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समजाय एम कहे तो अनंतकाळे महा दुर्लभ मनुष्यपणुं मळ्युं शुं कामनुं? आत्माना
भान विना जगतमां कैंक कूतरां, अणशियां जन्मे–मरे छे, तेनो महिमा नथी. तेम
अनंतकाळे महान दुर्लभ मनुष्यपणुं पामी अपूर्व आत्मस्वभावने सत्समागम वडे न
जाणे तो तेनी कांई किंमत नथी; अने जो पात्रता वडे आत्मस्वभावने जाणे तो ते
ज्ञाननो महिमा अपार छे.
विना रहे नहीं. भाई रे! अनंतकाळे महादुर्लभ मनुष्यपणुं मळ्युं, तेमां कल्याण न कर्युं
तो क्यारे करीश?
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• परम पूज्य गुरुदेवश्री सुखशांतिमां बिराजे छे.
कार्तिकेयानुप्रेक्षा बे हजार वर्ष करतां य वधारे पुराणुं शास्त्र छे. अने तेमां बार वैराग्य भावनाओनुं उत्तम
वर्णन छे.
भादरवा सुद पांचम दरमियान आ पवित्र शास्त्रनुं प्रकाशन थई जशे–एवो संभव छे.
धन्यवाद!
जिज्ञासु ने घणो लायक थईने आत्मस्वभावनी आ वात सांभळे तेनुं कल्याण थई जाय तेम छे.
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आत्माने जाणवा माटे प्रथम नव तत्त्वोनुं ज्ञान करवुं जोईए. ते नव तत्त्वोमां प्रथम जीव अने अजीव ए बे
जातनां तत्त्वो अनादिअनंत छे, कोईए तेने बनाव्यां नथी ने तेनो कदी नाश थतो नथी. जीव अने अजीव ए
बे स्वतंत्र तत्त्वो छे अने ते बेना संबंधे बंनेनी अवस्थामां सात तत्त्वो थाय छे. आत्मामां पोतानी योग्यताथी
पुण्य, पापादि सात प्रकारनी अवस्था थाय छे ने तेमां निमित्तरूपे अजीवमां पण ते सात प्रकार पडे छे.
वर्तमान अवस्थामां जो भावबंधन न होय तो आनंदनो प्रगट अनुभव होवो जोईए. पण आनंदनो प्रगट
अनुभव नथी केम के ते पोतानी पर्यायमां विकारना भावबंधनथी बंधायेलो छे. स्फटिकना ऊजळा स्वच्छ
स्वरूपमां जे राती–काळी झांई पडे छे ते तेनुं मूळ स्वरूप नथी पण स्फटिकनो विकार छे, उपाधि छे, तेम जीवनो
स्वच्छ चैतन्यस्वभाव छे, तेनी अवस्थामां जे पुण्य–पापना भाव थाय छे ने तेनुं स्वरूप नथी पण विकार छे,
बंधन छे; विकारभाव ते जीव–बंध छे ने तेमां निमित्तरूप जडकर्मो छे ते अजीव–बंध छे. ए रीते जीव–अजीव
बंनेनी अवस्था भिन्न भिन्न छे. जो पर निमित्तनी अपेक्षा वगर एकला आत्माना स्वभावथी विकार थाय तो
तो ते स्वभाव थई जाय, ने कदी टळी शके नहीं. पण विकार ते जीवनी अवस्थानी क्षणिक योग्यता छे ने तेमां
द्रव्यकर्म निमित्तरूप छे. निमित्तना लक्षे विकार थाय छे, स्वभावना लक्षे विकार के बंधनभाव थतो नथी.
कर्मो तेनी मेळे छूटी गया. जीव अने अजीव ए बे त्रिकाळी तत्त्वो छे तेने, तेम ज तेनी पर्यायमां सात तत्त्वरूप
परिणमन थाय छे तेने, –नवे तत्त्वोने ओळखवा जोईए.
अवस्था प्रगटे तेने मोक्ष कहे छे तेम ज अजीव कर्मो छूटी जवारूप पुद्गलनी अवस्थाने पण मोक्ष कहेवाय छे.
मोक्षतत्त्वने जाणी लीधुं तेथी मोक्ष थई जतो नथी, पण मोक्ष वगेरे नवे तत्त्वोने जाण्या पछी ते भेदनो आश्रय
छोडी अंतरना अभेदस्वभावना आश्रये मोक्षदशा प्रगटे छे.
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कोना संबंधे वळगणा छे? राखुं के ए परिहरुं?
एना विचार विवेक पूर्वक शांतभावे जो कर्यां,
तो सर्व आत्मिकज्ञाननां सिद्धांततत्त्वो अनुभव्यां.
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अवस्थामां पण पुण्य–पाप वगेरे सात प्रकारो पडे छे. एक आत्मा ज सर्वव्यापक छे ने बीजुं बधुं भ्रम छे–एम
जे माने तेने सात तत्त्वो रहेता नथी, अने सात तत्त्वना ज्ञान वगर आत्मानुं ज्ञान थई शकतुं नथी. साते
तत्त्वोमां बब्बे बोल लागु पडे छे, एक जीवरूप छे ने बीजुं अजीवरूप छे.
प्रगटे–एम न मान्युं. पूजा, भक्ति, व्रत, उपवास वगेरेना शुभरागने ने क्रियाकांडने मुक्तिनुं साधन मान्युं पण
ए बधो य राग तो संसारनुं कारण छे, राग ते आत्मानी मुक्तिनुं कारण नथी. आम समजीने शुं करवुं? –के
नवतत्त्वोने अने आत्माना अभेद स्वभावने जाणीने आत्मस्वभाव तरफ वळवुं, तेनो ज आश्रय करवो, ए ज
धर्म छे ने ए ज कल्याण छे.
कषायोथी कंईक पाछो फरीने जे नवतत्त्वना विचार करे छे ने अंतरमां आत्मानो अनुभव करवा मांगे छे तेनी
आ वात छे. नवतत्त्वनो विचार पांच ईन्द्रियोनो विषय नथी, पांच ईन्द्रियोना अवलंबने नवतत्त्वनो निर्णय
थतो नथी; एटले नवतत्त्वनो विचार करनार जीव पांच ईन्द्रियोना विषयोथी तो पाछो फरी गयो छे. हजी
मननुं अवलंबन छे, पण ते जीव मनना अवलंबनमां अटकवा नथी मांगतो, ते तो मननुं अवलंबन पण
छोडीने अभेद आत्मानो अनुभव करवा मांगे छे. स्वलक्षथी रागनो नकार अने स्वभावनो आदर करनारो जे
भाव छे ते निमित्त अने रागनी अपेक्षा विनानो भाव छे, तेमां भेदना अवलंबननी रुचि छोडीने अभेद
स्वभावनो अनुभव करवानी रुचिनुं जे जोर छे ते निश्चय–सम्यग्दर्शननुं कारण थाय छे.
