Atmadharma magazine - Ank 130
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954)
(Devanagari transliteration). Entry point of HTML version.

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Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust
302, ‘Krishna-Kunj’, Plot No.30, Navyug CHS Ltd., V. L. Mehta Marg, Vile Parle(w), Mumbai–400056
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Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust
(Shree Shantilal Ratilal Shah-Parivar)

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वर्ष अगियारमुं, अंक दसमो, श्रावण, सं. २०१० (वार्षिक लवाजम–३–०–०)
१३०
सिद्ध अने संसारी
जेवो सिद्ध परमात्मानो स्वभाव छे तेवा ज स्वभाववाळो आत्मा
आ देहमां रहेलो छे; सिद्ध भगवानमां अने आ आत्माना स्वभावमां
परमार्थे कांई फेर नथी, जेटलुं सामर्थ्य सिद्ध भगवानना आत्मामां छे
तेटलुं सामर्थ्य दरेक आत्मामां भर्युं छे. सिद्ध परमात्मा पोताना स्वभाव
सामर्थ्यनी प्रतीत करीने तेमां लीनता वडे पूर्ण ज्ञान–आनंद प्रगट करीने
मुक्त थई गया; अने अज्ञानी जीव पोताना स्वभाव सामर्थ्यने भूलीने,
रागादिमां ज पोतापणुं मानीने संसारमां रखडे छे.

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: १८६: आत्मधर्म–१३० : श्रावण: २०१०:
श्री मानस्तंभ–फंड खाते बाकी रहेली रकमो
श्री मानस्तंभ–फंड खाते लखायेली, अगर तो प्रतिष्ठा महोत्सव प्रसंगे बोलायेली नीचेनी रकमो
आववी बाकी छे, जेमनी रकमो बाकी छे तेमनां पूरा सरनामा मळी शकतां नथी; तेथी तेनां नामोनी
यादी अहीं प्रसिद्ध करवामां आवी छे; तो जे भाई–बहेनोनी रकमो बाकी होय तेमणे याद करीने, पोताना
पूरा नाम–सरनामा सहित ते रकमो मोकली आपवा विनंती छे:
–व्यवस्थापक
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट
सोनगढ (सौराष्ट्र)
१०१/– धनीबाई ५१/– शारदाबेन जयंतिलाल शेठ
६१/– झबकबेन ५१/– वल्लभदास मथुरदास
५१/– जयाकुंवरबेन ५१/– वासंतीबेन
११/– गोकळदास गुलाबचंद १०१/– जयंतिभाई–राजकोट
३१/– खीमचंद छगनलाल अजमेरा ४०/– छगनलाल बेचरदास (आरतीना)
१०२/– शेठ मानमल्लजी
६०/– कल्याणमल्ल फूलचंद, कलकत्ता
११/– रतिलाल वर्द्धमान मोदी १०१/– नंदलाल जैन, कलकत्ता
*
र्
भादरवा सुद पांचम ने गुरुवार ता. २–९–५४ थी भादरवा सुद चौदस ने शनिवार
ता. ११–९–५४ सुधीना दस दिवसो सोनगढमां दस लक्षणी धर्म अथवा पयुर्षणपर्व तरीके ऊजवाशे.
आ दिवसो दरमियान उत्तम क्षमा वगेरे धर्मो उपर पू. गुरुदेवश्रीनां खास अध्यात्म प्रवचनो थशे.
जैन अतिथि सेवा समितिनी वार्षिक बेठक
भादरवा सुद बीज ने सोमवार ता. ३०–८–५४ना रोज सांजे पांच वागे श्री जैन
अतिथि सेवा समितिनी वार्षिक बेठक मळशे. तेमां सर्वे सभ्योने हाजर रहेवा विनंती छे.
*
धार्मिक प्रवचनना खास दिवसो
सोनगढमां श्रावण वद तेरस ने गुरुवार ता. २६–८–५४ थी भादरवा सुद पांचम
ने गुरुवार ता. २–९–५४ सुधीना आठ दिवसो धार्मिक दिवसो तरीके ऊजवाशे, ने आ
दिवसोमां पू. गुरुदेवनां खास प्रवचनो थशे. आ दिवसो दरमियान घणाखरा मुमुक्षुओने
कामधंधाथी निवृत्तिनो विशेष अवकाश मळतो होवाथी तेओ लाभ लई शके ते हेतुए आ
आठ दिवसो राखवामां आवे छे.
***

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: श्रावण: २०१०: आत्मधर्म–१३० : १८७:
आत्मानुं ध्येय शुं?


देहथी भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा छे तेनी ओळखाण करीने तेमां एकाग्र थवुं ते ज आत्मानुं ध्येय
अने कर्तव्य छे. आत्माना भान वगर अनादिकाळथी आत्मा संसारमां रखडे छे, ते संसार परिभ्रमण टळीने
आत्मानी मुक्ति थाय–एवुं कर्तव्य शुं, तेनी आ वात छे. आ आत्माने पोतानो शुद्ध आत्मा ज ध्येय छे; ते
शुद्धआत्माने ध्येय बनावीने उपयोगने एकाग्र करतां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगटे छे, तेनाथी संसारनो
नाश थईने मोक्षदशा प्रगटे छे.
आत्मा देहथी जुदो, ज्ञान–आनंद स्वरूप छे, तेनो जाणवा देखवानो स्वभाव छे; पण ज्ञानने अंतर्मुख
करीने पोताना ज्ञानस्वरूपने न जोतां अनादिथी बहारमां ईन्द्रियना विषयोने ज देखे छे ने त्यां ज पोतापणुं
मानीने अटके छे तेथी अनादिथी तेनामां तत्त्वज्ञानना तरंग ऊठता नथी. आ ‘तत्त्वज्ञान तरंगिणी’ वंचाय छे,
आत्मामां तत्त्वज्ञानना तरंग केम ऊठे तेनी आ वात छे. आ शरीर देखाय छे ते तो जड छे तेनो जाणनार
आत्मा छे ते देहथी जुदो छे; अने क्षणे क्षणे अंदरमां जे रागादिनी लागणी थाय छे ते कृत्रिम–उपाधिरूप क्षणिक
छे, ते आत्मानुं कायमी स्वरूप नथी; तेनाथी रहित ज्ञानआनंद स्वभावे आत्मा अनादि अनंत छे, आवा
आत्मानी संभाळ करीने तेने ज्ञाननुं ध्येय बनावे तो आत्मामां तत्त्वज्ञानना अपूर्व तरंग ऊछळे, ते मोक्षनुं
कारण छे. ज्ञानस्वभाव तो एवो ने एवो अनादि अनंत छे पण जीवे कदी पोताना स्वरूपनी संभाळ करी नथी
तेथी ज ते संसारमां रखडे छे. एक क्षण पण पोताना वास्तविकस्वरूपनी संभाळ करे तो मुक्ति थया विना रहे
नहि.
जुओ भाई, आ मनुष्यदेह मळवो अनंतकाळे मोंघो छे, तो मनुष्यपणुं पामीने विचार करवो जोईए के
अरे, मारा आत्मानुं हित केम थाय? मारो आत्मा अनादिथी आ संसारमां रखडे छे तो हवे एवो शुं उपाय करुं
के जेथी संसारभ्रमणनो अंत आवे ने आत्मानी मुक्ति थाय! हुं शरीरथी भिन्न चैतन्यस्वरूप छुं–एम पोताना
स्वरूपनी ओळखाण करवी ते ज आ मनुष्यपणामां करवा जेवुं ध्येय छे, अने ए ज धर्म छे.
आत्मानुं ध्येय शुं? कर्तव्य शुं? अथवा धर्मनी क्रिया शुं? तेनी आ वात छे. प्रथम शरीर वगेरेनी क्रिया
ते आत्मानुं ध्येय नथी केमके ते तो जड छे–आत्माथी भिन्न वस्तु छे, अने अंदरमां पुण्य पापना परिणाम थाय
ते पण आत्मानुं ध्येय नथी, ते तो विकार छे; भगवान आत्मा आ मनुष्यदेहथी पार चैतन्यतत्त्व छे, ते
जाणनार–देखनार छे, जो ते पोते पोताने जाणे देखे तो आनंदनो अनुभव थाय ने परमानंदमय मुक्तदशा पामे.
माटे पोतानो शुद्ध ज्ञानानंद स्वरूप आत्मा ज आ आत्माने ध्येयरूप छे; तेनी श्रद्धा, ज्ञान अने एकाग्रता रूप
क्रिया ते मोक्षनुं कारण छे.
अनादिथी पोताना वास्तविक ध्येयने चूकीने अज्ञानी जीव, ‘शरीरनां काम मारां छे, संयोगनी क्रियाथी
मने लाभ के नुकसान थाय, तथा पुण्य–पाप मारुं ध्येय छे,’ एम मानीने, परमां ने रागमां एकाग्रताथी ऊंधुं
ध्यान करे छे तेथी संसारमां रखडे छे. सत्समागमे सत्यनुं श्रवण करीने तेना यथार्थ भावने जीवे कदी एक क्षण
पण हृदयमां झील्यो नथी; शरीरनी क्रियानी तथा रागनी पक्कडमां अटकी गयो छे पण तेनाथी पार अंतरमां
चैतन्यतेज–ज्ञानबिंब हुं छुं, जाणनार तत्त्व ज हुं छुं, एवी पककड अंतरमां कदी करी नथी. जाणनारे पोते
पोताने न जाण्यो ने परने ज जाणतां त्यां पोतापणुं मान्युं तेथी ते चार गतिमां भ्रमण करी रह्यो छे. ते भ्रमण
क्यारे टळे? के हुं तो जाणनार छुं, पर चीजोने जाणवा छतां तेमनाथी मारुं ज्ञान जुदुं छे, एम जाणीने पोते
पोताना ज्ञानने ज ध्येय बनावे तो संसारभ्रमण टळे ने आत्माना आनंदनो अनुभव थाय.

