ATMA DHARMA Reg. No. G 82
निश्चय – व्यवहारनयनुं प्रयोजन
श्री अमृतचंद्राचार्यदेव कृत पुरुषार्थ सिद्धि उपाय गा. ४मां कह्युं छे के–
मुख्योपचार विवरण निरस्तढुस्तक वेनेयदुर्बोधाः ।
व्यवहार निश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् ।। ४।।
अर्थ–निश्चय अने व्यवहारना जाणनारा आचार्य आ लोकमां धर्मतीर्थने प्रवर्त्तावे छे. आचार्य
केवा होय छे के मुख्य (–निश्चय) अने उपचार (–व्यवहार) निरूपणवडे शिष्योना दुर्निवार अज्ञानने
नष्ट करेल छे एवा उपदेशदाता होय छे.
भावार्थ– उपदेशदाता आचार्यमां अनेक गुण होवा जोईए परंतु निश्चय अने व्यवहारनुं
जाणपणुं मुख्य जोईए. केमके जीवोने अनादिकाळथी अज्ञानभाव छे ते मुख्य अने उपचार कथनना
जाणपणाथी दूर थाय छे तेमां मुख्य कथन तो निश्चयनयने आधीन छे ते ज बताववामां आवे छे–
स्वाश्रित ते निश्चय –जे पोताने ज आश्रित होय ते निश्चय कहेवामां आवे छे. जे द्रव्यना अस्तित्वमां
जे भाव होय ते द्रव्यमां तेनुं ज स्थापन करवुं, तेमां परमाणुंमात्र पण – जरापण बीजानी कल्पना न
करवी तेने स्वाश्रित एटले तेनुं कहेवुं ते मुख्य (–निश्चय) कथन कहेवामां आवे छे. तेने जाणीने
अनादि शरीरादिक परद्रव्योथी एकपणानी श्रद्धारूप अज्ञानभावनो अभाव अने निर्मळ भेदज्ञाननी
प्राप्ति थाय छे, सर्व परद्रव्यथी भिन्न पोताना शुद्ध चैतन्य स्वरूपनो अनुभव थाय छे अने त्यारे (आ
जीव) रम आनंददशामां मग्न थई केवळदशाने (शुद्ध परमात्मदशाने) प्राप्त थाय छे.
जे अज्ञानी अने (निश्चयने) जाण्या विना धर्म करवा लागे छे (हुं पण आत्महितरूप धर्म करुं
छुं एम माने छे) ते शरीर आश्रित क्रियाकान्डने उपादेय (–हितकर; कर्तव्य) जाणीने शुभोपयोग जे
संसारनुं ज कारण छे तेने ज मुक्तिनुं कारण मानी स्वरूपथी भ्रष्ट (स्वरूपना निर्मळ श्रद्धान, ज्ञान
अने अनुभवथी भ्रष्ट) थयेलो ते संसारमां ज भमतो रहे छे. माटे मुख्य कथननुं (निश्चयनयना
विषयनुं) जाणपणुं जरूर जोईए. ते जाणपणुं निश्चयनयने आधीन छे तेथी उपदेशदाता निश्चयनयनो
जाणवावाळो होवो जोईए. केमके जो पोते ज मुख्य वस्तुने न जाणे तो शिष्योने केवी रीते समजावे?
+पराश्रित व्यवहार एटले जे परद्रव्यने आश्रित होय ते व्यवहार कहेवाय छे. पराश्रित
उपचार कथन कहेवाय छे. तेने जाणी शरीरादिकथी संबंधरूप संसारदशाने जाणी, संसारना कारण जे
आस्रव (मिथ्यात्वादिक) अने बंध तेने ओळखी मुक्तिनो उपाय जे संवर–निर्जरा तेमां प्रवर्ते पण
अज्ञानी तेने जाण्या विना शुद्धोपयोगी थवा मागे छे ते कांतो प्रथम ज व्यवहार साधनने छोडी
पापाचरणमां लागी नरकादि दुःख संकटोमां पडे छे माटे उपचार कथननुं पण जाणपणुं जोईए. ते
उपचार कथन व्यवहारनयने आधीन छे. तेथी उपदेशदाताने व्यवहारनुं पण जाणपणुं जोईए. आ रीते
बेउ नयोने जाणवावाळा आचार्य धर्मतीर्थना प्रवर्त्तक छे, बीजा नहीं. (स्व. पं. टोडरमलजी कृत टीका)
(छपायेला पुस्तकन फूटनोट– जे द्रव्यना अस्तित्वमां जे भाव होय ते ज द्रव्यमां तेनुं स्थापन
करे, किंचित्मात्र अन्य कल्पना न करे तेने स्वाश्रित निश्चयनय कहे छे अने किंचित्मात्र कारण पामीने
कोई द्रव्यना भाव कोई द्रव्यमां स्थापन करे तेने पराश्रित व्यवहारनय कहे छे)
श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती प्रकाशक अने
मुद्रक : हरिलाल देवचंद शेठ, आनंद प्रीन्टींग प्रेस – भावनगर.