वगर कर्या छे, ने अहीं तो अभेदस्वरूपना लक्ष सहितनी वात छे. पूर्वे एकला मनना स्थूळ विषयथी
नवतत्त्वना विचाररूप आंगणा सुधी तो आत्मा अनंतवार आव्यो छे, पण त्यांथी आगळ विकल्प तोडी ध्रुव
चैतन्यतत्त्वमां एकपणानी श्रद्धा करवानी अपूर्व समजण शुं छे ते न समज्यो तेथी भवभ्रमण ऊभुं रह्युं. परंतु
अहीं तो एवी वात लीधी नथी. अहीं तो अपूर्व शैलीनुं कथन छे के आत्मानो अनुभव करवा माटे जे
नवतत्त्वना विचार सुधी आव्यो छे ते नवतत्त्वनो विकल्प तोडी अभेद आत्मानो अनुभव करे ज छे.
नवतत्त्वना विचार सुधी आवीने पाछो फरी जाय एवी वात अहीं छे ज नहीं.
अभूतार्थ गणीने तेमां गोटा वाळे अने तत्त्वनो निर्णय न करे तो ते तो हजी परमार्थना आंगणे पण नथी
आव्यो. कुतत्त्वोनी मान्यता ते परमार्थनुं आंगणुं नथी पण साचा तत्त्वोनी मान्यता ते परमार्थनुं आंगणुं छे.
जेम कोईने नागरना घरमां जवुं होय ने भंगीयाना आंगणे जईने ऊभो रहे तो ते नागरना घरमां प्रवेशी शके
नहि, पण जो नागरना ज घरना आंगणे ऊभो होय तो ते नागरना घरमां प्रवेश करी शके. तेम सर्वज्ञ प्रभुए
कहेला चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मानो अनुभव करवा माटे सर्वज्ञदेवे कहेलां आ नवतत्त्वो वगेरेनो निर्णय
करवो ते प्रथम अनुभवनुं आंगणुं छे, तेनो जे निर्णय करता नथी ने बीजा कुतत्त्वोने माने छे ते तो हजी
सर्वज्ञ–भगवाने कहेला आत्मस्वभावना अनुभवना आंगणे पण नथी आव्यो, तो तेने अनुभवरूपी घरमां तो
प्रवेश क्यांथी थाय? पहेलांं रागमिश्रित विचारथी नवतत्त्व वगेरेनो निर्णय करे पछी अभेद ज्ञायकस्वभाव
तरफ वळीने अनुभव करतां ते बधा भेदो अभूतार्थ छे.
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बतावे ते बधा कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्र छे. संवर अने निर्जराभाव ते निर्मळ दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग छे,
साधकभाव छे. आचार्य, उपाध्याय अने साधु ते गुरु छे, तेमनुं तथा ज्ञानी धर्मात्माओनुं स्वरूप संवर–
निर्जरामां आवी जाय छे. मोक्ष ते आत्मानी पूर्ण निर्मळदशा छे, अर्हंत अने सिद्ध परमात्मा सर्वज्ञ वीतरागदेव
छे तेमनुं स्वरूप मोक्षतत्त्वमां आवी जाय छे. ए रीते नवतत्त्वमां पंचपरमेष्ठी वगेरेनुं स्वरूप पण आवी जाय
छे. नवतत्त्वमां आखा विश्वना बधा पदार्थो आवी जाय छे. नवतत्त्व सिवाय बीजुं कोई तत्त्व जगतमां नथी.
जेम भंगीयाना आंगणे ऊभेलो नागरना घरमां प्रवेशी न शके पण नागरना आंगणे ऊभेलो ज नागरना
घरमां प्रवेश करी शके छे. तेम आत्माना अनुभवमां जवा माटे नवतत्त्वरूप आंगणुं समजवुं.
सम्यग्दर्शनना निमित्त तरीके जे पंचेन्द्रियपणुं, देव–गुरु–शास्त्र वगेरेनुं वर्णन आवे छे ते तो बाह्य संयोगरूप
निमित्तो छे, ते तो स्वयं होय छे, तेमां जीवनो वर्तमान प्रयत्न नथी. ने आ नवतत्त्वनी श्रद्धारूप व्यवहार तो
पोताना वर्तमान प्रयत्नथी थाय छे, तेथी आ आध्यात्मग्रंथमां सम्यग्दर्शनना निमित्त तरीके तेनी ज वात लीधी
छे. आ समयसारमां घणी गूढता भरी छे.
अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे; (जीवना एकाकार स्वरूपमां तेओ नथी;) तेथी आ नवतत्त्वोमां भूतार्थनयथी एक
जीव ज प्रकाशमान छे.’ अज्ञानीने नवतत्त्वोमां जीव अने अजीव एक थईने परिणमतां होय–एम स्थूलद्रष्टिथी
लागे छे, पण ज्ञानी तो नवे तत्त्वमां जीव अने अजीवनुं जुदुं जुदुं परिणमन छे एम जाणे छे. ज्ञानी
अंर्तद्रष्टिथी जीव–अजीवने जुदा जुदा परिणमता देखे छे–ए वात पछी लेशे.
आत्मा अने कर्मनी अवस्थानो एकपणे अनुभव करतां तो नवतत्त्वो भूतार्थ छे–विद्यमान छे, व्यवहारनयथी
जोतां पर्यायमां नवतत्त्वना विकल्पो थाय छे; पण जेने एकला नवतत्त्वोनुं भूतार्थपणुं ज भासे छे ने एकरूप
चैतन्यस्वभावनुं भूतार्थपणुं नथी भासतुं ते मिथ्याद्रष्टि छे. जीव–पुद्गलना संबंधनुं लक्ष छोडीने, एकला शुद्ध
जीवतत्त्वने ज लक्षमां लईने अनुभव करतां एकलो भगवान आत्मा ज शुद्ध जीवपणे प्रकाशमान छे ने
नवतत्त्वो अभूतार्थ छे; एवो अनुभव करवो ते सम्यग्दर्शन छे. अभेद आत्मानी श्रद्धा कर्या पहेलांं एटले के
धर्मनी पहेली दशा थतां पहेलांं जिज्ञासु जीवने नवतत्त्वनुं ज्ञान निमित्तरूपे होय छे. नवतत्त्वो सर्वथा छे ज
नहि–एम नथी.
तेना प्रवाहमां भंग पडे छे, तेम जो कर्म साथेना संबंधना लक्षथी जीवनो विचार करो तो नवतत्त्वना भेद
विचारमां आवे छे, पण ते निमित्तनुं लक्ष छोडीने एकला चैतन्यस्वभावने ज द्रष्टिमां ल्यो तो तेमां भंगभेद
पडता नथी, ते एक ज प्रकारनो अनुभवमां आवे छे.
