारबंधनमां
बंधायेलो छे, अने हवे आ मनुष्यभवमां सत्समागमे ए संसारबंधनथी छूटवाना टाणां आव्या छे. श्री
आचार्यदेव कहे छे के अमे संसारथी छूटीने मोक्ष थाय तेवी वात संभळावीए अने ते सांभळतां जो तने
संसारथी छूटकारानी होंश न आवे तो तुं पेला वाछरडामांथी पण जाय तेवो छे! खुल्ली हवामां फरवानुं ने छूटा
पाणी पीवानुं टाणुं मळतां छूटापणानी मोज माणवामां वाछरडाने पण केवी होंश आवे छे! तो जे समजवाथी
अनादिना संसारबंधन छूटीने मोक्षना परम आनंदनी प्राप्ति थाय–एवी चैतन्यस्वभावनी वात ज्ञानी पासेथी
सांभळतां क्या आत्मार्थी जीवने अंतरमां होंश ने उल्लास न आवे? अने जेने अंतरमां सत् समजवानो
उल्लास छे तेने अल्पकाळमां मुक्ति थया विना रहे नहीं. पहेलांं तो जीवने संसारभ्रमणमां मनुष्यभव अने
सत्नुं श्रवण ज मळवुं बहु मोंघुं छे. अने कवचित् सत्नुं श्रवण मळ्‌युं त्यारे पण जीवे अंतरमां विचार करीने,
सत्नो उल्लास लावीने, अंतरमां बेसार्युं नहि, तेथी ज संसारमां रखड्यो. भाई, आ तने नथी शोभतुं! आवा
मोंघा अवसरे पण तुं आत्मस्वभावने नहि समज तो क्यारे समजीश? अने ए समज्या वगर तारा
भवभ्रमणनो छेडो क्यांथी आवशे? माटे अंदरथी उल्लास लावीने सत्समागमे साची समजण करी ले.
[२६] जिज्ञासा
जीव अज्ञानने लीधे अनादिकाळथी अवतारमां बळदनी जेम दुःखी थई रह्यो छे; छतां तेनाथी छूटवानी
जिज्ञासा पण मूढ जीवने थती नथी. नाना गामडामां एक खेडूत पूछतो हतो के ‘महाराज! आत्मा अवतारमां
रझडे छे, ते रझडवानो अंत आवे ने मुक्ति थाय एवुं कंईक बतावो!’ आवो जिज्ञासानो प्रश्न पण कोईकने ज
ऊठे छे. आवा मोंघां टाणां फरी फरीने मळता नथी, माटे जिज्ञासु थई, अंतरमां मेळवणी करीने साचुं
आत्मस्वरूप शुं छे ते समजवुं जोईए; केम के जे शुद्ध आत्माने ओळखे छे ते ज शुद्धात्मानी प्राप्ति करे छे.
प्रौढ वयना गृहस्थो माटे–
श्री जैनदर्शन–शिक्षणवर्ग
अगाउनी माफक आ वर्षे श्रावण सुद २ (ता. ४–८–प१)
शनिवारथी शरू करीने श्रावण वद १० (ता. २६–८–प१) रविवार
सुधी, सोनगढमां श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट तरफथी
तत्त्वज्ञानना अभ्यास माटे एक जैनदर्शन शिक्षणवर्ग खोलवानुं
नक्की कर्युं छे. खास प्रौढ उंमरना जिज्ञासु भाईओ माटे आ वर्ग
खोलवामां आव्यो छे. जे मुमुक्षु भाईओने वर्गमां आववानी
ईच्छा होय तेमणे नीचेना सरनामे सूचना मोकली देवी.
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर
सोनगढ (सौराष्ट्र)

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: १९४: आत्मधर्म: ९३
पुण्य अने धर्म
(जैनदर्शन शिक्षणवर्गनी परीक्षामां पहेलां प्रश्नना उत्तररूप निबंध)
घणा अज्ञानी जीवो पुण्य अने धर्म ए बंनेने एक ज चीज माने छे, पण खरेखर तो पुण्य अने धर्म
बंने जुदी जुदी चीज छे. धर्म तो आत्माना आश्रये थाय छे ने पुण्य परना आश्रये थाय छे; धर्मनुं फळ मोक्ष छे
ने पुण्यनुं फळ संसार छे; धर्म ते आत्मानो शुद्ध भाव छे ने पुण्य तो अशुद्धभाव छे.
