: १४४ : आत्मधर्म–१३७ : फागण : २०११ :
पण भूत–भविष्य–वर्तमान त्रणेकाळने ग्रहण करे छे–जाणे छे.)
प्रमाण नयनिक्षेपैयोंऽर्थान्नाभिसमीक्षते।
युक्तं चायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत्।।१।। (पृष्ठ ६६)
(अहीं प्रमाण–नय–निक्षेप वडे अर्थोनी समीक्षा अर्थात् निर्णय करवा बाबत जणाव्युं छे.)
इदि तं पमाणविसयं सत्तारूवं खु जं हवे दव्वं।
णयविसयं तस्संसं सियभणितं तंपि पुवुत्तं।।२४७।।
(अहीं प्रमाण अने नय बंनेनो विषय जणाव्यो छे.)
अवरोप्परसावेक्खं णयविसयं अह पमाणविसयं वा।
तं सावेक्खं तत्तं णिरवेक्खो ताण विवरीयं।।२५०।।
(‘नयनो विषय’ अने ‘प्रमाणनो विषय’ ते परस्पर सापेक्ष छे–एम अहीं कह्युं छे.)
आसण्णभव्वजीवो अणंतगुणसेढि सुद्धिसंपण्णो।
बुज्झन्तो खलु अठ्ठे खवदि स मोहं पमाणणयजोगे।।३१७।।
प्रमाण अने नयना जोगथी जे अर्थोने बूझे छे–जाणे छे, ते अनंत गुणोथी शुद्धिसंपन्न आसन्नभव्य जीव मोहनो नाश करे छे.
आ कथनमां पण नय ज्ञानात्मक होवानुं आवी जाय छे. (आ उपरांत जुओ गाथा–९६, २४५, ३२८, ३७९)
[१६] स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा
जं वत्थु अणेयतं एयंतं तं पि होदि सविपेक्खं।
सुयणाणेण णयेहिं य णिरविक्खं दीसए णेव।।२६१।।
(अर्थ) जो वस्तु अनेकांत है वह अपेक्षा सहित एकान्त भी है। श्रुतज्ञान प्रमाणसे सिद्ध किया जाय तो अनेकांत ही है,
और श्रुतज्ञानप्रमाणके अंशरूप नयोंसे सिद्ध किया जाय तब एकान्त भी है। [स्वा. का. अनुप्रेक्षा गा. २६१]
सो चिय इक्को धम्मो वाचय सद्दो वि तस्स धम्मस्स।
तं जाणदि णाणं ते तिण्णिव णयविसेसा य।।२६५।।
(अर्थ) वस्तु का एक धर्म, उस धर्मका वाचक शब्द, और उस धर्म को जानने वाला ज्ञान, ये तीनों ही नय के विशेष हैं।
[भावार्थ] वस्तु का ग्राहक ज्ञान, उसका वाचक शब्द, और वस्तु, इन तीनों को जैसे प्रमाणस्वरूप कहते हैं वैसे ही
नय भी कहते हैं। [स्वा. का. अनुप्रेक्षा गा. २६५]
[नोंधः जैनसिद्धांतदर्पण पृ. २४ में भी उपर्युक्त गाथाका अवतरण लिया है।]
जो तच्चमणेयंतं णियमा सद्दहदि सत्तभंगेहिं।
लोयाण पण्हवसदो ववहारपवत्तणठ्ठं च।।३११।।
जो आयरेण मण्णदि जीवाजीवादि णवविहं अत्थं।
सुदणाणेण णयेहिं य सो सद्दिट्ठी हवे सुद्धो।।३१२।।
(अर्थ) × × × जो जीव अजीव आदि नौ प्रकारके पदार्थोंको श्रुतज्ञान प्रमाणसे, तथा उसके भेदरूप नयोंसे, अपने
आदर–यत्न–उद्यमसे मानता है–श्रद्धान करता है वह शुद्ध सम्यग्द्रष्टि होता है। [स्वा. का. अनुप्रेक्षा नवी आवृत्ति पृ. २०३]
[१७] द्रव्यसंग्रह
× × × विवक्षितैकदेश शुद्धनयरूप शुद्धोपयोगो वर्तते ××× (हिंदी) एकदेश शुद्धनयरूप शुद्धउपयोग वर्तता है
××× [द्रव्यसंग्रह गाथा ३४ टीका, पृ. ८५–८६]
भूतार्थनयविषयभूतः शुद्ध समयसार ×××
(हिंदी) भूतार्थ (निश्चय) नयका विषयभूत ‘शुद्ध समयसार’ ××× [द्रव्यसंग्रह गा. ५२ टीका, पृ. १६७]
××× तदेव शुद्धात्मस्वरूपं, तदेव परमात्मस्वरूपं, तदेवैक–देशव्यक्तिरूपविवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयेन
स्वशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतजलसरोवरे रागादिमलरहितत्त्वेन परम हंसस्वरूपम्।
(हिंदी) वही शुद्धात्माका स्वरूप है, वही परमात्माका स्वरूप है, वही एकदेशमें प्रकटतारूप ऐसे विवक्षित एकदेश
शुद्धनिश्चयनयसे निज शुद्ध आत्मा के ज्ञानसे उत्पन्न जो सुख वही हुआ जो अमृतजलका सरोवर उसमें राग आदि मलोंसे
रहित होनेके कारण परमहंसस्वरूप है। [द्रव्यसंग्रह गा. ५६ टीका, पृ. २०४]
[१८] पंचाध्यायी
द्रव्यनयो भाव नयः स्यदिति भेदात् द्विधा च सोऽपि यथा।
पौग्दिलिकः किल शब्दो द्रव्यम् भावश्च चिदिति जीवगुणः।।
(अर्थ) वह नय द्रव्यनय और भावनयके भेदसे दो प्रकार का है। पौद्गलिक शब्द द्रव्यनय है और जीवका चैतन्यगुण
भावनय है। [पं. फूलचंदजी संपादित पंचाध्यायी गा. ५०५]
यदि वा ज्ञानविकल्पो नयो विकल्पोऽस्ति सोऽप्यपरमार्थः।
न यतो ज्ञानं गुण इति शुद्धं ज्ञेयं च किन्तु तद्योगात।।
(अर्थ) अथवा ज्ञानविकल्पका नाम ही नय है। किन्तु वह विकल्प परमार्थभूत नहीं होता, क्योंकि न तो शुद्ध
ज्ञानगुणको ही