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जोतां पाणीमां ते भेदो भूतार्थ छे. पण एकला पाणीना स्वभावने जोतां तेमां मीठुं, खाटुं के खारुं एवा भेदो
पडता नथी तेथी ते भेदो अभूतार्थ छे. तेम आत्मामां एकला स्वभावथी जोतां तो तेमां भेद नथी, पण जड
कर्मना संयोगनी अपेक्षाथी जोतां आत्मानी पर्यायमां बंध, मोक्ष वगेरे सात प्रकार पडे छे, पर्यायद्रष्टिथी ते भेदो
भूतार्थ छे. अने जो एकला आत्माना त्रिकाळी स्वभावनी द्रष्टिथी अनुभव करवामां आवे तो तेमां बंध, मोक्ष
वगेरे सात प्रकारो नथी तेथी ते अभूतार्थ छे. एटले स्वभावद्रष्टिथी तो नवतत्त्वोमां एक भूतार्थ जीव ज
प्रकाशमान छे, –तेमां एक अभेद जीवनो ज अनुभव छे, ने ते ज परमार्थ सम्यग्दर्शननो विषय छे. आवुं
समज्या वगर अनंत काळमां जे कर्युं तेनाथी परिभ्रमण ज थयुं छे ने एक भव पण घट्यो नथी. आ अपूर्व
समजण करवी ते ज भवभ्रमणथी बचवानो उपाय छे.
पण अज्ञानीने ते बंनेनी भिन्नतानुं भान नथी एटले जाणे के जीव अने अजीव बंने भेगां थईने परिणमता
होय एम तेने लागे छे. अज्ञानी भिन्न अखंड चैतन्यतत्त्वने चूकीने, जड अने चेतनने एक माने छे अने तेथी
पर्यायबुद्धिमां ते नव तत्त्वोनो ज भूतार्थपणे अनुभव अनादिथी करी रह्यो छे पण स्वभाव तरफ वळीने
एकरूप स्वभावनो अनुभव करतो नथी. मुक्तस्वभावनी द्रष्टिए तो आत्मा एकरूप छे तेमां नवतत्त्वो नथी,
पण बाह्य संयोगी द्रष्टिथी–वर्तमानद्रष्टिथी–व्यवहारद्रष्टिथी जुओ तो नवतत्त्वो भूतार्थ देखाय छे. अने जो
वर्तमान पर्यायने स्वभावमां एकाग्र करीने वर्तमानमां स्वभावने जुओ तो नवतत्त्वो अभूतार्थ छे, ने एकलो
ज्ञायक आत्मा ज अनुभवमां आवे छे.
एकाग्र थाय छे, माटे अभेदआत्मानो ज अनुभव छे.
ज्ञायकस्वरूप छुं–आवो अनुभव करवो ते परमार्थसम्यग्दर्शन छे. अभेद आत्माना अनुभवमां ‘हुं ज्ञान छुं’
एवा गुणभेदना विकल्पनो पण अवकाश नथी तो पछी नव तत्त्वना विकल्प तो क्यांथी होय? हजी नवतत्त्वोने
पण जे न माने तेने तो व्यवहारधर्म पण होय नहि. तेम ज परना संयोगनी समीप जईने नवतत्त्वोनो
भूतार्थपणे अनुभव करवो–अर्थात् एक जीवने नवतत्त्वपणे अनुभववो–ते पण हजी सम्यग्दर्शन नथी.
सम्यग्दर्शन कई रीते छे ते हवे कहे छे: अंतरमां चैतन्यस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां ते नवतत्वो
अभूतार्थ छे ने एक परम पारिणामिक ज्ञायक आत्मा ज ‘भूतार्थपणे’ अनुभवाय छे; एवो अनुभव करवो ते
ज सम्यग्दर्शन छे. अभेद स्वभावनी प्रधानताथी आत्मानो अनुभव करतां ते ज्ञायकमूर्ति भगवान तो एक ज
छे, एकपणुं छोडीने ते नव प्रकारपणे थयेलो नथी.
अभेद चैतन्य ज द्रष्टिमां रहे छे, नव भेदनो विकल्प आवे तेनी मुख्यता थती नथी, माटे ते अभूतार्थ छे. हुं–जीव
चैतन्य परिपूर्ण छुं–एकरूप छुं, एवा स्वभावनी द्रष्टिमां एकतानी ज मुख्यता छे ने तेमां नवतत्त्वोनी अनेकता
गौण थई जाय छे, तेथी शुद्धनयमां नवतत्त्वो अभूतार्थ छे. आत्माना अभेद स्वभावनी द्रष्टि छोडीने पर्यायमां
पर संगनी अपेक्षाथी जोतां नवतत्त्वो भूतार्थ छे पण ज्यां शुद्धनयथी भेदनुं लक्ष छूटीने अभेद स्वभावनी
मुख्यतामां वळ्यो त्यां भेदरूप नवतत्त्वोनो अनुभव नथी माटे ते अभूतार्थ छे, ने एक शुद्ध आत्मा ज
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मुख्यता छे माटे ते नवतत्त्वो अभूतार्थ छे. ‘अभूतार्थ’ कहेतां ते नवतत्त्वोना विकल्प अभेद स्वभावनी द्रष्टिमां
उत्पन्न ज थता नथी.
बहारमां–देव, गुरु, शास्त्र, के स्त्री, लक्ष्मी, शरीर वगेरेमां सुखशांति शोधवाथी ते मळे तेम नथी. तारे सुख–
शांति जोईता होय, सम्यग्दर्शन जोईतुं होय, सत्य जोईतुं होय, आत्मसाक्षात्कार जोईतो होय तो कायमी चिदानंद
स्वभावमां ज तेने शोध, अंतर स्वभावमां शोध्ये ज ते मळे तेम छे. सत्समागमे नव तत्त्वोने जाणीने
अंतरंगमां भूतार्थ चैतन्यस्वभावनी समीप जईने अनुभव करतां सम्यग्दर्शन, सुख–शांति, सत्य ने
आत्मसाक्षात्कार थाय छे.
आवो आत्मा ते सम्यग्दर्शननो विषय छे अर्थात् सम्यग्दर्शन पोताना आत्माने तेवो कबूले छे. सम्यग्दर्शन थतां
पोताना सिद्ध समान आत्मानुं संवेदन थाय छे–अनुभव थाय छे. सम्यग्दर्शननो विषय एकलो आत्मा छे,
नवतत्वना भेदो सम्यग्दर्शननो विषय छे ज नहि. नवतत्वो ते तो भेदो सम्यग्दर्शन माटेनुं बारदान छे.
बारदान उपरथी मालनुं अनुमान थाय के आने केवो माल लेवो छे? जेम कोई फाट्योतूट्यो काळो कोथळो लईने
बजारमां जतो होय तो अनुमान थाय के आ माणस कांई केसर लेवा नथी जतो पण कोलसा लेवा जतो हशे.