धर्म ए आत्मानी निर्दोष निर्विकारी पर्याय छे, धर्मथी आत्माने साचुं सुख मळे छे, धर्म त्रिकाळी
आत्माना आधारे थाय छे, विकार के परपदार्थना लक्षे धर्म थतो नथी. पण अज्ञानी जीव पुण्यमां अने
बहारनी क्रियामां धर्म माने छे, ते अज्ञानी जीव धर्मनुं स्वरूप समजतो नथी. धर्म तो वीतरागभाव छे. पुण्य
ते रागभाव छे.
पुण्य तो आ जीव अनादि काळथी करतो आव्यो छे, पण जीवे धर्म तो अनादिकाळमां एक समयमात्र
पण कर्यो नथी. पुण्यथी तो बहारनी सामग्री मळे छे ज्यारे धर्मथी तो आत्मानी केवळज्ञानरूपी लक्ष्मी मळे छे.
पुण्य तो अज्ञानी अने अभव्य जीव पण करे छे पण तेने आत्माना भान वगर धर्म जरापण थतो नथी.
जेओ सिद्ध थया छे अने खरुं सुख पाम्या छे तेओ धर्मथी ज खरुं सुख पाम्या छे. पुण्यथी धर्म थतो
नथी तेम ज तेनाथी खरुं सुख मळतुं नथी, पुण्यथी तो बंधन थाय छे ने बंधन तो संसारपरिभ्रमणनुं ज
कारण छे.
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र ते आत्मानी दोष वगरनी अविकारी पर्याय छे, तेने
मोक्षमार्ग कहो, संवर कहो, धर्म कहो, रत्नत्रय कहो के आत्मानी शांतिनो उपाय कहो, –जे कहो ते एक ज छे.
परंतु ए सिवाय पुण्य तो विकारी पर्याय छे, तेथी पुण्य ते खरेखर मोक्षमार्ग नथी, पुण्य ते संवर नथी, पुण्य ते
धर्म नथी, पुण्य ते रत्नत्रय नथी, पुण्य ते आत्मानी शांतिनो उपाय नथी.
जेम एक लींडीपीपर होय तेने ६४ पहोर घसवाथी जे तीखास आवे छे ते लींडीपीपरमां अप्रगटपणे
हती ते ज प्रगट थई छे, ते तीखास क्यांय बहारमांथी एटले के पत्थरमांथी के हाथमांथी आवती नथी. तेम
आत्मामां धर्म (–शांति) शक्तिरूपे भरपूर छे, तेनी ओळखाण–श्रद्धा, ज्ञान करीने तेमां एकाग्र थवाथी ते प्रगटे
छे. ए धर्म क्यांय बहारमांथी एटले के देहनी क्रिया के पैसा वगेरेमांथी आवतो नथी. जेम लींडीपीपरनी
तीखास लींडीमांथी आवे छे तेम मात्मानी धर्मरूपी तीखास आत्माना स्वभावमांथी ज आवे छे, पुण्यमांथी के
पर पदार्थोमांथी ते आवती नथी. पुण्य अने धर्मनुं स्वरूप जुदुं जुदुं जे रीते छे ते रीते ओळखवुं जोईए.
भगवाने नव तत्त्वो कह्या छे–जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बंध संवर, निर्जरा अने मोक्ष,
आमांथी संवर अने निर्जरा तत्त्वमां धर्मनो समावेश थाय छे. पण पुण्यतत्त्वमां कांई धर्मनो समावेश थतो
नथी. अज्ञानीओ पुण्यथी धर्म माने छे. जेओ पुण्यथी धर्म माने छे तेओ पुण्यतत्त्वने अने संवर–निर्जरातत्त्वने
एक ज माने छे, एटले तेओ खरेखर नव तत्त्वने समज्या नथी. अने तेथी तेओए सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवानने
के ज्ञानीने पण खरेखर मान्या नथी. माटे जिज्ञासुओए पुण्य अने धर्म ए बंनेने जुदा जुदा जाणवा जोईए.

