Atmadharma magazine - Ank 118
(Year 10 - Vir Nirvana Samvat 2479, A.D. 1953)
(English transliteration).

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: 204 : Atmadharma–118 : shrAvaN : 2009 :
वाला दूसरा कोई कर्म नहीं है, क्योंकि वैसा कोई कर्म पाया नहि जाता।
[ahIn bAhya sudravyonA sampAdanamAn sAtAvedanIyane kAraN kahyun chhe. ane bahAramAn sukh–dukhanA kAraNarUp dravyonun
sampAdan vedanIyakarmanA udayathI ja thAy chhe em siddha karyun chhe.)
shrI gommaTasAranI pIThikAmAn pRu. 14mAn lakhyun chhe ke :–
“रे पापी! धन किछू अपना उपजाया तौ न हो है। भाग्यतैं हो है, सो ग्रंथाभ्यास आदि धर्म साधनतैं जो पुण्य
निपजै ताहीका नाम भाग्य है। बहुरि धन होना है तो शास्त्रभ्यास कीए कैसैं न होगा? अर न होना हैं तौ शास्त्राभ्यास न
कीए कैसैं होगा? तातैं धन का होना, न होना तौ उदयाधीन है।”
[––ahIn spaShTa kahyun chhe ke dhananun hovun–na hovun te udayAdhIn chhe.]
vaLI tyAn ja pRu. 1pamAn lakhyun chhe ke :–
विषयजनित जो सुख है सो दुःख ही है। जातैं विषयसुख है सो पर निमित्ततैं हो है। पहिले पीछैं तत्काल
आकुलता लिए है, जाके नाश होने के अनेक कारण पाइए है, आगामी नरकादि दुर्गतिकौं प्राप्त करणहारा है, ऐसा है
तौ भी तेरा चाह्या मिलै नाहीं, पूर्व पुण्यतैं हो है तातैं विषम है। ’
[––ahIn viShayajanit sukhanI sAmagrI pUrva puNyathI thAy chhe em spaShTa kahyun chhe.]
shrI gommaTasAr gA. 1pa2 tathA tenI TIkAmAn kahe chhe ke :–
“जातिजरामरणभयाः संयोगवियोगदुःखसंज्ञाः।
रोगादिकाश्च यस्यां न संति सा भवति सिद्धगतिः।।१५२।।”
“कर्म वशाज्जीवस्य×××क्लेशकारणानिष्टद्रव्यसंगमः संयोगः। सुखकारणेष्टद्रव्यापायो वियोग एतेभ्यः
समुत्पन्नानि आत्मनो निग्रहरूपाणि दुःखानि। ×××रोगादिकाश्च–रोग–मानभंगवधबंधादिविविधवेदनाश्च यस्यां गतौ न
संति तत्तत्कारणकृत्स्नकर्मविप्रमोक्षे सति न जायंते सा सिद्धगतिः” (jIvakAnD pRu. 37p)
[ahIn kahyun ke karmane vash jIvane kaleshanA kAraNarUp aniShTadravyano sanyog tathA sukhanA kAraNarUp IShTa dravyano viyog thAy chhe;
ane siddhadashAmAn rog–mAnabhang–vadh–bandhanAdinA kAraNarUp karmano kShay thaI javAthI rogAdi nathI; A rIte ahIn rogAdik aniShTa
sAmagrIno sanyog thavAmAn temaj IShTano viyog thavAmAn karmanun kAraNapaNun batAvyun chhe.)
‘दरिद्री लक्ष्मीवान इत्यादिक विचित्रता कर्म बिना नाहीं संभवै है। ’।
[shrI gommaTasAr karmakAnD gA. 2nI TIkA : pAnu 3]
[daridratA ane lakShmIvAnapaNun ItyAdik vichitratA thavAmAn karma nimitta chhe––em ahIn jaNAvyun chhe.)
shrI gommaTasAr karmakAnD pA. 902–903 nI phuTanoTamAn nIche mujab kahyun chhe :–
[१] “××× सयोगकेवलिनींद्रियविषयसुखकारण सातवेदनीयबंध उदयात्मकः स्यात्×××
[ahIn sAtA vedanIyane IndriyaviShayasukhanun kAraN kahyun chhe.)
[२] “मोहनीयोदयबलाधानरहितसातवेदोदयस्य बहिर्विषय संनिधीकरणसामर्थ्यमेव स्यान्न तद्विषयसुख–
संवेदनोत्पादक सामर्थ्य।”
[ahIn bAhyaviShayonA sannidhikaraNamAn sAtAvedanIyanA udayanun sAmarthya batAvyun chhe.)
[३] “सातवेदनीयोदय संजनितेंद्रियविषयकवलाहारादिभ्यो”
[
ahIn IndriyaviShayone sAtAvedanIyanA udayajanit kahyA chhe.)
shrI gommaTasAr–karmakAnD gAthA 810 mAn kahe chhe ke–
“प्राणवधादिषु रतो जिनपूजामोक्षमार्ग विघ्नकरः।
अर्जयति अंतरायं न लभते यदीप्सितं येन।।”
“जो जीव आपकरि वा अन्यकरि करी एकेन्द्री आदि प्राणीनिकी हिंसा तीहिंविषैं प्रीतिवंत होइ, जिनेश्वरकी पूजा
अर रत्नत्रय की प्राप्तिरूप मोक्षमार्ग तिसविषैं आपकैं वा अन्य जीवकैं विघ्न करै सो जीव अंतराय कर्म उपजावे हैं। जाके
उदय आवनेकरि वांछित न पावै है।
[ahIn vAnchhit prApti na thAy temAn antarAyakarmanA udayane nimitta kahyun chhe.)
shrI samayasAr gA. 84nI TIkAmAn kahe chhe ke––
‘पुद्गलकर्मविपाकसंपादितविषयसन्निधि×××
[हिंदी] ‘पुद्गलकर्म के उदयकर उत्पन्न की गई जो विषयों की समीपता×××(hindI samayasAr pRu. 139)