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: १८८: आत्मधर्म–१३० : श्रावण: २०१०:
माटे शास्त्रकार कहे छे के धर्मी जीवोने पोताना शुद्धचिद्रूप आत्मा सिवाय बीजी कोई चीज ध्येयरूप नथी. शुद्ध
चिद्रूप आत्मा पोते ज पोतानुं ध्येय छे–ते पोते ज पोताने पूज्य छे अने ते ज आदरणीय छे. जे जीव आवी
वात समजे तेने ते संभळावनारा देव–गुरु–शास्त्र प्रत्ये पूज्य भाव–आदरभाव आव्या विना रहे नहि अने
तेनाथी विपरीत कहेनारा एवा कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्र प्रत्येनो आदरभाव तेने छुटी जाय. अंतरमां चिदानंद
स्वभावनुं बहुमान करीने तेने ध्येय बनाववाथी ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनो लाभ थाय छे, आवुं ज
बतावता होय ते ज देव–गुरु–शास्त्र साचा छे; अंतरना चैतन्यस्वभाव सिवाय कोई पण परने ध्येय
बनाववाथी लाभ थवानुं जे कहेता होय ते देव–गुरु–शास्त्र साचा नथी. आ रीते साचा देव–गुरु–शास्त्रने
ओळखीने तेमना बहुमाननी वात पण आमां आवी जाय छे.
परचीज तो आत्माथी जुदी छे, ते आत्मानुं कांई करती नथी अने आत्मा तेनुं कांई करतो नथी. पर
चीजो समये समये स्वतंत्रपणे पोतपोतानुं कार्य करी रही छे अने आत्मा समये समये पोतानुं कार्य करे छे.
सर्वज्ञदेवे पोताना ज्ञानमां त्रणकाळ त्रणलोक जोया, तेमां दरेक पदार्थ समये समये पोतपोतानुं कार्य करे ज छे,
जगतमां कोई पण पदार्थ ‘नकामो’ नथी. ‘कोई पण पदार्थ नकामो नथी’ एटले शुं? ‘पर चीज आत्माने काम
आवे’ एवो एनो अर्थ नथी, आत्माने माटे तो पर चीज नकामी ज छे; पण जगतमां चेतन के जड दरेक चीज
समये समये परिणमीने पोतपोताना अवस्थारूपी कार्यने करे छे एटले कोई पण समय तेना कार्य वगरनो
(परिणमन वगरनो) जतो नथी, माटे कोई पण चीज नकामी नथी. परने माटे तो बधी वस्तुओ अकिंचित्कर
एटले नकामी ज छे केमके एक वस्तुनो बीजी वस्तुमां अभाव छे, तो तेमां ते शुं करे? पण दरेक वस्तु
पोतपोताना निज कार्य सहित छे माटे कोई वस्तु नकामी नथी.
परचीज तेना कार्य वगरनी कदी नथी, एटले आत्मा परनुं कार्य करे ए वात रहेती नथी; तेमज आत्मा
पण कदी पोताना कार्य वगरनो नथी, एटले बीजी चीज आ आत्मानुं कांई कार्य करे एम बनतुं नथी. माटे
आत्माने कोई परवस्तु ध्येयरूप नथी; हुं परनुं काम करुं के परचीज मारुं कांई करी द्ये ए वात लक्षमां लेवा जेवी
नथी; हुं ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा छुं, ए सिवाय कोई पर चीज मारी नथी ए प्रमाण लक्षमां लईने पोताना
ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने ज ध्येय करवा जेवो छे, खरेखर आ आत्माने पोतानो ज्ञानानंद स्वभाव ज पूज्य
अने ध्येय छे. परंतु आवा पोताना ध्येयनो जे निर्णय करे ते जीवने निमित्त तरीके तेवुं ध्येय बतावनारा देव–
गुरु प्रत्ये पूज्यभाव–विनय–भक्ति–बहुमान आव्या विना रहे नहि. आत्माना स्वभावनी सर्वज्ञशक्तिने
ओळखीने जे पोतानी सर्वज्ञता प्रगट करवा मांगे छे तेने, तेवी सर्वज्ञताने पामेला सर्वज्ञदेव प्रत्ये बहुमान
आव्या विना रहे नहि, तेमज ते सर्वज्ञताना साधक संतो प्रत्ये पण बहुमान आव्या विना रहे नहि.
आत्मामां सर्वज्ञ थवानी ताकात छे एम जे कबूले, तो ते सर्वज्ञता कोईकने व्यक्त पण थई छे–एम पण
ते कबूले, एटले तेमां सर्वज्ञनी प्रतीत आवी गई. कोई कहे छे के अमने सर्वज्ञनो निर्णय नथी पण आत्माना
स्वभावनो निर्णय छे, तो तेनी वात जूठी छे. आत्माना स्वभावनो निर्णय थाय ने सर्वज्ञनो निर्णय न थाय–
एम कदी बने ज नहि.
जेम लींडीपीपरना एकेक दाणामां चोसठपोरी तीखाशनी ताकात भरी छे तेम एकेक आत्मामां सर्वज्ञता
खीलवानी ताकात पडी छे; एकेक आत्मा सर्वज्ञताना निधानथी भरपूर छे. परमार्थे आवो पोतानो आत्मा ज
पोतानुं ध्येय छे. जेणे पोताना आत्माने ध्येय बनावीने तेनी श्रद्धा करी, ज्ञान कर्युं पण हजी पूर्णता प्रगटी नथी
एवा धर्मीने वच्चे, जेमने पूर्ण सर्वज्ञता खीली गई छे एवा सर्वज्ञदेव प्रत्ये, तेमज ते सर्वज्ञताना साधक संतो
प्रत्ये, अने ते सर्वज्ञतानो उपाय कहेनारी वीतरागी वाणी प्रत्ये बहुमाननो भाव आवे छे. साधक भूमिकामां
देव–गुरु–शास्त्रना बहुमाननो भाव आवे छे अने ते प्रकारनां निमित्तो उपर लक्ष जाय छे, तेथी व्यवहारमां
पंचपरमेष्ठी वगेरेने पण ध्येयरूप कहेवाय छे, पण परमार्थे तो अंतरमां मारो चिदानंदस्वभाव ज मारुं ध्येय छे
एवुं धर्मीने लक्ष छे.
प्रभु! तारा चैतन्यनी प्रभुताने जाणे बहारमां संयोगना ढगला होय तेमां तारी प्रभुता नथी, शरीरनी
सुंदरतामां तारी प्रभुता नथी, राग वडे पण तारा
(अनुसंधान माटे जुओ पाना नं. २०१)

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: श्रावण: २०१०: आत्मधर्म–१३० : १८९:
उमराळा नगरीमां उद्घाटन महोत्सव प्रसंगे
उत्तम चैतन्यतत्त्वनी ओळखाणनो उपदेश
वीर सं. २४८० ना पोष वद बीजना रोज उमराळा नगरीमां उद्घाटन
महोत्सव प्रसंगे पू. गुरुदेवनुं मंगल प्रवचन. विहार दरमियान आ पहेलुं प्रवचन छे.
आ प्रवचननी शरूआतनो केटलोक भाग ‘आत्मधर्म’ ना अंक १२४ मां आवी गयो छे.
हे भाई! तारो आत्मा पोते आनंद स्वरूप छे, तेनो तुं विश्वास कर,
अने संयोगमां के रागमां आनंदनी कल्पना छोड. आवो दुर्लभ मनुष्य
अवतार मळ्‌यो अने सत्समागम मळ्‌यो, तो हवे तारो आत्मा शुं तेनी
ओळखाण करीने एवो अपूर्व भाव प्रगट कर के जेथी अनंतकाळना
भवभ्रमणनो नाश थई जाय. भाई! आ शरीरनो संयोग तो क्षणमां छूटीने
राख थई जशे, ते तारी चीज नथी, अने तारुं राख्युं ते रहेवानुं नथी; माटे
देहथी भिन्न तारुं चैतन्यतत्त्व शुं चीज छे तेने ओळख.

जिज्ञासु जीव पोताना आत्मानुं चिंतन करतां विचारे छे के अहो! आ जगतमां आनंदसहित अने उत्तम
तो मारुं चैतन्यतत्त्व ज छे. मारा चैतन्यतत्त्व सिवाय बहारमां क्यांय मारो आनंद नथी. मारा शुद्ध चिद्रूप
परमात्म तत्त्वथी ऊंचुं जगतमां कोई नथी. जगतमां सर्वोत्कृष्ट उत्तम चैतन्यतत्त्व छे, तेनी प्राप्ति अर्थे अहीं
तेने नमस्कार कर्या छे. चैतन्यतत्त्वनी प्राप्ति सिवाय पुण्यपापना भावो जीवे अनंतवार कर्या अने बहारना
संयोगो अनंतवार मळ्‌या, पण तेमां क्यांय आत्मानो आनंद नथी. आ शरीरथी पार चैतन्यतत्त्व छे ते
अतीन्द्रिय आनंदनो सागर छे, ते पोते आनंदस्वरूप छे; ए सिवाय क्षणिक हालतमां जे पुण्य–पापनो विकार
देखाय छे ते तेनुं वास्तविकस्वरूप नथी. ‘हुं तो शुद्ध चिद्रूप छुं, आनंद ज मारुं स्वरूप छे’ एम ज्यांसुधी जीव न
समजे त्यांसुधी तेने धर्मनी शरूआत थाय नहि अने बंधन टळे नहि.
आत्मानो चिदानंद स्वभाव अबंध छे, तेनी हालतमां पुण्य के पाप थाय ते बंने बंधन छे; पापनो भाव
ते बंधन छे ने पुण्यनो भाव ते पण बंधन छे. पुण्य–पाप बंनेथी रहित आत्माना चिदानंद स्वभावनी सम्यक्
श्रद्धा–ज्ञान–एकाग्रता ते मोक्षमार्ग छे. जेने पुण्यनी के पुण्यना फळनी रुचि छे तेने आत्माना अबंध स्वभावनी
रुचि नथी एटले के धर्मनी रुचि नथी. जुओ, पूर्वना पुण्यने लीधे कोईक पासे पैसाना ढगला होय त्यां
अज्ञानीने तेनो महिमा आवी जाय छे के ‘भाई! एने तो भगवाने आप्युं एटले ते तो वापरे ज ने! ’ पण
अरे भाई! शुं भगवान कोईने पैसा आपे? जो भगवान आपता होय तो बीजाने आप्या ने तने केम न
आप्या? एक ने आपे ने बीजाने न आपे तो तो भगवान पण पक्षपाती ठर्या? पण एम बनतुं नथी भाई!
बहारनो संयोग तो पूर्वनां पुण्य–पाप अनुसार बने छे. पैसा वगेरे मळे ते पूर्वना पुण्यनुं फळ छे पण तेमां
क्यांय चैतन्यनो आनंद नथी; माटे ते पुण्यनी अने पुण्यना फळनी मीठाश छोड. संयोगनो के पुण्यनो महिमा
नथी पण चैतन्य स्वरूपनो ज महिमा छे; तारा चैतन्य स्वरूपना महिमाने जाणीने तेनी सन्मुख था तो
अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय. कोई संयोगोमां के संयोग तरफना भावमां