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अषाढ: २४७७ : १९५:
श्री सनातन जैन शिक्षणवर्ग
विद्यार्थीओने उनाळानी रजाओ दरमियान ता. ११–प–प१ वैशाख सुद पांचमथी ता. ४–६–प१ वैशाख
वद अमास सुधी सोनगढमां श्री जैन स्वाध्याय मंदिर तरफथी जैनदर्शन शिक्षणवर्ग खोलवामां आव्यो हतो. सं
१९९७ थी मांडीने दर वर्षे आवो शिक्षणवर्ग खोलवामां आवे छे. वचमां त्रण वखत पू. गुरुदेवश्री विहारमां
होवाथी ए वर्ग खोलायो न हतो; ए रीते ‘शिक्षणवर्ग’ नुं आ आठमुं वर्ष हतुं. आ वर्गमां आवेला बाळकोने
श्री जैनसिद्धांत प्रवेशिकानो एक अध्याय तथा छहढाळानी पहेली बे ढाळ शीखववामां आवी हती. ता. २–६–
प१ ना रोज वर्गनी लेखित परीक्षा लेवामां आवी हती, ने विद्यार्थीओने लगभग १प० रूा. नां पुस्तको ईनाम
तरीके वहेंचाया हता. तथा पास थयेला विद्यार्थीओने श्री जैन स्वाध्याय मंदिर तरफथी छापेला सर्टिफिकेट
आपवामां आव्या हता. परीक्षामां विद्यार्थीओने पूछायेला प्रश्नो अने तेना जवाबो अहीं आपवामां आवे छे:–
प्रश्न: १
नीचेना कोई पण एक विषय उपर लगभग २० लीटीनो निबंध लखो–
(१) संसारमां परिभ्रमण करतो जीव शा कारणे अनंत दुःख भोगवे छे?
(२) पुण्य अने धर्म.
[आ प्रश्नना उत्तररूपे प्राप्त थयेला निबंधो आ अंकमां अन्यत्र छपाया छे, त्यांथी वांची लेवा.]
प्रश्न: २
() सात तत्त्वोनां नाम लखी आस्रव अने निर्जरा तत्त्वनी बाबतमां मिथ्याद्रष्टि शी भूल करे छे ते लखो.
() आत्मानुं स्वरूप सुखरूप छे अने ते समजवुं सहेलुं छे छतां तेने कष्टदायक अने समजवुं कठण कोण माने
छे? अने ते क्या तत्त्वनी भूल करे छे?
(ग
भूल छे?
उत्तर: २
() जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष–ए सात तत्त्वो छे. तेमां मिथ्याद्रष्टि जीव
आस्रवतत्त्व बाबतमां ए भूल करे छे के–मिथ्यात्व अने राग–द्वेषादि आस्रव भावो प्रगटपणे जीवने दुःख
देनार होवा छतां तेने सुखरूप मानीने तेनुं सेवन करे छे. पुण्य ते आस्रवरूप होवा छतां तेने ते धर्मनुं
कारण माने छे. तथा आत्मभानपूर्वक ईच्छानो निरोध ते तप छे, तेनाथी निर्जरा थाय छे, ते सुखरूप
होवा छतां अज्ञानी तेने कलेशरूप माने छे अने पांच ईन्द्रियविषयोमां प्रीति करे छे, –आ निर्जरातत्त्वनी
भूल छे.
() आत्मानुं स्वरूप समजवुं सहेलुं अने सुखरूप होवा छतां अज्ञानी तेने कठण अने दुःखरूप माने छे; तेमां
ते संवरतत्त्वनी भूल करे छे.
() शरीरने अनुकूळता थतां ‘हुं सुखी छुं’ ने प्रतिकूळता थतां ‘हुं दुःखी छुं’ एम अज्ञानी जीव माने छे अने ते
जीवतत्त्वनी भूल करे छे. केम के जीव तो चैतन्यमय अमूर्तिक छे, ते देहथी जुदो छे, तेने ते जाणतो नथी.
प्रश्न: ३
() पर्यायनी व्याख्या लखो ने तेना क्या क्या चार प्रकार छे ते लखो?

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: १९६: आत्मधर्म: ९३
() ते चार प्रकारमांथी (१) संसारी रागी जीवने, (२) अर्हंत भगवानने तथा (३) एक छूटा परमाणुने
क्या क्या पर्यायो होय छे?
() महावीर भगवानना पर्यायोने सीमंधर भगवानना तथा ऋषभदेव भगवानना पर्यायो साथे सरखावो.
उत्तर: ३
() गुणना विकारने (एटले के विशेषकार्यने) पर्याय कहे छे. पर्यायना चार प्रकार: १–स्वभाव अर्थपर्याय
२–विभावअर्थपर्याय; ३–स्वभाव व्यंजनपर्याय अने ४–विभावव्यंजनपर्याय.
