पाप–पुण्य सब नाशके, ज्ञानभानपरकाश.
(२) विनय महा धारे जो पाणी, शिववनिताकी सखी वखाणी.
(३) शील सदा द्रिढ जो नर पाले. सौ औरनकी आपद टालें;
(४) ज्ञानाभ्यास करे मनमांही, ताके मोह महातम नांही.
(प) जो सवेग भाव विस्तारे, स्वर्ग मुक्तिपद आप नीहारे;
(६) दान देय मन हरख विशेषे, ईह भव जश परभव सुख देखे.
(७) जो तप तपे खपे अभिलाषा, चूरे कमरशिखर गुरु भाषा;
(८) साधुसमाधि सदा मन लावे, तिहुं जग भोग भोगी शिव जावे.
(९) निशदिन वैयावृत्य करैया, सो निश्चै भवनीर तिरैया;
(१०) जो अरहंतभक्ति मन आने, सो जन विषयकषाय न जाने
(११) जो आचारजभक्ति करे है, सो निर्मल आचार धरे है;
(१२) बहुश्रुतवन्तभक्ति जो करे, सो नर संपूरन श्रुत धरे.
(१३) प्रवचनभक्ति करे जो ज्ञाता, लहे ज्ञान परमानन्द दाता;
(१४) षट आवश्यक काल जो साधे, सो ही रत्नत्रय आराधे.
(१प) धर्मप्रभाव करे जो ज्ञानी, तिन शिवमारग रीति पिछानी;
(१६) वत्सल अंग सदा जो ध्यावे, सो तीर्थंकर पदवी पावे.