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: १९०: आत्मधर्म–१३० : श्रावण: २०१०:
आत्मानो आनंद छे ज नहि, अज्ञानीने अनादिथी पुण्यनो ने पुण्यना फळनो महिमा भासे छे परंतु चैतन्य
स्वभावनो महिमा तेने भासतो नथी.
भाई! तारो चैतन्य स्वरूप आत्मा ज ध्रुव छे ते ज तने शरणभूत छे, ए सिवाय बहारनी सामग्रीनो
संयोग तो क्षणिक नाशवंत छे, ते तने शरणभूत नथी, ते तो क्षणमां छूटी जशे. अज्ञानी पोताना चैतन्य
स्वरूपने तो लक्षमां लेतो नथी. अने मफतनो परनी ममता करीने दुःखी थाय छे. जेम एक वडना झाड उपर
एक वांदरो घणा वखतथी रहेतो हतो तेथी तेने एम थई गयुं के आ झाड मारुं छे. पछी ज्यां उनाळो आव्यो
अने झाडनां पांदडां खरवा मांडया त्यां ते वांदरो दुःखी थवा लाग्यो के अरे! मारां पांदडा खरी जाय छे! तेम आ
बहारनो संयोग तो वडनां पान जेवो छे, संयोगथी भिन्न पोताना एकत्व चैतन्य स्वरूपने भूलीने अज्ञानी
जीव अनादिथी संयोगमां ज पोतापणुं मानी रह्यो छे, तेथी संयोगमां कांईक प्रतिकूळता थाय त्यां अज्ञानीने
एम थाय छे के हाय रे! मारी वस्तु चाली जाय छे! पण ज्ञानी कहे छे के भाई! ए वस्तु तारी नथी, तारी वस्तु
तो तारी पासे छे, तुं तो परमानंदमय चैतन्यस्वरूप आत्मा छो; आवा तारा स्वरूपने तुं ओळख. आखा
जगतमां सौथी उत्तम तत्त्व होय तो ते परमानंद स्वरूप तारो आत्मा छे. जेम चणानी मीठाश चणामांथी ज
आवे छे, रेती के तावडामांथी नथी आवती; तेम चैतन्यनो आनंद चैतन्यमांथी ज आवे छे, बहारना कोई
संयोगमांथी के रागमांथी आवतो नथी, चैतन्यशक्तिमां आनंदना निधान पड्या छे तेमांथी ज ते व्यक्त थाय
छे.
जेम चणामां मीठाशनी ताकात भरी छे पण कचासने लीधे ते तूरो लागे छे ने वावो तो उगे छे, पण
तेने सेकता कचाश टळीने मीठाश आवे छे ने फरीने ते ऊगतो नथी. तेम चैतन्यमूर्ति आत्माना स्वभावमां ज्ञान
ने आनंद भर्यो छे, पण अज्ञानरूपी कचाशने लीधे तेने पोताना स्वाभाविक आनंदनो स्वाद आवतो नथी ने
पुण्य–पापनी आकुळतानो स्वाद आवे छे, तथा नवा नवा अवतार धारण करीने चार गतिमां रखडे छे. आम
छतां तेनी स्वभावशक्तिनो नाश थयो नथी. पोतानी स्वभावशक्तिनुं भान करीने सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र
वडे आत्माने सेकता तेना अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे ने पछी फरीने तेने चार गतिमां अवतार थता
नथी.
जीवे अनादिथी बहार जोयुं छे ने परनो विश्वास कर्यो छे, पण अंतरमां जोईने पोताना स्वभाव
सामर्थ्यनो कदी विश्वास कर्यो नथी. चैतन्यमां ज अनाकुळ शांतरसनो स्वाद छे तेने चूकीने अज्ञानी एम माने छे
के बहारनी सामग्रीमां–खावा पीवामां, स्त्री कुटुंबमां, आबरूमां, शरीरमां, लक्ष्मी वगेरेमां मारुं सुख छे. वळी
कोईक एनाथी जराक आगळ चाले तो एम माने छे के पुण्यना शुभ रागमां सुख छे. पण भाई रे! तारुं सुख
तो तारा स्वभावमां होय के बहार होय? बहारमां के रागमां सुख मानीने तें तारा चैतन्यनी मोटी अवगणना
करी, आत्माना शुद्ध स्वभावनो तें अनादर कर्यो ने रागनो आदर कर्यो. आ प्रकारनी ऊंधी मान्यताथी ज्यांसुधी
बहारमां आनंद माने छे त्यांसुधी पोताना अंदरनो अतीन्द्रिय आनंद जीवने अनुभवमां आवतो नथी, एटले
के सम्यग्दर्शन थतुं नथी–आत्मसाक्षात्कार थतो नथी. तेने अहीं समजावे छे के हे भाई! तारो आत्मा पोते
आनंदस्वरूप छे, तेनो तुं विश्वास कर; अने संयोगमां के रागमां आनंदनी कल्पना छोड. आवो दुर्लभ मनुष्य
अवतार मळ्‌यो अने सत्समागम मळ्‌यो, तो हवे तारो आत्मा शुं तेनी ओळखाण करी एवो अपूर्व भाव प्रगट
कर के जेथी अनंतकाळना भवभ्रमणनो नाश थई जाय. भाई! आ शरीरनो संयोग तो क्षणमां छूटीने राख थई
जशे; ते तारी चीज नथी, अने तारुं राख्युं ते रहेवानुं नथी, माटे देहथी भिन्न तारुं चैतन्यतत्त्व शुं चीज छे तेने
ओळख.
अहीं मांगळिकमां शुद्ध चिद्रूप आत्माने ज प्रणमन करीने तेनो महिमा कर्यो छे. अनादिथी परनुं ने
रागनुं बहुमान करीने ते तरफ परिणमन करतो आवे छे तेने बदले चिदानंद स्वभावनुं बहुमान करीने तेनी
सन्मुख परिणमन करवुं ते अपूर्व मंगळ छे. अनादिना भवभ्रमणनो जेने थाक लाग्यो होय अने आत्मानी जेने
लगनी लागी होय एवा मुमुक्षु जीवने आत्मानुं शुद्ध चैतन्यस्वरूप समजाववा माटे अहीं तेनुं वर्णन करे छे. हे
भाई! तारा आत्मानुं रूप तो आनंद अने ज्ञान छे, ए सिवाय शरीरनुं रूप ते तारुं नथी, अने पुण्य–पाप ते
पण तारुं खरुं रूप नथी. तारी चैतन्यतत्त्वनी समजण वगर पूर्वे अज्ञानभावे बीजा बाह्य साधनो अनंतवार
कर्यां अने तेमां धर्म मान्यो, पण तेनांथी तारुं जरापण कल्याण न थयुं.

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: श्रावण: २०१०: आत्मधर्म–१३० : १९१:
यम नियम संयम आप क्यिो
पुनि त्याग–विराग अथाग लह्यो,
वनवास रह्यो मुख मौन रह्यो
द्रढ आसन पद्म लगाय दीयो.
* * *
वह साधन बार अनंत क्यिो
तदपि कछू हाथ हजु न पर्यो,
अब कयों न विचारत है मनमें
कछू ओर रहा उन साधन सें.
भाई, सत्समागमे अंतरना चैतन्यतत्त्वने लक्षमां लीधा विना तारां बधाय साधन फोगट छे. वास्तविक
साधन अंतरमां शुं छे तेने लक्षमां लीधा वगर पोतानी स्वच्छंद कल्पनाथी बीजा उपायो अनादिथी कर्या छे, पण
तेनाथी भवभ्रमणनो आरो आव्यो नहि. माटे हे जीव! अनादिथी तारी भ्रमणा छोड अने हवे चैतन्यतत्त्वनी रुचि
करीने सत्समागमे तेने समजवानी दरकार कर. जेम रूपिया कमाववानी जेने दरकार छे तेने तेनी वात सांभळतां पण
केवी होंश आवे छे? तेम जेने चैतन्यतत्त्वनी दरकार होय तेने सत्समागमे श्रवण–मनन करीने ते समजवा माटे
उत्साह अने होंश होवा जोईए. घरमां कांईक नवीन चीजवस्तु आवे त्यां केवी होंशथी ते जुए छे! तो अनादिकाळमां
नहि प्राप्त एवी अपूर्व चैतन्य वस्तुने प्राप्त करवा माटे तेनी रुचि–होंश अने उद्यम जोईए. अनादिथी बहारनुं
जाणवामां रोकाय छे पण अंदरनी चैतन्यवस्तुने कदी जाणी नथी तेने जाणवानो प्रयत्न करतो नथी. जेणे आत्मानुं
अपूर्व कल्याण करवुं होय तेणे ज्ञानने अंतर्मुख करीने आत्माना स्वभावने जाणवो; ते सिवाय बीजा बधा उपायो
निष्फळ छे. अज्ञानीने बहारनी वस्तुनी होंश आवे छे पण अंतरमां पोते मोटो चिदानंद भगवान बिराजे छे तेनो
महिमा के ओळखाण करतो नथी. आत्माना चैतन्यस्वभावमां परम शांत अतीन्द्रिय आनंद भरेलो छे, पण अज्ञानीने
तेनी प्रतीत नहि होवाथी तेनो स्वाद आवतो नथी. तावडामां मावो चोंट्यों होय तेनो स्वाद अज्ञानीने भासे छे, पण
ते तो जड छे, तेनो स्वाद कांई आत्मामां आवतो नथी; विषयोथी पार आत्माना आनंदनो स्वाद केवो हशे ते
अज्ञानीना ख्यालमां पण आवतुं नथी; अंदरना चैतन्यस्वभावमां आनंदनी मीठाश भरी छे, जेवो सिद्धभगवंतोनो
आनंद छे तेवो ज आनंद आ आत्माना स्वभावमां पण भर्यो ज छे, तेनी ओळखाण करीने तेमां एकाग्रता करे तो
तेनो अनुभव थाय. चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदनो अलौकिक स्वाद अनुभवमां आव्यो त्यां ज्ञानीने बहारना बधा
विषयो तुच्छ भासे छे–तेमां क्यांय स्वप्ने पण सुख भासतुं नथी, तेनी अंर्तदशा फरी जाय छे.
ज्ञानी जाणे छे के अहो! जगतमां ऊंचामां ऊंचुं तत्त्व होय तो मारुं चैतन्यतत्त्व ज छे; माटे जगतमां उत्तम
अने आनंदरूप एवा चैतन्यतत्त्वने ज हुं नमस्कार करुं छुं. चैतन्यना बहुमान पासे कोई रागनुं के संयोगनुं बहुमान
धर्मीने आवतुं नथी. जगतना मूढ जीवो तो पैसा वगेरे जडनी प्रीतिमां आत्मानी चैतन्यलक्ष्मीना महिमाने भूली
जाय छे एवा जीवोने अहीं समजावे छे के अरे भाई! जगतमां ऊंचामां ऊंचुं तो तारुं चैतन्यतत्त्व छे, आनंद होय
तो तारा चैतन्यतत्त्वमां ज छे; ए सिवाय बहारमां लक्ष्मी वगेरेना ढगला होय ते तो धूळ छे, तेमां क्यांय तारो
आनंद नथी. पोताना अंतरस्वभावना अवलंबन सिवाय बहारथी कांई मळे तेम नथी, भगवान पण आ आत्माने
कांई आपी दे तेम नथी. जगतमां अनंता तीर्थंकर भगवंतो सर्वज्ञ परमात्मा थया, अत्यारे महाविदेहमां सीमंधरादि
तीर्थंकरो बिराजे छे, परंतु बीजा जीवोनुं तेओ कांई करी दे एम बनतुं नथी. सर्वज्ञ परमात्मा पण एम फरमावे छे के
हे जीवो! जगतमां तमारे माटे तमारुं चैतन्यतत्त्व उत्तम छे, तेने तमे समजो. अमारा आत्मामां जेटली ताकात छे
तेटली ज ताकात तमारा आत्मामां पण भरी छे. अनंत अवतारमां जीवे पोताना उत्तम चैतन्यतत्त्वनी समजण कदी
करी नथी. सर्वज्ञ थवानी ताकात पोताना आत्मामां छे तेने ओळखे तो मुक्तिना राह खूले.
अहीं मांगळिकमां शुद्ध चिद्रूपने नमस्कार कर्या छे, तेमां परमार्थे पोताना ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने
नमस्कार करीने तेनो आदर कर्यो छे; अने निमित्त तरीके, जेओ शुद्धचिद्रूप आनंदमय स्वरूपने पामी चूकया छे
एवा पंचपरमेष्ठी भगवंतोने नमस्कार कर्या छे. जेम घरना आंगणे कोई मोटा संत के महापुरुष आवे त्यां
तेमनुं स्वागत बहुमान करे छे; तेम अहीं कहे छे हे भाई! जगतमां मोटामां मोटो एवो तारो आनंदस्वरूप
आत्मा तारां अंतरमां बिराजे छे अने निमित्त तरीके पंचपरमेष्ठी

