
चिंतवनथी तुं त्रैलोकयनो स्वामी थईश. आ वात मात्र श्री योगीश्वरो
ज जाणे छे. ए योगीश्वरोने गम्य एवुं परमात्मतत्त्वनुं रहस्य में तने
संक्षेपमां कह्युं.
पदार्थनी ममत्व भावनाने योगे ज अनादि काळथी जीव हीनसत्त्व थई
रह्यो छे. “कोईपण पर द्रव्य मारूं नथी.” एम ज्यारे सम्यक् प्रकारे
विशिष्ट भावना सततपणे जीवने विषे जाग्रत थशे त्यारे ते ज समये
जीव त्रैलोकयनो नाथ थशे. आ गुप्त रहस्य मात्र योगी पुरूषो ज जाणे
छे–अनुभवे छे, ने ते में आजे तने संक्षेपमां कह्युं पर पदार्थना
ममत्वमां अनादि काळथी दीन–हीन बनवा छतां एक पण पदार्थ आज
सुधी तारो के तुजरूप थयो होय एम शुं तने भासे छे? ना, तो पछी
तेना ज व्यर्थ विकल्पमां शुं साध्य छे? अथवा शुं तने मात्र कोई हठ ज
छे? के जेथी तुं अनादि काळथी परने पोतापणे परिणमाववा मथे छे!
भाई! रेतीने गमे तेटला प्रयत्ने पीलवा छतां तेमांथी तेलनी प्राप्ति कदी
पण थशे? अर्थात् रेतनुं शुं तेल बनशे? नहि ज. हवे तो हे जीव!
अनादि काळथी बनी रहेली एवी पर पदार्थने विषेनी निज बुद्धि छोडी
स्वने विषे स्व बुद्धिरूप परम अकिंचन भावने तुं ग्रहण कर! ए तने
अमारी टुंकी पण हितकर शिक्षा छे. कविवर बनारसीदासजी कहे छे के :–
ए जड प्रगट गुपत तुम चेतन, जैसे भिन्न तील अरू तैल.
बाकी बधा जे भाव ते सौ मुज थकी पर–जाणवुं.