() संसारी अज्ञानी जीवने विभावअर्थपर्याय तथा विभावव्यंजनपर्याय होय छे.
अर्हंत भगवानने स्वभावअर्थपर्याय, विभाव अर्थपर्याय तथा विभावव्यंजनपर्याय होय छे.
एक छूटा परमाणुने स्वभावअर्थपर्याय ने स्वभावव्यंजनपर्याय होय छे.
() महावीर भगवान सिद्ध छे, तेमने स्वभावअर्थपर्याय तथा स्वभावव्यंजनपर्याय छे. सीमंधर भगवान
अर्हंत छे, तेमना ज्ञान वगेरे गुणना स्वभावअर्थपर्याय छे ते तो महावीर भगवान जेवा ज छे, पण
तेमने बीजा केटलाक गुणना विभावअर्थपर्यायो पण छे, तथा विभावव्यंजनपर्याय छे. महावीर
भगवानने विभावपर्यायो नथी.
महावीर भगवान अने ऋषभदेव भगवान–ए बंनेना स्वभावअर्थपर्यायो तो सरखा ज छे, पण तेमना
स्वभावव्यंजनपर्यायनी आकृतिमां एटलो फेर छे के महावीर भगवाननी आकृति नानी छे ने ऋषभदेव
भगवाननी आकृति मोटी छे.
प्रश्न: ४
() वर्तमान काळे आ भरतक्षेत्रमां जन्मेला जीवने सळंग क्या क्या शरीरो रह्यां छे?
() माताना उदरमां आवेल जीवने क्या शरीरो ऊपजतां नथी?
() गृहीत अने अगृहीत मिथ्यादर्शनमां तफावत शो?
उत्तर: ४
() वर्तमानकाळे आ भरतक्षेत्रमां जन्मेला जीवने कार्मण अने तैजस ए बे शरीरो सळंग रह्यां छे.
() माताना उदरमां आवेल जीवने कार्मण अने तैजस ए बे शरीरो नवां ऊपजतां नथी; तेम ज आहारक
अने वैक्रियिक शरीरो पण ऊपजतां नथी.
() गृहीत मिथ्यादर्शन तो कुगुरु वगेरेना उपदेशथी, जन्म्या पछी नवुं ग्रहण करेलुं छे, अने अगृहीत
मिथ्यादर्शन कोईना उपदेश वगर अनादिथी चाल्युं आवे छे. गृहीत मिथ्यादर्शन तो जीवे पूर्वे छोड्युं पण
छे पण अगृहीत मिथ्यादर्शन अज्ञानी जीवे कदी छोड्युं नथी. गृहीत मिथ्यादर्शन छूटवा छतां अगृहीत
मिथ्यादर्शन रही जाय छे; अगृहीत मिथ्यादर्शन छूटे तेने गृहीत मिथ्यादर्शन पण छूटी ज जाय छे.
एकवार पण अगृहीत मिथ्यादर्शन छोडे तो जीवनी मुक्ति थया वगर रहे नहि. पोताना आत्माना
स्वरूप संबंधी भूल ते अगृहीत मिथ्यादर्शन छे अने देवगुरुशास्त्रना स्वरूपसंबंधी भूल ते गृहीत
मिथ्यादर्शन छे.
प्रश्न: प
नीचेना प्रश्नोना जवाब लखी तेनां कारणो आपो–
(१) पैसा वडे धर्म थाय?
(२) सिद्ध परमात्माने आकार होय?

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अषाढ: २४७७ : १९७:
(३) आकाशना कटका थई शके?
(४) धर्मास्तिकाय गति करी शके?
(प) तमे क्षमा करी शको छो?
(६) अलोकाकाशमां परिणमन हेय?
उत्तर: प
(१) पैसा वडे धर्म न थाय; केम के पैसा तो जड छे ने धर्म तो आत्मानी शुद्ध पर्याय छे.
(२) सिद्ध परमात्माने आकार होय छे; केम के तेमनामां प्रदेशत्त्व गुण छे, प्रदेशत्त्वगुणने लीधे द्रव्यनो कोई ने
कोई आकार जरूर होय छे.
(३) आकाशना कटका न थई शके; केम के ते सर्वव्यापी एक अखंड द्रव्य छे.
