Atmadharma magazine - Ank 272
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २४९२ आत्मधर्म : १प :
वाजिंत्रनाद; क्यांय वधाई ने कयांक दीपमाळा.....भक्तोनां टोळेटोळां मंगल वधाई
लेवा स्वाध्यायमंदिर तरफ उमटया. मंगलप्रभातमां गुरुदेवे जिनमंदिरमां आवी
सीमंधरनाथ प्रभुना दर्शन कर्या, अर्घ चडावी पूजन कर्युं. ने आशीर्वाद लीधा.....पछी
मंगलमार्गमां आम्रफळथी झुमती ७७ सुसज्जित कमानो वच्चे थईने हजारो भक्तोना
जयजयनादपूर्वक मंगलमंडपमां पधार्या. अष्टप्रातिहार्य तथा अष्टमंगल संबंधी ७७
वस्तुओवडे रचायेल मंगलमंडप अनेरो शोभतो हतो; ए मंडप वच्चे गुरुदेव बिराजता
हता; धर्मचक्र फरी रह्युं हतुं; ७७ दीपकोनी माळा झगझगती हती; ७७ स्वस्तिक ने ७७
कळश शोभता हता. मंडपनी शोभा अनेरी हती,–भामंडळ ने सिंहासन, छत्र ने चामर,
दर्पण ने कळश, धजा ने दुदुंभी, स्वस्तिक ने “कार वगेरेथी मंडप घणो शोभतो हतो ने
तेनाथीय वधु मंडप वच्चे गुरुदेव शोभता हता. चारेकोर भक्तोनी भीड जयजयकारथी
सुवर्णधामने गजावी रही हती. आवा उमंगभर्या वातावरणमां जन्मवधाई शरू थई;
हजारो भक्तोए श्रीफळ वगेरे भेट धरीने वधाई लीधी...
त्यारपछी जिनमंदिरमां महापूजन थयुं. पूजन पछी जिनवाणीमातानी भव्य
रथयात्रा नीकळी हती. रजतना रथनी बधी पीठिकाओमां जिनवाणीने बिराजमान कर्या
हता. रथयात्रानी आ एक नवीनता हती. जिनवाणीनो रथ घणो शोभतो हतो. अने
रथयात्रामां वच्चे जिनवाणीरथना सारथि तरीके गुरुदेव रथमां बेठा हता. सेंकडो भक्तो
होंशथी रथने दोरता हता, ने महा आनंदथी रथयात्रा नीकळी हती. रथयात्रा पछी
प्रवचनमां गुरुदेवे कह्युं–आ भगवान आत्मा सम्यक्स्वभावी सूर्य छे, तेने देह नथी,
तेने जन्म–मरण नथी, तो ज्ञानीने मरणनो भय केवो? जन्म के मरण मारां नथी, हुं
तो अविनाशी ज्ञानसूर्य छुं. भाव मारा स्वरूपमां नथी; भव अने भवनो भाव मारा
चैतन्यस्वरूपमां नथी. जेम सूर्यने मरण नथी तेम चैतन्यसूर्यने मरण नथी. ए तो
सहज स्वयंसिद्ध शाश्वत वस्तु छे. आवा जन्म–मरणरहित ज्ञानस्वरूपनी आराधना
करवा माटे आ अवतार छे; भवना अभाव माटे आ भव छे. भवनुं कारण भ्रांति, ते
ज्यां छूटी गई त्यां हवे भव केवा?
अब हम अमर भये न मरेंगे.
या कारन मिथ्यात्व दीयो तज,
फिर कयों देह धरेंगे?
......अब
आम सभाने भवना अभावनी भावनामां झुलावतां झुलावतां गुरुदेवे कह्युं के–
स्वभावनो संग करवाथी निराकूळ आनंद मळे छे, जेटलुं परसंगनुं लक्ष थाय तेटली
आकुळता छे. आत्मा ज आनंदनुं धाम छे; तेना वेदनमां कोई पीडा नथी, जन्म–मरण
नथी, रोग नथी. देहने हुं धारण धरतो नथी ने मरण पण मारूं नथी; देहथी पार–
जन्ममरणथी पार हुं तो स्वसंवेदनमां आवतो अमूर्त–अविनाशी–चिदानंद स्वरूप
आत्मा छुं.–