ઃ ૧૨ઃ આત્મધર્મઃ ૧૮પ
सरस्वतीसुत!
आप के दर्शन मात्र से ही आप की आध्यात्मिक विद्वत्ता की झलक झलकने लगती है। यह “वक्त्रं
वक्ति हि मानसं” वाली नीति को चरितार्थ करती है। आप गुजराती तथा हिन्दी आदि भाषाओं के अच्छे
ज्ञाता हैं। आप की आध्यात्मिक प्रतिभाविशिष्ट प्रवचनशैलीने तो जनसाधारण को ही नहीं अ तुपि
विद्वद्वृन्द को भी मुग्ध कर दिया है।
शुद्धात्मतत्त्वाराधक!
आपने अपनी स्वानुभूति के द्वारा संसार एवं विषयभोगों की क्षणभंगुरता को भलीभांति जान कर
शुद्धात्म तत्त्वाराधन का जो उच्च आदर्श उपस्थित किया है, यह प्रशंसनीय ही नहीं बल्कि अनुकरणीय
भी है। इसी कारण से प्रेरित होकर अपना जैन समाज आज तत्त्वमार्गानुगामी बनता जा रहा है।
सद्धर्मप्रचारक!
आपने अपने निरीह प्रचार से जहाँ दि. जैन धर्म की महत्ता का मान नहीं के बराबर था वहाँ
इसकी गरिमा को चमका दिया है। आज सौराष्ट्रभर में दि. जैनमंदिर, स्वाध्याय– शाला, विधा–भवन,
श्राविकाश्रम आदि धार्मिक संस्थायें कायम हो गई हैं। यह काम इस मद्रास प्रान्त के उस समय को याद
दिलाता है जब कि दि. जैन धर्म के उद्भट आचार्यवर्य श्री समन्तभद्र, कुन्द कुन्द, अकलंक आदिने इस
धरातल को अलंकृत कर दि. जैन धर्मका डंका सारी दुनियाँ में बजाया था। यही कारण है कि आज भी
इसका महत्व जाज्वल्यमान है। नहीं तो यहाँ के सांप्रदायिक संघर्षो के कारण इस का [दि. जैन धर्म]
नाम तक रह नहीं पाता। यहाँ जो मधुर तमिल भाषा बोली जाती है इसकी उन्नति एवं रक्षा में जैन
आचार्यो की सेवा अतुलनीय हैं। यहाँ के जितने भी व्याकरण, साहित्य आदि उत्तम ग्रन्थ पाये जाते हैं वे
सब के सब जैनाचार्यो के ही है। अतः इसकी रक्षा के लिये समुचित व्यवस्था करना परमावश्यक है। इस
पुनीत कार्य में उत्तर भारत के जैन धनाढय को इस ओर आकर्षित कर, नश्वर संपति को अविनश्वर
बनाने का मार्ग दिखायेंगे तो आप की सेवा चिरस्मरणीय रहेगी।
शांतिप्रिय!
अन्तिम प्रार्थना आप से यह है कि आज अपने दि. जैन समाज में उपादान और निमित्त को लेंकर
जो चर्चा चल रही है, उसे अनुकुल वातावरण में निरोधकर शान्ति का साम्राज्य स्थापित किया जाय;
जिस से समाज का संगठन मजबूत निरर्गलता के साथ आगे बठ सकें।
मद्रास आप के शुभागमन से प्रफुल्लित होनेवाला
૧૩–૩–૧૯પ૯ मद्रास दि. जैन समाज