Atmadharma magazine - Ank 144
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA Regd No. B, 4787
भगवानो उपदेश
[चारित्र पाहुड गाथा ५ उपरना प्रवचनमांथी]
सर्वज्ञदेवे उपदेशेला तत्त्वोमां समकितीने निःशंकता होय छे. सर्वज्ञभगवाने जीवादि साततत्त्वो उपदेश्या छे.
सात तत्त्वोमां प्रथम जीवतत्त्व छे;
ते जीवतत्त्व ज्ञानानंदस्वभावी छे; ते ज्ञानानंदस्वभाव शुद्ध–एकाकार छे.
ते एकरूप ज्ञानानंदस्वभावना अवलंबने ज्यां पूर्ण शुद्धदशा प्रगटे ते मोक्ष छे, अने आवी मोक्षदशा
प्रगट थतां सामे कर्मोनो पण सर्वथा अभाव थई ज जाय–एवो एकरूप नियम छे.
हवे मोक्षनी माफक संवर–निर्जरामां पण एम ज छे. एकरूप ज्ञानानंद स्वभावना आश्रये जेटले अंशे
शुद्धता प्रगटी ने वधी ते संवर–निर्जरा छे, ने ते शुद्धताना प्रमाणमां कर्मोमां पण संवर–निर्जरा थई ज जाय छे,
एवो एकरूप नियम छे.
आ रीते जीवतरफना वलणवाळा संवर–निर्जराने मोक्ष तत्त्वमां तो एवो मेळ छे के तेना प्रमाणमां सामे
कर्म पण टळी ज जाय छे.
–पण कांई एवो नियम नथी के जेटला प्रमाणमां उदय होय तेटला ज प्रमाणमां (Digree to Digree)
विकार थाय.–जेटला प्रकारना विकार छे तेटला प्रकारनां निमित्तो (कर्ममां) होय छे, –तेटला प्रकारनां होय छे पण
तेटला ज प्रमाणमां होय–एवो नियम नथी. उदय प्रमाणे ज विकार थाय–ए मान्यता तद्न ऊंधी छे.
जेम विकारभावोमां विविधता छे तेम तेना निमित्तभूत कर्मोमां पण तेटली ज विविधता छे, –पण
उदयना प्रमाणमां ज विकार थाय छे–एम नथी. आ रीते उदय अने विकारना प्रकारो सरखां छे, पण बंनेनुं
प्रमाण सरखुं ज होय एम नथी.
जो नवुं बंधन थाय तो, विकारना प्रमाणमां ज थाय, ओछुं–वधारे न ज थाय–एवो नियम छे;–त्यां तो
डीग्री टु डीग्री छे; पण सामे जेटलो उदय होय तेटलो ज विकार ‘डीग्री टु डीग्री’ थाय–एम कांई नियम नथी.
संवर–निर्जरा–मोक्ष ए त्रणेमां शुद्धता छे, तेमां तो आत्माना एकरूप स्वभाव साथे एकता थाय छे,
अने सामे निमित्तमां पण ते संवर–निर्जरा–मोक्षना प्रमाणमां ज (डीग्री टु डीग्री) कर्मो टळी जाय छे एवो ज
नियम छे. मोक्षदशा प्रगटे ने ते ज समये सामे कर्मनो सर्वथा नाश न थाय एम बने नहि. संवर–निर्जरा थाय
ने सामे तेटला प्रमाणमां ज कर्मो न टळे–एम बने नहि. सम्यग्दर्शन थाय ने ते सम्यग्दर्शनने रोकनारुं
मिथ्यात्वकर्म न टळे एम बने नहि.
अहो! ज्यां शुद्धचिदानंदस्वभावमां एकता करी त्यां कर्मो न टळे एम बने नहि, कर्मो मारग न आपे–
एम बने नहि. ‘कर्म मार्ग नहि आपे तो!’–एवो प्रश्न आत्माना स्वभावनो पुरुषार्थ करनारने ऊठतो ज नथी.
ते तो स्वसन्मुख पुरुषार्थ वडे जेम जेम ज्ञानस्वभावमां एकता करतो जाय छे, तेम तेम कर्मो पण टळतां ज
जाय छे. आ रीते स्वभावना आश्रये शुद्धता थती जाय छे, तेने धर्मी जाणे छे, ने जेटली शुद्धता अटके तेटलो
पोतानो अपराध जाणे छे, ने ते अपराधमां ते ते प्रकारनुं कर्म निमित्त छे एम पण जाणे छे,–परंतु कर्मना
उदयप्रमाणे विकार थाय–एम ज्ञानीधर्मी कदी मानता ज नथी. स्वभावना अवलंबन वडे शुद्धता वधती जाय छे,
कर्मो टळता जाय छे, ने छेवटे पूर्ण शुद्धतारूप मोक्षदशा प्रगट थतां कर्मो पण सर्वथा छूटी जाय छे. आ रीते,
आत्माना एकाकार ज्ञानानंदस्वभावमां एकता करवी ते ज मोक्षनो मार्ग छे.–आवो भगवान सर्वज्ञदेवनो
उपदेश छे, ने समकिती तेमां निःशंक छे.–जेने शंका छे ते मिथ्याद्रष्टि छे, एम जाणवुं.
मुद्रक:– जमनादास माणेकचंद रवाणी, अनेकान्त मुद्रणालय: वल्ल्भविद्यानगर (गुजरात)
प्रकाशक:– श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती जमनादास माणेकचंद रवाणी, वल्लभविद्यानगर (गुजरात)