(४) धर्मास्तिकाय पोते गति न करी शके, केम के तेनामां तेवी क्रियावती शक्ति नथी. गति तो जीव अने
पुद्गल ए बे द्रव्यो ज करी शके छे. ते गति करतां द्रव्योने धर्मास्तिकाय निमित्त थाय एवो
गतिहेतुत्त्वगुण तेनामां छे पण ते पोते तो सदा स्थिर ज रहे छे.
(प) आत्मा क्षमा करी शके छे, केम के तेनामां चारित्र नामनो गुण छे.
(६) अलोकाकाशने पण परिणमन होय छे, केम के आकाशमां द्रव्यत्वगुण छे, तेथी तेनी हालत सदाय बदलाया
करे छे.
प्रश्न: ६ (१)
एक भाईए कह्युं के ‘श्रीगुरुए ईच्छा थई ने तेमना मुखमांथी वाणी नीकळी, तेनुं श्रवण करीने मारुं
मिथ्याज्ञान टळीने मने सम्यग्ज्ञान थयुं ने भविष्यमां उग्र पुरुषार्थ करीने हुं केवळज्ञान प्राप्त करीश.’
उपरना वाक्यमांथी नीचे लखेला बोलो वच्चे चार प्रकारना अभावमांथी क्यो अभाव लागु पडे छे ते
लखीने तेनुं कारण जणावो–
(१) श्रीगुरुनी ईच्छा अने वाणी
(२) मुख अने वाणी
(३) तेमनी वाणी अने मारुं सम्यग्ज्ञान
(४) मारुं सम्यग्ज्ञान अने मिथ्याज्ञान
(प) मारुं सम्यग्ज्ञान अने केवळज्ञान.
उत्तर: ६ (१)
(१) श्रीगुरुनी ईच्छा अने वाणी वच्चे अत्यंत अभाव छे, केम के ईच्छा ते जीवनी पर्याय छे ने वाणी ते
अजीवनी पर्याय छे; जीव अने अजीवनी पर्यायनो एकबीजामां अत्यंत अभाव छे.
(२) मुख अने वाणी वच्चे अन्योन्य अभाव छे; केम के ते बंने पुद्गलनी पर्यायो छे. एक पुद्गलनी वर्तमान
पर्यायनो बीजा पुद्गलनी वर्तमान पर्यायमां अभाव होय तेने अन्योन्य अभाव कहे छे.
(३) श्रीगुरुनी वाणी अने मारा सम्यग्ज्ञान वच्चे अत्यंत अभाव छे; केम के वाणी जडनी पर्याय छे ने
सम्यग्ज्ञान ते आत्मानी पर्याय छे. जड अने चेतननी पर्यायोनो एकबीजामां अत्यंत अभाव छे.
(४) मारी सम्यग्ज्ञानरूप वर्तमान पर्यायनो पूर्वनी मिथ्याज्ञान पर्यायमां अभाव ते प्राक्अभाव छे; केम के
एक द्रव्यनी वर्तमान पर्यायनो तेनी पूर्व पर्यायमां अभाव ते प्राक्अभाव छे.
(प) मारी वर्तमान सम्यग्ज्ञान पर्यायनो भविष्यनी केवळज्ञान पर्यायमां अभाव छे ते प्रध्वंसअभाव छे; केम
के एक द्रव्यनी वर्तमान पर्यायनो तेनी भविष्यनी पर्यायमां अभाव ते प्रध्वंसअभाव छे.
प्रश्न: ६ (२)
(१) भाषावर्गणा अने वाणी (शब्दो) मां, तथा
(२) मिथ्याज्ञान अने सम्यग्ज्ञानमां उत्पाद्–व्ययध्रौव्य समजावो.
उत्तर: ६ (२)
(१) भाषावर्गणा अने वाणी ते बंने पुद्गलद्रव्यनी पर्यायो छे; ज्यारे भाषावर्गणा पलटीने वाणी थाय छे
त्यारे ते पुद्गलमां वाणीरूप पर्यायनो

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: १९८: आत्मधर्म: ९३
उत्पाद् थाय छे, पूर्वनी भाषावर्गणारूप पर्यायनो व्यय थाय छे, अने पुद्गल ध्रुवपणे रहे छे.
(२) मिथ्याज्ञान अने सम्यग्ज्ञान ए बंने, जीवना ज्ञानगुणनी पर्यायो छे; ज्यारे मिथ्याज्ञान टळीने सम्यग्ज्ञान
प्रगटे छे त्यारे ज्ञानगुणमां सम्यग्ज्ञान पर्यायनो उत्पाद् थाय छे, पूर्वनी मिथ्याज्ञानपर्यायनो व्यय थाय छे अने
ज्ञानगुण ध्रुवपणे रहे छे.