अने कोई सारी काचनी बरणी लईने बजारमां जतो होय तो अनुमान थाय के आ दाणा के कोलसा लेवा नथी
जतो पण केसर वगेरे उत्तम चीज लेवा जाय छे. तेम जे जीव कुदेव–कुगुरुओने पोषी रह्यो छे एटले जेने
बारदान तरीके ज कुदेव–कुगुरु छे, तो अनुमान थाय छे के ते जीव आत्मानो धर्म लेवा नथी नीकळ्यो पण
विषयकषाय पोषवा नीकळ्यो छे; जेनी पासे नवतत्त्वनी श्रद्धारूप बारदान नथी तो एम समजवुं के ते जीव
आत्मानी श्रद्धारूपी माल लेवा नीकळ्यो नथी पण संसारमां रखडवानो माल लेवा नीकळ्यो छे. जे जीव शुद्ध
आत्मानी श्रद्धारूपी माल लेवा नीकळ्यो छे. होय तेनी पासे साचा देव–गुरुए कहेला नवतत्त्वोनी श्रद्धा ज
बारदानरूपे होय. पहेलांं नवतत्त्वोने कबूल्या पछी तेना भेदनुं लक्ष छोडीने शुद्धनयना अवलंबनथी अभेद
आत्मानो अनुभव करतां धर्म प्रगटे छे. पण जे कुतत्त्वोने माने छे ने जेने नवतत्त्वोनुं भान नथी तेने तो
चैतन्यनो अनुभव थवानी योग्यता ज नथी. शरीरनी क्रियाथी के पूजा–दया वगेरेथी जे धर्म मनावे ते शणनो
कोथळो लईने माल लेवा नीकळ्यो छे, ते कोथळामां सम्यग्दर्शनरूपी माल नहि रहे. हजी तो जीव अने शरीर
भेगां थईने बोलवा वगेरेनुं कार्य करे छे एम जे माने तेणे तो व्यवहारु नवतत्त्वोने पण जाण्यां नथी, तेने तो
यथार्थ पुण्यप्राप्ति पण होती नथी. अने नवतत्त्व मानीने त्यां ज अटकी रहे तो ते पण मात्र पुण्यबंधमां अटकी
रहे छे, तेने धर्मनी प्राप्ति थती नथी. नवतत्त्वने मान्या पछी अभेद एक चैतन्यस्वभावनी समीप जईने
अनुभव करे तेने अपूर्व धर्म प्रगटे छे.
भंग–भेदनो विकल्प ऊभो थतो नथी पण एक शुद्ध चैतन्य आत्मा ज अनुभवाय छे, तेनुं नाम सम्यग्दर्शन छे,
तेनुं ज नाम आत्मसाक्षात्कार छे ने ते ज धर्मनी पहेली भूमिका छे.
व्यवहारद्रष्टिमां नवतत्त्वो छे पण स्वभावद्रष्टिमां नवतत्त्वो नथी. स्वभावद्रष्टिथी एवो अनुभव करवो ते ज
धर्म छे. *
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श्री प्रवचनसार गाथा १९४ उपर पू. गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन
एक ज छे. जीव अज्ञानभावे अध्रुव एवा विकारने तथा संयोगोने पोतानुं स्वरूप मानतो हतो ते अधर्म हतो.
हवे, परद्रव्यनुं आलंबन अशुद्धतानुं कारण छे ने स्वद्रव्यनुं आलंबन शुद्धतानुं कारण छे–एम पूर्वे कहेला विधि
वडे शुद्धात्माने जाण्यो ते धर्म छे. मूळ सूत्रमां ‘
आत्माने जाणे छे तेने तेना आश्रये शुद्धता प्रगटे छे. पहेलांं मलिन भावोने पोतानुं स्वरूप मानतो त्यारे
शुद्धता प्रगटती न हती, हवे ते मान्यता फेरवीने शुद्ध आत्माने जाण्यो एटले शुद्धता प्रगटी.
छे. जो ऊंधी मान्यता आत्मामां सर्वथा थती ज न होय तो शुद्धात्माने समजीने ते टाळवानुं पण रहेतुं नथी,
एटले आत्माने समजवानो उपदेश आपवानुं पण रहेतुं नथी. अनादिथी आत्माने क्षणिक विकार जेटलो मान्यो
छे ते मिथ्या मान्यता छोडाववा श्री आचार्यदेव समजावे छे के आत्मानो स्वभाव त्रिकाळ शुद्ध उपयोगस्वरूप
ध्रुव छे, तेनी श्रद्धा करो.
आत्मा ते रागथी रहित छे, –एम ज्ञानवडे शुद्धआत्मा जणाय छे. आत्मामां एक ज गुण नथी पण श्रद्धा–ज्ञान–
चारित्र वगेरे अनंत गुणो छे; राग–द्वेष थाय ते चारित्रगुणनुं विकारी परिणमन छे ने शुद्धात्माने मानवो ते
श्रद्धागुणनुं निर्मळ परिणमन छे तथा शुद्धात्माने जाणवो ते ज्ञानगुणनुं निर्मळ परिणमन छे. ए रीते दरेक गुणनुं
त्रिकाळी शुद्ध स्वभावमां वळ्या, श्रद्धानी पर्याये विकाररहित आखा शुद्ध आत्मामां वळीने तेने मान्यो छे अने
ज्ञाननी पर्याय पण चारित्रना विकारनो नकार करीने स्वभावमां वळी छे एटले तेणे पण विकाररहित शुद्ध
आत्माने जाण्यो छे. आ रीते, चारित्रनी पर्यायमां राग–द्वेष होवा छतां श्रद्धा–ज्ञान स्व तरफ वळतां शुद्ध आत्मानी
श्रद्धा तथा ज्ञान थाय छे. राग वखते जो रागरहित शुद्ध आत्मानुं भान थई शकतुं न होय तो कोई जीवने चोथुं–
पांचमुं–छठ्ठुं वगेरे गुणस्थान के साधकदशा ज प्रगटी शके नहि अने साधक भाव वगर मोक्षनो पण अभाव ठरे.
