Atmadharma magazine - Ank 140
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA Regd. No. B. 4787
वैराग्य – समाचार
मुरब्बी श्री जेठालाल बापा (पू. बेनश्री चंपाबेन तथा पं. हिमतलालभाई वगेरेना पिताजी)
चैत्र वद १रना रोज ८३ वर्षनी वये वांकानेरमां तेमना पुत्र वृजलालभाईने घेर स्वर्गवास पाम्या छे.
घणा वखतथी तेओ सोनगढमां ज रहेता. तेमने सम्यक्त्वनुं घणुं बहुमान हतुं अने तेनी ऊंडी झंखना
हती. समकीतनी वात सांभळतां पण तेओ आनंदमां आवी जता. सोनगढमां तेमनी अस्वस्थ तबियत
वखते एकवार पू. गुरुदेव दर्शन देवा पधारेला, त्यारे तेमने पूछयुं: ‘केम बापा! समकीत जोईए छे ने?’
बापाए अंतरना उमळकाथी जवाब आप्यो––‘हा...हा मारे समकीत जोई छी...’ पछी पूछयुं के ‘समकीत
थतां शुं थाय?’ त्यारे तेमणे जवाब आप्यो के– “आत्मामां आ...नं...द...नो...सा...ग...र..झू...ल...तो
होय!” आ रीते अस्वस्थ तबियत वखते पण समकीतनी वार्ता सांभळतां तेओ होंसमां आवी जता.
थोडा दिवस पहेलां सोनगढथी वांकानेर जवानुं थयुं त्यारे तेओ पू. गुरुदेवना दर्शन करवा
आवेला, ते वखते भक्तिपूर्वक तेमणे कह्युं के “महाराजसाहेबनी मारा उपर पाकी महेरबानी छे’...
वांकानेर गया बाद छेल्ला दिवस सुधी तेओ हरता फरता हता... छेल्ले दिवसे मात्र थोडी ज मिनिटोमां
हृदय बंध पडी जतां तेमनो स्वर्गवास थई गयो.
जीवनमां भेदज्ञाननी भावना माटे प. बेनश्री बेने तेमने एक टूंकुं लखाण लखी आपेलुं, छेल्ला
केटलाक वखतथी तेओ ते भावनानुं रटण कर्या करता.
आ रीते मुरब्बी श्री जेठालाल बापा समकीतनुं बहुमान अने झंखना साथे लईने गया छे...
समकीत माटे झंखतो तेमनो आत्मा, सम्यक्त्वना महिमाना बळे, समकीत माटेनी पोतानी ऊग्र झंखना
झट पूरी करो...ए ज भावना..
“जीव एकलो ज मरे, स्वयं जीव एकलो जन्मे अरे! जीव एकनुं नीपजे मरण, जीव एकलो सिद्धि
लहे.” १०१
भेदज्ञानी भावना
आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, एटले शरीरमां जे रोग के पीडा थाय तेनो जाणनार ज छे, आत्माने पीडा
थती नथी,–तेनुं लक्ष बराबर वारंवार राखवुं ने खूब द्रढ करवुं.
शरीरमां गमे तेवी पीडा थाय तोपण ‘हुं जाणनार आत्मा छुं’ एवा लक्षे रोगमां शांति राखवी तो
ते शांति साचा फळने आपे छे. परम पूज्य महाराज साहेब परम पुरुष छे, तेमनुं बहुमानथी हृदयमां
स्मरण करवुं. देहने जो छूटवानो प्रसंग होय तो, ते देह आत्माथी जुदो छे–तेवा उपयोगनी बराबर
सावधानी राखवी. देहमां भींस थतां आत्माने भींस थती नथी, माटे भींसमां भींसावुं नहि,
जुदा आत्मानी सावचेती राखवी.
आत्मा जाणनार छुं, शरीर हुं नथी, रागद्वेष हुं नथी, मन हुं नथी, धन हुं नथी, हुं अनंत गुणोनो
पिंड छुं. (मुरब्बी श्री जेठालाल बापाने भावना करवा माटे उपर्युक्त चिठ्ठी पू. बेनश्रीबेने लखी आपेली;
जिज्ञासुओने उपयोगी होवाथी ते अहीं प्रसिद्ध करी छे.)
मुद्रक:–जमनादास माणेकचंद रवाणी अनेकान्त मुद्रणालय : वल्लभविद्यानगर (गुजरात)
प्रकाशक:–श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, वल्लभविद्यानगर (गुजरात)