Atmadharma magazine - Ank 167
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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– सारथी संतप्त जीवोने शांतिनी झांखी करावतुं अजोड आध्यात्मिक – मासिक
वर्ष १४ मुं
अंक ११ मो
भादरवो
वी. सं. २४८३
: संपादक :
रामजी माणेकचंद दोशी
१६७
सम्यग्द्रष्टि
मुक्त ज छे;––केम?
सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मानी द्रष्टि अंतरना ज्ञानानंदस्वभाव उपर छे,
क्षणिक रागादि उपर तेनी द्रष्टि नथी. आ रीते तेनी द्रष्टिमां रागादिनो
अभाव होवाथी संसार क्यां रह्यो? रागरहित ज्ञानानंदस्वभाव उपर द्रष्टि
होवाथी ते मुक्त ज छे, ––तेनी द्रष्टिमां मुक्ति ज छे; मुक्तस्वभाव उपरनी
द्रष्टिमां बंधननो अभाव छे. स्वभाव उपरनी द्रष्टि बंधभावने पोतामां
स्वीकारती नथी, माटे स्वभावद्रष्टिवंत समकिती मुक्त ज छे.
शुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव
शुद्ध स्वभावमां निश्चळ एवो ज्ञानी खरेखर मुक्त ज छे.