: जेठ: आत्मधर्म :२७:
(आत्मधर्मनो चालु विभाग, लेखांक ९)
(विविध वचनामृतनो आ विभाग प्रवचनोमांथी, शास्त्रोमांथी तेमज
रात्रिचर्चा वगेरे विविध प्रसंगो परथी तैयार करवामां आवे छे.)
(१४८) धर्मी जीव
धर्मीजीव अंतरअनुभवथी पोताना स्वभावने देखीने परम प्रसन्न थाय छे.
चेतन्यना अनुभवनी खुमारी एना चित्तने बीजे क््यांय लागवा देती नथी.
स्वानुभवना शांतरसथी ते तृप्त तृप्त छे. चैतन्यना आनंदनी मस्तीमां ते एवा मस्त छे
के बीजुं कांई करवानुं रह्युं नथी.
(१४९) एकत्वमां परमसुख
हुं ज ज्ञान–दर्शन–चारित्र छुं, हुं ज मोक्ष छुं, हुं ज सुख छुं; मारो स्वभाव
वृद्धिगत छे, परभावनो मारामां प्रवेश नथी. हुं मारा चैतन्यविलासस्वरूप छुं.
चैतन्यमां बीजा कोईनी चिन्ता नथी.–आम धर्मी जीव परथी भिन्न पोताना
एकत्वस्वरूपने चिंतवे छे. एकत्व चैतन्यना चिंतनमां परमसुख छे.
(१प०) आनंद
स्वानुभूतिनो आनंद ए ज जगतमां सर्वोत्कृष्ट उपादेय छे. अत्यंत मधुर जे
चैतन्य– रसनो स्वाद, ए स्वाद जेवो आनंद जगतना कोई पदार्थमां नथी. आवो
आनंद बतावीने संतो कहे छे के आजे ज तमे आनो अनुभव करो, आवा आनंदने
हमणां ज अनुभवो.
(१प१) शूरवीरो मोक्षने साधे छे.
हे जीव! शूरवीर थईने स्वभावनुं वेदन कर.....ने परभावने भगाड. जेम सिंह
त्राड पाडे त्यां जंगलना पशुडां भागे तेम चैतन्यसिंह निजस्वरूपने संभाळतो स्ववीर्यथी
जाग्यो त्यां परभावो भागे छे. स्वभावना स्वादमां परभावोनो अभाव छे. जे परभावमां
अटकीने स्वभावने भूल्यो ते शूरवीर नथी; जेणे परभावने दूर करीने स्वभावमां प्रवेश
कर्यो ते शूरवीर छे. आवा शूरवीरो ज बंधनने तोडीने मोक्षने साधे छे.
(१प२) आरामनुं धाम
आनंदथी भरेलो आत्मा, ए ज धर्मीनुं क्रीडावन छे, चैतन्यबाग खील्यो तेमां
धर्मी– जीव केलि करे छे.; शाश्वत जेनो प्रताप छे एवो