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निर्णय केम करी शके? अने ते निर्णय वगर धर्म क्यांथी थाय? माटे चारित्र सिवाय बीजा ज्ञान, श्रद्धा वगेरे
गुणो छे; तेथी चारित्रनी दशामां विकार होवा छतां ते ज वखते ज्ञानगुणना कार्य वडे शुद्धआत्मानुं ज्ञान
थाय छे तथा श्रद्धागुणना कार्यवडे शुद्धात्मानी श्रद्धा थाय छे. अने ए शुद्धात्मानी श्रद्धा–ज्ञानना जोरे
स्वभावसन्मुख परिणमतां चारित्रना विकारनो पण क्रमे क्रमे नाश थतो जाय छे. सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान थतां
तेनी साथे चारित्र पण अंशे शुद्ध तो थाय छे. सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान थवा छतां चारित्र सर्वथा अशुद्ध ज रहे–
एम बनतुं नथी. चारित्रनुं वर्तन थोडुंक ऊंधुंं होवा छतां, ते वखते श्रद्धा–ज्ञानगुणना स्वाश्रित परिणमनवडे
विकाररहित आत्मानी श्रद्धा तथा ज्ञान थाय छे. माटे, जो कोई जीव आत्मामां अनंतगुणो न माने ने एक
ज गुण माने तो तेने साधकदशा थई शके ज नहि, तेने तो विकार वखते विकार जेटलो ज आत्मा मानवानुं
रहे, पण विकार वखते विकाररहित शुद्ध आत्मानी श्रद्धा तथा ज्ञान तेने थई शके नहि, केम के ते गुणोने ज
तेणे स्वीकार्या नथी. अवस्थामां राग–द्वेषरूप जे क्षणिक मलिनता छे ते ज्ञान सिवाय बीजा गुणनी छे,
ज्ञाननी मलिनता नथी. तेथी ते मलिनताथी जुदुं रहीने ज्ञाने स्वभाव तरफ वळीने आत्माना निर्मळ
गुणोने जाण्या, एटले तेना आश्रये साधकदशा शरू थई गई. ते जीव पोताने क्षणिक राग–द्वेष जेटलो ज
मानी लेतो नथी.
स्वसन्मुख थतां एम मान्युं के त्रिकाळ ध्रुव चैतन्य ते ज हुं छुं, मारा त्रिकाळी स्वभावमां मलिनता नथी;
अवस्थामां जे क्षणिक अल्प मलिनता छे तेटलो आखो आत्मा नथी. स्वभाव तरफ वळेला स्व–पर प्रकाशक
ज्ञाने ते मलिनताने ज्ञेय तरीके जाणी खरी के आ चारित्रनो दोष छे, पण ते मारो मूळ स्वभाव नथी. ते
दोष वखते पण बीजा ज्ञान–श्रद्धान् गुणवडे ध्रुव शुद्ध नित्य आत्मानुं ज्ञान–श्रद्धान थाय छे, एटले विकार
वखते पण शुद्ध आत्माना सम्यक् श्रद्धान–ज्ञानमां धर्मी जीवने शंका पडती नथी. जो एकेक आत्मामां श्रद्धा–
ज्ञान–चारित्र वगेरे अनेक गुणोने (एटले के अनेकांत स्वभावने) न स्वीकारो तो साधकपणुं ज साबित
थाय नहि, ने साधकपणा वगर बाधकपणुं पण सिद्ध न थाय, एटले संसार–मोक्षनो ज अभाव ठरे. –परंतु
ए वात प्रत्यक्ष विरुद्ध छे.
थई जाय, एटले कथंचित् गुणभेदरूप जे वस्तुस्वरूप छे ते सिद्ध थाय नहि, माटे ते पण विरुद्ध छे.
श्रद्धा करवाथी तेना आधारे कल्याण प्रगटतुं जाय छे. ध्रुव वस्तुनी श्रद्धा थई त्यां अंशे कल्याण प्रगट्युं छे ने
हजी अंशे अकल्याण पण छे. जो संपूर्ण कल्याण थई जाय तो अकल्याण बाकी रहे नहि. रागद्वेष ते अकल्याण
छे ने वीतरागभाव ते कल्याण छे. अवस्थामां अंशे अकल्याण (–रागद्वेष) होवा छतां शुद्ध आत्मानो विवेक
थाय छे ने सम्यक्श्रद्धा ज्ञानरूप कल्याण प्रगटे छे. तेथी श्रीआचार्यदेवे पहेलांं शुद्ध आत्माने जाणवानी वात
मूकी छे. शुद्धात्माने जाणवानी साथे ज पूरुं ज वर्तन (–वीतरागता) थई जतुं नथी पण तेमां क्रम पडे छे.
जो सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान थतांनी साथे ज चारित्र पूरुं थई जतुं होय तो साधकदशा रहे नहि.
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छे, तेमांथी जे शुद्धात्माने जाणे तेने ज शुद्धात्मदशा प्रगटे छे, ने जे शुद्धात्माने नथी जाणतो तेने शुद्धात्मदशा थती
नथी. वळी आमां परिणमन पण नक्की थई गयुं; केम के अनादिथी शुद्ध आत्माने जाण्यो न हतो ते अज्ञानदशा
पलटीने हवे शुद्धत्माने जाण्यो. जो अवस्था पलटती न होय तो एम बनी शके नहि. ए प्रमाणे शुद्ध आत्माने
जाणीने तेमां लीनताथी जे पूर्ण शुद्ध थई गया ते ‘देव’ छे. शुद्धात्माने जाण्यो होवा छतां जेमने हजी पूर्ण
शुद्धदशा प्रगटी नथी पण साधकदशा छे ते ‘गुरु’ छे, ने आवा देव–गुरुनी अनेकांतमय वाणी ते शास्त्र छे. शुद्ध
आत्माने जाणे ते वखते ज आत्मा पूरो शुद्ध सर्वज्ञ थई जतो नथी पण हजी स्वभाव तरफ विशेषपणे वळवानुं
ने अशुद्धता टाळवानुं–साधकपणुं रहे छे, एटले ज्ञानना भेदो तेम ज गुणस्थानना भेदो पडे छे. –आ रीते
अनेक प्रकार सिद्धि थई जाय छे.
स्वीकार कर्यो त्यारथी अपूर्व धर्मकळानी शरूआत थई छे. वर्तननी क्षणिक मलिनताने सम्यक्श्रद्धा स्वीकारती
नथी पण ध्रुव शुद्ध द्रव्यने ज ते स्वीकारे छे, अने ते ध्रुवना ज आधारे वर्तननी पूर्णता थईने हुं सर्वज्ञ थई
जईश–एम ज्ञान जाणे छे.