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: १९२: आत्मधर्म–१३० : श्रावण: २०१०:
भगवंतो जगतमां मोटा छे, तेमने तारा आंगणे पधरावी ने तेमनो आदर कर; तेमने ओळखीने तेनुं
स्वागत–बहुमान कर, ने ए सिवाय बीजानो आदर छोड.
आ शरीरादिक तो क्षणभंगुर छे ने चैतन्यतत्त्व अविनाशी छे; आ शरीर दुःखनुं निमित्त छे ने
चैतन्यतत्त्व तो आनंदथी भरपूर छे; आ शरीर तो अशुचिरूप छे ने चैतन्यतत्त्व तो जगतमां उत्तम छे;
शरीर तो अशरण छे ने चैतन्यतत्त्व शरणरूप छे. आवा चैतन्यतत्त्वने ओळखीने तेनुं सन्मान–रुचि–
प्रतीत करवा जेवा छे. भाई! तुं विचार के तारा आत्मानुं लक्षण शुं छे? आ देह ते तारी चीज नथी,
पण ज्ञान ने आनंद ते तारुं लक्षण छे; तारुं स्वरूप ज ज्ञान ने आनंद छे; संयोगो अनादिथी नवा नवा
बदलता आवे छे पण भगवान आत्मा तो सदा एकरूप चैतन्यस्वरूप छे; बधा संयोगोमां रह्यो छतां ते
बधा संयोगोथी जुदो छे. ‘ज्ञान ते हुं’ एम ज्ञानलक्षण द्वारा आत्मा समस्त पर द्रव्योथी जुदो ओळखाय
छे. अहीं शास्त्रकार कहे छे के हुं आवा शुद्ध चिद्रूप आत्मानो अर्थी छुं तेथी तेनी प्राप्तिने माटे हुं तेनुं
वर्णन करुं छुं. जगतमां मान–आबरू केम मळे के पुण्य केम बंधाय तेनो हुं अर्थी नथी, पण हुं तो
आत्मानो अर्थी छुं; आत्मार्थीने प्राप्त करवा योग्य कंई होय तो पोतानो शुद्ध आत्मा ज प्राप्त करवा
योग्य छे.
जेणे पोते शुद्धआत्मानुं यथार्थ ज्ञान अने अनुभव कर्यो होय ते ज तेनी यथार्थ देशना आपी शके.
शुद्धआत्माना अर्थीए शुद्ध आत्मानुं वास्तविक स्वरूप बतावनारा देव–गुरु–शस्त्र कोण छे ते ओळखवुं
जोईए. जेम अफीणनी दुकानवाळाने त्यां अफीणनो मावो मळे पण त्यां दूधनो मावो न मळे, दूधनो
मावो कंदोईनी दुकाने मळे. तेम चैतन्यतत्त्वनो मावो ज्ञानी पासेथी मळे; जेणे चैतन्य तत्त्वने अनुभव्युं
होय ते ज तेनी वात यथार्थपणे समजावी शके. जेओ पुण्यथी ने रागथी धर्म मनावता होय, निमित्तना
आश्रयथी धर्म मनावता होय तेओ तो अफीणनी दुकान जेवा छे, तेमनी पासे शुद्धआत्मानो यथार्थ
उपदेश मळी शके नहि.
अहो, चैतन्य वस्तु शुं छे तेनी ओळखाण करवी ते अपूर्व छे. जेणे चैतन्यनी समजण करीने
मोहनो नाश कर्यो तेने फरीने अवतार थतो नथी. जेम डुंगर उपर वीजळी पडे ने बे कटका थाय, पछी ते
रेणथी संधाय नहि, तेम चैतन्यना अपूर्व भान वडे अनंत संसारनो नाश थई गयो तेने फरीने संसार
थाय नहि. जेम चणो शेकाईने तेनी कचाश बळी गई पछी फरीने ते ऊगतो नथी; तेम चैतन्यतत्त्वनी
श्रद्धा करीने तेमां एकाग्रता वडे मोहनो नाश कर्यो तेने फरीने संसारमां अवतार थतो नथी. पण पहेलांं
आ वात अंतरमां बेसवी जोईए के जगतमां सौथी उत्तम तत्त्व मारो आत्मा छे, मारा चैतन्यनी प्रतीति
करवा माटे बीजा कोईनुं मने अवलंबन नथी. अनादिकाळथी कदी नहि पामेला एवा चैतन्यतत्त्वनी
प्राप्ति माटे पहेलांं तेनी ओळखाण करो एवो अहीं उपदेश छे. जुओ, स्वर्गनी प्राप्ति माटे के पैसानी
प्राप्ति माटे के दीकरा वगेरेनी प्राप्ति माटे आ उपदेश नथी पण अपूर्व सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र वडे शुद्ध
चैतन्य तत्त्वनी प्राप्ति माटे आ उपदेश छे. भाई! तारा आत्मानो आनंद तने केम प्राप्त थाय अने तारा
जन्म–मरण केम टळे तेनी आ वात छे; बाकी संसारमां रखडवुं पडे ने जन्म–मरण करवा पडे एवी वात
अहीं नथी. जेने पुण्यनी ने संयोगनी रुचि छे तेने आ वात अंतरमां नहि बेसे. अनादिना जन्म–
मरणनो नाश करीने जे जीव मोक्षपदनी प्राप्ति करवा मांगतो होय एवा जीवने माटे आ वात छे. चैतन्य
स्वभावनी अपूर्व द्रष्टि प्रगटी होय, आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थयो होय एवा ज्ञानीने
बहारमां गमे तेवा संयोग वर्तता होय पण तेने अंतरमां भान छे के आ मारी चीज नथी, हुं तो चैतन्य
छुं, मारा चैतन्यस्वरूपमां परनो प्रवेश नथी. जेम वेश्या बहारथी प्रेम करे छे पण अंतरथी तेने कोई
प्रत्ये साचो प्रेम होतो नथी, तेम धर्मीने बहारमां संयोगो वर्ते छे ने अमुक राग–द्वेष पण थाय छे, परंतु
तेना अंतरमां चैतन्यतत्त्व सिवाय कोई संयोगो उपर प्रीति होती नथी. आत्मानो प्रेम धर्मीना
अंतरमांथी कदी खसतो नथी. चैतन्य स्वरूप आत्माने ओळखीने तेनी प्रीति करे तो परनी प्रीति छूटी
जाय, अने स्वसन्मुख एकाग्रता वडे अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव प्रगटे. माटे अंतरमां चैतन्यस्वरूप
आत्माने ओळखीने तेनी प्रीति करो एवो संतोनो उपदेश छे.

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: श्रावण: २०१०: आत्मधर्म–१३० : १९३:
जन्म मरणनो आरो
अनंत अनंत भव कर्या छतां क्यांय जीवनो जन्म–मरणनो आरो न
आव्यो, तो हवे विचारवुं जोईए के कांईक अपूर्व समजण करवी बाकी रही
गई छे. अंतरथी झंखना जागवी जोईए के अरेरे! अनंत अनंत काळथी
मारो आत्मा आ जन्म–मरणना फेरामां रखडी रह्यो छे, तो हवे तेनो आरो
केम आवे? जेने आवी जिज्ञासा जागे ते धर्मनो उपाय शोधे.
आत्माना ज्ञानानंद स्वभावनुं भान थया पछी पूर्ण परमात्मदशा जेमणे प्रगट करी,
एवा सर्वज्ञभगवाननी दिव्यवाणीमां ईच्छा विना सहज पणे एवो उपदेश नीकळ्‌यो के : हे
आत्मा! अनंतकाळमां एक सेकंड पण तें परथी जुदा आत्मानुं भान कर्युं नथी. मारो आत्मा
ज्ञानस्वरूप छे, ते शरीरादि जडनी क्रियानो करनार नथी, एवुं भान कदी कर्युं नथी, अने हुं
जडनी क्रियानो कर्ता, जडनी क्रिया मारी एम अज्ञानी अनादिथी माने छे पण जीवनी ईच्छा
प्रमाणे देहादिनी क्रिया थती नथी, ईच्छा न होवा छतां रोग थाय छे, रोग थाय तेने मटाडवानी
ईच्छा करे छतां रोग मटतो नथी. भगवान! एकवार नक्की तो कर के जडनी क्रिया तारी नथी,
तुं तो ज्ञान छे. अरे! अंदर पुण्य–पापनां भाव थाय ते पण तारुं खरुं स्वरूप नथी. दया–पूजा–
भक्ति वगेरेनो भाव थाय ते पुण्यभाव छे, ने हिंसा जुठ्ठु वगेरेना भाव थाय ते पापभाव छे,
ए पुण्य ने पाप बंने विकारभावो छे, तेनाथी तारुं ज्ञानानंदस्वरूप जुदुं छे ए वात कदी
सांभळवामां आवी नथी, क्यारेक सांभळवा मळी त्यारे अंदरथी नकार कर्यो एटले
वास्तविकपणे कदी सांभळ्‌युं नथी. एकवार पण सत्समागमे श्रवण–मनन करीने, परथी ने
विकारथी भिन्न चैतन्यस्वरूपने ओळखे ने प्रतीत करे तो धर्मनी शरूआत थाय. आ अपूर्व
वस्तु छे. अनंत–अनंत भवो कर्या छतां क्यांय आरो न आव्यो, तो कांईक अपूर्व समजण
बाकी रही गई छे. अंतरथी झंखना जागवी जोईए के अरेरे! अनादि काळथी मारो आत्मा आ
जन्म–मरणना फेरामां रखडी रह्यो छे तो हवे तेनो आरो केम आवे? आवा पराधीन
अवतारथी छूटीने आत्मानी शांति केम थाय? आवी जिज्ञासा जागे तो धर्मनो उपाय शोधे.
भाई! बहारमां तारा सुखनुं साधन नथी, अंतरना चिदानंदस्वभावमां तारुं सुख छे. जे सिद्ध
परमात्मा थया ते बधाय पोताना आत्मामांथी ज सिद्धपणुं प्रगट करीने थया छे; आत्मामां
पूर्णानंदनी ताकात भरी छे तेमांथी ज ते प्रगटे छे. आवा पूर्णानंदस्वभावने लक्षमां लईने तेनी
प्रतीति करवी ते प्रथम धर्म छे. एक सेकंड पण आवो धर्म करे तो तेने जन्म मरणनो आरो
आवी जाय. आवी प्रतीति कर्या वगर बीजुं गमे तेटलुं करे तोपण जन्ममरणनो आरो न
आवे. भाई! चैतन्यना पंथ चैतन्यमां छे, अंतरनो राह बहारना उपायथी प्रगटे तेवो नथी.
बापु! आ अंतरनी वात छे, अपूर्व सम्यग्दर्शन अने आत्मशांतिनी वात अनंतकाळमां
प्रीतिपूर्वक सांभळी पण नथी. अंतरमां रुचि करीने सांभळे तो आठ वर्षनी कुमारिका पण
समजी शके तेवुं छे. अरे! आ देह अमे नहि, आ संयोगना ठाठ अमारा

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: १९४: आत्मधर्म–१३० : श्रावण: २०१०:
भेद विज्ञान
सीमंधर भगवाननी वेदी प्रतिष्ठाना उत्सव प्रसंगे
उमराळा नगरीमां पू. गुरुदेवनुं प्रवचन
वीर सं. २४८०, जेठ सुद बीज
अरे भाई! अनंतकाळे आवो मनुष्य अवतार मळ्‌यो. तेमां जो आत्मानो
निर्णय न कर्यो तो कीडीना अवतारमां अने तारा अवतारमां शुं फेर? करोडो
रूपिया खर्चतां जेनी एक आंख पण न मळे एवो आ मनुष्य अवतार मळ्‌यो छे,
तेमां आत्मानुं अपूर्व भान करीने भवनो अंत आवे एवुं कांईक करे तो मनुष्य
अवतारनी सफळता छे. अने जो एवुं अपूर्वभान न कर्युं तो कीडीने कीडीनुं शरीर
मळ्‌युं ने तने मनुष्यनुं शरीर मळ्‌युं तेमां फेर शुं पड्यो? भेदविज्ञान ते मुक्तिनो
उपाय छे; माटे आ मनुष्यपणुं पामीने सत्समागमे भेदविज्ञान प्रगट करवानो
प्रयत्न करवो जोईए.
आत्मानुं हित–कल्याण अनंतकाळथी केम थयुं नथी, अने हवे आत्मानुं हित–कल्याण केम
थाय? तेनी रीत संतो–मुनिओए आत्मामां अनुभवी, ते जगतना जीवोने समजावे छे.
भेदविज्ञान वगर जीवने अनादिथी संसार–परिभ्रमण थाय छे. समयसारमां ते संबंधी श्लोक
कह्यो छे के–
भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किलकेचन।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किलकेचन।।
आत्मानो चिदानंद स्वभाव रागथी भिन्न शुं चीज छे तेनुं यथार्थ भेदज्ञान करीने
अनंता जीवो सिद्ध थया छे; जे कोई सिद्ध थया छे तेओ भेदविज्ञानथी ज सिद्ध थया छे, अने ते
भेदज्ञान वगर ज जीव अनादिथी संसारमां परिभ्रमण करी रह्यो छे.
अंतरमां आत्मानो स्वभाव पोते ज्ञानानंद स्वभावथी भरेलो छे; पण तेने भूलीने,
मारो आनंद बहारनी सगवडतामां छे के रागमां मारो आनंद छे एवी मिथ्या मान्यता करीने
जीव संसारमां रखडे छे. आ आत्मा देहथी तो जुदो
(अनुसंधान पाना नं. १९५ उपर)
(पाना नं. १९२ थी चालु)
नहि, ने अंदरनी पुण्य–पापनी क्षणिक लागणी जेटलुं पण अमारुं स्वरूप नहि, अमे तो पूर्ण
ज्ञानानंदस्वरूपथी भरेला आत्मा छीए. आवुं अपूर्व आत्मज्ञान आठ वर्षनी राजकुंवरीओ
पण करी शके छे. आवा अपूर्व ज्ञान वगर त्यागी थाय ने शुभभाव करे तोपण तेमां आत्मानुं
हित नथी आत्मानी वास्तविक ओळखाणनो उपाय करवो ते मूळवस्तु छे, आ सिवाय पुण्य
तो अनंतवार करी चूक्यो छे ते कांई अपूर्व नथी. विभाव शुं अने स्वभाव शुं, तेनी वहेंचणी
करीने स्वभावमां एकाग्र न थाय त्यांसुधी धर्म थाय नहि.
–उमराळा नगरीमां वेदी प्रतिष्ठा महोत्सव प्रसंगे जेठ सुद त्रीजना रोज पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी.

