Atmadharma magazine - Ank 228
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA Regd. No. G.82
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मोक्षस्वभावनुं ग्रहण
अने संसारनो त्याग
आत्मामां अनंत अपूर्व पुरुषार्थथी केवळज्ञान प्रगट करवानी
शरूआत सम्यग्दर्शननी ज थाय छे. पूर्णताने लक्षे ते शरूआत थाय छे.
पराश्रय विनानो पूर्णज्ञानानंदस्वभावी छुं एवो निश्चय होवा छतां
चारित्रमां अस्थिरताथी पुण्यपापनी वृत्ति ऊठे पण तेनो द्रष्टिमां नकार
वर्ते छे. परमां ठीक अठीक मानीने अटकवानो मारो स्वभाव नथी.
एकरूप असंगपणे जाणवुं ते मारो स्वभाव छे एम ज्ञानी माने छे.
जेम अरिसानी स्वच्छतामां अग्नि, बरफ, विष्टा सुवर्ण पुष्पादि
देखाय छतां अरीसाने तेनाथी कांई विकृति थती नथी अनेक चीजो
अनेकपणे देखाय ते तेनी स्वच्छता छे. उपाधी नथी; तेम मारा ज्ञान
दर्पणनी स्वच्छतामां पर पदार्थ जणाय पण ते आत्मामां गुण–दोष
कराववा समर्थ नथी.
ज्ञायक आत्मा कोई संयोगमां, कोई पण क्षेत्र–काळमां पोताना
स्वभावने छोडनार नथी. धु्रव स्वभावमां उणप, विभाव अने संयोग
होतां नथी. अखंड स्वभावना आश्रयथी निर्मळ पर्याय प्रगटे छे.
नवतत्त्वनी श्रद्धा आदिना शुभ विकल्प आवे ते मोक्षमार्गमां मददगार
नथी. बाह्यद्रष्टि–व्यवहारद्रष्टिथी जोतां पर निमित्तादिना भेद देखाय छे.
अंतरद्रष्टिमां अभेदज्ञायकस्वरूप असंग आत्मा देखाय छे. तेना आश्रय
वडे ज मोक्षस्वभावनुं ग्रहण अने बंधनना कारणरूप आस्रवनो त्याग
थाय छे.
जेटला अंशे स्वने चूके छे पराश्रयनुं जोडाण करे छे तेटला अंशे
शुभाशुभ भाव थाय छे तेनाथी रहित त्रिकाळी एकरूप धु्रव ज्ञायक
भावने आत्मा कह्यो छे.–मलिन आस्रवोने आत्मा कह्यो नथी. पूर्ण
स्वतंत्र ज्ञायकस्वभावनुं जेने माहात्म्य आव्युं तेने दुनियादारीना मलावा
अंतरथी छूटी जाय छे. तुं रुचतां जगतनी रुचि आळसे सौ देहादि कोई
संयोगमां तेने महत्ता देखाती नथी. अनित्य स्वांग जोईने मुंझातो नथी.
जेणे त्रिकाळ ज्ञायकना लक्षे अहंकार–ममकार अने पराश्रयनो स्विकार
करनारी निमित्ताधीनद्रष्टि छोडी तेणे संसारभाव छोडयो अने पूर्ण
स्वतंत्र मोक्षस्वभावने ग्रहण कर्यो.
(समयसार गा० उपरना प्रवचनोमांथी)
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श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्टवती प्रकाशक अने मुद्रक:– हरिलाल देवचंद शेठ, आनंद प्रीन्टींग प्रेस भावनगर