: shrAvaN : 2009 : Atmadharma–118 : 215 :
[१५] धर्मादिष्टार्थसम्पत्तिस्ततः काम सुखोदयः।
स च संप्रीतये पुंसां धर्मात्सैषा परम्परा।।
[१६] राज्यञ्च सम्पदो भोगाः कुले जन्म सुरूपता।
पाण्डित्यमायुरारोग्यं धर्मस्यैतत्फलं विदुः।।
[१७] न कारणाद्विना कार्यं निष्पत्तिरिह जातुचित्।
प्रदीपेन विना दीप्ति द्रष्टपूर्वा किमु क्वचित्।।
[१८] नाड्कुरः स्याद्विना बीजाद्विना वृष्टिर्न वारिदात्।
छत्राद्विनापि नच्छाया विना धर्मान्न सम्पदः।।
[हिंदी अर्थ]
[१४] हे विद्याधरों के स्वामी! जरा इधर सुनिये,
मैं आपके कल्याण करनेवाले कुछ वचन कहूँगा। हे प्रभो!
आपको जो यह विद्याधरों की लक्ष्मी प्राप्त हुई है उसे आप
केवल पुण्य काही फल समझिये।।
[१५] हे राजन्! धर्म से इच्छानुसार सम्पत्ति
मिलती है ×××
[१६] राज्य, सम्पदाएँ, भोग, योग्य कुल में
जन्म, सुन्दरता, पाण्डित्य, दीर्घआयु और आरोग्य –यह
सब पुण्य का ही फल समझिये।।
[१७–१८] जिस प्रकार कारण के बिना कभी कार्य
की उत्पत्ति नहि होती ××× उसी प्रकार धर्म [पुण्य] के
बिना सम्पदाएर्ं प्राप्त नहि होती।।
* mahApurANanA chhaThThA parvamAn AchAryadev kahe chhe ke ––
[श्लोक १९५] ततोऽभिषेकं द्वात्रिंशत्सहस्रधरणीरवरैः।
चक्रवर्ती परं प्रापत पुण्यैः कि नु न लभ्यते।।
[अर्थः] उस समय चक्रवर्तीने बत्तीस हजार
राजाओं द्वारा किये हुए राज्याभिषेक महोत्सव को प्राप्त किया
था, सो ठीक ही है, पुण्य से क्या क्या नहि प्राप्त होता?
[श्लोक २०२] पुण्यकल्पतरोरुच्चैः फलानीव महान्त्यलम्।
बभुवुस्तरय रत्नानि चतुर्दश विशां विभोः।।
[२०३] निधयो नव तस्यासन् पुण्यानामिव राशयः।
यैरक्षयैरमुष्यासीद् गृहवार्ता महोदया।।
अर्थः [२०२] पुण्यरूपी कल्पवृक्ष के बडe से बडे फल
इतने होते हैं यह वात सूचित करने के लिये ही मानो उस
चक्रवर्ती के चौदह महारत्न प्रकट हुए थे।
[२०३] उसके यहां पुण्य की राशि के समान नौ
अक्षय निधियां प्रकट हुई थीं उन निधियों से उसका
भण्डार हमेशा भरा रहता था।।
भगवत् जिनसेनाचार्य mahApurAN (AdipurAN) nA
28mA parvamAn kahe chhe ke ––
[श्लोक २१३] देवोडयमम्बुधिमगाधमलड्ध्यपारम्।
मुल्लड्धय लव्धविजयः पुनरप्युपायात्।
पुण्यैकसारथिरिहेति विनान्तरायैः
पुण्ये प्रसेदुषि नृणां किमिवास्त्यलड्ध्यम्।।
[२१४] पुण्योदयं भरतचक्रधरो जिगीषुरु
द्भिन्नवेलमनिलाहतवीचिमालम्।
प्रोल्लड्ध्य वार्धिममरं सहसा विजिग्ये
पुण्ये बलीयसि किमस्ति जगत्वजय्यम्।।
[२१५] पुण्योदयेन मकराकरवारिसीम
पृथ्वीं स्वसादकृत चक्रधरः पृथुश्रीः।
दुर्लड्ध्यमब्धिमवगाह्य विनोपसर्गैः
पुष्पात् परे न खलु साधनमिष्टसिद्धयै।।
[२१६] चक्रायुधोऽयमरिचक्रभयंकर श्रीराक्रम्य
सिन्धुमतिभीषणनक्रचक्रम्।
चक्रे वशे सुरमवश्यमनन्यवश्यं
पुण्यात्परं न हि वशीकरणं जगत्याम्।।
[२१७] पुण्यं जले स्थलभिवाभ्यवपद्यते नृन्
पुण्यं स्थले जलभिवाशु नियन्ति तापम्।
पुण्यं जलस्थलभये शरणं तृतीयं
पुण्यं कुरुध्वमत एव जना जिनोक्तम्।।
[२१८] पुण्यं परं शरणमापदि दुर्विलंध्यं
पुण्यं दरिद्रति जने धनदायि पुण्यम्।
पुण्यं सुखार्थिनि जने सुखदायि रत्नं
पुण्यं जिनोदितमतः सुजनाश्चिनुध्वम्।।
[२२०] इत्थं स्वपुण्यपरिपाकजमिष्टलाभं
संश्लाघयनू जनतया श्रुतपुण्यघोषः।
चक्री सभागृहगतो नृपचक्रमध्ये
शक्रोपमः पृथुनृपासनमध्यवात्सीत्।।
[हिंदी अर्थ]
[२१३] एक पुण्य ही जिनका सहायक हैं ऐसे महाराज
भरत अगाध और पाररहित समुद्र को उल्लंघन कर तथा
योग्य उपाय से विजय प्राप्त कर बिना किसी विघ्न–बाधा के
यहां वापिस आ गये हैं सो ठीक ही है क्योंकि निर्मल पुण्य
के रहते हुए मनुष्यों को क्या अलंघनीय [प्राप्त