Atmadharma magazine - Ank 205
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961).

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: ૨૦ : આત્મધર્મ : ૨૦પ
हे आध्यात्मिक क्रांति के सूत्रधार!
आपकी सत्य–शोध ने युगमें एक आध्यात्मिक क्रांति को जन्म दिया। यह क्रांति
जिसकी दिशा की परीक्षा करके मुक्ति–पथिक दीपक पर शलभ की भांति टूटने लगे।
अपनी वाणी के द्वारा आपने श्रमण भगवान महावीर और सीमंधर और वीतरागी संत
ऋषि कुन्द कुन्द के दिव्य संदेश का भारत में प्रत्यावर्तन और उन्नयन किया। कर्त्तृत्वाद
की भयंकर कारा में घुटती चेतना की श्वासों को आपने उन्मुत्क वातावरण देकर
अनुप्राणित किया। मुक्ति के एक शाश्वत–पथ शुद्ध–निश्चय की एकांत निश्चय और व्यवहार
के संसारी मार्ग द्वारा होती हुई अवहेलना और उपहास पर आपने वज्र प्रहार किया और
साधक के जीवन में निश्चय और व्यवहार की सुन्दर संधि के प्रतिपादन द्वारा दोनों नय
के स्वत्व की सुरक्षा का गुरुत्तर कार्य किया। आपकी यह क्रांति चरम स्वाधीनता की
उपलब्धि तक चैतन्य के अन्तर–विकार का क्षय करती हुई अमर रहे, जयवंत रहे।
हे दिव्य–संदेश वाहक!
आज आपसे युग को एक नई दिशा मिली है। चिर–विस्मृत था वह साहित्य
जिसकी आपसे सृष्टि हुई है। जैन इतिहास के पृष्ठों में आप एक नया अध्याय जोड रहे हैं
जिसे विश्व–दर्शन, वस्तु–दर्शन अथवा आर्हंत्–दर्शन कहते है। जिसमें जडवाद मूलक
कोरे विधि–विधान को कोई स्थान नहीं, कोई सन्मान नहीं जो चैतन्य का स्वाधीन
संचरण–क्षेत्र है। जहां अनंत सुख और शांति के अन्तर–सरोवर को पीकर कोई प्यासा
रहता नहीं और पीते पीते कभी अधाता नहीं। हे युग पुरुष! निश्चय ही आप इस युग के
एक अद्भुत वरदान हैं और हे युग अन्नायक! विनाश के पथ से युग को मोड्कर एक
चिर–प्रशस्त दिशा देने के लिये ही आप इस वसुन्धरा पर अवर्तीर्ण हुए हैं।
हे तीर्थ आराधक!
चैतन्य सागर में क्रीडा और उसके वैभव की प्रभावना यही आपकी इहलौकिक
जीवनचर्यां है। और इसीलिये सर्वार्थसिद्धिसी स्वर्णपुरीका कण कण मानों सदा ही
चैतन्य के गीतों से मुखरित प्रतीत होता है। यह प्रतीक है इस बात का कि एक समय
निश्चय ही आपमें निग्रंथ भावलिंग का अवतरण होगा और धर्मतीर्थ की आराधना करते
करते कभी आप तीर्थ प्रवर्त्तक के रूपमें हमारे आराध्य बन कर निश्चय ही हमारे भव
के बन्धन तोडेंगे।
हे अविचलित चेतना विलासि!
आप युग युग जीवें और आपका दिव्य–संदेश युग युग तक विश्व के वातावरण
में गूंजता रहे। और आपकी दिव्य वाणी की लडियाँ सत् साहित्य की कडियों में समृद्ध
होकर अमृत की भडियों के समान शांति–पिपासुओं को युग युग तक शांति का
मधुर–पेय पिलाती रहें, यही अमारी कामना है!
हे लोकोत्तर मानव!
अन्तमें श्रद्धा के सुमन समर्पित करते हुए एक बार पुनः हम हृदय से आपका
अभिनन्दन करते हैं।
वैशाख कृष्ण ८ वी० सं० २४८५
हम हैं आपके विनीत–
दि अप्रैल १९५९ दि जैन समाज कोटा के मुमुक्षु–गण