Atmadharma magazine - Ank 118
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953).

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: ૨૧૬ : આત્મધર્મ–૧૧૮ : શ્રાવણ : ૨૦૦૯ :
न होने योग्य] रह जाता है? अर्थात् कुछ भी नहि।
[२१४] सबको जीतने की इच्छा करनेवाले भरत
चक्रवर्तीने पुण्य के प्रभाव से, जिसमें ज्वार–भाटा
उठ रहे हैं और जिसमें लहरों के समूह वायु से
ताडित हो रहे हैं ऐसे समुद्र को उल्लंघन कर
शीघ्र ही मागध देवको जीत लिया, सो ठीक ही
है क्योंकि अतिशय बलवान पुण्य के रहते हुए
संसार में अजय्य अर्थात् जीतने के अयोग्य क्या
रह जाता है? ––कुछ भी नहीं।
[२१५] बहुत भारी लक्ष्मी धारण करने वाले चक्रवर्ती
भरतने पुण्यकर्म के उदय से ही बिना किसी
उपद्रव के, उल्लंघ करने के अयोग्य समुद्र को
उल्लंघन कर समुद्र का जल ही जिसकी सीमा है
ऐसी पृथिवी को अपने आधीन कर लिया, सो
ठीक ही है क्योंकि इष्ट पदार्थों की सिद्धि के लिये
पुण्य से बढ
कर और कोई साधन नहीं है।।
[२१६] शत्रुओंके समूहके लिये जिनकी सम्पति बहुत ही
भयंकर है ऐसे चक्रवर्ती भरतने अत्यंत भयंकर
मगर मच्छोंके समूहसे भरे हुए समुद्र को उल्लंघन
कर अन्य किसीके वश न होने योग्य मागध
देवोंको निश्चितरूपसे वश कर लिया, सो ठीक
ही है क्योंकि लोकमें पुण्यसे बढ
कर और कोई
वशीकरण [वश करनेवाला] नहीं है।।
[२१७] पुण्य ही मनुष्योंको जलमें स्थल के समान हो
जाता है, पुण्य ही स्थल में जल के समान होकर
शीघ्र ही समस्त संताप को नष्ट कर देता है, और
पुण्य ही जल तथा स्थल दोनों जगह के भयमें
एक तीसरा पदार्थ होकर शरण होता है,
इसलिये हे भव्यजनो! तुम लोग जिनेन्द्रभगवानके
द्वारा कहे हुए पुण्यकर्म करो।।
[२१८] पुण्य ही आपत्तिके समय किसीके द्वारा उल्लंघन
न करने के योग्य उत्कृष्ट शरण है, पुण्य ही
दरिद्र मनुष्योके लिये घन देनेवाला है और पुण्य
ही सुखकी इच्छा करनेवाले लोगोंके लिये सुख
देनेवाला है, इसलिये हे सज्जन पुरुषो! तुम
लोग जिनेन्द्रभगवानके द्वारा कहे हुए इस
पुण्यरूपी रत्नका संचय करो।।
[२२०] इस प्रकार जिसने लोगोंके समूहसे पुण्य की
घोषणा सुनी है ऐसे चक्रवर्ती भरत, अपने पुण्य–
कर्मके उदयसे प्राप्त हुए इष्ट वस्तुओंके लाभकी
प्रशंसा करते हुए सभा–भवनमें पहुँचे।
* મહાપુરાણના ૩૭મા પર્વમાં ભગવત્
જિનસેનાચાર્ય ભરતચક્રવર્તીના અનેકવિધ વૈભવનું વર્ણન
કર્યા બાદ કહે છે કે––
[श्लोकः १९०] पुण्यकल्पतरोरासन् फलान्येतानि चक्रिणः।
यान्यनन्योपभोग्यानि भोगाड्गान्यतुलानि वै।।
[१९१] पुण्याद् विना कुतस्ताद्रग्रूपसंपदनीद्रशी ।
पुण्याद् विना कुतस्ताद्रगभेद्यं गात्रबंधनम्।।
[१९२] पुण्याद् विना कुतस्ताद्रड्निधिरत्नर्द्धिरुर्जिता।
पुण्याद् विना कुतस्ताद्रगिमाश्वादिपरिच्छदः।।
[१९३] पुण्याद् विना कुतस्ताद्रगन्तःपुरमहोदयः।
पुण्याद् विना कुतस्ताद्रग् दशांगो भोगसम्भवः।।
[१९४] पुण्याद् विना कुतस्ताद्रगाज्ञाद्वीपाब्धिलंधिनी।
पुण्याद् विना कुतस्ताद्रग्जयश्रीर्जित्वरी दिशाम्।।
[१९५] पुण्याद् विना कुतस्ताद्रक्प्रतापः प्रणतामरः।
पुण्याद् विना कुतस्ताद्रग्उद्योगो लङ्धितार्णव।।
[१९६] पुण्याद् विना कुतस्ताद्रक् प्राभवं त्रिजगज्जयि।
पुण्याद् विना कुतस्ताद्रक् नगराजजयोत्सवः।।
[१९७] पुण्याद् विना कुतस्ताद्रक् सत्कारस्तत्कृतोऽधिकः।
पुण्याद् विना कुतस्ताद्रक् सरिद्देव्यभिषेचनम्।।
[१९८] पुण्याद् विना कुतस्ताद्रक् खचरालनिर्जयः।
पुण्याद् विना कुतस्ताद्रग्रत्नलाभोऽन्यदुर्लभः।।
[१९९] पुण्याद् विना कुतस्ताद्रगायतिर्मरतेऽखिले।
–धनागमः प्रभावो वा।
पुण्याद् विना कुतस्ताद्रक् कीर्तिर्दिक्तटलङ्धिनी।।
[२००] ततः पुण्योदयोद्भूतां मत्वा चक्रभृतः श्रियम्।
चिनुध्वं भो बुधाः पुण्यं यत्पुण्यं सुखसम्पदाम्।।
[हिंदी अर्थ]
[१९०] चक्रवर्ती के ये सब भोगोपभोग के साधन उसके
पुण्यरूपी कल्पवृक्ष के फल थे, उन्हें अन्य कोई
नहि भोग सकता था और वे संसार में अपनी
बराबरी नहि रखते थे।