Atmadharma magazine - Ank 164
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(English transliteration).

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दुःखसे छूटने के लिये व सुखकी प्राप्ति के लिये जैन तीर्थंकर–आचार्योंने कहा है
कि, तुम स्वयं अपने आप परसे भिन्न आत्मज्ञान करके अंतरात्मा हो करके स्वयं परमात्मा
बन सकते हो;–इसीका प्रतिपादन यहां पर महाराजजी के प्रवचन में हो रहा हैं।
पराधीन बनाकर–भक्त बनाकर–शरणमें लेकर के मोक्ष देने की बात करना है वह तो
परतंत्रता है। तीर्थंकरोने स्वतंत्रता की बात की है। आत्माको परसे विभिन्न अपने आपमें
जानकर, स्थिर होकर तुम स्वयं परमात्मा बन जाओगे। यही मार्ग आज यह सन्त अपने
प्रवचनमें दर्शा रहे है। महावीर भगवानने जो कहा और कुन्दकुन्द आदि आचार्योंने जो
कहा, वही आज ये [महाराजश्री] प्रसिद्ध कर रहे है। [सभामें हर्षनाद]
–ऐसे आध्यात्मिक सन्तने स्वयंको आनंदित बनाया है और वीतरागता तथा
स्वतंत्रताकी घोषणा करके उसीका उपदेश दे रहे है। उस मार्गमें आनेवाले मुमुक्षु भी अपने
को महा सद्भागी मान रहे हैं कि हमें स्वतंत्रताके मार्ग दर्शानेवाले ऐसे संत मिले।
वस्तुकी योग्यताके बारेंमें आपका विवेचन अनोखा है; योग्यता वस्तुका स्वभाव है
ऐसा बतानेवाला देव–शास्त्र–गुरु सच्चा है। उपरी द्रष्टिवालोंको ‘ऐसा क्यों? ऐसा करते तो
ऐसा होता!’ ऐसा लगता है, लेकिन सचमुचमें जैनाचार्योंका ऐसा अभिप्राय नहीं है।
‘चरितं खलु धम्मो’–यह तो मोहक्षोभ रहित आत्मपरिणाम हैं, और वही धर्म है।
नीचे के दर्जेमें रागी प्राणी की क्रिया–जिसे सराग चारित्र कहते हैं–वह मोक्षमार्ग नहीं है,
वह तो ‘संसारक्लेशफलत्बात्’ देय है। मोक्षमार्ग तो वीतरागचारित्र है, लेकिन जो
संभवतः मोक्षसुख नहीं चाहते और संसारसुख चाहते है वही उस पुण्यक्रियाको उपादेय
समजते है, किन्तु वे पुण्यक्रियानुष्ठान मोक्ष दे देंगे–ऐसा हरगीझ नहीं।
आपकी बात सुनते सुनते लोगोंको ऐसा लग जाता है कि–बस देखो तब मोक्षकी
ही कथा?–आत्माकी ही कथा?–लेकिन वही तो दुर्लभ है, और वही तो मतलबकी बात
है। हम तो स्वाधीन बनना चाहते है। पहले द्रष्टिभेद [सम्यग्दर्शन] कीजिये। द्रष्टिभेद होने
के पीछे थोडासा भी पढना–लिखना सार्थक होगा। भले ही आगमधर हो और कठिन
आचरण भी करते हो, लेकिन भीतरी द्रष्टि के बिना वह कुछ सार्थक नहीं है, ऐसा ही जैन
शास्त्रों का उपदेश है।
मैंने आपके प्रवचनों का श्रवण किया उसमें मुझे ऐसी ही द्रष्टि विदित हुई; आपकी
वाणीमें तीर्थंकरोंका और कुन्दकुन्द स्वामी का ही हृदय था। इसका अवलंबन लेकर
लोगोंकी जो प्रवृत्ति हो वह मुमुक्षुके लिये उपादेय है। लोग उसे न समझ करके न जाने
किस किस प्रकारके गलत अभिप्राय कर लेते है।
आपका प्रचार अभी तो यात्राके निमित्तसे हुआ है, यात्रा तो सकुशल होगी ही,–
लेकिन आपकी द्रष्टिसे जो तत्त्व प्रतिपादित होता है वह जगतके लिये कल्याणकारी है।
[सभामें बडे़ हर्षपूर्वक तालीनाद]
अंतमे वे श्रावक–श्राविका व ब्रह्मचारी लोग भी हमारे लिये आदरणीय और
अनुकरणीय हैं–जो आपकी छत्रछायामें रहकरके आत्मकल्याण कर रहे हैं।।
8 Atmadharma 164