Atmadharma magazine - Ank 165
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: अषाड : २४८३ : आत्मधर्म : १९ :
नमः समयसाराय
अध्यात्मयोगी, आत्मार्थीं, पूज्य श्री कानजीस्वामी के
करकमलों में सादर समर्पित
अभनन्दन पत्र
पूज्यवर! आज इस पावन पुण्यवेलामें आपको ससंघ अपने बीच बिराजमान
देखकर हम लोग हर्ष से फूले नहीं समा रहे हैं। कहां आपका वह स्वर्णगढ और
कहां हमारा यह पुराना इन्द्रप्रस्थ
...? परंतु हमारा सौभाग्य था कि तीर्थयात्रा का
पावन प्रसंग हमें आपके पुण्यदर्शनमें सहायक हुवा। आज हम आपके द्वारा
प्रवाहित जैनधर्मकी पवित्र गंगामें गोते लगाकर अपना जन्म सफल मान रहे हैं।
इस महोपकार से विनीत हम आपके अत्यन्त आभारी एवं चिरकृतज्ञ हैं।
अध्यात्मयोगिन्! आपने भौतिकवादी भँवरमें चक्कर काटनेवाली दुनियाके
मोहमस्त जीवोंको अध्यात्मज्ञानका वह प्रकाशपूंज समर्पित किया है जिसे प्राप्तकर
आज लोग सन्मार्ग पा सके हैं और अपने वास्तविक कल्याण पथ पर चलनेकी
प्रेरणा पा सके है। आपके द्वारा शुद्ध सत्यका निरुपण जनताको एक मंगल मार्ग
सिद्ध हुआ है। आपने भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव–जिनको सच्चा ज्ञान श्री सीमंधर
भगवानकी दिव्यध्वनिसे प्राप्त हुवा था–की वाणीका गूढ रहस्य समझकर उसे
समस्त मुमुक्षुगणके सामने स्पष्ट खोल कर रखा है, जिससे संसारके निरंतर
दुःखोसे संतप्त एवं क्लांत प्राणी शांति पा सकते है।
आत्मार्थिन्– धन्य वह नगरी और धन्य हैं वह प्राणी जिन्हें आपके पादमूलमें
रहकर नित्य ज्ञानानन्द सुघापान करनेका सौभाग्य प्राप्त हुवा है, उससे भी अधिक
धन्य है वह जो आपके भी आदर्श रूप सिद्ध होकर आपके द्वारा जनता को यह
दिव्य–भव्य मार्गप्रदर्शक बन विश्ववन्द्य हुए। आपके उपदेशसे सहस्त्रों भाई–बहन जैन
धर्मके शुद्ध तात्त्विक रूपको समझकर साम्प्रदायिकता जैसे दुर्भेध–दुश्छेघ पाश को
तोडकर सच्चे जिन धर्मानुयायी हुए है। सौराष्ट्र अनेक नवनिर्मित मन्दिर व
जिनबिम्ब आपके सच्चे प्रभाव का एक ज्वलन्त उदाहरण है। लाखों प्रतियां जैन
ग्रंथो की प्रकाशित होकर वितरित हो चुकी है। अनेकोने दुर्द्धर ब्रह्मचर्यव्रत आजन्म
धारण किया है, यह आपके ही उपदेशका सत् परिणाम है।
अन्तमें आपका और आपको संघका सादर स्वागत करते हुए हम लोग
अपनी उन भूलोंकी क्षमा मांगते है जो हम लोगोंसे जाने अनजाने हुई हो।
हम हैं आपके विनीत–
दिनांक ७ः ४ः १९५७ जैन समाज देहली की ओरसे
राजकृष्ण जैन