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: श्रावण: २०१०: आत्मधर्म–१३०: १९५:
(पाना नं. १९४ थी चालु)
छे, ने अंदर पुण्य–पापना भावो थाय ते पण आत्मानुं वास्तविक स्वरूप नथी; पुण्य–पाप तो
सेवाळ जेवा मलिन छे, जेम पाणीमां उपर जे सेवाळ थाय ते स्वच्छ पाणीनुं स्वरूप नथी,
स्वच्छ पाणी तो ते सेवाळथी जुदुं छे, तेम चिदानंद मूर्ति आत्मा अतीन्द्रिय आनंदरूपी जळथी
भरेलो छे, तेमां पुण्य–पाप ते सेवाळ जेवा छे, ते स्वच्छ आत्मानुं स्वरूप नथी, आत्मा तो
निर्मळ ज्ञानस्वरूप छे एवुं सम्यक् आत्मभान करवुं ते धर्म अने हित छे; आ बोधबीज ते
मुक्तिनुं कारण छे. जुओ, अंतरमां पात्र थईने समजवा मांगे तो कणबी अने खेडूतने पण
समजाय तेवी आ वात छे. जेम कणबी ‘बी’ राखीने ‘कण’ ने भोगवे छे, तेम जेणे धर्म करवो
होय–हित करवुं होय तेणे प्रथम भेदज्ञान रूपी बीज प्रगट करवुं जोईए.
भेदज्ञान एटले शुं? आ शरीर अने शरीरनी क्रियाओ तो जड छे, ते आत्माथी तद्न
भिन्न छे; अंदरमां पुण्य–पापनी क्षणिक वृत्ति थाय तेनाथी पण पार आत्मानो स्वभाव छे, ते
स्वभावमां पूर्णानंद परमात्मदशा प्रगटवानी ताकात छे, तेमां अंतर्मुख थईने तेनो विश्वास
करवो ने तेनुं सम्यग्ज्ञान करवुं तेनुं नाम भेदज्ञान छे, ने ते मोक्षनुं कारण छे. जुओ, बहारमां
खूब गरमी थती होय अने ठंडी हवा आवे, त्या जाणे ते हवामांथी सुख आवतुं हशे एम
अज्ञानी माने छे, पण अनादिना संसारमां चार गतिना तापमां आत्मा तपी रह्यो छे तेनी
शांति केम थाय? तेनो विचार पण करतो नथी. अंतरमां ठंडो चिदानंदस्वभाव छे तेनो आश्रय
करे तो आत्मानी शांति प्रगटे; पण ते स्वभावनो कदी विश्वास करतो नथी. बहारनो विश्वास
करे छे पण पोते पोतानो विश्वास करतो नथी तेथी संसारमां परिभ्रमण थाय छे. जेम
लींडीपीपरना एकेक दाणामां चोसठपोरी तीखाशनो स्वभाव भर्यो छे तेम आत्माना पोताना
स्वभावमां ज पूर्ण ज्ञान–आनंदनो स्वभाव भर्यो छे; पण अनादिकाळमां एक समय पण तेनी
प्रतीत करी नथी. जो स्वसन्मुख थईने एक क्षण पण स्वभावनी प्रतीत करे तो अल्पकाळमां
मुक्ति थया विना रहे नहि.
आत्माना ज्ञानानंद स्वभावनुं भान थया पछी पण धर्मीने राग थाय, साचा सर्वज्ञदेव,
ज्ञानी गुरु अने जैनधर्मनी भक्ति–प्रभावना वगेरेनो शुभभाव थाय, भगवाननुं मंदिर
कराववानो ने भगवाननी प्रतिष्ठानो भाव आवे. जेम संसारना प्रेमीने पुत्रना लग्न वगेरे
प्रसंगे लक्ष्मी खर्चवानो उल्लास आवे छे तेम जेने धर्मनो प्रेम छे तेने धर्मना निमित्तरूप साचा
देव–गुरु–धर्म प्रत्ये भक्ति अने उल्लासनो भाव आव्या विना रहेतो नथी. जेओ आत्माना
पूर्णानंद स्वभावने साधीने परमात्मा थई गया छे अने जेओ हजी ते पूर्णानंद दशाने साधी
रह्या छे –एवा देव–गुरु प्रत्ये जेने भक्ति अने विनयनो उत्साह नथी आवतो तेने धर्मनी
प्रीति नथी. अहीं तो ए बताववुं छे के भेदज्ञान थया पछी पण धर्मीने भगवाननी प्रतिष्ठा
वगेरेनो शुभ भाव आवे छे; परंतु भेदज्ञान वगर एकला शुभरागमां रोकाई रहे तो तेने धर्म
थाय नहि, केमके भेदज्ञानथी ज धर्म थाय छे. जेम सोनुं अने पीत्तळ वच्चे सोनी भेदज्ञान करे
छे, तेम ज्ञानस्वरूप आत्मा अने रागादि विकारीभावो तेमनी वच्चे ज्ञानी भेदज्ञान करे छे.
अहो! जे सिद्धभगवंतो थया तेमने ते सिद्धदशा क्यांथी आवी? आत्मामां ताकात हती तेमांथी
ते प्रगटी छे, तेवी ज ताकात मारा स्वभावमां भरी छे तेमांथी मारी परमात्मदशा खीलशे, पण
क्यांय बहारमांथी के रागमांथी मारी परमात्मदशा नहि आवे.

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: १९६: आत्मधर्म–१३० : श्रावण: २०१०:
जेम मोरनां ईंडांमां साडात्रण हाथनो मोर थवानी ताकात पडी छे, तेमांथी ज मोर पाके
छे. मोरना ईंडांमां मोर थवानी ताकात छे ते खखडावो तो न जणाय, ईन्द्रियो वडे न देखाय.
पण तेनो स्वभाव नक्की करवो जोईए के आ ईंडुं कूकडीनुं नथी पण मोरनुं छे. माटे तेमांथी
रंगबेरंगी मोरलो पाकशे. तेम आत्मामां सिद्ध भगवान जेवी पूर्णानंद दशा प्रगटवानी ताकात
छे, अल्पज्ञदशा अने रागद्वेष वर्तता होवा छतां आत्मामां पूर्ण ज्ञानानंद प्रगटवानी ताकात
पडी छे, ते केम जणाय? ईन्द्रियो वडे न जणाय, राग वडे न जणाय, पण ज्ञानने अंतर्मुख
करीने स्वभावनो निर्णय करे तो आत्मानुं स्वरूप जणाय; आत्माना स्वरूपनो निर्णय करीने
तेनुं अवलंबन लेतां परमात्मदशा प्रगटी जाय छे. आ सिवाय बीजुं जे करे ते तो बधुं थोथा
छे. अरे भाई! अनंतकाळे आवो मनुष्य अवतार मळ्‌यो, तेमां जो आत्मानो निर्णय न कर्यो
तो कीडीना अवतारमां ने तारा अवतारमां शुं फेर? आ मनुष्यदेहनी एक आंख फूटी जाय,
पछी करोडो रूपिया खर्चे पण तेवी आंख पाछी न थाय; एटले करोडो रूपिया खरचतां जेनी
एक आंख पण न मळे एवो आ मनुष्य अवतार मळ्‌यो छे, तेमां आत्मानुं अपूर्व भान करीने
भवनो अंत आवे एवुं कंईक करे तो मनुष्य अवतारनी सफळता छे अने जो एवुं अपूर्व भान
न कर्युं तो कीडीने कीडीनुं शरीर मळ्‌युं अने तने मनुष्यनुं शरीर मळ्‌युं तेमां फेर शुं पड्यो?
भेदविज्ञान वगर कोई जीवने धर्म के मुक्ति थाय एम कदी बनतुं नथी. शरीर मारुं, शरीरनी
क्रिया मारी, एम पर साथे एकत्वबुद्धि राखीने कदी कोई जीवो सिद्ध थया होय एम बनतुं
नथी. भेदविज्ञानथी ज सिद्धपणुं थाय छे.
आ जगतमां अनंतानंत जीवो छे, तेमांथी अनंता जीवो अत्यार सुधीमां भेदज्ञान करीने
मुक्ति पाम्या छे, अने भविष्यमां पण जे जीवो मुक्ति पामशे तेओ पण भेदविज्ञानथी ज
पामशे; भेदविज्ञान वगर कोई पण जीवनी मुक्ति थाय–एम कदी बनतुं नथी. जेने भेदज्ञान छे
ते ज जीवो मुक्ति पामे छे, ने जेने भेदज्ञान नथी ते जीवो संसारनी चार गतिमां परिभ्रमण
करे छे. आ रीते भेदविज्ञान ते मुक्तिनो उपाय छे; माटे आ मनुष्यपणुं पामीने सत्समागमे
भेदविज्ञान प्रगट करवानो प्रयत्न करवो जोईए.
दुःखनुं कारण
आत्मा त्रणे काळे परवस्तुओथी जुदो
छे एटले बहारना कोई पण साधनो
आत्माने सुख–दुःखना कारण नथी; पण
अज्ञानी पर संयोगोमां आ मने अनुकूळ
ने आ मने प्रतिकूळ एम मानीने तेमां
मोहथी रागद्वेष करे छे ते ज संसार
परिभ्रमणना दुःखनुं कारण छे.

