: ફાગણ : ૨૦૧૧ : આત્મધર્મ–૧૩૭ : ૧૪૫ :
नय कह सकते हैं और न शुद्ध ज्ञेयको ही नय कह सकते हैं, किन्तु इन दोनोंके संबंध से जो विकल्प होता है वह नय
कहलाता है। (,, पंचाध्यायी गा. ५०६)
द्रव्यनय उपचारसे नय कहा गया है क्योंकि वास्तवमें नय यह ज्ञानका एक भेद है। [,, पंचाध्यायी पृ. १०१]
फलवत्त्वेन नयानां भाव्यमहवश्यं प्रमाणवद्धि यतः।
स्यादवयवि प्रमाणं स्युस्तदवयवा नयास्तदंशत्वात्।।५६२।।
जैसे प्रमाण फलसहित होता है वैसे ही नयोंका भी फलसहित होना परमावश्यक है। क्योंकि प्रमाण अवयवी है और
नय प्रमाण के अंश होने से अवयवरूप हैं। [,, पंचाध्यायी गा. ५६१–५६२]
व्यवहार प्रतिषेध्यस्तस्य प्रतिषेधकश्च परमार्थः।
व्यवहारप्रतिषेधः स एव निश्चयनयस्य वाच्यः स्यात्।।
[अर्थ] व्यवहार प्रतिषेध्य है अर्थात् निषेध करने योग्य है, और निश्चय उसका निषेध करनेवाला है। इसलिये व्यवहार
का प्रतिषेध करना ही निश्चयनय का वाच्य है। [,, पंचाध्यायी गा. ५६८]
नेति निषेधात्मा यो नानुपयोगः सबोधपक्षत्वात्।
अर्थाकारेण विना नेति निषेधावबोधशून्यत्वात्।।६०५।।
[अर्थ] इसलिये ‘न’ इसप्रकार का जो निषेधरूप विकल्प है वह (सर्वथा) उपयोग शून्य नहीं है, क्यों कि वह
बोधपक्ष सहित है। अब यदि उसमें अर्थ का आकार नहीं मानोगे तो वह ‘न’ इसप्रकार के निषेधरूप ज्ञान से शून्य हो जायगा।
[पं. फूलचंदजी संपादित पंचाध्यायी गा. ६०५]
स्वयमपि भूतार्थत्वाद्भवति स निश्चयनयो हि सम्यक्त्वम्।
अविकल्पवदतिवागिव स्यादनुभवैकगम्यवाच्यार्थः।।६२९।।
यदि वा सम्यग्द्रष्टिस्तद्द्रष्टिः कार्यकारी स्यात्।
तस्मात् स उपादेयो नोपादेयस्तदन्यनयवादः।।६६०।।
[अर्थ] तथा निश्चयनय स्वयं भूतार्थ होने से समीचीन है और इस का विषय निर्विकल्प या वचन अगोचर के समान
अनुभवगम्य है।
अथवा जो निश्चय द्रष्टिवाला है वही सम्यग्द्रष्टि है और वही कार्यकारी है। इसलिये निश्चयनय उपादेय है किन्तु उसके
सिवा अनय नयवाद उपादेय नहीं है। [पंचाध्यायी गा. ६२६–६३०]
× × × वास्तव में निश्चयनय अनिर्वचनीय है × × × [पंचाध्यायी गा. ३४१]
विधिपूर्वः प्रतिषेधः प्रतिषेध पुरस्सरो विधिस्त्वनयोः।
मैत्री प्रमाणमिति वा स्वपराकारावगाहि यज्ज्ञानम्।।६६५।।
[अर्थ] विधिपूर्वक प्रतिषेध होता है और प्रतिषेधपूर्वक विधि होती है। किन्तु विधि और प्रतिषेध इन दोनों की जो
मैत्री है वही प्रमाण है। अथवा स्व और पर को जाननेवाला जो ज्ञान है वह प्रमाण है। [,, पंचाध्यायी गा. ६६५]
अयमर्थोऽर्थविकल्पो ज्ञानं कल लक्षणं स्वतस्तस्य।
एकविकल्पो नयसादुभयविकल्पः प्रमाणमिति बोधः।।६६६।।
[अर्थ] आशय यह है कि अर्थविकल्प का नाम ज्ञान है। यह ज्ञान का स्वतःसिद्ध लक्षण है। वह जब एक विकल्परूप
होता है तब नय ज्ञान कहलाता है और जब उभय विकल्परूप होता है तब प्रमाण ज्ञान कहलाता है।[,, पंचाध्यायी गा. ६६६]
ज्ञानविशेषो नय इति ज्ञानविशेषः प्रमाणमिति नियमात्।
उभयोरन्तर्भेदो विषयविशेषान्न वस्तुतो भेदः।।
[अर्थ] आशय यह है कि नियम से नय भी ज्ञानविशेष है, और प्रमाण भी ज्ञानविशेष है। दोनों में भीतरी भेद विषय–
विशेष की अपेक्षा से ही है, वास्तवरूप से कोई भेद नहीं है। [,, पंचाध्यायी गा. ६७६]
× × × नय विषयी है किन्तु निक्षेप शाब्दिक विषयविभाग का ही प्रयोजक है × × ×
[पं. फूलचन्दजी सम्पादित पंचाध्यायी पृष्ट. १४२]
नय और निक्षेप में विषयविषयी सम्बन्ध है, नय विषय करनेवाला ज्ञान है, और निक्षेप उस का विषयभूत पदार्थ है।
[पं. मक्खनलालजी सम्पादित पंचाध्यायी पृष्ठ. २२०]
[१९] स्वयंभू–स्तोत्र
अनेकान्तोप्यनेकान्तः प्रमाण–नय–साधनः।
अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितान्नयात्।।
‘आप के मत में अनेकान्त भी प्रमाण और नय साधनों को लिये हुए अनेकान्तस्वरूप (कथंचित् अनेकान्त और
कथंचित् एकान्त–स्वरूप) है प्रमाणकी द्रष्टि से अनेकान्त सिद्ध होता है और विवक्षित नयकी अपेक्षासे अनेकान्त में एकान्तरूप
(प्रतिनियतधर्मरूप) सिद्ध होता है।’ [समन्तभद्र भारती स्वयंभूस्तोत्र श्री अर–जिनस्तवन। श्लोक १२ पृ. ६७]
[२०] विद्वज्जनबोधक
बहुरि ‘अर्यते इति अर्थ’ कहिये प्रमाण अर नयकरि निश्चय कीजिये सो अर्थ कहिये। × × × अनेकान्तस्वरूप प्रमाण नय
करि सिद्ध होय ताकुं तत्त्वार्थ कहिए। [विद्वज्जनबोधक पृ. ३५]