प्रश्न: ७
नीचे लखेला पदार्थोमांथी द्रव्य, गुण, पर्यायने ओळखी काढो. तथा तेमां जे द्रव्य होय तेनो विशेष गुण लखो,
जे गुण होय ते कया द्रव्यनो–केवी जातनो गुण छे ते लखो, अने जे पर्याय होय ते क्या द्रव्यना क्या गुणनो
केवो (विकारी के अविकारी) पर्याय छे ते जणावो.
(१) खटाश (२) सम्यग्दर्शन (३) रात
(४) ताव (प) स्थितिहेतुत्व (६) काळाणु
(७) मृगजळ (८) केवळज्ञान (९) समुद्घात (१०) अरिसामां देखातुं अग्निनी ज्वाळानुं प्रतिबिंब
उत्तर: ७
(काळद्रव्यनी पर्यायमां अविकारी के विकारी–एवा भेद पडता नथी.)
(४) ताव ते पर्याय छे:– पुद्गलद्रव्यना स्पर्श गुणनी. (विकारी)
(प) स्थितिहेतुत्त्व ते गुण छे:– अधर्मास्तिकायद्रव्यनो विशेषगुण.
(६) काळाणु ते द्रव्य छे:– परिणमनहेतुत्त्व तेनो विशेषगुण छे.
(७) मृगजळ ते पर्याय छे:– पुद्गलद्रव्यना रंग गुणनी. (विकारी)
(८) केवळज्ञान ते पर्याय छे:– जीवद्रव्यना ज्ञानगुणनी. (अविकारी)
(९) समुद्घात ते पर्याय छे:– जीवद्रव्यना प्रदेशत्वगुणनी. (विकारी)
(१०) अरिसामां देखातुं अग्निनी ज्वाळानुं प्रतिबिंब ते पर्याय छे:– पुद्गलद्रव्यना रंगगुणनी. (विकारी) *
परीक्षामां ८० करतां वधारे माकर्स मेळवनार छ विद्यार्थीओ नीचे मुजब छे:
(१) शाह जगदिशचंद्र नवलचंद मुंबई मार्क ९४
(२) वसाणी हसमुखलाल वेलसीभाई राणपुर मार्क ८९
(३) शाह वसंतराय मगनलाल बरवाळा मार्क ८६
(४) शाह राजेन्द्र प्रेमचंद सुरत मार्क ८६
(प) शाह अनिलकुमार हिंमतलाल भावनगर मार्क ८६
(६) शाह भाईलाल ईश्वरलाल महेसाणा मार्क ८प
[अनुसंधान टाईटल पान त्रीजा परथी चालु]
कुधर्म छे. जे शस्त्र, वस्त्र के स्त्री वगेरे राखे ते साचा देव नथी पण कुदेव छे. जेने अंतरमां मिथ्यात्व
वगेरेनो परिग्रह होय ने बहारमां वस्त्र–पैसा–स्त्री वगेरेनो परिग्रह होय छतां पोताने मुनि वगेरे मनावे ते
दंभी गुरु एटले के कुगुरु छे. कुगुरुओ पत्थरनी नौका समान छे. जेम पत्थरनी नौका पोते तो डूबे छे ने तेमां
बेसनार पण डूबे छे, तेम कुगुरु पोते तो संसारमां डूबे छे ने तेनुं सेवन करनार पण संसारमां डूबे छे. माटे हे
जीवो! जो तमे आ संसारसमुद्रथी बचवा चाहता हो तो कुदेव–कुगुरु–कुधर्मना सेवनने छोडी दईने साचा देव–
गुरु–धर्मने स्वीकारो अने आत्मानी ओळखाण करीने सम्यग्दर्शन ज्ञान–चारित्रने आराधो. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र ते ज आ भवसमुद्रथी तरवानो उपाय छे.

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जीवने संसारपरिभ्रमण अने दुःख
शा कारणे थाय छे?
[जैनदर्शन शिक्षण वर्गनी परीक्षामां पहेलां प्रश्नना उत्तर रूपे आवेला निबंधोमांथी]

जीव अनादि काळथी तिर्यंच–नरक–मनुष्य ने देव एवी चार गतिरूप संसारमां रखडे छे ने तेमां
अनंतदुःख भोगवे छे. ते संसार परिभ्रमणनुं दुःख टाळवा माटे प्रथम ते दुःखनां कारणो शुं छे ते जाणवुं जोईए.
