वर्षः २१वीर सं.
अंकः १०र४९०
२प०
तंत्री
जगजीवन बावचंद दोशी
श्रावण
कोइ नहीं अपना इस जग में
अरे मन करले आतम ध्यान।। टेक।।
कोइ नहीं अपना इस जग में,
कयों होता हैरान... अरे मन! ।। १।।
जासे पावे सुख अनूपम,
होवे गुण अमलान;... अरे मन! ।। २।।
निज में निज को देख देख मन,
होवे केवल ज्ञान...अरे मन! ।। ३।।
अपना लोक आप में राजत,
अविनाशी सुखदान;....अरे मन! ।। ४।।
सुखसागर नित वहे आप में,
कर मज्जन रजहान...अरे मन! ।। प।।
(‘जैनप्रचारक’ मांथी साभार)