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: श्रावण: २०१०: आत्मधर्म–१३० : १९७:
* आत्म बोध *
[बोटाद शहेरमां पू. गुरुदेवनुं प्रवचन : वीर सं. २४८०, वैशाख वद ८]
अनादिकाळथी पोताना आत्माना यथार्थ बोध वगर जीव संसार परिभ्रमण करी रह्यो छे. वर्तमानमां
ज्ञाननो जे व्यक्त अंश छे–मतिश्रुत ज्ञान छे तेना वडे एकला परने जाणे छे, पण ते ज्ञानने स्वसन्मुख करीने
अपूर्व आत्मबोध करवो ते मुक्तिनुं कारण छे. आत्माना ज्ञानानंद स्वरूपनी ओळखाण करीने तेनी सम्यक्
प्रतीति करवी ते सम्यदर्ग्शन छे, ते सम्यग्दर्शनने ‘रत्न’ नी उपमा छे, ने ते मोक्षनुं कारण थाय छे. आ देहादिनी
क्रियाओ तो आत्माथी भिन्न छे, ते कांई आत्माने धर्मनुं साधन नथी. जेम आ शरीरना स्पर्शनो ख्याल करवो
होय तो शरीरना अवयवभूत आंगळी वडे तेनो ख्याल आवशे, पण लाकडा वडे शरीरनो स्पर्श करे तो तेनो
ख्याल नहि आवे, केमके ते चीज शरीरथी जुदी छे. हवे आंगळी उपर मेलनां जाडां थर जाम्यां होय तोपण ते
आंगळी वडे शरीरना स्पर्शनो बराबर ख्याल नहि आवे. तेम भगवान आत्मा अरूपी चैतन्यशरीरी छे, तेना
ज्ञानानंद स्वरूपनो ख्याल शरीरनी क्रिया वडे नहि आवे, केमके शरीर तो भिन्न चीज छे. अंदर जे ज्ञाननो
उघाड छे ते आत्मानो अंश छे, ते ज्ञानने स्वसन्मुख करता आत्माना ज्ञानानंद स्वभावनो ख्याल आवे छे,
केमके ते ज्ञान पोतानी चीज छे हवे ते ज्ञान उपर विकारनां थर जाम्यां होय एटले के ‘पुण्य–पाप ते हुं’ एवी
ऊंधी रुचिमां ज्ञान अटक्युं होय तो ते ज्ञान वडे आत्माना स्वभावनो बोध थतो नथी. आ आत्माबोधनी वात
छे; एकवार पण यथार्थ आत्मबोध करे तो ते मोक्षनुं कारण थाय; आवो आत्मबोध केम थाय तेनी आ वात छे.
“कोटि वर्षनुं स्वप्न पण जागृत थतां शमाय;
तेम विभाव अनादिनो ज्ञान थतां दूर थाय.”
जेम ऊंघमां करोडो वर्षनुं स्वप्न देखाय, पण ज्यां जागीने आंख ऊघाडी त्यां ते बधुं शमाई जाय छे,
करोडो वर्षनुं स्वप्न होय पण तेने शमाता करोड वर्ष नथी लागता, जागे त्यां एक क्षणमां ते दूर थई जाय छे.
तेम आत्मा पोताना ज्ञानानंद स्वरूपने भूलीने, जडनी क्रिया मारी अने पुण्यना भाव थया ते मारुं स्वरूप छे.
एवी ऊंधी मान्यताथी अनादि विभाव करीने संसारमां रखडी रह्यो छे; पण हुं तो जडथी भिन्न, ने रागादिथी
पार, शुद्ध ज्ञानानंद स्वरूप छुं एवो स्वसन्मुख आत्मबोध करे तो ते अनादिनो विभाव एक क्षणमां नाश थई
जाय छे. अनादिकाळनो विभाव नाश करवा माटे कांई तेटला लांबा काळनी जरूर पडती नथी. गमे तेटला
काळनुं अंधारुं होय पण ज्यां प्रकाश थाय त्यां एक क्षणमां ते टळी जाय छे, तेम सत्समागमे ज्यां
आत्मज्ञाननो प्रकाश होय त्यां अनादिना अज्ञान अंधकारनो नाश थई जाय छे. आत्मानुं सम्यग्ज्ञान ते परम
आनंदनुं कारण छे. ते सम्यग्ज्ञान केम प्रगटे तेनी आ वात छे.
आत्मानो यथार्थ बोध केम थाय ते रीत अनंतकाळथी जीवोए जाणी नथी. बहारनी लौकिक कळा जाणे
छे पण ते बधायनो जाणनारो हुं पोते ज्ञानस्वरूप छुं एवुं पोताना स्वभावनुं लक्ष कदी कर्युं नथी. बहारना
साधनथी आत्मबोध थाय नहि; तेमज जिज्ञासुने साचा देवगुरु धर्म प्रत्येनो भक्तिनो उल्लासभाव आवे, पण
ते शुभराग छे, ते राग वडे पण आत्मबोध थाय नहि. आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, तेनो बोध ज्ञान वडे ज थाय छे.
ज्ञानने अंतरमां वाळीने स्वसन्मुख करतां ते ज्ञानवडे आत्मबोध थाय छे. आवुं आत्मज्ञान थतां पोताने
अंदरथी आत्मानो संतोष प्रगटे, सिद्ध भगवान जेवी अतीन्द्रिय शांतिना अंशनुं पोताने अंतरमां वेदन थाय
–आवी दशा प्रगटे तेनुं नाम धर्म छे. स्वसन्मुख ज्ञान सिवाय बीजो कोई तेनो उपाय नथी.
जुओ, श्री जिनेन्द्र भगवाननुं मंदिर, प्रतिष्ठा वगेरेनो भक्तिभाव जिज्ञासुओने आवे, संतोने पण
एवो भाव आवे, तीर्थधामनी यात्रानो भाव पण आवे; कुंदकुंदाचार्यदेव गिरनारजी तीर्थनी यात्राए पधार्या
हतां.

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: १९८: आत्मधर्म–१३० : श्रावण: २०१०:
आवो भाव आव्या विना रहेतो ज नथी, पण ते शुभराग छे. पद्मनंदी मुनिराज कहे छे के–
यात्राभिःस्नपनैर्महोत्सवशतेः पूजामिरुल्लोचकै
नैवेद्यैर्वलिभिर्ध्वजैश्च कलशैस्तौर्य त्रिकेर्जागारैः।
घंटा चामरदर्पणादिभिरपि प्रस्तार्य शोभां परां
भव्यः पुण्यमुपार्जयन्ति सततं सत्यत्र चैत्यालये।।
–देशव्रतोद्योतन : २३
आ जगतमां चैत्यालय थतां भव्यजीवो यात्रा, कलशाभिषेक वगेरे सेंकडो प्रकारना मोटामोटा उत्सवोथी,
तथा पूजा, चांदनी वगेरेथी, ध्वजारोपणथी, कलशारोपणथी अत्यंत सुंदर वाजींत्रोथी तेमज घंट, चामर, छत्र,
दर्पण वगेरेथी ते चैत्यालयनी उत्कृष्ट शोभा वधारीने पुण्य संचय करे छे; माटे भव्यजीवोए चैत्यालयनुं निर्माण
अवश्य कराववुं जोईए.
शास्त्रमां आवो शुभरागनो उपदेश आवे; पण आत्माना भान वगर शुभराग करीने कोई एम मानी
ल्ये के आनाथी मने धर्म थई गयो अथवा आ मने धर्मनुं कारण थशे तो आचार्यदेव कहे छे के अरे भाई! तुं
तो ज्ञानमूर्ति छो, राग ते खरेखर तारुं अवयव नथी, तारा ज्ञानरूपी अवयवने अंतरमां एकाग्र करीने
ज्ञानानंदस्वरूपने लक्षमां ले, तो आत्मबोध थाय ने अविकारी शांति प्रगटे. तेनुं नाम धर्म छे. आ सिवाय बीजी
रीते धर्म थतो नथी, बहारनी क्रियाथी के शुभरागथी धर्म थवानुं जे मनावता होय ते मिथ्याद्रष्टि छे.
सिद्ध भगवंतो अने अरिहंत भगवंतो केवळज्ञान प्रगट करीने परमात्मा थया; तेमनुं केवळज्ञान क्यांथी
आव्युं? शरीरमांथी के रागमांथी ते केवळज्ञान आव्युं नथी, पहेलांं ओछुं ज्ञान हतुं तेमांथी पण ते केवळज्ञान
आव्युं नथी; पण अंतरमां ज्ञानानंदस्वभाव परिपूर्ण सामर्थ्यथी भरपूर छे तेनुं अवलंबन लईने एकाग्र थतां
तेमांथी केवळज्ञान प्रगटी जाय छे. हे जीव! तारो आत्मा आवा परिपूर्ण सामर्थ्यथी भरेलो छे; आवां स्वसंवेद्य
आनंदमूर्ति आत्माने प्रतीतमां लईने तेनो अनुभव कर तो वर्तमानमां अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय.
बधा आत्मा अनादिअनंत छे, दरेक आत्मा ज्ञानस्वरूप छे. जेटलुं एक आत्मा जाणे छे तेटलुं जाणवानी ताकात
दरेक आत्मामां छे. केवळी भगवान त्रणकाळ त्रणलोकने एक समयमां जाणे छे ते ज्ञान अंतरनी शक्तिमांथी
आव्युं छे, ने एवी शक्ति दरेक आत्मामां भरेली छे. वर्तमान व्यक्तज्ञान अल्प होवा छतां ते परिपूर्ण ज्ञाननो
अंश छे, ते व्यक्तज्ञानने अंतर्मूख करीने परिपूर्ण ज्ञानशक्तिनुं अवलंबन करतां केवळज्ञान प्रगटी जाय छे.
ज्ञानशक्तिना अवलंबन सिवाय बीजो कोई उपाय नथी. पहेलांं यथार्थ आत्मबोध करवो जोईए. आत्मबोध
करवो ते धर्मनी प्रथम क्रिया छे. धर्म चीज अपूर्व छे, दुनिया बहारथी ने रागथी धर्म मानी बेठी छे, पण धर्मनुं
स्वरूप एवुं नथी. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रय ते मोक्षनुं कारण छे; तेमां आत्मानो यथार्थ बोध करवो
ते सम्यग्ज्ञान छे, ते मोक्षमार्गनुं एक रत्न छे. आवो आत्मबोध प्रगट करवो ते धर्मनी शरूआत छे.
* सम्यग्दर्शननुं सामर्थ्य *
ज्ञान स्वरूप अभेद आत्मानी प्रतीति करवी ते
अपूर्व सम्यग्दर्शन–धर्म छे. एक समयनुं सम्यग्दर्शन
अनंत जन्म–मरणना मूळने छेदी नाखे छे. अंतरना
चिदानंद स्वभावनी ओळखाण करीने आवुं अपूर्व
सम्यग्दर्शन अनादिथी एक सेकंड पण जीवे कर्युं नथी.
बीजुं बधुं करी चुक्यो–शुभ भावथी व्रत–तप–पूजा ने
त्याग कर्या पण हुं पोते चैतन्य ज्योत भगवान छुं,
एवा आत्मभान वगर एक पण भव घट्यो नहि.

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: श्रावण: २०१०: आत्मधर्म–१३० : १९९:
कृतकृत्यपणुं
[वैशाख वद दसमना रोज वींछीयामां पू. गुरुदेवनुं प्रवचन]
जेणे पोताना ज्ञानानंद स्वभावनी सन्मुख थईने तेनी सम्यक्
प्रतीति करी–ज्ञान कर्युं ने तेमां एकाग्रता करी तेणे करवा योग्य अपूर्व
कार्य कर्युं, तेथी ते कृतकृत्य थयो. भाई! आत्माना स्वभावनी प्रतीति
करीने तेमां ठर–ए ज तारुं खरुं कार्य छे, आ सिवाय परनां कार्य तारां
नथी. स्वभावमांथी पूर्णता प्रगट करीने कृतकृत्य थई शके, पण परनां
कार्यो पूरा करीने कृतकृत्यपणुं थाय–एम बनी शकतुं नथी. आत्मामां ज
आनंद छे एवो जेणे निर्णय न कर्यो ते भले पुण्य करीने स्वर्गमां जाय–तो
पण अकृतकृत्य ज छे.
आ पद्मनंदीपंचविंशतिने ‘अमृत’ कहे छे; वनजंगलमां वसनाराने आत्माना आनंदमां
झूलनारा पद्मनंदी मुनिराजे आ शास्त्र रच्युं छे, तेथी श्रीमद् राजचंद्र आ शास्त्रने वनशास्त्र
कहे छे अने तेनुं फळ अमृत छे एटले के तेमां कहेला यथार्थ भावोनो बोध करतां अमर एवा
मोक्षपदनी प्राप्ति थाय छे. अहीं तेनो निश्चय–पंचाशत अधिकार वंचाय छे; तेनी तेरमी
गाथामां कहे छे के–
सम्यक् सुखबोधदशां त्रितयमखंड परात्मनोरूपम्।
तत्तत्र तत्परो यः स एव तल्लब्धि कृतकृत्यः।।
सम्यक दर्शन, ज्ञान अने सुख ए त्रणेय आत्मानुं अखंड स्वरूप छे. आत्माथी ते जुदा
नथी; तेथी जे जीव परम आत्मस्वरूपमां लीन थईने तेनी आराधना करे छे तेने सम्यग्दर्शन
आदि रत्नत्रयनी प्राप्ति थाय छे अने ते कृतकृत्य थई जाय छे.
भाई! सुख आत्मामां छे; तारा आत्मा सिवाय बहारमां स्त्री–शरीर–लक्ष्मी–मकान
वगेरे कोई संयोगोमां तारुं सुख नथी. सुख तो आत्मानो अनादिअनंत स्वभाव छे. आत्माना
ज्ञान–आनंदस्वभावनी प्रतीति जीवे पूर्वे कदी करी नथी. जेम कोई माणसना एक हाथमां
चिंतामणि होय ने बीजा हाथमां पथ्थरो होय, त्यां चिंतामणि पासे जे चिंतवे ते मळे, तेनी
प्रतीत तो करे नहि, ने पथ्थरथी मने सुख छे एम मानीने तेने पकडी राखे तो लोकमां तेने
मूर्ख कहेवाय छे. तेम आत्मानो ज्ञानानंद स्वभाव चैतन्यचिंतामणि छे, ते स्वभावमां अंतर्मुख
द्रष्टि करे तो आत्माने आनंदनो अनुभव थाय ने ते कृतकृत्य थई जाय. पण आवा पोताना
स्वभावनी तो प्रतीत जीव करतो नथी, ने बहारना पदार्थोमां मारुं सुख छे एम मानीने परनी
ममता करीने दुःखी थाय छे. परचीज तो पोतानी थई शकती नथी, छतां अनादिथी परने
पोतानुं करवा मथी रह्यो छे. त्यां तो तेनो प्रयत्न व्यर्थ छे अने आत्मा ज्ञानानंद–स्वभावथी
भरेलो छे तेनी सन्मुख थईने एकाग्रता

