Atmadharma magazine - Ank 263
(Year 22 - Vir Nirvana Samvat 2491, A.D. 1965)
(Devanagari transliteration).

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: ४० : आत्मधर्म : भादरवो :
आराधनानी भावना
धन्य छे ते सन्तोने...के जेमनुं जीवन रत्नत्रयनी आराधनामां सदा तत्पर छे. एवा
संतोने नमस्कार करीने उत्तमक्षमादि दशधर्मोनी आराधनानी भावना भावीए छीए–
(१) निंदा, उपसर्ग वगेरे क्रोधना बाह्यप्रसंगो उपस्थित थवा छतां,
आत्मस्वरूपनी द्रढ भावनाना बळे क्रोधनी उत्पत्ति थवा न दउं ने वीतरागी
क्षमाभाववडे रत्नत्रयनी आराधनामां निश्चल रहुं.–ए रीते उत्तम क्षमाधर्मने आराधुं.
(२) भेदज्ञानवडे जगतथी भिन्न आत्मतत्त्वने जाणीने तेनी आराधनामां तत्पर
रहुं ने देहादि परनो गर्व थवा न दउं. पंचपरमेष्ठी पासे मारी अत्यंत दीनता जाणीने निर्मान
रहुं ने धर्मात्मा–गुणीजनो प्रत्ये परम विनयथी वर्तुं.–ए रीते उत्तम मार्दवधर्मने आराधुं.
(३) निर्दोष स्वरूपनी भावनामां वर्ततो थको, अत्यंत सरळपणे निजदोषोनुं
अवलोकन करुं ने संतगुरुना शरणमां तेने छेदवानो उद्यम करुं.–ए रीते उत्तम
आर्जवधर्मने आराधुं.
(४) भेदज्ञानवडे जगतने अने देहने भिन्न जाणीने सर्वत्र निर्लोभ बनुं,
शुद्धस्वरूपनी आराधना वडे पवित्र परिणाम प्रगट करीने, उत्तम शौचधर्मनी आराधना करुं.
(प) तत्त्वथी विरुद्ध एवा असत्यने छोडीने, सम्यग्ज्ञान वडे सत्य
वस्तुस्वभावनी आराधना करुं, अने वाणीथी पण सम्यग्ज्ञानना हेतुभूत एवा
वीतरागी सत्यनुं ज प्रतिपादन करुं.–ए रीते उत्तम सत्यधर्मने आराधुं.
(६) निजस्वरूपमां उपयोगने एवो लीन करुं के गमे तेवा प्रसंगे पण संयमथी न
डगे, ने विषय–कषायरूप असंयमप्रवृत्ति न थाय. आवा उत्तम संयमधर्मनी आराधना करुं.
(७) बाहुबलि मुनिराज, पांडव मुनिराज वगेरेनी जेम चैतन्यध्याननुं प्रतपन
करीने उत्तम तपधर्मने आराधुं; उपसर्गोमां पण डगुं नहि.
(८) भेदज्ञानना बळे, सर्वत्र ममत्वना त्यागवडे चैतन्यमां लीन थाउं;
मुनिवरोने भक्तिथी दान दउं, साधर्मीओने आदरपूर्वक शास्त्रदानादि दउं,–ए रीते उत्तम
त्यागधर्मने आराधुं.
(९) मारा शुद्ध आत्मा सिवाय अन्य किंचित मात्र पण मारुं नथी–एवी
अकिंचनभावनामां परिणमीने उत्तम आकिंचन्यधर्मने आराधुं.
(१०) ब्रह्मस्वरूप मारो आत्मा तेमां लीन थईने, अने जगतना समस्त
विषयोथी उदासीन थईने, भगवान महावीर, शेठ सुदर्शन वगेरे महापुरुषोनी जेम
उत्तम ब्रह्मचर्यधर्मनी आराधना करुं.
आ रीते रत्नत्रयसंयुक्त एवा आ उत्तम दशधर्मोनी परिपूर्ण उपासनामां
आत्माने जोडवो अने एना आराधक सन्तो प्रत्ये परम विनय–बहुमानथी वर्तवुं, ए
ज साची ‘पर्युषणा’ छे. हे जीव! तुं सर्व उद्यमथी तारा आत्माने आवी आराधनामां
जोड–ने संसारथी मुख मोड.