Atmadharma magazine - Ank 234
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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वर्ष २० : अंक ६ ठो] तंत्री : जगजीवन बावचंद दोशी [चैत्र: २४८९
बोधि दुर्लभ भावना
ये दिन मैने वृथा विगोए, जामें बीज पापके बोए, ये.
निजमें निजकूं नाहिं पीछानी परपरणतिमें खोए;
सुत्खमें दुःखकुं दुःखमें सुखकुं मानि मतिभ्रम होए. ये.
चाह दाहमें दह्या रह्या नित मिथ्यामत बहु ढोए;
सद्गुरु शीख एक न मानी, मोह रजनिमें सोए. ये.
सम्यग्ज्ञान सुधा नवि चाख्यो, हर्ष विषदमें पोए;
सुख मानि करता दुःख अनुभव तउ विषय–सुख जोए. ये.
तीन लोकको राज छाँडिके भीक मांगिके रोए;
दुर्लभ अवसर पाया अबतो, आस्रव मलको घोले ये.
अहो!! अनंतज्ञान–दर्शन–सुख अने विर्यादि
निर्मळ–गुणोनो समूह मने तो शक्तिरूपे सदा विद्यमान छे
अने परमेष्ठी श्री अर्हंत–सिद्धोने ते प्रगट थया छे. हुं अने
तेओ शक्ति अपेक्षाए खरेखर समान ज छीए प्रगट
दशामां ज भेद छे. ज्यां सुधी ज्ञान समुद्रमां मारुं
अवगाहन–स्नान करतो नथी त्यां सुधी हुं ज परमां
कर्तृत्व–ममत्व जनित दाहथी मने पीडित करुं छुं.
(ज्ञानार्णवशास्त्रमांथी)
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