: phAgaN : 2011 : Atmadharma–137 : 143 :
होगा जब कि शेष रहे हुए अंगका भी लक्ष्य बना रहा हो। × × × परस्पर शेष अंगों की अपेक्षा जिन नयज्ञान में रहती हो वे ही
नयज्ञान वस्तु का सम्यग्ज्ञान कराने में हेतु हो सकते हैं। [– त. सार पृ. ४२]
वास्तविक प्रमाण ज्ञान ही होता है, और एकदेशग्राही होनेपर वे ही नय कहाते हैं; इसलिये नय भी ज्ञान के ही
नाम हैं। परंतु ज्ञान के द्वारा जाने हुए विषयों का प्रतिपादन शब्द ही कर सकता है इसलिये शब्दों को भी नय कहा जाता है।
विषय–विषयी–संबंध के वश यदि विषयीज्ञानके नाम विषयों में लगा दें तो प्रतिपादित होनेवाले पदार्थों को भी नय कहना
उचित ही है। इसलिये नयों के–ज्ञाननय, शब्दनय, अर्थनय–ये तीन प्रकार हैं। [तत्त्वार्थसार पृ. ४३]
[१५] श्री देवसेनसूरि विरचित नयचक्र
जं णाणीय वियप्पं सुयभेयं वत्थुयंस संगहणं।
तं इह णयं पउंत्त णाणी पुण तेहि णातेहिं।।२।।
(A shlokamAn ‘nayanun lakShaN’ batAvatAn, nayane gnAnano vikalpa, shrutano bhed, ane vastunA anshano grAhak kahyo chhe.)
एअंतो एअनयो होइ अणेयंतमस्स सम्मूहो।
तं खलु णाणवियप्पं सम्मं मिच्छं च णायव्वं।।९।।
(A shlokamAn, nayanA samUhane gnAnano vikalpa kahyo chhe.)
जे णयदिठ्ठिविहीणा तेसिं ण हु वत्थुरूवउवलद्धि।
वत्थुसहावविहूणा सम्माइट्ठी कहं हुंति।।१०।।
(‘nayadraShTi’thI rahitane vastusvarUpanI upalabdhi thatI nathI. em A shlokamAn kahyun chhe.)
दव्वत्थिए य दव्वं पज्जायं पज्जयत्थिए विसयं।
सब्भूया सब्भूए उवयरिए च दुणवतियत्था।।१६।।
[dravyArthikanayano viShay dravya chhe, ane paryAyArthikanayano viShay paryAy chhe–em kahIne A gAthAmAn nayano viShay batAvyo chhe.]
पज्जय गउणं किच्चा दव्वं पिय जो हु गिहूणए लोए।
सो दव्वत्थो भणिओ विवरीओ पज्जयत्थो दु।।१७।।
(ahIn, nay potAnA viShayane grahaN kare chhe em kahyun chhe, ‘grahaN kare chhe’ eTale jANe chhe.)
कम्माणं मज्झगयं जीवं जो गहइ सिद्धसंकासं।
भण्णइ सो सुद्धणओ खलु कम्मोवाहिणिरवेक्खो।।१८।।
(A gAthAmAn paN, nay potAnA viShayane grahaN kare chhe em jaNAvyun chhe.) (e uparAnt gAthA–19, 22, 25, 26, 27, 29, 30, 31,
36, 37, 38, vagere gAthAomAn paN e vAt jaNAvI chhe.)
जो वट्टणं च मण्णइ एयठ्ठे भिण्णलिंगमाईणं।
सो सद्दणओ भणिओ णेओ पुस्साइयाण जहा।।४०।।
(ahIn मण्णइ eTale ke mAne chhe arthAt jANe chhe–em kahIne nayano viShay batAvyo chhe; tem ja ‘nay’ gnAnarUp chhe em paN temAn AvI jAy chhe.)
पढमतिया दव्वत्थी पज्जयगाही य इयर जे भणिया।
ते चदु अत्थपहाणा सद्दपहाणा हु तिण्णियरा।।४४।।
(ahIn nayane potAnA viShayano grAhak kahyo chhe.)
पण्णवण भाविभूदे अत्थे जो सो हु भेय पज्जाओ।
अह तं एवं भूदो संभवदो मुणह अत्थेसु।।४५।।
(ahIn, nay potAnA viShayabhUt arthone jANe chhe em kahyun chhe.)
जह रससिद्धो वाई हेमं काऊण भुंजये भोगं।
तह णयसिद्धो जोई अप्पा अणुहवउ अणवरयं।।७८।।
(rasasiddhino dAkhalo ApIne ahIn kahyun chhe ke nayasiddha yogI aviratapaNe AtmAne anubhave chhe.) (A uparAnt juo gAthA 60, 86, 87.)
द्रव्यस्वभाव प्रकाशक नयचक्र
चारिवि कम्में जणिया इक्को खाईय इयर परिणामी।
भावा जीवे भणिया णयेण सव्वेवि णायव्वा।।७५।।
(‘nay vaDe badhun gnAtavya chhe’ em A gAthAmAn spaShTa kahyun chhe. eTale nay gnAnAtmak chhe e vAt temAn AvI ja gaI.)
गेह्णइ वत्थुसहावं अविरुद्धं सम्मरूव जं णाणं।
भणियं खु तं पमाणं पच्चक्खपरोक्ख भेएहिं।।१७०।।
(pramAN gnAn potAnA viShayane grahaN kare chhe eTale ke jANe chhe em ahIn kahyun chhe.)
वत्थु पमाणविसयं णयविसयं हवइ वत्थुएयंसं।
जं दोहि णिण्णयठ्ठं तं णिक्खेवे हवे विसयं।।१७२।।
(ahIn pramAN ane nayano viShay batAvyo chhe.)
सवियप्पणिव्वियप्पं पमाणरूवं जिणेहि णिद्दिठ्ठं।
तहविह णया वि भणिया सवि यप्पा णिव्वियप्पा वि।।१।। [पृ. ६६]
(pramANanI jem nayo paN savikalpa ane nirvikalpa chhe em ahIn kahyun chhe.)
कालत्तयसंजुत्तं दव्वं गिह्णेइ केवलं णाणं।
तत्थ णयेण वि गिह्णइ भूदोऽभूदो य वट्टमाणो वि।।२।। [पृ. ६७]
(jem kevaLagnAn traNakALanA paryAyothI sanyukta dravyane grahaN kare chhe eTale ke jANe chhe, tem nayathI (shrutagnAnI)