दुःखनां जे कारणो होय तेने बराबर ओळखे तो तेने टाळीने सुखनो उपाय करे.
कोई पर चीज आत्माने संसार परिभ्रमण करावती नथी तेम ज पर चीज आत्माने दुःख देती नथी, पण
आत्मा पोते पोताना आत्मस्वरूपने भूलीने मिथ्यादर्शन–मिथ्याज्ञान ने मिथ्याचारित्रनुं सेवन करे छे तेथी ज ते
संसारमां रखडे छे ने अनंतदुःख अनुभवे छे.
* * *
जीवने पोताना स्वरूपनुं अज्ञान एटले के अगृहीत मिथ्यात्व तो अनादिनुं छे अने ते उपरांत कुदेव–
कुगुरु–कुशास्त्रना सेवनथी गृहीतमिथ्यात्व सेवे छे एटले मिथ्यात्वने वधारे द्रढ करे छे. मिथ्यात्वने लीधे सात
तत्त्वने पण ते विपरीत माने छे; ते संसार परिभ्रमणना दुःखनुं कारण छे. जीव साचा देव–गुरु–शास्त्रने
ओळखे अने तेमना सत्य उपदेश वडे सात तत्त्वोनुं तथा पोताना आत्मानुं स्वरूप समजीने अनादिना
मिथ्यात्वने टाळे ने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगट करे तो तेने मोक्षना अनंतसुखनो अनुभव थाय ने तेनुं
संसार परिभ्रमणनुं दुःख टळी जाय.
जीवने पोताना आत्मस्वरूपना अज्ञानथी अने सात तत्त्वोना विपरीत श्रद्धानथी अनादिकाळथी संसार
परिभ्रमण अने दुःख थाय छे. दुःख ए कोई बहारनी चीज नथी पण जीवना मिथ्याभावथी थता राग–द्वेष–मोह
ते ज दुःख छे. ते दुःख कोई बहारना साधनथी टळतुं नथी पण पोतानी साची समजणथी ज टळे छे.
जीवनुं पोतानुं स्वरूप तो देहथी भिन्न अरूपी चैतन्यमय छे, पण अज्ञानी तेने भूलीने देहने ज पोतानुं स्वरूप
माने छे एटले के देह ते ज हुं छुं–एम ते माने छे. तेथी देहनो संयोग थतां ते पोताना आत्मानो जन्म माने छे
ने देहनो वियोग थतां ते आत्मानो ज नाश माने छे एटले जन्मथी मरण सुधीनो ज आत्मा छे एम ते माने
छे. वळी देहना काम हुं करुं छुं, देहनी सगवडअगवडथी हुं सुखी–दुःखी छुं–एम ते अज्ञानी माने छे. मोक्षना
कारणरूप जे संवर–निर्जरा छे तेमां तो ते प्रीति करतो नथी ने तेने कठण मानीने ईन्द्रियविषयोमां प्रीति करे छे.
आवी ऊंधी श्रद्धा ते मिथ्यात्व छे ने ते मिथ्यात्वना प्रभावथी जीव अनादिथी संसारमां रखडे छे. क्यारेक दुर्लभ
मनुष्यपणुं मळे त्यारे पण कुदेव–कुगुरु अने कुधर्मना सेवनथी मिथ्यात्वने पुष्ट करे छे एटले तेनुं संसारभ्रमण
मटतुं नथी, ने पोताना दुर्लभ मनुष्यजीवनने नष्ट करीने पोताना ज हाथे पोतानुं अकल्याण करीने अनंतदुःख
भोगवे छे. माटे दुर्लभ मनुष्यभव पामीने, साचा देव–गुरु धर्मने ओळखीने सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान अने
सम्यक्चारित्रनुं सेवन करवाथी मोक्षसुख प्रगटे छे, ने संसारपरिभ्रमणनुं दुःख टळे छे.
* * *
कुदेव कुगुरु अने कुधर्मनुं सेवन करवाथी जीव संसारसमुद्रमां डूबे छे. जेने जीव अने शरीर वच्चे
भेदविज्ञान न होय, जे विकारथी धर्म मनावे, विषयकषायोनुं पोषण करे ते बधा कुदेव–कुगुरु ने
(अनुसंधान पान १९८ पर)