नथी पण ते टाळवामां क्रम पडे छे. जे जीव धर्मी थाय तेने सौथी पहेलांं केटलो अधर्म टळे? पहेलांं शुद्ध
आत्माने जाणतां मिथ्याश्रद्धा अने मिथ्याज्ञानरूप अधर्म तो टळी जाय छे, ने चारित्रना अधर्मनो एक अंश टळे
छे पण चारित्रनो बधो अधर्म टळी जतो नथी. पहेलांं सम्यक्श्रद्धा अने सम्यग्ज्ञानरूप धर्म एक साथे प्रगटे छे
ने पछी सम्यक् चारित्र थाय छे, ते चारित्रधर्म क्रमे क्रमे प्रगटे छे. ‘हुं शुद्ध, ध्रुव, उपयोगस्वरूप छुं’ एम जे
श्रद्धा–ज्ञाने मान्युं तथा जाण्युं ते धर्म छे, अने जे राग–द्वेष थाय छे ते अधर्म छे; ए रीते साधकने अंशे धर्मने
अंशे अधर्म बंने साथे छे. पहेलांं शुद्ध आत्माने जाणतो न हतो ने पुण्य–पापने ज पोतानुं स्वरूप मानतो त्यारे
तो ते जीवने श्रद्धा, ज्ञान ने वर्तन ए त्रणे खोटां हतां एटले एकलो अधर्म ज हतो. ते अधर्मीपणामां तो जीव
विकारने अने परने ज ज्ञानमां ज्ञेय करतो ने तेनी ज श्रद्धा करतो हतो तेने बदले हवे ज्ञानने स्व तरफ वाळीने
आत्माने ज ज्ञाननुं स्वज्ञेय कर्युं ने तेनी ज श्रद्धा करी, त्यां ज्ञान अने श्रद्धा सुधर्यां ने चारित्रनो पण एक अंश
सुधर्यो. छतां हजी ते धर्मीने चारित्रमां अंशे विकार पण छे. परंतु ते विकार होवा छतां तेना सम्यक्श्रद्धा–
ज्ञानरूप धर्मनो नाश थतो नथी. ए रीते पहेलांं तो मिथ्याश्रद्धा अने मिथ्याज्ञानरूप अधर्म टळे छे ने पछी ज
रागद्वेष टळे छे.
मानती हती तेणे हवे ध्रुव चैतन्यस्वभावनी श्रद्धा करी. – आ रीते ज्ञान अने श्रद्धामां धर्मनी क्रिया थई. हवे
मात्र चारित्रनो अल्प दोष रह्यो, तेने पण शुद्ध स्वभावमां एकाग्रता वडे टाळीने परमात्मा थई जशे. परंतु जेने
श्रद्धा–ज्ञान ज साचां नथी तेने तो कदी विकार टळतो ज नथी. पहेलांं सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान थया पछी ज चारित्रदोष
टळे ने परमात्मदशा थाय.
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वर्तवुं ते ज साचुं वीतरागी वर्तन छे. अने शुद्ध आत्माने न समजतां विकारमां ज एकाग्रपणे वर्तवुं ते ऊंधुंं
वर्तन छे. ज्यां पोताना पूर्ण शुद्ध चैतन्यस्वभावने ज ज्ञाननुं ज्ञेय कर्युं अने तेनी श्रद्धा करी त्यां ज्ञान अने
श्रद्धानुं वर्तन तो सुधरी गयुं–अर्थात् ज्ञान अने श्रद्धा सम्यक् थया. चारित्रना वर्तनमां अमुक विकार होय छतां
ते विकारपरिणाम वखते पण श्रद्धा–ज्ञानने शुद्ध स्वभाव तरफ वाळीने तेनुं वर्तन सुधारी शकाय छे; ने एम
करवाथी ज धर्मनी शरूआत थाय छे. पर्यायमां विकार होवा छतां ते ज वखते ते विकारने मुख्य करीने तेमां
श्रद्धा–ज्ञानने वाळवा ते ज विधिवडे शुद्धात्मा जणाय छे ने अपूर्व कल्याणनी शरूआत थाय छे.
छतां श्रद्धां–ज्ञान शुद्ध स्वभाव तरफ वळीने शुद्ध आत्माने श्रद्धा–ज्ञानमां ल्ये छे. आ ज शुद्ध आत्माने जाणवानी
विधि छे. आ विधिथी जे शुद्धात्माने जाणे छे तेने ज आत्मानी शुद्धता प्रगटे छे.
रागद्वेषना अभावरूप वीतरागी समता होय छे ते ज सामायिक छे. एवी ज सामायिकने भगवाने धर्म अने
मोक्षनुं कारण कह्युं छे. तथा ते जीव मिथ्यात्व–अविरति वगेरे पापथी पाछो फर्यो तेथी तेने प्रतिक्रमण पण थई
गयुं. आवी साची सामायिक अने साचुं प्रतिक्रमण शुद्ध आत्मानी समजण वगर कोई जीवने होय नहीं.
अभ्यास करे तो तेनी समजण सहेली छे, स्वभावनी वात मोंघी न होय. दरेक आत्मामां समजवानुं सामर्थ्य छे.
पण पोतानी मुक्तिनी वात सांभळीने अंदरथी उल्लास आववो जोईए, तो झट समजाय. जेम बळदने ज्यारे
घेरथी छोडीने खेतरमां काम करवा लई जाय त्यारे तो धीमे धीमे जाय ने जतां वार लगाडे; पण ज्यारे खेतरना
कामथी छूटीने घरे पाछा वळे त्यारे तो दोडता दोडता आवे. केम के तेने खबर छे के हवे कामना बंधनथी छूटीने
चार पहोर सुधी शांतिथी घास खावानुं छे, तेथी तेने होंश आवे छे ने तेनी गतिमां वेग आवे छे. जुओ, बळद
जेवा प्राणीने पण छूटकारानी होंश आवे छे. तेम आत्मा अनादि काळथी स्वभाव–घरथी छूटीने संसारमां रखडे
छे; श्रीगुरु तेने स्वभाव–घरमां पाछो वळवानी वात संभळावे छे. पोतानी मुक्तिनो मार्ग सांभळीने जीवने जो
होंश न आवे तो ते पेला बळदमांथी ये जाय! पात्र जीवने तो पोताना स्वभावनी वात सांभळतां ज अंतरथी
मुक्तिनो उल्लास आवे छे अने तेनुं परिणमन स्वभावसन्मुख वेगथी वळे छे. जेटलो काळ संसारमां रखड्यो
तेटलो काळ मोक्षनो उपाय करवामां न लागे, केम के विकार करतां स्वभाव तरफनुं वीर्य अनंतु छे तेथी ते अल्प
काळमां ज मोक्षने साधी ल्ये छे. पण ते माटे जीवने अंतरमां यथार्थ उल्लास आववो जोईए.