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: २००: आत्मधर्म–१३० : श्रावण: २०१०:
करे तो कृतकृत्यता थाय ने आनंद प्रगटे. अहो! हुं ज्ञान–दर्शनमय छुं. शांतिनो पिंड छुं,
परचीजनां कार्यो मारे आधीन छे ज नहि–आवुं यथार्थ भान करीने अंतरमां एकाग्र थतां
कृतकृत्य थई जाय छे. आ सिवाय परचीजना कार्यो करवा मांगे के परमांथी सुख लेवा मांगे तो
ते वात अशक्य छे एटले तेमां कदी कृतकृत्यता थती नथी. माटे हे भाई! एकवार तो
सत्समागमे एवो निर्णय कर के, “हुं चैतन्यस्वरूप छुं, आनंद मारा स्वभावमां ज छे एवी
यथार्थ प्रतीति अने बोध करीने हुं मारा आत्मानो आनंद प्राप्त करी शकुं छुं, पण पर चीज
कदी पण मारी थई शकती नथी.” आवी अंतरस्वभावनी प्रतीति करतां अतीन्द्रिय आनंदना
अंशनो जेटलो अनुभव थाय छे तेटलुं कृतकृत्यपणुं छे. आ सिवाय बहारमां घणा संयोगो
भेगा थाय के घणां कार्यो थाय तेमां आत्मानी कृतकृत्यता नथी. जेम लींडी पीपरना एकेक
दाणामां परिपूर्ण तीखाशनी ताकात भरी छे तेम एकेक आत्मामां ज्ञान अने आनंदनी परिपूर्ण
ताकात भरी छे, तेनो भरोसो करीने तेनुं अवलंबन करतां कृतकृत्यपणुं प्रगटे छे. आ सिवाय
बहारनां कार्यो पूरा करवा मांगे, तो ते अशक्य छे, केमके परचीजनां कार्य आत्माने आधीन
नथी.
स्वभावमांथी पूर्णता प्रगट करीने कृतकृत्य थई शके, पण परना कार्यो पूरा करीने
कृतकृत्यपणुं थाय एम बनी शकतुं नथी. जे चीज पोतानी नथी तेना कार्यनुं अभिमान करे ते
तो व्यर्थ छे. जीवने ईच्छा थाय, पण ते ईच्छाने लीधे परनां कार्य थई जाय एम बनतुं नथी.
वहालामां वहालो पुत्र मरवानी तैयारीमां होय त्यां तेने बचाववानी घणी ईच्छा होवा छतां
तेने तुं बचावी शकतो नथी; माटे भाई! तारी ईच्छा परमां काम आवती नथी, एटले ते
ईच्छा वडे पण कृतकृत्यपणुं थतुं नथी. तारा आत्मामां सर्वज्ञ थवानी ताकात पडी छे,
तारामांथी केवळज्ञान अने परिपूर्ण आनंद प्रगटे एवी ताकात तारामां छे. पण परचीजना
कार्यने करी दे एवी ताकात तारामां नथी पहेलांं यथार्थ निर्णय करीने आत्माना आवा
स्वभावने प्रतीतमां ल्ये तो श्रद्धामां कृतकृत्यपणुं थई जाय. परनां काम हुं करुं ने परमां मारुं
सुख एम मानीने अनादिथी अकृतकृत्यपणे वर्ते छे एटले आकुळताथी संसारमां रखडे छे
अनादिकाळमां एक क्षण पण ज्ञानानंद स्वभावनो निर्णय कर्यो नथी. कृतकृत्य तो त्यारे कहेवाय
के अंतरना स्वभावनो निर्णय करीने आनंदना अनुभवरूप कार्यने व्यक्त करे. ते कार्यनुं कारण
कोण? अंतरमां शुद्ध चिदानंद सर्वज्ञशक्तिनो पिंड आत्मा छे ते ज ध्रुवकारण छे, ते कारणमांथी
आत्माना आनंदनुं कार्य प्रगटे छे. ए सिवाय बहारना संयोगो के पुण्य–पाप ते आत्माना
आनंदनुं कारण नथी. आत्माना ज्ञानानंद स्वभावनी सन्मुख थईने जेणे सम्यक्प्रतीत करी
तेणे अनंत काळमां नहि करेल एवुं अपूर्व कांईक कार्य कर्युं. जेणे आत्माना स्वभावनी प्रतीत
न करी, आत्मामां ज आनंद छे एवो निर्णय न कर्यो, ते भले पुण्य करीने स्वर्गमां जाय तोपण
ते अकृतकृत्य छे, करवायोग्य खरुं कार्य तेणे कर्युं नथी. “अहो! संयोगोमां के पुण्य–पापमां मारुं
सुख नथी, मारो आत्मा ज ज्ञान–दर्शनने आनंदस्वरूप छे, तेमां ज मारुं सुख छे” आवो जेणे
स्वसन्मुख निर्णय कर्यो तेणे अपूर्व कार्य कर्युं, ते सम्यग्दर्शनमां कृतकृत्य थयो; स्वभावरूप कारण
परमात्मा छे तेना अवलंबने धर्मरूपी कार्य प्रगट्युं. अहो, जेणे आवो आनंदस्वभावनो
निर्णय कर्यो छे, ते

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: श्रावण: २०१०: आत्मधर्म–१३० : २०१:
भले आठ वर्षनी बाळकी होय, हजी शुभ–अशुभ भावो थता होय, छतां ते क्षणे आत्मामां
अंशे अतीन्द्रिय शांति वर्ते छे, तेटलुं कृतकृत्यपणुं वर्ते छे. अने चैतन्यस्वभावना निर्णय वगर
भले शुभराग करे ने लाखो रूपिया दानमां खर्चे, लोको तेने मोटा मोटा बिरूद आपे, पण तेमां
तेना आत्माने जराय कृतकृत्यपणुं नथी. बहारनां कार्यो तो तेना थवा काळे थया ज करे छे, ते
कांई जीवनुं कर्तव्य नथी; अने राग थाय त्यां ‘आ राग मारुं कार्य ने हुं तेनो कर्ता’ एम
मानीने जे रोकाय छे ते पण अधर्मी छे, आत्मानी शांतिनी तेने खबर नथी. मारी शांति मारा
आत्मामां ज छे, बहारमां के रागमां मारी शांति नथी, मारो आत्मा चैतन्यचिंतामणिरत्न जेवो
छे, तेमांथी जे चिंतवुं ते मळे एटले के मारा आत्माने लक्षमां लईने चिंतवतां अतीन्द्रिय ज्ञान
अने आनंदनी प्राप्ति थाय छे आम जेणे पोताना ज्ञानानंद स्वभावनी सन्मुख थईने तेनी
सम्यक्प्रतीति करी, ज्ञान कर्युं ने तेमां एकाग्रता करी तेणे करवा योग्य अपूर्व कार्य कर्युं, तेथी ते
कृतकृत्य थयो. भाई! आत्माना स्वभावनी प्रतीत करीने तेमां ठर–ते ज तारुं खरुं कार्य छे, आ
सिवाय परनां कार्यो तारा नथी, ने राग थाय ते पण खरेखर तारुं कर्तव्य नथी. माटे हे भाई!
एकवार तो अंर्तमुख थईने स्वभावनो निर्णय कर अने अनंतकाळमां नहि करेल एवुं अपूर्व
कार्य प्रगट कर.
***
(अनुसंधान पाना नं. १८८ थी चालु)
आत्मानी प्रभुता नथी, पण चिदानंद स्वभावमां तारी प्रभुता छे; तेने ध्येय बनावीने तेनी प्रतीत–
ज्ञान ने एकाग्रता करवा ते धर्म छे. पोताना चैतन्यनी प्रभुताने चूकीने, परने ध्येय बनावीने जीव अनादिथी
संसारमां रखडयो छे. अंतरना चिदानंद स्वभावनी प्रभुताने ओळखीने तेने ध्येय बनाववो ते भवना नाशनो
उपाय छे.
जुओ, आ चैतन्यना स्वावलंबी पडखां अंतरमां आत्माना अवलंबनथी समजाय तेवा छे, पण ते माटे
घणी पात्रताथी वारंवार सत्समागम जोईए, वारंवार तेनो परिचय जोईए. आ सिवाय बीजो तो कोई
हितनो उपाय छे नहि. माटे जेने पोतानुं हित करवुं होय तेणे अंतरमां आ समजणनो प्रयास करवो जोईए.
अंतरमां चैतन्यना अवलंबन सिवाय बहारनो बीजो कोई उपाय छे ज नहि. सम्यग्दर्शन पण चैतन्यनुं ध्यान
छे, सम्यग्ज्ञान ते पण चैतन्यनुं ध्यान छे ने सम्यक्चरित्र ते पण चैतन्यनुं ध्यान छे; चैतन्यस्वभावना ध्यानथी
ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र थाय छे, ए सिवाय कोईपण बीजाना ध्यानथी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र थता
नथी. परना अवलंबनथी लाभ मानवो ते तो मिथ्यात्व छे, ने चैतन्यस्वभावनुं अवलंबन लईने एकाग्र थवुं
ते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनो उपाय छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जे मोक्षमार्ग छे तेमां ध्येयरूप एक शुद्ध
आत्मा ज छे.
चैतन्यस्वरूप आत्मा शुं चीज छे तेनी समजण पूर्वे कदी जीवे करी नथी. अनंतकाळमां जे वात नथी
समज्यो ते समजवा माटे अवकाश लईने महेनत करवी जोईए. जगतना लौकिक भणतर माटे केटलो काळ
गाळे छे? ने केटली महेनत करे छे? तो जेने आत्मानी दरकार होय तेणे आत्मानी समजण माटे वखत लईने
श्रवण–मननथी अभ्यास करवो जोईए. परमां तो आत्मानी महेनत काम आवती नथी, आत्माना डहापणने
लीधे बहारनां काम सुधरी जाय के लक्ष्मी वगेरे मळी जाय एम बनतुं नथी. लक्ष्मी वगेरेनुं मळवुं के टळवुं ते तो
पूर्वना पुण्य पाप प्रमाणे बने छे. अने चैतन्यतत्त्वनी समजण तो वर्तमान अपूर्व प्रयत्नथी थाय छे. मारो
आत्मा चैतन्यतत्त्व छे ते आनंदनुं धाम छे, ते ज जगतमां उत्कृष्ट छे अने ते ज मारुं ध्येय छे, एम
चैतन्यतत्त्वने ध्येय बनावीने तेनी प्रतीत करवी ते सम्यग्दर्शन छे, बीजुं कोई

