Atmadharma magazine - Ank 116
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(Devanagari transliteration).

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जेठः २४७९ः १७७ः
मा...न...स्तं...भ
(१) सोनगढनो मानस्तंभ
सोनगढमां जे मानस्तंभ छे ते ६३ फूट ऊंचो छे; आ आखोय मानस्तंभ आरसनो बनेलो छे. तेमां
उपर तेम ज नीचे चारे दिशामां श्री सीमंधर भगवान बिराजमान छे, अने नीचेनी त्रणे पीठिकाओमां
जैनधर्मना ऐतिहासिक चित्रो कोतरेला छे. आ मानस्तंभमां सीमंधर प्रभुजीनी प्रतिष्ठा परम पूज्य सद्गुरुदेव
श्री कानजी स्वामीना मंगलकारी हस्ते वीर सं. २४७९ ना चैत्र सुद १० ने बुधवारे थई छे.
(२) मानस्तंभ ते शुं छे? अने क्यां क्यां छे?
मानस्तंभ ते कीर्तिस्तंभ नथी पण जैनधर्मनो स्तंभ छे. कीर्तिस्तंभ ते तो लौकिक वस्तु छे अने
मानस्तंभ तो जिनेन्द्रधर्मनो वैभव बतावनार धर्मस्तंभ छे; तेने ‘धर्मवैभव’ पण कहेवाय छे अने इन्द्र वगेरे
जीवो तेनुं सन्मान करे छे तेथी तेने ‘इन्द्रध्वज’ पण कहेवाय छे.
आ मनुष्यलोकमां ज महाविदेहक्षेत्र छे, त्यां अत्यारे सीमंधर भगवान वगेरे तीर्थंकरो विचरे छे, तेमना
समवसरणमां चारे बाजु चार मानस्तंभ छे. मानस्तंभने देखतां ज मिथ्याद्रष्टि जीवोनुं अभिमान गळी जाय छे.
आ मध्यलोकमां असंख्य द्वीप–समूद्रो छे, तेमां अहींथी आठमो नंदीश्वर द्वीप छे, त्यां शाश्वत जिनमंदिरो
अने मानस्तंभो छे. त्रिलोकसारमां तेने ‘धर्मवैभव’ तरीके वर्णव्या छे.
ऊर्ध्वलोकमां वैमानिक देवलोकमां पण शाश्वत मानस्तंभो छे; ते मानस्तंभमां सांकळथी लटकता
पटारामां तीर्थंकरो माटेनां आभूषणो रहे छे.
सौधर्म स्वर्गना मानस्तंभमां भरतक्षेत्रना तीर्थंकरोनां आभरण रहे छे.
ईशान स्वर्गना मानस्तंभमां ऐरावतक्षेत्रना तीर्थंकरोना आभरण रहे छे.
सनत्कुमार स्वर्गना मानस्तंभमां पूर्वविदेहक्षेत्रना तीर्थंकरोना आभरण रहे छे.
माहेन्द्रस्वर्गना मानस्तंभमां पश्चिमविदेहक्षेत्रना तीर्थंकरोना आभरण रहे छे.
आ मानस्तंभमां रहेला आभूषणो लईने ईंद्र तीर्थंकरने (गृहस्थदशामां) पहोंचाडे छे.
वळी आ पृथ्वीनी नीचे भवनपति अने व्यंतर देवोना निवासस्थान आवेला छे, त्यां पण शाश्वत
जिनमंदिरो छे ने तेनी सामे शाश्वत मानस्तंभो छे.
आ उपरांत अत्यारे भारतमां पण श्री सम्मेदशिखरजी, महावीरजी, पावागढ, अजमेर, जयपुर–
संग्रहस्थान, तारंगा, आरा, चित्तोड, दक्षिण कन्नड, मूलबिद्री, कारकल, श्रवण बेलगोला म्हैसुर वगेरे अनेक
स्थळोए मानस्तंभो छे.
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(अनुसंधान पृष्ठ १७२ थी चालु)
छे ते जीव भवरहित एवा केवळी भगवाननी प्रतीतनो पुरुषार्थ क्यांथी लावशे?–एनामां तो धर्म
पामवानी पात्रता पण नथी; भवरहित एवा केवळी भगवाननी वाणी केवी होय–तेनो निर्णय पण ते करी
शकशे नहि. कोई जीव रागथी धर्म थशे एम माने, देहनी क्रियाथी धर्म माने, अने कहे के हुं केवळी भगवाननो
भक्त छुं,–तो खरेखर ते जीव केवळी भगवाननो भक्त नथी, ते केवळी भगवानने मानतो ज नथी, ते तो
व्यवहारमूढ छे; ते अज्ञानी जीव एकला विकारनी ने व्यवहारनी ज हयाती स्वीकारे छे पण परमार्थरूप
ज्ञायकभावनी हयातीने स्वीकारतो नथी एटले ते व्यवहारथी ज विमोहित चित्तवाळो मिथ्याद्रष्टि छे.
भूतार्थस्वभावनी सन्मुख थईने आत्माने शुद्धपणे जे अनुभवे छे ते ज सम्यग्द्रष्टि छे; जेणे पोताना
भूतार्थस्वभावनुं अवलंबन लईने ज्ञानस्वभावनो निर्णय कर्यो तेणे ज खरेखर केवळी भगवानने मान्या छे
अने ते ज भगवाननो खरो भक्त छे. भगवानना आवा भक्तने भवनी शंका रहेती नथी, अल्पकाळमां
भवनो नाश करीने ते पोते पण भगवान थई जाय छे.