Atmadharma magazine - Ank 132
(Year 11 - Vir Nirvana Samvat 2480, A.D. 1954).

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[१]
नन्वेवं बाह्यनिमित्तक्षेपः प्राप्नोतीत्यत्राह। अन्यः पुनर्गुरुविपक्षादिः प्रकृतार्थसमुत्पादभ्रंशयोर्निमित्तमात्रं
स्यातत्र योग्यताया एव साक्षात्साधकत्वात्।
(અર્થઃ–) અહીં એવી શંકા થાય છે કે એ રીતે તો બાહ્યનિમિત્તોનું નિરાકરણ જ થઈ જશે! તેના વિષયમાં
જવાબ એ છે કે–અન્ય જે ગુરુ વગેરે તથા શત્રુ વગેરે છે તે પ્રકૃતકાર્યના ઉત્પાદનમાં કે વિધ્વંસનમાં ફક્ત નિમિત્તમાત્ર
છે. વાસ્તવમાં કોઈ પણ કાર્યના થવામાં કે બગડવામાં તેની યોગ્યતા જ સાક્ષાત્ સાધક થાય છે. (“
वास्तवमें किसी
कार्य के होने व बिगडने में उसकी योग्यता ही साक्षात् साधक होती है।’]
(–મુંબઈથી પ્રકાશિત ઇષ્ટોપદેશ પૃષ્ઠ ૪૨–૪૩) ગા. ૩પ ટીકા
[२]
××× पर इसका अर्थ यह नहीं लेना चाहिए कि वैभाविक परिणाम जब कि निमित्तसापेक्ष होता है तो
जैसे निमित्त मिलेंगे उसीके अनुसार परिणमन होगा, क्योंकि ऐसा मानने पर एक तो वस्तु का वैभाविक
परिणमन से कभी भी छुटकारा नहीं हो सकता, दूसरे वस्तु की ‘कार्यकारी योग्यता’ का कोई नियम नहीं
रहता और तीसरे निमित्तानुसार परिणमन माननेपर जीव का अजीव रूप भी परिणमन हो सकता है।
इसलिये प्रकृत में इतना ही समझना चाहिए कि वैभाविक परिणमन निमित्त सापेक्ष होकर भी वह अपनी इस
कालमें प्रकट होनेवाली योग्यतानुसार ही होता है।
×××× अपनी योग्यतावश ही जीव संसारी है और अपनी योग्यतावश ही वह मुक्त होता है। जैसे
परिणमन का साधारण कारण काल होते हुए भी द्रव्य अपने उत्पादव्यय–स्वभाव के कारण ही परिणमन
करता है। काल उसका कुछ प्रेरक नहीं है। वैसे ही परिणमन का विशेष कारण कर्म रहते हुए भी जीव
स्वयं अपनी योग्यतावश राग–द्वेष आदिरूप परिणमन करता है कर्म उसका कुछ प्रेरक नहीं है। आगम में
निमित्त विशेष का ज्ञान कराने के लिये ही कर्म का उल्लेख किया गया है। उसे कुछ़ प्रेरक कारण नहीं
मानना चाहिए। जीव पराधीन है यह कथन निमित्त विशेष का ज्ञान कराने के लिये ही किया जाता है,
तत्त्वतः प्रत्येक परिणमन होता है अपनी योग्यतानुसार ही।
[देखो, पं॰ फूलचंदजी संपादित पंचाध्यायी
गा० ६१ से ७० का विशेषार्थ, पृ० १६३]
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મુદ્રકઃ– જમનાદાસ માણેકચંદ રવાણી, અનેકાન્ત મુદ્રણાલયઃ વલ્લભવિદ્યાનગર (ગુજરાત)
પ્રકાશકઃ– શ્રી જૈન સ્વાધ્યાય મંદિર ટ્રસ્ટ વતી જમનાદાસ માણેકચંદ રવાણી, વલ્લભવિદ્યાનગર (ગુજરાત)