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: २०२: आत्मधर्म–१३० : श्रावण: २०१०:
सम्यग्दर्शन नथी; ते चैतन्यना स्वसंवेदनज्ञान सिवाय बीजुं कोई सम्यग्ज्ञान नथी; अने ते चैतन्यना ध्यानमां
एकाग्रता सिवाय बीजुं कोई सम्यक्चारित्र नथी; चैतन्य–स्वभावना अवलंबनमां ज आखो मोक्षमार्ग समाय
छे, चैतन्यना अवलंबन सिवाय बीजा कोईना अवलंबनने मोक्षमार्ग नथी. आ रीते मोक्षार्थी जीवने पोतानुं
चैतन्यतत्त्व ज ध्येयरूप छे.
धर्मी कहे छे के : अहो! मारो शुद्ध चिद्रूप आत्मा ज मारुं ध्येय छे, तेथी हुं चिद्रूप आत्माने ज प्रतिसमय
स्मरुं छुं–तेने ज भावुं छुं; मारा शुद्ध चिद्रूप भगवानने हुं कोईपण क्षणे भूलतो नथी, कोईपण समये मारा शुद्ध–
चिंदानंदतत्त्वनी द्रष्टि छूटती नथी. एकवार एक बावो लंगोटी भूली गयो, बीजाए तेने टकोर करी के अरे
महाराज! लंगोटी क्यां भूली गया? त्यारे बावाजीए जवाब आप्यो के :
अरे भया! मैं लंगोट को तो भूल
गया लेकिन मेरे कृष्ण को मैं कहीं भूलता! अंतरनी यथार्थ–द्रष्टि तो जुदी चीज छे, परंतु आ तो बहारनुं
द्रष्टांत छे. तेम अहीं धर्मात्माने पोताना अंतरमां शुद्धचिदानंद स्वभावनी मुख्यतानी द्रष्टि कदी छूटती नथी;
आखा जगतने भूलाय पण अंतरना चैतन्यभगवानने एक क्षण पण केम भूलाय? राग–द्वेष थाय ते
वखतेपण ‘हुं शुद्धचिद्रूप छुं’ एवी अंर्तद्रष्टि धर्मीने कदी छूटती नथी, चैतन्य ध्येयने चूकीने कदी रागादिमां
पोतापणुं मानता नथी. आ रीते शुद्ध चिद्रूप आत्मा ज जगतमां उत्तम अने ध्येयरूप छे.
हवे शुद्ध चिद्रूप आत्मा ज कई रीते उत्तम तत्त्व छे ते कहे छे–
ज्ञेयो द्रश्योऽपि चिद्रूपो ज्ञाताद्रष्टा स्वभावतः।
न तथाऽन्यानि द्रव्याणि तस्मात्द्रव्योत्तमोडस्ति सः।।१०।।
आ चैतन्य स्वरूप आत्मा ज्ञेय तथा द्रश्य छे तेमज ते पोताना स्वभावथी ज्ञाताद्रष्टा पण छे; जगतना
बीजा कोई द्रव्योमां ज्ञाताद्रष्टा स्वभाव नथी, माटे चैतन्य स्वरूप आत्मा ज उत्तम द्रव्य छे. जगतमां आ शुद्ध
चिद्रूप आत्मा ज एवुं तत्त्व छे के जे पोते ज्ञाता–द्रष्टा छे तेमज पोते ज्ञेय–द्रश्य पण छे, एना सिवाय बीजा कोई
अचेतन पदार्थो ज्ञाता–द्रष्टा नथी; पोताना ज्ञान प्रकाशथी आत्मा ज बधाने प्रकाशे छे–जाणे छे, एना ज्ञान
प्रकाश विना बधे अंधारुं छे. माटे ज्ञानप्रकाशी भगवान आत्मा ज जगतमां उत्तम तत्त्व छे. आम समजीने तेनुं
श्रवण करो–मनन करो ने तेने ज ध्येय बनावो. ज्ञान–स्वरूपी आत्मानी समजण सिवाय बीजा जे कोई उपायो
छे ते बधा निरर्थक छे एम निर्णय करीने तेनी समजणनो प्रयत्न करो.
आ चैतन्यस्वरूपआत्मा पोताना ज्ञानस्वभावथी पोते पोताने पण जाणे छे ने परने पण जाणे छे; त्यां
पोते पोताने तो तन्मय थईने जाणे छे अने परने भिन्नपणे रहीने जाणे छे, तेथी पोते पोतानुं परमार्थ ज्ञेय छे
ने शरीरादि भिन्न पदार्थो ते आत्मानुं व्यवहारेज्ञेय छे. शरीरादि अचेतन पदार्थोमां ज्ञेयपणुं छे पण ज्ञाता पणुं
नथी. ज्ञाता अने ज्ञेय ए बंनेनी एकता तो आत्मामां ज छे, ज्ञाता पण पोते ने पोतानुं ज्ञेय पण पोते एवी
ताकात आत्मा सिवाय बीजा कोईमां नथी; माटे आत्मा ज उत्तम तत्त्व छे. कोई संयोग वडे, राग वडे के पुण्य
वडे आत्मानी उत्तमता नथी पण ज्ञानस्वभाव वडे आत्मानी उत्तमता छे. जेने आत्मानी आवी प्रभुता भासे
तेनुं ज्ञान परथी तेमज रागथी खसीने आत्ममां एकाग्र थया विना रहे नहि, अने आत्मामां एकाग्र थतां
अल्पकाळमां तेनी मुक्ति थई जाय. आ सिवाय आत्माने कर्म रखडावे अने भगवान तारे–एम जे माने तेने
पोतानी स्वतंत्रता तो क्यांय रही नहि, तेने चैतन्यतत्त्वनी उत्तमता भासी नथी. कर्म तो बिचारुं जड छे,
तेनामां एवुं सामर्थ्य नथी के आत्माने रखडावे; कर्म तो आत्माने जाणतुं पण नथी तेमज ते पोते पोताने पण
जाणतुं नथी. आत्मा ज तेने जाणे छे तेमज पोते पोताने पण जाणे छे. परंतु अज्ञानी पोताना आवा ज्ञान
सामर्थ्यनी प्रतीत न करतां, परने तेमज रागने जाणतां ते रूपे ज ज्ञानने मानी ले तेथी ते संसारमां रखडे छे.
आत्मा कर्मने तेमज रागादिने जाणे छे पण तेमां तन्मय थईने तेने नथी जाणतो, तेनाथी भिन्न रहीने तेने जाणे
छे, अने पोते पोताना शुद्ध चिद्रूपतत्त्वने तो तन्मय थईने जाणे छे. आ रीते परथी भिन्न ज्ञान स्वभावनो
निर्णय करीने, तेमां तन्मय थईने शुद्ध चिद्रूप आत्माने ज ज्ञाननुं ज्ञेय बनाववुं ते मोक्षमार्ग छे. भगवान!
आवा तारा महिमावंत तत्त्वनुं तुं श्रवण कर, तेनो आदर कर, अने तेमां तन्मय थईने तेने जाण; ते शुद्ध
चैतन्यतत्त्वना आश्रये ज तारुं कल्याण छे.

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: श्रावण: २०१०: आत्मधर्म–१३० : २०३:
भाई, तारा ज्ञानमां ‘आ पर छे, आ राग छे’ एम परनो ने रागनो ख्याल तो आवे छे ने? तो तेनो
ख्याल करनार ‘हुं पोते ज्ञान छुं’ एम पोताना ज्ञाननो ख्याल केम नथी करतो? ज्ञानने बहारमां वाळीने परने
जाणे छे, तो ज्ञानने अंतरमां वाळीने पोताने केम नथी जाणतो? अज्ञानी जीव परने के रागने जाणतां तेमां ज
तन्मयपणुं मानी ल्ये छे, पण जुदुं ज्ञान तेना लक्षमां आवतुं नथी तेथी ज ते संसारमां रखडे छे. तेने बदले,
परने अने रागने जाणनार हुं ज्ञानस्वरूप छुं, मारुं ज्ञान परथी ने रागथी जुदुं ज छे एम निर्णय करीने,
ज्ञानतत्त्वमां ज तन्मय थईने तेने पोतानुं ज्ञेय बनाववुं ते अपूर्वधर्म छे ने ते मुक्तिनो मार्ग छे. बस!
बहारमां ज्ञाननुं ध्येय कर्युं ते संसार छे, ने अंतरमां चैतन्यतत्त्वने ज्ञाननुं ध्येय कर्युं ते मोक्षमार्ग छे.
आत्मानो चिदानंदस्वभाव सूक्ष्म छे, तेनुं ज्ञान पण सूक्ष्म छे; राग ते स्थूळ छे तेना वडे सूक्ष्म
चैतन्यस्वभाव पकडातो नथी. सूक्ष्म चिदानंद स्वभावने जाणवा माटे अंतरमां ज्ञाननो अपूर्व प्रयत्न जोईए, ते
ज्ञानमां शुभ–विकल्पनुं पण अवलंबन नथी. आत्मानो स्व–पर प्रकाशक स्वभाव छे, तेणे पोताना स्वभाव
साथे ज्ञाननी एकता करीने जाणवुं जोईए, तेने बदले पर साथे ज्ञाननी एक्ता माने छे, तेथी ते पोते पोताने
जाणतो नथी ने अज्ञानने लीधे संसारमां रखडे छे. आत्माना स्वपरप्रकाशक स्वभावमां ज्ञाननी एकता करीने
तेने जाणवो ने तेमां एकाग्र थवुं ते मोक्षनो उपाय छे. आत्मा पोताना स्व–पर प्रकाशक ज्ञान स्वभावथी ज
स्व–परने प्रकाशे छे, पण रागने के परने लईने ते प्रकाशतो नथी. राग वखते तेने जाणता अज्ञानीने एम
लागे छे के आ रागने लीधे मने ज्ञान थाय छे; पण ते राग वखते तेवुं ज ज्ञान पोतानी स्व–परप्रकाशक
शक्तिमांथी खील्युं छे एवी ज्ञानसामर्थ्यनी प्रतीत अज्ञानीने बेसती नथी. दरेक आत्मानो स्व–पर प्रकाशक
स्वभाव होवा छतां अज्ञानीने पोतानो विश्वास बेसतो नथी तेथी तेने स्व–परप्रकाशक ज्ञाननुं कार्य खीलतुं नथी
एटले के सम्यग्ज्ञान थतुं नथी. आत्माना स्व–परप्रकाशक स्वभावनो निर्णय करीने पोते पोताना ज्ञान–
स्वभावने पोतानुं ज्ञेय बनावे तो सम्यग्ज्ञान प्रगटे ने धर्म थाय. राग अने ज्ञाननुं भेदज्ञान थया पछी धर्मी
जीवने रागनुं पण ज्ञान थाय, परंतु तेने ते राग साथे ज्ञाननी एकता थती नथी. रागनुं ज्ञान थाय ते पण
पोताना स्व–परप्रकाशक ज्ञाननो काळ छे–ते काळे ज्ञाननुं तेवुं ज सामर्थ्य खील्युं छे, एम रागना ज्ञान वखते
पण रागथी भिन्न ज्ञानस्वभावने प्रतीतमां राखवो ते धर्म छे. ज्ञानमां राग जणाय, त्यां ज्ञानी तो पोताना
ज्ञाननुं ज सामर्थ्य देखे छे, ने अज्ञानी एकला रागने ज देखे छे. रागना काळे ते रागनुं ज्ञान थाय, माटे रागने
लीधे ते ज्ञान थयुं एम नथी. परने लीधे के रागने लीधे ज्ञान थतुं नथी, पण हुं मारा स्व–परप्रकाशक
ज्ञानस्वभावने लीधे ज जाणुं छुं, मारा ज्ञानमां राग जणाय त्यारे पण ते रागनी अधिकता नथी पण मारा
ज्ञानसामर्थ्यनी ज अधिकता छे, रागथी मारी भिन्नता छे ने ज्ञान साथे मारी एकता छे; आम भेदज्ञान करीने,
पोताना ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने तेमां एकता करतां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रना तरंग ऊठे छे, ते
मुक्तिनो मार्ग छे.
–वीर सं. २४८०, मागशर वद १२ ना रोज राजकोट
शहेरमां पू. गुरुदेवनुं प्रवचन. तत्त्वज्ञान तरंगिणी
अध्याय १, श्लोक ९–१०
ब्रह्मचर्य प्रतिज्ञा
सोनगढमां अषाड वद एकमना रोज वीरशासन
जयंति महोत्सव प्रसंगे भाईश्री छोटालाल रायचंद
खधार (चुडावाळा) तथा तेमनां धर्मपत्नी कान्ताबेन–
ए बंने ए सजोडे आजीवन ब्रह्मचर्य प्रतिज्ञा पू.
गुरुदेव पासे अंगीकार करी छे; ते माटे तेमने धन्यवाद!