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चैतन्यने अवलंबनारा संतो ज जगतमां परम सुखी छे.
परम ज्ञान – वैराग्यसम्पन्न समकितीनी सहज परिणति
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ने सम्यक्चारित्रमां जे आनंद छे ते तो
आत्माना आश्रये स्वाधीन छे, तेमां कोई विषयोनुं आलंबन नथी. बाह्य
विषयोना आलंबनवाळुं जे ईन्द्रियसुख छे ते तो पराधीन छे, तेमां
विषयतृष्णा होवाथी दुःख ज छे. आत्माना स्वाधीन–अतीन्द्रिय–विषयातीत
सुखनो अचिंत्यस्वाद सम्यग्द्रष्टिना अनुभवमां आव्यो छे. विषयोमां सुख
बुद्धिवाळा मूढ जीवोने तो तें सुखनी गंध पण नथी. समकितीने आत्माना
आश्रये जे स्वाधीनसुख प्रगट्युं ते एवुं छे के जगतनी गमे तेवी प्रतिकूळता
पण तेने विघ्न के बाधा करी शकती नथी. तेमज जगतना गमे तेवा अनुकूळ
विषयो (ईन्द्राणी के चक्रवर्तीनुं राज ते कोईपण) तेने ललचावीने ते
विषयोमां सुखबुद्धि करावी शकता नथी. चैतन्यथी बहारना विषयोमां जेनी
गंध पण नथी एवुं परम सुख पोताना आत्मामां ज जेणे अनुभव्युं ते
धर्मात्मा–ज्ञानी परमां स्वप्नेय सुख केम माने? न ज माने; अने परमां सुख
नहि मानता होवाथी तेमना अंतरमां आखा जगत प्रत्ये वैराग्य छे...तेमने
एक चैतन्यतत्त्वमां ज परम रति–प्रीति छे. आ रीते, समकितीनी परिणति
सहजपणे ज्ञान–वैराग्यसंपन्न होय छे. तेथी कह्युं छे के सम्यग्द्रष्टिने नियमथी
ज्ञान अने वैराग्यनी शक्ति होय छे. सम्यग्द्रष्टिना ज्ञान–वैराग्यनुं कोई
अचिंत्य सामर्थ्य छे.
ज्ञानकला जिसके घट जागी ते जगमांही सहज वैरागी;
ज्ञानी मगन विषय सुखमांही यह विपरीत संभवे नांही.
जेना अंतरमां ज्ञानकळा जागी छे ते जगतमां सहज वैरागी होय छे;
जेणे चैतन्यनुं अतीन्द्रियसुख चाखी लीधुं छे एवो ते ज्ञानी विषयसुखोमां
मग्न रहे–एवी विपरीत वात कदी संभवती नथी. चैतन्यसुखने अनुभवनार
ज्ञानी बाह्य विषयोमां पण सुख माने ए वात असंभव छे ज्ञानीने गाढ
प्रीति पोताना चैतन्यमां ज छे जेम ईन्द्रियविषयोमां सुख माननारा मूढ
जीवो तेना कारणरूप पुण्यने शुभरागने अति गाढपणे (एकत्वबुद्धिथी)
अवलंबे छे. तेम चैतन्यना अतीन्द्रियसुखने जाणनारा ज्ञानी ते सुखना
धाम एवा पोताना चैतन्यतत्त्वने अति गाढपणे (तन्मयपणे) अवलंबे छे.
जेटलुं चैतन्यतत्त्वनुं अवलंबन तेटलुं ज सुख छे. चैतन्यने जाणीने तेने
अवलंबनारा संतो ज आ जगतमां परम सुखी छे. तेमने नमस्कार हो.
(प्रवचनसार उपरना प्रवचनमांथी)
आसो वद चोथ
श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्टवती मुद्रक अने प्रकाशक: हरिलाल देवचंद शेठ:: आनंद प्रि. प्रेस–भावनगर.