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होंशथी कूदका मारे छे–नाचे छे. तो अरे जीव! तुं अनादि अनादिकाळथी अज्ञानभावे आ संसारबंधनमां
बंधायेलो छे, अने हवे आ मनुष्यभवमां सत्समागमे ए संसारबंधनथी छूटवाना टाणां आव्या छे. श्री
संसारथी छूटकारानी होंश न आवे तो तुं पेला वाछरडामांथी पण जाय तेवो छे! खुल्ली हवामां फरवानुं ने छूटा
पाणी पीवानुं टाणुं मळतां छूटापणानी मोज माणवामां वाछरडाने पण केवी होंश आवे छे! तो जे समजवाथी
अनादिना संसारबंधन छूटीने मोक्षना परम आनंदनी प्राप्ति थाय–एवी चैतन्यस्वभावनी वात ज्ञानी पासेथी
सांभळतां क्या आत्मार्थी जीवने अंतरमां होंश ने उल्लास न आवे? अने जेने अंतरमां सत् समजवानो
उल्लास छे तेने अल्पकाळमां मुक्ति थया विना रहे नहीं. पहेलांं तो जीवने संसारभ्रमणमां मनुष्यभव अने
सत्नुं श्रवण ज मळवुं बहु मोंघुं छे. अने कवचित् सत्नुं श्रवण मळ्युं त्यारे पण जीवे अंतरमां विचार करीने,
सत्नो उल्लास लावीने, अंतरमां बेसार्युं नहि, तेथी ज संसारमां रखड्यो. भाई, आ तने नथी शोभतुं! आवा
मोंघा अवसरे पण तुं आत्मस्वभावने नहि समज तो क्यारे समजीश? अने ए समज्या वगर तारा
रझडे छे, ते रझडवानो अंत आवे ने मुक्ति थाय एवुं कंईक बतावो!’ आवो जिज्ञासानो प्रश्न पण कोईकने ज
ऊठे छे. आवा मोंघां टाणां फरी फरीने मळता नथी, माटे जिज्ञासु थई, अंतरमां मेळवणी करीने साचुं
सुधी, सोनगढमां श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट तरफथी
तत्त्वज्ञानना अभ्यास माटे एक जैनदर्शन शिक्षणवर्ग खोलवानुं
नक्की कर्युं छे. खास प्रौढ उंमरना जिज्ञासु भाईओ माटे आ वर्ग
खोलवामां आव्यो छे. जे मुमुक्षु भाईओने वर्गमां आववानी
ईच्छा होय तेमणे नीचेना सरनामे सूचना मोकली देवी.
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ने पुण्यनुं फळ संसार छे; धर्म ते आत्मानो शुद्ध भाव छे ने पुण्य तो अशुद्धभाव छे.
बहारनी क्रियामां धर्म माने छे, ते अज्ञानी जीव धर्मनुं स्वरूप समजतो नथी. धर्म तो वीतरागभाव छे. पुण्य
ते रागभाव छे.
पुण्य तो अज्ञानी अने अभव्य जीव पण करे छे पण तेने आत्माना भान वगर धर्म जरापण थतो नथी.
कारण छे.
परंतु ए सिवाय पुण्य तो विकारी पर्याय छे, तेथी पुण्य ते खरेखर मोक्षमार्ग नथी, पुण्य ते संवर नथी, पुण्य ते
धर्म नथी, पुण्य ते रत्नत्रय नथी, पुण्य ते आत्मानी शांतिनो उपाय नथी.
आत्मामां धर्म (–शांति) शक्तिरूपे भरपूर छे, तेनी ओळखाण–श्रद्धा, ज्ञान करीने तेमां एकाग्र थवाथी ते प्रगटे
छे. ए धर्म क्यांय बहारमांथी एटले के देहनी क्रिया के पैसा वगेरेमांथी आवतो नथी. जेम लींडीपीपरनी
तीखास लींडीमांथी आवे छे तेम मात्मानी धर्मरूपी तीखास आत्माना स्वभावमांथी ज आवे छे, पुण्यमांथी के
पर पदार्थोमांथी ते आवती नथी. पुण्य अने धर्मनुं स्वरूप जुदुं जुदुं जे रीते छे ते रीते ओळखवुं जोईए.
नथी. अज्ञानीओ पुण्यथी धर्म माने छे. जेओ पुण्यथी धर्म माने छे तेओ पुण्यतत्त्वने अने संवर–निर्जरातत्त्वने
एक ज माने छे, एटले तेओ खरेखर नव तत्त्वने समज्या नथी. अने तेथी तेओए सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवानने
के ज्ञानीने पण खरेखर मान्या नथी. माटे जिज्ञासुओए पुण्य अने धर्म ए बंनेने जुदा जुदा जाणवा जोईए.
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१९९७ थी मांडीने दर वर्षे आवो शिक्षणवर्ग खोलवामां आवे छे. वचमां त्रण वखत पू. गुरुदेवश्री विहारमां
होवाथी ए वर्ग खोलायो न हतो; ए रीते ‘शिक्षणवर्ग’ नुं आ आठमुं वर्ष हतुं. आ वर्गमां आवेला बाळकोने
श्री जैनसिद्धांत प्रवेशिकानो एक अध्याय तथा छहढाळानी पहेली बे ढाळ शीखववामां आवी हती. ता. २–६–
प१ ना रोज वर्गनी लेखित परीक्षा लेवामां आवी हती, ने विद्यार्थीओने लगभग १प० रूा. नां पुस्तको ईनाम
तरीके वहेंचाया हता. तथा पास थयेला विद्यार्थीओने श्री जैन स्वाध्याय मंदिर तरफथी छापेला सर्टिफिकेट
आपवामां आव्या हता. परीक्षामां विद्यार्थीओने पूछायेला प्रश्नो अने तेना जवाबो अहीं आपवामां आवे छे:–
(१) संसारमां परिभ्रमण करतो जीव शा कारणे अनंत दुःख भोगवे छे?
(२) पुण्य अने धर्म.
देनार होवा छतां तेने सुखरूप मानीने तेनुं सेवन करे छे. पुण्य ते आस्रवरूप होवा छतां तेने ते धर्मनुं
कारण माने छे. तथा आत्मभानपूर्वक ईच्छानो निरोध ते तप छे, तेनाथी निर्जरा थाय छे, ते सुखरूप
होवा छतां अज्ञानी तेने कलेशरूप माने छे अने पांच ईन्द्रियविषयोमां प्रीति करे छे, –आ निर्जरातत्त्वनी
भूल छे.
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तेमने बीजा केटलाक गुणना विभावअर्थपर्यायो पण छे, तथा विभावव्यंजनपर्याय छे. महावीर
भगवानने विभावपर्यायो नथी.
स्वभावव्यंजनपर्यायनी आकृतिमां एटलो फेर छे के महावीर भगवाननी आकृति नानी छे ने ऋषभदेव
भगवाननी आकृति मोटी छे.
छे पण अगृहीत मिथ्यादर्शन अज्ञानी जीवे कदी छोड्युं नथी. गृहीत मिथ्यादर्शन छूटवा छतां अगृहीत
मिथ्यादर्शन रही जाय छे; अगृहीत मिथ्यादर्शन छूटे तेने गृहीत मिथ्यादर्शन पण छूटी ज जाय छे.
