चैत्र : २४८८ : प :
७ अद्भुत वैभव छे आ धर्मना स्तंभनो,
जुए तेने भाग्यवंत गुणवंत जो.....
ओळंगीने चालो अंदर देखीए,
केवो छे ए दिव्य प्रभु दरबार जो.....
–नमुं नमुं हुं मानस्तंभने भावथी.
८ ऊंचे ऊंचे अंतरिक्ष नीहाळजो.....
जाणे गगने विचरे छे भगवान जो.....
भक्तो उपर कृपा वरसे एहनी,
भक्त मटीने भगवंत ए थई जाय रे....
–नमुं नमुं हुं भावेथी मानस्तंभने.
९ ऊंचा ऊंचा मानस्तंभने शिखरे
बिराजे छे चौदिश सीमंधर नाथ जो.....
देखो देखो रे! प्रभुजीनी वीतरागता!
जेने जोतां संतो उल्लसी जाय रे....
–नमुं नमुं हुं मानस्तंभने भावथी.
१० प्रभु दर्शनमां भक्तो सौ घेला बन्या,
अंतर खोली करतां एनी वात जो;
पळे पळे ए प्रभुजीने निहाळतां
लगनी एमां लागी छे दिन रात जो,
–नमुं नमुं हुं भावेथी मानस्तंभने.
११ मानस्तंभनो महिमा हुं शुं कही शकुं?
एनो वैभव जगमां अपरंपार जो.....
मानस्तंभे नित्य वसे छे नाथ रे......
महाविदेहना प्रभु सीमंधरदेव जो.....
–नमुं नमुं हुं मानस्तंभने भावथी.
१२ मानस्तंभे आवी जे भावे नमे,
अंधनी पण त्यां आंखो खूली जाय रे....
देखे सन्मुख चैतन्यनां निधानने,
ऊंडा ऊंडा अंतर ऊतरी जाय रे.....
–नमुं नमुं हुं भावेथी मानस्तंभने.
१३ ऊन्नत धर्मनो स्तंभ गुरुजी प्रतापथी
रोपायो छे तीर्थधामनी मांय जो
भव्यजीवो ए मानस्तंभने आशरे
करे छे निज आत्मकेरां कल्याण जो.....
–नमुं नमुं हुं मानस्तंभने भावथी.
१४ मानस्तंभ मोटुं तीर्थनुं धाम छे,
देव–गुरुनो वर्ते छे ज्यां संग जो.....
आवी सेवे मूकी सर्वे मानने
तेने मटतो मोटो भवनो रोग जो.....
–नमुं नमुं हुं भावेथी मानस्तंभने.
१प विदेहक्षेत्रे दिव्य बार सभामहीं
बिराजे छे सीमंधरप्रभुजी नाथ जो.....
अनंतचतुष्टयथी जीतीने चारने
रोप्या छे त्यां चार विजयना स्तंभ जो.....
–नमुं नमुं हुं मानस्तंभने भावथी.
१६ ज्ञानविजयनो पहेलो छे ए थांभलो
बीजो दर्शनविजयनो छे स्तंभ जो.....
त्रीजो छे स्तंभ मोहमल्लना नाशनो
चोथो छे स्तंभ वीर्य अनंत प्रकाशनो,
–नमुं नमुं हुं भावेथी मानस्तंभने.
१७ भक्तिपूर्वक नमे छे जे भावथी
गळी जाय छे एनां सौ गुमान जो
गौतमनां गुमान सर्वे गळी गयां
थई गया ते वीरप्रभुजी समान जो.....
–नमुं नमुं हुं मानस्तंभने भावथी.
१८ वीरप्रभुना दिव्य ए मानस्तंभनो
जुओ, जगमां वर्ते जय जयकार रे
जेणे मूकाव्यां गौतम केरा गर्वने,
स्थापी गणधर, कीधां आप समान जो.....
–नमुं नमुं हुं भावेथी मानस्तंभने.