एकवार पण अगृहीत मिथ्यादर्शन छोडे तो जीवनी मुक्ति थया वगर रहे नहि. पोताना आत्माना
स्वरूप संबंधी भूल ते अगृहीत मिथ्यादर्शन छे अने देवगुरुशास्त्रना स्वरूपसंबंधी भूल ते गृहीत
मिथ्यादर्शन छे.
(२) सिद्ध परमात्माने आकार होय?
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(४) धर्मास्तिकाय गति करी शके?
(प) तमे क्षमा करी शको छो?
(६) अलोकाकाशमां परिणमन हेय?
(४) धर्मास्तिकाय पोते गति न करी शके, केम के तेनामां तेवी क्रियावती शक्ति नथी. गति तो जीव अने
गतिहेतुत्त्वगुण तेनामां छे पण ते पोते तो सदा स्थिर ज रहे छे.
(६) अलोकाकाशने पण परिणमन होय छे, केम के आकाशमां द्रव्यत्वगुण छे, तेथी तेनी हालत सदाय बदलाया
मिथ्याज्ञान टळीने मने सम्यग्ज्ञान थयुं ने भविष्यमां उग्र पुरुषार्थ करीने हुं केवळज्ञान प्राप्त करीश.’
लखीने तेनुं कारण जणावो–
(२) मुख अने वाणी
(३) तेमनी वाणी अने मारुं सम्यग्ज्ञान
(४) मारुं सम्यग्ज्ञान अने मिथ्याज्ञान
(प) मारुं सम्यग्ज्ञान अने केवळज्ञान.
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(२) मिथ्याज्ञान अने सम्यग्ज्ञान ए बंने, जीवना ज्ञानगुणनी पर्यायो छे; ज्यारे मिथ्याज्ञान टळीने सम्यग्ज्ञान
प्रगटे छे त्यारे ज्ञानगुणमां सम्यग्ज्ञान पर्यायनो उत्पाद् थाय छे, पूर्वनी मिथ्याज्ञानपर्यायनो व्यय थाय छे अने
ज्ञानगुण ध्रुवपणे रहे छे.
जे गुण होय ते कया द्रव्यनो–केवी जातनो गुण छे ते लखो, अने जे पर्याय होय ते क्या द्रव्यना क्या गुणनो
केवो (विकारी के अविकारी) पर्याय छे ते जणावो.
(१) खटाश (२) सम्यग्दर्शन (३) रात
(प) स्थितिहेतुत्त्व ते गुण छे:– अधर्मास्तिकायद्रव्यनो विशेषगुण.
(६) काळाणु ते द्रव्य छे:– परिणमनहेतुत्त्व तेनो विशेषगुण छे.
(७) मृगजळ ते पर्याय छे:– पुद्गलद्रव्यना रंग गुणनी. (विकारी)
(८) केवळज्ञान ते पर्याय छे:– जीवद्रव्यना ज्ञानगुणनी. (अविकारी)
(९) समुद्घात ते पर्याय छे:– जीवद्रव्यना प्रदेशत्वगुणनी. (विकारी)
(१०) अरिसामां देखातुं अग्निनी ज्वाळानुं प्रतिबिंब ते पर्याय छे:– पुद्गलद्रव्यना रंगगुणनी. (विकारी) *
(२) वसाणी हसमुखलाल वेलसीभाई राणपुर मार्क ८९
(३) शाह वसंतराय मगनलाल बरवाळा मार्क ८६
(४) शाह राजेन्द्र प्रेमचंद सुरत मार्क ८६
(प) शाह अनिलकुमार हिंमतलाल भावनगर मार्क ८६
(६) शाह भाईलाल ईश्वरलाल महेसाणा मार्क ८प
दंभी गुरु एटले के कुगुरु छे. कुगुरुओ पत्थरनी नौका समान छे. जेम पत्थरनी नौका पोते तो डूबे छे ने तेमां
बेसनार पण डूबे छे, तेम कुगुरु पोते तो संसारमां डूबे छे ने तेनुं सेवन करनार पण संसारमां डूबे छे. माटे हे
जीवो! जो तमे आ संसारसमुद्रथी बचवा चाहता हो तो कुदेव–कुगुरु–कुधर्मना सेवनने छोडी दईने साचा देव–
चारित्र ते ज आ भवसमुद्रथी तरवानो उपाय छे.
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जीव अनादि काळथी तिर्यंच–नरक–मनुष्य ने देव एवी चार गतिरूप संसारमां रखडे छे ने तेमां
दुःखनां जे कारणो होय तेने बराबर ओळखे तो तेने टाळीने सुखनो उपाय करे.
संसारमां रखडे छे ने अनंतदुःख अनुभवे छे.
तत्त्वने पण ते विपरीत माने छे; ते संसार परिभ्रमणना दुःखनुं कारण छे. जीव साचा देव–गुरु–शास्त्रने
ओळखे अने तेमना सत्य उपदेश वडे सात तत्त्वोनुं तथा पोताना आत्मानुं स्वरूप समजीने अनादिना
मिथ्यात्वने टाळे ने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगट करे तो तेने मोक्षना अनंतसुखनो अनुभव थाय ने तेनुं
संसार परिभ्रमणनुं दुःख टळी जाय.
ते ज दुःख छे. ते दुःख कोई बहारना साधनथी टळतुं नथी पण पोतानी साची समजणथी ज टळे छे.
माने छे एटले के देह ते ज हुं छुं–एम ते माने छे. तेथी देहनो संयोग थतां ते पोताना आत्मानो जन्म माने छे
ने देहनो वियोग थतां ते आत्मानो ज नाश माने छे एटले जन्मथी मरण सुधीनो ज आत्मा छे एम ते माने
छे. वळी देहना काम हुं करुं छुं, देहनी सगवडअगवडथी हुं सुखी–दुःखी छुं–एम ते अज्ञानी माने छे. मोक्षना
कारणरूप जे संवर–निर्जरा छे तेमां तो ते प्रीति करतो नथी ने तेने कठण मानीने ईन्द्रियविषयोमां प्रीति करे छे.
आवी ऊंधी श्रद्धा ते मिथ्यात्व छे ने ते मिथ्यात्वना प्रभावथी जीव अनादिथी संसारमां रखडे छे. क्यारेक दुर्लभ
मनुष्यपणुं मळे त्यारे पण कुदेव–कुगुरु अने कुधर्मना सेवनथी मिथ्यात्वने पुष्ट करे छे एटले तेनुं संसारभ्रमण
मटतुं नथी, ने पोताना दुर्लभ मनुष्यजीवनने नष्ट करीने पोताना ज हाथे पोतानुं अकल्याण करीने अनंतदुःख
भोगवे छे. माटे दुर्लभ मनुष्यभव पामीने, साचा देव–गुरु धर्मने ओळखीने सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान अने
सम्यक्चारित्रनुं सेवन करवाथी मोक्षसुख प्रगटे छे, ने संसारपरिभ्रमणनुं दुःख टळे छे.